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Author Topic: SMALL STORIES  (Read 179131 times)

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Offline Ramesh Ramnani

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Re: SMALL STORIES
« Reply #60 on: May 15, 2007, 09:05:52 PM »
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  • जय सांई राम

    परमात्मा का भरोसा  

    रामलाल एक मंदिर के पुजारी थे। उनको परमात्मा पर पूरा भरोसा था। हर रोज मंदिर में दिन भर जो भी चढ़ावा आता, उसमें से अपनी जरूरत लायक सामग्री निकाल कर बाकी सब वह बांट देते थे। रात पूरा परिवार संग्रह मुक्त बन कर सोता था। दूसरे दिन फिर नए सिरे से दान-दक्षिणा प्राप्त हो जाती थी। सालों साल ऐसे ही चलता रहा। रामलाल को कभी किसी चीज की कमी नहीं हुई। ईश्वर पर उन्हें पूरा भरोसा था। लेकिन सब दिन एक से नहीं होते। एक दिन रामलाल बीमार हो गए। उस दिन भी जो कुछ प्राप्ति हुई उसे उनकी पत्नी ने नियमानुसार बांट दिया। लेकिन पति की चिंता थी। सोचा रात-बिरात अगर रामलाल को दवा की जरूरत पड़ी तो किसके पास मांगने जाएंगे। सो पांच रुपये बचा कर रख लिए।

    रात गहराने के साथ-साथ रामलाल की बेचैनी भी बढ़ने लगी। आखिर उन्होंने अपनी पत्नी को बुला कर पूछ ही लिया। कहीं तुमने कुछ बचाकर रख तो नहीं लिया है? मेरी सांस अटक रही है। मेरे और परमात्मा के बीच कुछ बाधा मालूम पड़ रही है। पत्नी पहले से ही बहुत घबराई हुई थी, उसने तुरंत बता दिया। कहा, मुझे क्षमा करना, मैंने पाँच रुपये बचा लिए हैं। रामलाल ने कहा, जीवन भर मेरे साथ रहकर भी यह नहीं समझ पाई कि जो भरी दोपहरी में देता है, वह आधी रात में क्यों नहीं दे सकता? उसके लिए क्या कठिनाई है? बाहर जाकर देखो, एक भिखारी द्वार पर खड़ा है। रामलाल की पत्नी ने देखा, सचमुच आधी रात के समय द्वार पर एक भिखारी खड़ा था। उसने कहा, मैं रास्ता भटक गया हूँ। रास्ते में डाकुओं ने मेरा सामान भी छीन लिया। अगर मुझे पाँच रुपये मिल जाएँ तो मैं अपने गाँव तक पहुँच जाऊं। रामलाल की पत्नी ने बचा कर रखे हुए पांच रुपये उसे दे दिए। रामलाल ने चादर ओढ़ी और सांस छोड़ दी, मानो परमात्मा और उनके बीच अब कोई बाधा न रही हो।
                         
    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: SMALL STORIES
    « Reply #61 on: May 17, 2007, 05:00:21 AM »
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  • जय सांई राम

    अपनी-अपनी सोच
     
    एक आश्रम में दो भाई विद्या प्राप्त करने के लिए रहते थे। उनमें से छोटा भाई औसत से कम बुद्धि वाला था। उसकी एक आंख नहीं थी। उसका स्वभाव भी गुस्सैल था। खासकर जब कोई उसकी आंख के बारे में उसे ताना देता या मजाक उड़ाता तो वह तैश खाकर उसे मारने दौड़ता। एक बार गुरु की अनुपस्थिति में बाहर से कोई दूसरा जेन भिक्षु आया और उन्हें वाद-विवाद के लिए ललकारा। दोनों भाई तभी आश्रम में लौटे थे। बड़ा भाई थका था। वह वाद-विवाद के लिए तैयार नहीं था। उसने छोटे भाई को भिक्षु से मिलने भेज दिया। कुछ समय बाद वह भिक्षु हांफता हुआ बड़े भाई के पास आया। उसने कहा, तुम्हारा भाई तो बड़ा विद्वान है। बुद्ध एक है, इसका संकेत देने के लिए जब मैंने एक उंगली दिखाई तो उसने मुझे दो उंगलियां दिखा कर याद दिलाया कि बुद्ध तो एक है, लेकिन उनके बताए तत्व भी तो हैं। मैं मान गया। फिर जब मैंने तीन उंगलियां दिखाकर उससे कहा कि इस तरह तो बुद्ध, उनकी दी हुई सीख और संघ तीनों को गिनना पड़ेगा, जानते हैं तब उसने क्या कहा? उसने बड़े आवेश के साथ मुट्ठी भींचकर दिखाई, जिसका मतलब था तीनों एक में ही समाहित हैं, जिसे आत्मबोध कहते हैं। आपका भाई बड़ा विद्वान है, मैं अपनी हार मानता हूं।

    भिक्षु के जाने के थोड़ी ही देर बाद छोटा भाई वहाँ पहुँचा। उसने बड़े भाई से उसकी शिकायत करते हुए कहा, भिक्षु ने मेरा अपमान किया है। छोडूंगा नहीं मैं उसे। बड़े भाई के पूछने पर उसने बताया कि पहले तो उसने मेरी एक आंख का मजाक उड़ाने के लिए एक उंगली दिखाई। फिर जब मैंने मजाक को नजरअंदाज करते हुए- दो उंगलियाँ दिखाकर उसे यह संकेत दिया कि दो आंखें पा कर वह कितना भाग्यशाली है, तो वह तीन उंगलियाँ दिखाकर इशारे से यह बताने लगा कि हम दोनों की मिलाकर कुल तीन आंखें होती हैं। छोड़ूंगा नहीं मैं उसे। 

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: SMALL STORIES
    « Reply #62 on: May 18, 2007, 04:21:48 AM »
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    महर्षि का त्याग  

