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Author Topic: SMALL STORIES  (Read 177875 times)

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Offline ShAivI

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  • बाबा मुझे अपने ह्र्दय से लगा लो, अपने पास बुला लो।
तीन गांठें
« Reply #390 on: April 19, 2016, 02:14:46 AM »
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  • ॐ साईं राम !!!

    तीन गांठें

    भगवान बुद्ध अक्सर अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान किया करते थे।
    एक दिन प्रातः काल बहुत से भिक्षुक उनका प्रवचन सुनने के लिए बैठे थे।
    बुद्ध समय पर सभा में पहुंचे, पर आज शिष्य उन्हें देखकर चकित थे
    क्योंकि आज पहली बार वे अपने हाथ में कुछ लेकर आए थे।
    करीब आने पर शिष्यों ने देखा कि उनके हाथ में एक रस्सी थी।
    बुद्ध ने आसन ग्रहण किया और बिना किसी से कुछ कहे वे रस्सी में
    गांठें लगाने लगे।

    वहाँ उपस्थित सभी लोग यह देख सोच रहे थे कि अब बुद्ध आगे क्या करेंगे;
    तभी बुद्ध ने सभी से एक प्रश्न किया, मैंने इस रस्सी में तीन गांठें लगा दी हैं,
    अब मैं आपसे ये जानना चाहता हूँ कि क्या यह वही रस्सी है,
    जो गाँठें लगाने से पूर्व थी?

    एक शिष्य ने उत्तर में कहा, गुरूजी इसका उत्तर देना थोड़ा कठिन है,
    ये वास्तव में हमारे देखने के तरीके पर निर्भर है।
    एक दृष्टिकोण से देखें तो रस्सी वही है, इसमें कोई बदलाव नहीं आया है।
    दूसरी तरह से देखें तो अब इसमें तीन गांठें लगी हुई हैं जो पहले नहीं थीं;
    अतः इसे बदला हुआ कह सकते हैं। पर ये बात भी ध्यान देने वाली है कि
    बाहर से देखने में भले ही ये बदली हुई प्रतीत हो पर अंदर से तो ये वही है
    जो पहले थी; इसका बुनियादी स्वरुप अपरिवर्तित है।

    सत्य है !, बुद्ध ने कहा, अब मैं इन गांठों को खोल देता हूँ। यह कहकर
    बुद्ध रस्सी के दोनों सिरों को एक दुसरे से दूर खींचने लगे। उन्होंने पुछा,
    तुम्हें क्या लगता है, इस प्रकार इन्हें खींचने से क्या मैं इन गांठों को
    खोल सकता हूँ?

    नहीं-नहीं, ऐसा करने से तो या गांठें तो और भी कस जाएंगी और
    इन्हे खोलना और मुश्किल हो जाएगा। एक शिष्य ने शीघ्रता से उत्तर दिया।

    बुद्ध ने कहा, ठीक है, अब एक आखिरी प्रश्न, बताओ इन गांठों को
    खोलने के लिए हमें क्या करना होगा?

    शिष्य बोला, इसके लिए हमें इन गांठों को गौर से देखना होगा,
    ताकि हम जान सकें कि इन्हे कैसे लगाया गया था,
    और फिर हम इन्हे खोलने का प्रयास कर सकते हैं।

    मैं यही तो सुनना चाहता था। मूल प्रश्न यही है कि जिस समस्या में तुम फंसे हो,
    वास्तव में उसका कारण क्या है, बिना कारण जाने निवारण असम्भव है।
    मैं देखता हूँ कि अधिकतर लोग बिना कारण जाने ही निवारण करना चाहते हैं ,
    कोई मुझसे ये नहीं पूछता कि मुझे क्रोध क्यों आता है, लोग पूछते हैं कि
    मैं अपने क्रोध का अंत कैसे करूँ? कोई यह प्रश्न नहीं करता कि मेरे अंदर
    अंहकार का बीज कहाँ से आया, लोग पूछते हैं कि मैं अपना अहंकार
    कैसे ख़त्म करूँ?

    कथा मर्म - प्रिय शिष्यों, जिस प्रकार रस्सी में में गांठें लग जाने पर
    भी उसका बुनियादी स्वरुप नहीं बदलता उसी प्रकार मनुष्य में भी कुछ विकार
    आ जाने से उसके अंदर से अच्छाई के बीज ख़त्म नहीं होते। जैसे हम रस्सी की
    गांठें खोल सकते हैं वैसे ही हम मनुष्य की समस्याएं भी हल कर सकते हैं।
    इस बात को समझो कि जीवन है तो समस्याएं भी होंगी ही, और समस्याएं हैं तो
    समाधान भी अवश्य होगा, आवश्यकता है कि हम किसी भी समस्या के कारण को
    अच्छी तरह से जानें, निवारण स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा।
    महात्मा बुद्ध ने अपनी बात पूरी की।



    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!

    JAI SAI RAM !!!

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    कमियाँ नज़र अंदाज़ करें
    « Reply #391 on: May 01, 2016, 09:10:32 AM »
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  • ॐ साईं राम !!!

