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Topic: SMALL STORIES (Read 187313 times)
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ShAivI
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बाबा मुझे अपने ह्र्दय से लगा लो, अपने पास बुला लो।
एक सूफी कहानी
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Reply #405 on:
August 02, 2017, 04:23:52 AM »
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ॐ साईं राम !!!
एक सूफी कहानी
एक फकीर जो एक वृक्ष के नीचे ध्यान कर रहा था,
रोज एक लकड़हारे को लकड़ी काटते ले जाते देखता था।
एक दिन उससे कहा कि सुन भाई, दिन— भर लकड़ी काटता है,
दो जून रोटी भी नहीं जुट पाती।
तू जरा आगे क्यों नहीं जाता। वहां आगे चंदन का जंगल है। एक दिन काट लेगा,
सात दिन के खाने के लिए काफी हो जाएगा।
गरीब लकड़हारे को भरोसा तो नहीं आया, क्योंकि वह तो सोचता था कि
जंगल को जितना वह जानता है और कौन जानता है! जंगल में ही तो जिंदगी बीती।
लकड़ियां काटते ही तो जिंदगी बीती।
यह फकीर यहां बैठा रहता है वृक्ष के नीचे, इसको क्या खाक पता होगा?
मानने का मन तो न हुआ, लेकिन फिर सोचा कि हर्ज क्या है,
कौन जाने ठीक ही कहता हो! फिर झूठ कहेगा भी क्यों?
शांत आदमी मालूम पड़ता है, मस्त आदमी मालूम पड़ता है।
कभी बोला भी नहीं इसके पहले।
एक बार प्रयोग करके देख लेना जरूरी है।
तो गया। लौटा फकीर के चरणों में सिर रखा और कहा कि मुझे क्षमा करना,
मेरे मन में बड़ा संदेह आया था, क्योंकि मैं तो सोचता था कि मुझसे ज्यादा लकड़ियां
कौन जानता है। मगर मुझे चंदन की पहचान ही न थी। मेरा बाप भी लकड़हारा था,
उसका बाप भी लकड़हारा था। हम यही काटने की, जलाऊ—लकड़ियां काटते—काटते जिंदगी
बिताते रहे, हमें चंदन का पता भी क्या, चंदन की पहचान क्या! हमें तो चंदन मिल भी जाता
तो भी हम काटकर बेच आते उसे बाजार में ऐसे ही। तुमने पहचान बताई, तुमने गंध जतलाई,
तुमने परख दी। जरूर जंगल है। मैं भी कैसा अभागा! काश, पहले पता चल जाता! फकीर ने कहा
कोई फिक्र न करो, जब पता चला तभी जल्दी है। जब घर आ गए तभी सबेरा है। दिन बड़े
मजे में कटने लगे। एक दिन काट लेता, सात— आठ दिन, दस दिन जंगल आने की जरूरत ही न रहती।
एक दिन फकीर ने कहा; मेरे भाई, मैं सोचता था कि तुम्हें कुछ अक्ल आएगी।
जिंदगी— भर तुम लकड़ियां काटते रहे, आगे न गए; तुम्हें कभी यह सवाल नहीं उठा कि
इस चंदन के आगे भी कुछ हो सकता है? उसने कहा; यह तो मुझे सवाल ही न आया।
क्या चंदन के आगे भी कुछ है? उस फकीर ने कहा : चंदन के जरा आगे जाओ तो
वहां चांदी की खदान है। लकडिया—वकडिया काटना छोड़ो। एक दिन ले आओगे,
दो—चार छ: महीने के लिए हो गया।
अब तो भरोसा आया था। भागा। संदेह भी न उठाया। चांदी पर हाथ लग गए,
तो कहना ही क्या! चांदी ही चांदी थी! चार—छ: महीने नदारद हो जाता। एक दिन आ जाता,
फिर नदारद हो जाता। लेकिन आदमी का मन ऐसा मूढ़ है कि फिर भी उसे खयाल न आया कि
और आगे कुछ हो सकता है। फकीर ने एक दिन कहा कि तुम कभी जागोगे कि नहीं,
कि मुझी को तुम्हें जगाना पड़ेगा। आगे सोने की खदान है मूर्ख! तुझे खुद अपनी तरफ से
सवाल, जिज्ञासा, मुमुक्षा कुछ नहीं उठती कि जरा और आगे देख लूं? अब छह महीने मस्त
पड़ा रहता है, घर में कुछ काम भी नहीं है, फुरसत है। जरा जंगल में आगे देखकर देखूं
यह खयाल में नहीं आता?
उसने कहा कि मैं भी मंदभागी, मुझे यह खयाल ही न आया, मैं तो समझा चांदी,
बस आखिरी बात हो गई, अब और क्या होगा? गरीब ने सोना तो कभी देखा न था, सुना था।
फकीर ने कहा : थोड़ा और आगे सोने की खदान है। और ऐसे कहानी चलती है।
फिर और आगे हीरों की खदान है। और ऐसे कहानी चलती है। और एक दिन फकीर ने
कहा कि नासमझ, अब तू हीरों पर ही रुक गया? अब तो उस लकड़हारे को भी बडी अकड़
आ गई, बड़ा धनी भी हो गया था, महल खड़े कर लिए थे।
उसने कहा अब छोड़ो, अब तुम मुझे परेशांन न करो। अब हीरों के आगे क्या हो सकता है?