    वृत्रासुर के अत्याचारों से तीनों लोक कांपने लगे थे। चारों तरफ त्राहि-त्राहि मच गई। उसने देवताओं की हत्या कर असुरों का राज्य स्थापित करने की योजना बनाई। उसके अत्याचारों से घबरा कर ऋषि-मुनि और साधु-संत जंगलों-पहाड़ों में जाकर छुपने लगे। उसके अत्याचारों से भयभीत होकर देवराज इन्द्र अपने गणों को लेकर भगवान शिव के पास गए और कहा, हे तीनों लोकों के स्वामी! आपकी शक्ति पाकर वृत्रासुर का अत्याचार बढ़ता जा रहा है। वह ऋषियों-मुनियों की हत्या कर रहा है। उसे रोकिए, नहीं तो पूरी धरती ज्ञानियों-ध्यानियों और संतों से खाली हो जाएगी। भगवान शिव ने कहा, देवराज इन्द्र, मैं अपने हर भक्त को कष्ट में अथवा संकट में देख कर अपने हृदय में कष्ट महसूस करता हूं। लेकिन वृत्रासुर के अत्याचारों को मैं भी नहीं रोक सकता। उसकी मृत्यु किसी ऐसे ऋषि की हड्डियों से बने धनुष से ही हो सकती है, जो ब्रह्मशास्त्र का ज्ञाता हो। यह शस्त्र महामुनि दधीचि की हड्डियों से बन सकता है। इसलिए आप लोग दधीचि के पास ही जाकर उनसे प्रार्थना करें कि वह अपना शरीर दान कर दें। लेकिन प्रभु, कोई अपना शरीर कैसे त्याग सकता है? यह तो बहुत कठिन काम है, देवराज इन्द्र ने कहा। भगवान शिव बोले, और कोई उपाय नहीं है देवराज!

    देवराज अपने गणों को लेकर दधीचि के पास गए और कहा, मुनिवर! हमारी रक्षा कीजिए। महर्षि बोले, नि:संकोच कहें देवराज! मेरे लिए क्या आदेश है? देवराज इन्द्र ने बताया, हे मुनिवर! वृत्रासुर के अत्याचारों से तीनों लोकों में त्राहि-त्राहि मची हुई है। भगवान शिव ने बताया कि उसकी मौत आपकी हड्डियों से बने शस्त्र से ही हो सकती है। यदि आप अपने प्राण त्याग कर अपना शरीर हमें दे दें, तो उन हड्डियों से विश्वकर्मा से वज्र तैयार करवा कर उस पापी असुर का संहार किया जा सकता है।

    इस पर महर्षि दधीचि ने कहा, हे देवराज! यदि मेरे शरीर से आप सबों की रक्षा और किसी राक्षस का अंत हो सकता है, तो मैं अपना शरीर सहर्ष त्यागने को तैयार हूं। और जन कल्याण के लिए उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। 

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

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    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

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    « Reply #63 on: May 19, 2007, 02:57:22 AM »
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    भाग्य का फैसला  

    युद्ध के दौरान एक जनरल को दुश्मनों की एक ऐसी टुकड़ी पर हमला करने का निर्णय लेना पड़ा, जिसमें उसकी टुकड़ी से कहीं ज्यादा जवान थे। कुछ रणनीतिक कारणों से जनरल को पूरा यकीन था कि जीत आखिर उसी की फौज की होनी है, लेकिन उसकी टुकड़ी के जवानों को यह उसका कोरा आशावाद लग रहा था। जनरल हर किसी को समझा तो नहीं सकता था सो उसने आगे बढ़ने का हुक्म भर दिया। आगे बढ़ने वाली सेना में उत्साह बिल्कुल नहीं था। हर जवान मानो सूली पर लटकने के लिए आगे बढ़ रहा था। जनरल ने महसूस किया कि जवानों की इस मानसिकता के साथ जीत को खींच कर अपने पाले में ले आना मुश्किल था। क्या करें, इसी सोच में जनरल पड़ा था कि रास्ते में एक मंदिर दिखा।

    जनरल ने सैनिकों को कुछ समय के लिए विश्राम करने का आदेश दिया। इस दौरान जवानों ने भगवान के आगे मत्था टेका। जब वे आगे बढ़ने के लिए तैयार हुए तब जनरल ने सब सैनिकों को सम्बोधित करते हुए कहा, हमारी जीत पक्की है इसका मुझे पूरा विश्वास हो गया है, क्योंकि अब हमें भगवान का भी आशीर्वाद प्राप्त है। यदि उसकी इच्छा नहीं होती तो रास्ते में अचानक यह मंदिर नहीं मिलता। फिर भी भविष्य में क्या लिखा है, यह जानने का मेरे पास एक उपाय है। हम भगवान का नाम लेकर यह सिक्का उछालेंगे। अगर चित आया तो जीत हमारी होगी और अगर पट आया तो शायद वह हमारी हार का संकेत हो। जनरल ने सिक्का हवा में उछाला, वह आकर चित गिरा। सैनिकों को अब अपनी जीत का यकीन सा होने लगा और वे अदम्य उत्साह के साथ आगे बढ़े। बड़ी दिलेरी से हर जवान लड़ा और आखिर उन्हीं की जीत हुई। जीत का जश्न मनाते हुए सैनिकों में से एक लेफ्टिनेंट ने आकर जनरल से कहा, आखिर भाग्य को कोई नहीं बदल सकता। जनरल हंसा और उसने जेब से वही सिक्का निकालकर दिखाया जो उसने हार-जीत पक्की करने के लिए उछाला था। सिक्के के दोनों तरफ चित का ही चिन्ह था। 

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

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    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

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    « Reply #64 on: May 20, 2007, 07:40:18 AM »
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    आलस बुरी बला!  

    पुराने समय में चंपापुरी नाम का एक बहुत बड़ा राज्य था। वहां के राजा का नाम लक्ष्मण सिंह था। राजा रोज सुबह राजभवन में सभा बुलाकर अनेक लोगों की समस्याएं सुनकर उनका निदान किया करते थे। एक दिन सभा में एक ऐसा व्यक्ति आया, जिसने बहुत पुराने व फटे हुए वस्त्र पहने हुए थे। उसकी हालत देखते ही राज भवन में बैठे सभी लोगों को दया आ गई। राजा ने उससे पूछा कि तुम्हें क्या परेशानी है! उस व्यक्ति ने राजा से हाथ जोड़कर बोला कि मैं बहुत गरीब हूं। मुझे सोने के कुछ सिक्के चाहिए और केवल आप ही मेरी मदद कर सकते हैं।

    राजा ने सारी बात सुनने के बाद उससे पूछा कि तुम कुछ काम क्यों नहीं करते! उस व्यक्ति ने उत्तर में कहा कि मैं कुछ भी काम करने में असमर्थ हूं, क्योंकि सब कहते हैं कि मैं बहुत आलसी हूं और यह कहकर वह चुप हो गया। यह सुनकर राजा ने उससे कहा कि लेकिन सब तुम्हें आलसी क्यों कहते हैं! व्यक्ति बोला कि मैं नहीं जानता कि लोग ऐसा क्यों कहते हैं, लेकिन मुझसे कोई काम नहीं किया जाता, इसीलिए कृपया आप मुझे कुछ सोने के सिक्के दे दें। सारी बात सुनकर राजा समझ गया कि यह एक आलसी व्यक्ति है। राजा ने उससे कहा कि ठीक है, तुम मेरे मंत्री से थोड़े सोने के सिक्के ले सकते हो, लेकिन यह ध्यान रहे कि तुम्हें सिक्के केवल शाम तक ही मिलेंगे, यदि तुम्हें मंत्री के पास पहुंचने में रात हो गई, तो वह तुम्हें सिक्के नहीं देगा। ऐसा सुनकर वह व्यक्ति बहुत खुश हुआ और यह खुशखबरी अपनी पत्नी को बताने के लिए अपने गांव की ओर चल दिया। सिक्के मिलने की बात सुनकर पत्नी बहुत खुश हुई।

    अगले दिन सुबह नाश्ता करते ही वह मंत्री के घर की तरफ चल दिया। थोड़ी दूर चलने के बाद उसे आम का एक घना पेड़ दिखाई दिया। कुछ समय आराम करने के लिए वह पेड़ के नीचे बैठ गया, लेकिन बैठते ही उसे नींद आ गई और वह सो गया। नींद के बाद जब वह उठा, तब दोपहर हो चुकी थी। वह सोचने लगा कि नींद में मैंने बहुत समय नष्ट कर दिया, लेकिन अब भी मैं समय पर मंत्री के घर पहुंच सकता हूं और उसने दोबारा यात्रा प्रारम्भ कर दी। रास्ते में कुछ आगे चलकर उसे मेला दिखाई दिया। उसने सोचा कि अभी तो समय बाकी है, मैं कुछ समय मेला देखकर मंत्री के घर पहुंच जाऊंगा। वह मेले में बहुत देर तक आनंद लेता रहा। मेले के दौरान वह भूल गया कि उसे सिक्के लेने मंत्री के पास भी जाना है। शाम के समय जब सूरज अस्त होने लगा, तब उसे मंत्री के पास जाने की बात याद आई। वह तुरंत मंत्री के घर की तरफ दौड़ा, लेकिन जब तक वह मंत्री के घर पहुंचा, तब तक सूरज छिप चुका था और वह राजा द्वारा बताए समय से बहुत लेट था। जैसे ही वह मंत्री के घर पहुंचा, तो उसे सिपाहियों ने रोक लिया। उन्होंने कहा कि तुमने समय पर न आकर सोने के सिक्के पाने का अवसर खो दिया है। अब, तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा।

    गरीब व्यक्ति यह सुनकर बहुत दुखी हुआ। वह दुखी मन से अपने घर लौट गया। उसने सारी घटना अपनी पत्नी को बताई, सब कुछ सुनने के बाद पत्नी ने भी उसे बहुत भला-बुरा कहा। उस दिन उसने कसम खाई कि आगे से वह कभी भी आलस नहीं करेगा और समय की कीमत को समझेगा। ऐसा निर्णय करने के बाद कुछ ही समय में परेशानियां उससे दूर हो गई और वह खुशी-खुशी रहने लगा। इस घटना से वह समझ गया था कि आलस के कारण ही उसके जीवन में कष्ट थे और आलस से ही उसका जीवन निरर्थक-सा हो गया था।               
           
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    « Reply #65 on: May 21, 2007, 03:56:32 AM »
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    वफादारी का फल  
     
    एक अरसा पहले की बात है। ऊंची पहाड़ी पर एक छोटा-सा गांव बसा हुआ था। एक दिन उस गांव के लोगों ने सोचा कि क्यों न हम सब मिलकर अपने राजा को उपहार में कुछ दें, जिससे राजा हमारे गांव के लोगों से खुश हो जाएं। गांव के चार होशियार लोग राजा के लिए गिफ्ट लेकर महल की तरफ चल दिए। उन्होंने गिफ्ट रखने के लिए एक पालकी का भी चुनाव किया। पालकी बहुत ही सुंदर व आकर्षक थी। वे चारों पालकी लेकर राजा के महल की ओर चल दिए।