उस फकीर ने कहा. हीरों के आगे मैं हूं। तुझे यह कभी खयाल नहीं आया कि यह आदमी
मस्त यहां बैठा है, जिसे पता है हीरों की खदान का, वह हीरे नहीं भर रहा है,
इसको जरूर कुछ और आगे मिल गया होगा! हीरों से भी आगे इसके पास कुछ होगा,
तुझे कभी यह सवाल नहीं उठा?
रोने लगा वह आदमी। सिर पटक दिया चरणों पर। कहा कि मैं कैसा मूढ़ हूं मुझे यह सवाल ही
नहीं आता। तुम जब बताते हो, तब मुझे याद आता है। यह तो मेरे जन्मों—जन्मों में नहीं
आ सकता था खयाल कि तुम्हारे पास हीरों से भी बड़ा कोई धन है।
फकीर ने कहा : उसी धन का नाम ध्यान है।
अब खूब तेरे पास धन है, अब धन की कोई जरूरत नहीं।
अब जरा अपने भीतर की खदान खोद, जो सबसे कीमती है।
कहती हैं मुझे ज़िन्दगी
कि मैं आदतें बदल लूँ,
बहुत चला मैं लोगों के पीछे,
अब थोड़ा खुद के साथ चल लूँ
l
ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!
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JAI SAI RAM !!!
ShAivI
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बाबा मुझे अपने ह्र्दय से लगा लो, अपने पास बुला लो।
मरने से डरना क्या?
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Reply #406 on:
December 28, 2017, 04:35:18 AM »
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ॐ साईं राम !!!
मरने से डरना क्या?
राजा परीक्षित को भागवत सुनाते हुए जब शुकदेव जी को छै दिन बीत गये और
सर्प के काटने से मृत्यु होने का एक दिन रह गया
तब भी राजा का शोक और मृत्यु भय दूर न हुआ।
कातर भाव से अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर वह क्षुब्ध हो रहा था।
शुकदेव जी ने परीक्षित को एक कथा सुनाई-
राजन् बहुत समय पहले की बात है एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया।
संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा निकला, रात्रि हो गई।
वर्षा पड़ने लगी।
सिंह व्याघ्र बोलने लगे।
राजा बहुत डरा और किसी प्रकार रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूँढ़ने लगा।
कुछ दूर पर उसे दीपक दिखाई दिया।
वहाँ पहुँचकर उसने एक गंदे बीमार बहेलिये की झोपड़ी देखी।
वह चल फिर नहीं जा सकता था इसलिए झोपड़ी में ही एक ओर उसने मल मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था।
अपने खाने के लिए जानवरों का माँस उसने झोपड़ी की छत पर लटका रखा था।
बड़ी गंदी, छोटी, अँधेरी और दुर्गन्ध युक्त वह कोठरी थी। उसे देखकर राजा पहले तो ठिठका,
पर पीछे उसने और कोई आश्रय न देखकर उस बहेलिये से
अपनी कोठरी में रात भर ठहर जाने देने के लिए प्रार्थना की।
बहेलिये ने कहा- आश्रय के लोभी राहगीर कभी-कभी यहाँ आ भटकते है
और मैं उन्हें ठहरा लेता हूँ तो दूसरे दिन जाते समय बहुत झंझट करते है।
इस झोपड़ी की गन्ध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर उसे छोड़ना ही नहीं चाहते,
इसी में रहने की कोशिश करते है और अपना कब्जा जमाते है।
ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ।
अब किसी को नहीं ठहरने देता।
आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूँगा।
राजा ने प्रतिज्ञा की-कसम खाई कि वह दूसरे दिन इस झोपड़ी को अवश्य खाली कर देगा।
उसका काम तो बहुत बड़ा है, यहाँ तो वह संयोगवश ही आया है।
सिर्फ एक रात ही काटनी है।
बहेलिये ने अन्यमनस्क होकर राजा को झोपड़ी के कोने में ठहर जाने दिया,
पर दूसरे दिन प्रातःकाल ही बिना झंझट किये झोपड़ी खाली कर देने की शर्त को फिर दुहरा दिया।
रजा एक कोने में पड़ा रहा।
रात भर सोया।
सोने में झोपड़ी की दुर्गन्ध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सबेरे उठा तो उसे वही सब परमप्रिय लगने लगा।
राज काज की बात भूल गया और वही निवास करने की बात सोचने लगा।
प्रातःकाल जब राजा और ठहरने के लिए आग्रह करने लगा तो
बहेलिए ने लाल पीली आँखें निकाली और झंझट शुरू हो गया।
झंझट बढ़ा उपद्रव और कलह कर रूप धारण कर लिया।
राजा मरने मारने पर उतारू हो गया।
उसे छोड़ने में भारी कष्ट और शोक अनुभव करने लगा।
शुकदेव जी ने पूछा- परीक्षित बताओ, उस राजा के लिए क्या यह झंझट उचित था?
परीक्षित ने कहा- भगवान वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइए।
वह तो बड़ा मूर्ख मालूम पड़ता है कि ऐसी गन्दी कोठरी में,
अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर राजकाज छोड़कर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता था।
उसकी मूर्खता पर तो मुझे भी क्रोध आता है।
शुकदेव जी ने कहा- परीक्षित! वह मूर्ख तू ही है।
इस मल मूत्र की गठरी देह में जितने समय तेरी आत्मा को रहना आवश्यक था वह अवधि पूरी हो गई।
अब उस लोक को जाना है जहाँ से आया था। इस पर भी तू झंझट फैला रहा है।
मरना नहीं चाहता, मरने का शोक कर रहा है।
क्या यह तेरी मूर्खता नहीं है?
ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!
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