    राजा के लिए उपहार व पालकी ले जाने के कारण वे चारों बहुत खुश थे और यही वजह थी कि वे सफर के दौरान गिफ्ट के बारे में ही बात कर रहे थे। कुछ दिन लगातार चलने के बाद वे चारों राजा के महल पहुंच गए, लेकिन महल के गेट पर खड़े गार्ड ने उन चारों को रोक लिया। गार्ड ने चारों से पूछा, 'तुम लोग अंदर क्यों जा रहे हो'! उन चारों ने गार्ड को बताया कि हम लोग बहुत दूर गांव से आए हैं और यह पालकी राजा को उपहार में देना चाहते हैं। सारी बातें सुनकर गार्ड ने उन्हें अंदर जाने की अनुमति दे दी। राजा ने चारों से महल में आने का कारण पूछा। उनमें से एक ने राजा को बताया कि हम लोग आपको 'गिफ्ट' देना चाहते हैं। यह कहने के बाद गांव वालों ने पालकी से पर्दा हटाया, लेकिन उसमें कुछ भी नहीं था। राजा यह देखकर बहुत गुस्से में आ गए और कहा कि तुमने मेरे साथ मजाक किया है, इसलिए तुम्हें इसकी सजा मिलेगी। यह सुनकर गांव वाले डर गए और राजा से कहने लगे कि हमने कोई मजाक नहीं किया। जब हम गांव से चले थे, तब हमने पालकी में एक गोल चमकदार-सी चीज रखी थी, लेकिन अब वह कहां गई, हम नहीं जानते..। चारों ने राजा से कहा, 'आप हमारा विश्वास कीजिए।' राजा ने पूछा, 'लेकिन वह चमकदार चीज क्या थी!' तत्काल एक ने उत्तर दिया कि उसकी आकृति गोल थी और उस पर किसी आदमी के सिर की तस्वीर बनी हुई थी। सारी बातें सुनने के बाद राजा ने कहा, 'मुझे साफ-साफ बताओ कि वह गिफ्ट तुमने कहां से खरीदा था।' गांव वालों ने राजा को सब कुछ सच-सच बता दिया। उन लोगों ने कहा कि एक बार हमारे गांव में एक सेठ आया। वह हमारी सेवा से बहुत खुश हुआ। उसने हमें गांव से जाते समय एक गिफ्ट दिया। शास्त्र में लिखा है कि राज्य की हर चीज पर पहला हक राजा का होता है, इसीलिए हमने वह गिफ्ट आपको देने का फैसला किया। राजा धीरे से मुस्कुराया और अपनी जेब से चांदी का सिक्का निकालकर गांव वालों से पूछा कि क्या वह गिफ्ट इसी प्रकार का था! गांव वाले उसे देखते ही बोले कि हां, वह गिफ्ट यही था। क्या आपने इसे खुद ही खोज लिया? राजा ने कहा, 'हां, मैंने गिफ्ट स्वयं ही खोज लिया।' राजा उनकी वफादारी से बहुत खुश हुए और उन्हें पुरस्कार भी दिए। वे चारों खुशी-खुशी अपने गांव लौट आए। वे जान गए थे कि वफादारी का फल हमेशा मीठा होता है और नि:स्वार्थ किए गए कार्य का हमेशा सुखद अंत होता है।

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

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    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: SMALL STORIES
    « Reply #66 on: May 22, 2007, 02:39:41 AM »
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    चोर का बलिदान    
     
    बहुत पुरानी बात है। तीन दोस्त थे, जिनकी आपस में गहरी मित्रता थी। इनमें से एक राजा का छोटा लड़का था, दूसरा राजा के मंत्री का बेटा था और तीसरा था-किसी अमीर सेठ का बेटा। तीनों ही कोई काम नहीं करते और हमेशा व्यर्थ की बातों में समय बिताते। उन तीनों के माता-पिता इन बच्चों से बहुत परेशान थे, इसीलिए उन्होंने तीनों को कई बार समझाया, लेकिन वे नहीं माने और अंत में उनके माता-पिता ने उन्हें घर से निकालने का निर्णय लिया। इस निर्णय को सुनकर तीनों दोस्त परेशान हो गए और सोचने लगे कि अब क्या होगा! उनमें से एक ने कहा कि हमें किसी दूसरे शहर में जाकर व्यापार करना चाहिए, लेकिन व्यापार के लिए पैसा तीनों में से किसी के पास नहीं था। दूसरे दोस्त ने कहा कि थोड़ी दूर जो पहाड़ है, उसकी सबसे ऊंची चोटी से महंगे पत्थर लाकर बेचते हैं, तभी तीसरा दोस्त चीखकर बोला कि हमें डरने की कोई जरूरत नहीं है। हम पहाड़ से महंगे पत्थर लाऐंगे, जिन्हें बेचकर हमें पैसा मिलेगा और उन्होंने अपनी यात्रा शुरू कर दी।

    यात्रा लंबी और कठिन जरूर थी, लेकिन वे तीनों घने जंगल और नदी को पार करते हुए पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी पर पहुंच गए। भाग्य उनके साथ था। उन्होंने कुछ महंगे पत्थर खोजे और वापस लौटने लगे, लेकिन वापस आने में रात हो गई और तीनों सोचने लगे कि कोई चोर उनसे पत्थर छीन सकता है। इसीलिए तीनों ने पत्थर छुपाने का निर्णय लिया। उन्होंने पत्थरों को अपने भोजन के साथ अपने-अपने पेट में छुपा लिया और फिर जंगल के रास्ते वापस जाने लगे। एक चोर तीनों दोस्तों का पीछा कर रहा था, क्योंकि उसे कीमती पत्थर के बारे में पता लग गया था। चोर ने तीनों को मारकर पत्थर छीनने का प्लान बनाया। जब तीनों दोस्त जंगल के रास्ते से होकर आगे की ओर बढ़ने लगे, तो चोर ने पीछे से आवाज लगाते हुए कहा, 'मुझे अकेले जंगल पार करने में डर लगेगा, यदि आप बुरा न मानें, तो मैं आपके साथ जंगल पार कर लूं।' तीनों दोस्तों ने हामी भरी, तो वह चोर उनके साथ चलने लगा।

    जंगल के बीच में एक गांव था, जिसके मुखिया के पास एक ऐसा तोता था, जो हमेशा सच बोलता था। मुखिया उस तोते की हर बात समझता था। जैसे ही वे चारों मुखिया के घर से आगे निकले, तोता चिल्लाने लगा कि इन लोगों के पास कीमती पत्थर है। मुखिया ने तुरंत तीनों दोस्तों और चोर को पकड़ लिया और फिर उनके पास से पत्थर खोजने लगा, लेकिन उसे कुछ नहीं मिला। मुखिया ने सोचा कि तोते से कोई गलती हुई है और इसीलिए उसने उन चारों को छोड़ दिया।

    उन चारों ने अपनी यात्रा दोबारा शुरू कर दी। उनके वहां से निकलते ही तोता फिर बोलने लगा कि उनके पास स्टोन है। अब मुखिया ने सोचा कि तोता कभी झूठ नहीं बोलता, इसीलिए उसने चारों को दोबारा बुलवा लिया, लेकिन अथक प्रयास के बाद भी पत्थर नहीं मिला। मुखिया बोला, अगर मुझे कल तक पत्थर नहीं मिला, तो मैं तुम चारों के पेट फाड़कर स्टोन निकाल लूंगा। मुखिया ने चारों को एक कमरे में बंद कर दिया। चोर सोचने लगा कि यदि मुखिया सबसे पहले मेरा पेट काटे, तो उसे कुछ भी नहीं मिलेगा और ये तीनों बच जाएंगे, लेकिन यदि पहले इनमें से किसी एक का पेट चीरा गया, तो हम सब एक के बाद एक मारे जाएंगे, क्योंकि इनके पेट से स्टोन मिलेंगे। मुझे तो हर तरह से मरना ही है, तो क्यों न मैं इन तीनों की जान बचा लूं।

    अगले दिन जब मुखिया ने चारों को बुलाया, तो चोर ने मुखिया से कहा कि आप सबसे पहले मुझे मार दो, क्योंकि मैं अपने दोस्तों को मरते हुए नहीं देख सकता। मुखिया इस बात के लिए तैयार हो गया और उसने सबसे पहले चोर का ही पेट काटा, लेकिन उसे कुछ भी नहीं मिला। मुखिया को बहुत दुख हुआ, उसने सोचा कि मैंने एक आदमी को व्यर्थ में ही मार डाला, इसीलिए उसने बाकी तीनों को छोड़ दिया। तीनों दोस्त घर लौट गए और उन स्टोन को बेचकर वे बहुत अमीर बन गए, लेकिन तीनों दोस्त चोर के बलिदान को कभी नहीं भूले। इस घटना से तीनों दोस्त जान गए कि छोटा व्यक्ति भी बड़ा काम कर सकता है। सच ही है, कोई भी व्यक्ति अपने कर्म से बड़ा बनता है न कि अपनी पारिवारिक प्रतिष्ठा या धन की बहुतायत से।
                         
    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

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    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: SMALL STORIES
    « Reply #67 on: May 23, 2007, 03:10:30 AM »
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    भूल का अहसास  
     
    एक बार एक राजा को किसी विदेशी राज्य से उपहार में कांच की तीन सुंदर मूर्तियां प्राप्त हुईं। ये मूर्तियां अपने आप में नायाब थीं। राजा ने उनकी देखभाल के लिए एक नौकर नियुक्त कर दिया। नौकर रोज उसकी सफाई करता और उन्हें चमका कर रखता। राजा का स्पष्ट आदेश था कि मूर्तियां की देखभाल में कोई कोताही न बरती जाए, इसमें जरा भी लापरवाही हुई तो कठोर दंड दिया जाएगा। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है। एक दिन सफाई के दौरान नौकर के हाथ से एक मूर्ति गिरकर टूट गई। राजा के क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने तत्काल नौकर को मृत्युदंड देने की घोषणा की।

    नौकर को पकड़ कर जेल में डाल दिया गया। अगले दिन उसे फांसी होनी थी। नौकर बुद्धिमान था। वह बचने के उपाय ढूंढ रहा था। आखिरकार उसने रास्ता खोज ही लिया। उसने राजा से प्रार्थना की कि मरने से पहले उसकी अंतिम इच्छा पूरी की जाए। राजा ने पूछा, 'बताओ तुम्हारी आखिरी इच्छा क्या है।' उसने कहा, 'मरने से पहले मैं उन दो मूर्तियां को हाथ में लेकर जी भर कर देखना चाहता हूं।' राजा ने इसकी अनुमति दे दी। उसे उन मूर्तियां के पास ले जाया गया। उसने मूर्तियां हाथ में लीं और उन्हें फर्श पर जोर से पटक डाला। मूर्तियां चूर-चूर हो गईं। राजा ने जब यह सुना तो आपे से बाहर हो गया। उसने नौकर को बुलाकर उसकी इस हरकत के बारे में पूछा। नौकर ने बड़ी विनम्रता के साथ जवाब दिया, 'महाराज, इसके पीछे कोई दुर्भावना नहीं है। मैंने तो ऐसा करके दो लोगों की जान बचाने का काम किया है। आप किसी न किसी को इनकी देखभाल के लिए रखते और देखभाल के क्रम में उससे भी मूर्ति टूट सकती है। आप फिर उसे मृत्युदंड दे देंगे। लेकिन अब मूर्तियां ही नहीं रहीं इसलिए दो लोगों की जान बच गई। मैंने जीवन के अंतिम क्षणों में एक पुण्य कार्य करने की कोशिश की है।'

    नौकर की इन बातों से राजा को अपनी भूल का अहसास हो गया। उसने नौकर को क्षमा कर दिया। 
                         
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    Re: SMALL STORIES
    « Reply #68 on: May 24, 2007, 03:50:19 AM »
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    किसान का बड़प्पन  

    एक बार पेशवा बाजीराव ने मालवा पर हमला किया। जीत तो हासिल हो गई, पर सैनिकों का भोजन समाप्त हो गया। पेशवा ने अपने एक सरदार को पास के गांव से अनाज लाने का हुक्म दिया। सरदार कुछ सैनिक लेकर चल पड़ा, लेकिन काफी देर तक उन्हें अनाज नहीं मिला, क्योंकि युद्ध के कारण आसपास के खेत भी नष्ट हो गए थे। तभी सरदार को एक किसान मिला। सरदार ने उससे कहा, 'हम बाजीराव के सैनिक हैं, हमें अनाज चाहिए। चलो, कोई अच्छा सा खेत दिखाओ।'

    किसान उन सैनिकों को लेकर चला। थोड़ी दूर जाने पर ही सैनिकों को एक अच्छी फसल वाला खेत मिला। सरदार ने कहा, 'हम इस खेत से फसल काट लेते हैं।' तभी किसान बोला, 'आप मेरे साथ चलिए, इससे भी अच्छा खेत आगे है। थोड़ी दूर जाने पर किसान ने सैनिकों से कहा, 'इस खेत से चाहे जितनी फसल काट लो।' इसमें पहले खेत से कुछ कम फसलें थीं। सैनिक किसान पर भड़के, 'हमें धोखा देता है। हमें यहां क्यों लाया है?' इस पर किसान ने कहा, 'यह खेत मेरा है। वह खेत दूसरे का था। दूसरे के खेत से फसल कटवाने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। आप मेरे खेत से चाहे जितनी फसल काट लें।' सैनिक किसान के समक्ष नतमस्तक हो गए।
     
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    « Reply #69 on: May 28, 2007, 03:17:16 AM »
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    श्रद्धा और विश्वास  

    एक बार स्वामी विवेकानंद विदेश यात्रा पर गए हुए थे। भ्रमण के दौरान उनकी मुलाकात एक संत से हुई जो अपने इलाके में काफी प्रसिद्ध थे। संत का बहुत बड़ा आश्रम था। उस आश्रम में कई शिष्य थे और संत के कमरे के बाहर उनकी बड़ी फोटो लगी हुई थी। संत के साथ विवेकानंद कई मुद्दों पर चर्चा करने लगे। बातचीत के दौरान विदेशी संत ने कहा, 'स्वामी जी आपके देश में कितना आडंबर है कि वहां के लोग पत्थर की मूर्ति की पूजा करते हैं। जब भगवान कण-कण में हैं तो फिर पत्थर की मूर्ति की पूजा क्यों? इसे ढकोसला ही तो कहा जाएगा।'

    स्वामी विवेकानंद कुछ देर तक कुछ सोचते रहे। उनके अगल-बगल बैठकर संत के शिष्य दोनों की बातें सुन रहे थे। अचानक स्वामी जी ने एक शिष्य से कहा, 'क्या तमाशा बना रखा है। आपके गुरु आपके सामने बैठे हैं फिर भी उनकी फोटो यहां रखी हुई है। इसे फेंको यहां से।' और जैसे ही स्वामी जी ने फोटो फेंकने के लिए उस पर हाथ लगाया, उनके बगल में खड़ा एक शिष्य उनका हाथ पकड़कर बोला, 'आपने हमारे गुरु का अपमान किया है। क्या आपके देश में संतों का इसी तरह अपमान किया जाता है?'

    विवेकानंद जी मुस्करा कर बोले, 'नहीं, हमारे देश में संतों की उपासना की जाती है। उनके चरण रज को लोग अमृत समझकर पीते हैं। मैं तो आपके गुरु के प्रश्न का जवाब दे रहा था।' फिर वह संत से बोले, 'देख लिया आपने, आपके शिष्य आपकी फोटो का अनादर होते देखना नहीं चाहते क्योंकि आपकी फोटो में इन लोगों की श्रद्धा है जबकि सच यह है कि यह फोटो आपकी आकृति है। लेकिन इसमें आप दिखाई पड़ते हैं। उसी तरह भगवान कण-कण में विराजमान हैं लेकिन जो लोग मूर्ति पूजा करते हैं, उन्हें भगवान उसी में दिखाई पड़ते हैं। यह श्रद्धा और विश्वास है कि हमारे यहां के लोग भगवान को कहीं भी खोज लेते हैं पत्थर की मूर्ति में और पीपल के पेड़ में भी।'

    इस पर संत और उनके शिष्य निरुत्तर हो गए।
     
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    « Reply #70 on: May 30, 2007, 03:28:44 AM »
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    लोभ पर जीत  

    कपिल नामक गरीब ब्राह्मण अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करता था। वह उसकी हर इच्छा पूरी करना चाहता था लेकिन निर्धनता के कारण ऐसा नहीं कर पाता था। एक बार त्योहार के मौके पर पत्नी ने आभूषण पहनने की इच्छा जताई तो वह परेशान हो उठा। उसने सुना था कि राजा बहुत दानवीर है। जो ब्राह्मण सुबह-सुबह सबसे पहले उसके द्वार पर जाता है उसे वह 2 तोला सेना देता है। कपिल राजा के यहां सबसे पहले पहुंचने के लिए आधी रात को ही घर से चल पड़ा। सिपाहियों ने उसे चोर समझकर पकड़ लिया और सुबह होने पर राजा के सामने पेश कर दिया।

    राजा के पूछने पर कपिल ने पूरी बात सच-सच बता दी। राजा ने उसकी सरलता से प्रभावित होकर मनचाही वस्तु मांगने के लिए कहा। कपिल सोचने लगा कि 2 तोला सोना क्या मांगूं, 200 अशर्फी मांग लेता हूं, फिर अचानक खयाल आया कि 2 हजार मोहरें मांग लेता हूं ताकि रोज- रोज मांगने से छुटकारा मिले। आखिर में उसकी सोच लाखों-करोड़ों तक पहुंच गई। अंत में वह आधा राज्य ही मांगने जा रहा था कि उसे कुछ बोध हुआ और अपने लोभ से उसे घृणा हो गई। राजा ने फिर पूछा तो उसने कहा, 'महाराज मुझे जो चाहिए था वह मिल गया। '

    राजा ने आश्चर्य से पूछा, ' लेकिन आपको तो मैंने कुछ दिया ही नहीं।'

    ' महाराज आज मैंने लोभ पर जीत हासिल कर ली। इससे बड़ी चीज और क्या होगी।'
     
                         
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    « Reply #71 on: June 01, 2007, 12:49:45 AM »
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    वाणी की मधुरता  

    पुराने जमाने की बात है। एक व्यक्ति गृह क्लेश से परेशान रहता था। उसका अक्सर अपनी पत्नी से झगड़ा हो जाता था, फिर दोनों में कई दिनों तक बात नहीं होती थी। वह समझ नहीं पा रहा था कि यह स्थिति कब खत्म होगी। एक बार वह संत अव्वैयार का प्रवचन सुनने पहुंचा। जब प्रवचन खत्म हो गया तो उस व्यक्ति ने संत से अपने घर चलने का आग्रह किया। संत अव्वैयार ने उसका आतिथ्य स्वीकार कर लिया। उसने संत को बाहर के कमरे में बिठा दिया और अपनी पत्नी को यह समाचार सुनाने अंदर आया। इस पर पत्नी आगबबूला हो गई। उसने कहा कि उससे पूछे बगैर वह संत को क्यों घर ले आया। दोनों के झगड़े की आवाज संत तक भी पहुंची। वह दोनों के बीच के तनाव को कम करने की ईश्वर से प्रार्थना करके जाने लगे। यह देख वह व्यक्ति बेहद शर्मिंदा हुआ। वह उनके पैरों पर गिरकर अपनी पत्नी की ओर से क्षमा मांगने लगा। इसके साथ ही वह अपनी पत्नी को कोस भी रहा था कि उसने एक संत का अपमान किया है, एक घर आए मेहमान को उलटे पांव लौटने को विवश किया है।

    इस पर संत अव्वैयार ने उसे समझाते हुए कहा, 'तुम खेद क्यों प्रकट करते हो। इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं है। हां, तुम कर्कश वाणी का प्रयोग कभी मत करो। लोहे का एक तीक्ष्ण बाण एक विशालकाय हाथी का तो शिकार कर सकता है मगर एक चींटी का नहीं। किसी लोहे की मजबूत छड़ से चट्टान को फाड़ा नहीं जा सकता लेकिन एक नव अंकुर अपनी कोमल छुवन से बड़ी-बड़ी चट्टानें फाड़ सकता है। इसलिए मधुर वाणी से तुम पत्नी को सुधार सकते हो। प्रयास करते रहो।' उस आदमी की पत्नी ये बातें सुन रही थी। उसे अपनी भूल का अहसास हो गया। उसने संत अव्वैयार से क्षमा मांगी और फिर से बिठा लिया। उसके बाद पूर्ण आतिथ्य करने के बाद ही उन दोनों ने सम्मानपूर्वक संत को विदा किया। पति-पत्नी ने उन्हें वचन दिया कि वे फिर कभी नहीं झगड़ेंगे। 
                         
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    « Reply #72 on: June 01, 2007, 11:43:29 PM »
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    वाणी की मधुरता
     
    पुराने जमाने की बात है। एक व्यक्ति गृह क्लेश से परेशान रहता था। उसका अक्सर अपनी पत्नी से झगड़ा हो जाता था, फिर दोनों में कई दिनों तक बात नहीं होती थी। वह समझ नहीं पा रहा था कि यह स्थिति कब खत्म होगी। एक बार वह संत अव्वैयार का प्रवचन सुनने पहुंचा। जब प्रवचन खत्म हो गया तो उस व्यक्ति ने संत से अपने घर चलने का आग्रह किया। संत अव्वैयार ने उसका आतिथ्य स्वीकार कर लिया। उसने संत को बाहर के कमरे में बिठा दिया और अपनी पत्नी को यह समाचार सुनाने अंदर आया। इस पर पत्नी आगबबूला हो गई। उसने कहा कि उससे पूछे बगैर वह संत को क्यों घर ले आया। दोनों के झगड़े की आवाज संत तक भी पहुंची। वह दोनों के बीच के तनाव को कम करने की ईश्वर से प्रार्थना करके जाने लगे। यह देख वह व्यक्ति बेहद शर्मिंदा हुआ। वह उनके पैरों पर गिरकर अपनी पत्नी की ओर से क्षमा मांगने लगा। इसके साथ ही वह अपनी पत्नी को कोस भी रहा था कि उसने एक संत का अपमान किया है, एक घर आए मेहमान को उलटे पांव लौटने को विवश किया है।

    इस पर संत अव्वैयार ने उसे समझाते हुए कहा, 'तुम खेद क्यों प्रकट करते हो। इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं है। हां, तुम कर्कश वाणी का प्रयोग कभी मत करो। लोहे का एक तीक्ष्ण बाण एक विशालकाय हाथी का तो शिकार कर सकता है मगर एक चींटी का नहीं। किसी लोहे की मजबूत छड़ से चट्टान को फाड़ा नहीं जा सकता लेकिन एक नव अंकुर अपनी कोमल छुवन से बड़ी-बड़ी चट्टानें फाड़ सकता है। इसलिए मधुर वाणी से तुम पत्नी को सुधार सकते हो। प्रयास करते रहो।' उस आदमी की पत्नी ये बातें सुन रही थी। उसे अपनी भूल का अहसास हो गया। उसने संत अव्वैयार से क्षमा मांगी और फिर से बिठा लिया। उसके बाद पूर्ण आतिथ्य करने के बाद ही उन दोनों ने सम्मानपूर्वक संत को विदा किया। पति-पत्नी ने उन्हें वचन दिया कि वे फिर कभी नहीं झगड़ेंगे।

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    « Reply #73 on: June 05, 2007, 01:15:29 AM »
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    क्रोध पर विजय  
     
    पुराने जमाने की बात है। किसी राज्य के राजा के पास एक संन्यासी आया। राजा ने उसका खूब स्वागत-सत्कार किया और कुछ दिन ठहरने को कहा। संन्यासी मान गया। अपने राजकाज से समय निकालकर राजा रोज संन्यासी से धर्म संबंधी चर्चा किया करता था। उसने अपनी सभी जिज्ञासाएं उस संन्यासी के समक्ष रखीं। संन्यासी ने सबका यथोचित उत्तर दिया। कुछ दिनों के बाद जब वह जाने लगा तो राजा बोला, 'महाराज, जाते-जाते आप कोई ऐसा संदेश देते जाइए जो मेरे लिए काफी उपयोगी साबित हो।' संन्यासी ने आशीर्वाद देते हुए कहा, 'एक बात का अभ्यास करना कि किसी भी स्थिति में क्रोध न आए। और अगर आ भी जाए तो वह काम मत करना जो उस अवस्था में मन कहे।' राजा ने सोचा कि यह कोई महत्वपूर्ण संदेश नहीं है, यह तो साधारण सी बात है। फिर भी उसने इस शिक्षा को गंभीरता से लिया।

    राजा के कोई पुत्र नहीं था। समस्या थी कि राजगद्दी किसे सौंपी जाए। उस समय आम तौर पर पुत्रियों को सत्ता नहीं दी जाती थी। फिर भी चलन के विरुद्ध जाकर राजा ने अपनी बेटी को राजगद्दी सौंपने का निश्चय किया। साथ ही उसने यह भी तय किया कि जब उसका विवाह होगा तो उसका पति राजा बन जाएगा। राजकुमारी ने शासन कार्य संभाला। अब वह पुरुष वेश में रहने लगी।

    एक बार राजा कहीं गया हुआ था। जब वह लौटा तो उसने देखा कि महारानी एक पुरुष का आलिंगन किए लेटी हुई है। देखते ही राजा तिलमिला उठा। उसने तत्काल तलवार निकाल ली। लेकिन उसी समय मुनि का उपदेश याद आ गया कि क्रोध में जो मन कहे वह काम मत करना। उसकी इच्छा हो रही थी कि दोनों का वध कर दे पर उसने मन पर काबू किया। तलवार म्यान में चली गई। राजा आगे बढ़ा। वह बिछावन के निकट आया। देखा कि पुरुष वेशधारी उसकी पुत्री अपनी मां के साथ निद्रा में लीन हैं। राजा ग्लानि से भर उठा। पर उसे इस बात का संतोष भी हुआ कि उसने क्रोध पर विजय पाने में सफलता पाई है। 
                         
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    « Reply #74 on: June 06, 2007, 11:55:40 PM »
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    एक जैसी पीड़ा  

    एक बार एक स्त्री ने अपने बेटे को काढ़ा बनाने के लिए पलाश वृक्ष की छाल लाने को कहा। बेटे ने कुल्हाड़ी उठाई और जंगल की ओर चल पड़ा। वहां उसने कुल्हाड़ी से एक पेड़ की छाल उतारनी शुरू की। छाल के उतरते ही पेड़ से कुछ बूंदे छलछला आईं। उस बच्चे को यह अच्छा नहीं लगा। उसे लगा कि छाल उतरने से जरूर वृक्ष को कष्ट हुआ होगा। वृक्ष की पीड़ा का सही-सही अंदाजा लगाने के लिए उसने कुल्हाड़ी से अपनी टांग को उसी तरह छीलकर देखा। पैर से खून बहने लगा और उसकी धोती लाल हो गई। वह छाल छीलना छोड़ घर आ गया।

    उसकी मां ने जब यह देखा तो परेशान हो गई। उसने पूछा, 'तुम्हारी धोती में खून के धब्बे कैसे लगे हैं?' बालक ने जवाब दिया, 'मैंने कुल्हाड़ी से टांग की छाल खींचने की कोशिश की थी।'

    मां ने उसकी धोती को अलग हटाकर देखा तो पाया कि पैर की चमड़ी और मांस छिला हुआ था। मां ने क्रोध में कहा, 'तुम तो बड़े मूर्ख हो। भला कोई ऐसा करता है। अगर यह घाव विषाक्त हो गया तो तुम्हारी टांग भी कटवानी पड़ सकती है।'

    बच्चे ने भोलेपन से कहा, 'मां, तब तो वह पलाश का वृक्ष भी जख्मी हो गया होगा जिसकी छाल मैं छील रहा था। मैंने उसकी छाल छीली तो देखा कि उसमें से रस निकल रहा है। मुझे लगा कि उसे काफी कष्ट हो रहा है। इसलिए मैंने अपने पैर को भी छीलकर देखा कि मुझे कितनी पीड़ा होती है। अब मुझे लग रहा है कि उसे कितना कष्ट हुआ होगा।'

    यह सुनकर मां की आखें छलछला गईं। उसने अपने पुत्र को गले लगाते हुए कहा, 'तुम्हारा सोचना एकदम सही है बेटा। पेड़ और दूसरे जीवों में भी वैसा ही चेतन तत्व होता है जैसा हम मनुष्यों में। जिस तरह हम घायल होने पर पीड़ा का अनुभव करते हैं वैसा ही वे भी महसूस करते हैं। लगता है तू बड़ा होकर कोई साधु बनेगा।' मां की भविष्यवाणी सही निकली। वह बालक आगे चलकर संत नामदेव के नाम से विख्यात हुआ। 
                         
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