    कमियाँ नज़र अंदाज़ करें

    एक बार की बात है किसी राज्य में एक राजा था जिसकी केवल एक टाँग
    और एक आँख थी। उस राज्य में सभी लोग खुशहाल थे क्योंकि राजा
    बहुत बुद्धिमान और प्रतापी था।

    एक बार राजा के विचार आया कि क्यों न खुद की एक तस्वीर बनवायी जाये।
    फिर क्या था, देश विदेशों से चित्रकारों को बुलवाया गया और एक से एक बड़े
    चित्रकार राजा के दरबार में आये। राजा ने उन सभी से हाथ जोड़कर आग्रह
    किया कि वो उसकी एक बहुत सुन्दर तस्वीर बनायें जो राजमहल में लगायी
    जाएगी।

    सारे चित्रकार सोचने लगे कि राजा तो पहले से ही विकलांग है फिर उसकी
    तस्वीर को बहुत सुन्दर कैसे बनाया जा सकता है, ये तो संभव ही नहीं है और
    अगर तस्वीर सुन्दर नहीं बनी तो राजा गुस्सा होकर दंड देगा। यही सोचकर
    सारे चित्रकारों ने राजा की तस्वीर बनाने से मना कर दिया। तभी पीछे से
    एक चित्रकार ने अपना हाथ खड़ा किया और बोला कि मैं आपकी
    बहुत सुन्दर तस्वीर बनाऊँगा जो आपको जरूर पसंद आएगी।

    फिर चित्रकार जल्दी से राजा की आज्ञा लेकर तस्वीर बनाने में जुट गया।
    काफी देर बाद उसने एक तस्वीर तैयार की जिसे देखकर राजा बहुत
    प्रसन्न हुआ और सारे चित्रकारों ने अपने दातों तले उंगली दबा ली।

    उस चित्रकार ने एक ऐसी तस्वीर बनायीं जिसमें राजा एक टाँग को मोड़कर
    जमीन पे बैठा है और एक आँख बंद करके अपने शिकार पे निशाना लगा
    रहा है। राजा ये देखकर बहुत प्रसन्न हुआ कि उस चित्रकार ने राजा की
    कमजोरियों को छिपा कर कितनी चतुराई से एक सुन्दर तस्वीर बनाई है।
    राजा ने उसे खूब इनाम दिया।

    कथा मर्म - तो मित्रों, क्यों ना हम भी दूसरों की
    कमियों को छुपाएँ, उन्हें नजरअंदाज करें और अच्छाइयों पर ध्यान दें।
    आजकल देखा जाता है कि लोग एक दूसरे की कमियाँ बहुत जल्दी ढूंढ लेते हैं
    चाहें हममें खुद में कितनी भी बुराइयाँ हों लेकिन हम हमेशा दूसरों की बुराइयों
    पर ही ध्यान देते हैं कि अमुक आदमी ऐसा है, वो वैसा है। सोचिये अगर हम
    भी उस चित्रकार की तरह दूसरों की कमियों पर पर्दा डालें उन्हें नजरअंदाज
    करें तो धीरे धीरे सारी दुनियाँ से बुराइयाँ ही खत्म हो जाएँगी और रह जाएँगी
    सिर्फ अच्छाइयाँ।

    इस कहानी से ये भी शिक्षा मिलती है कि कैसे हमें नकारात्मक परिस्थितियों
    में भी सकारात्मक सोचना चाहिए और किस तरह हमारी सकारात्मक सोच
    हमारी समस्यों को हल करती है।

    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!

    JAI SAI RAM !!!

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    • बाबा मुझे अपने ह्र्दय से लगा लो, अपने पास बुला लो।
    ॐ साईं राम !!!

    भगवान की नजरो से कौन बचा है?

    ऋषिवर के आश्रम मे एक दिन एक राहगीर आया और
    ऋषिवर को सादर प्रणाम के बाद उसने ऋषिवर के सामने
    अपनी एक जिज्ञासा प्रकट की
    हॆ नाथ, मैंने किसी के साथ कुछ गलत नही किया
    और ना ही मैं किसी के साथ कुछ गलत करना चाहता हुं
    पर ये संसार मेरे बारे मे न जाने क्या क्या कहता है
    और सोचता है मैं क्या करूँ देव?

    ऋषिवर - हॆ वत्स पहले जो मैं कहूँ उसे ध्यान से सुनना!

    राहगीर - जी गुरुदेव!

    ऋषिवर - एक नगर मे एक नर्तकी रहती थी
    उसके घर के सामने एक ब्राह्मण रहता था
    और पिछे एक साधु की कुटिया थी!

    साधु रोज नगर जाते और मन्दिर जाते नगरवासियों की सेवा करते
    और आकर कुटिया मे अपना काम करते
    साधु बड़े भले थे किसी को कभी किसी काम के लिये
    मना नही किया!

    नर्तकी अकेली थी और उसका पेशा नृत्य करना था
    वो नृत्य करके जीवन बीता रही थी ब्राह्मण अत्यंत गरीब था
    और अकेला थामज़दूरी करके जीवन यापन कर रहा था और
    दिनभर श्री भगवान के गुणगान मे तल्लीन रहता था!

    साधु की बड़ी प्रसिद्धि थी और ब्राह्मण के बारे मे
    उल्टीसीधी बाते होती थी!

    समय बीतता गया संयोगवश तीनो की एक ही समय मे मृत्यु हुई
    ब्राह्मण और नर्तकी को बैकुंठ मिला
    और साधु को पहले नर्क फिर वापिस मृत्युलोक मे भेज दिया गया!

    राहगीर - क्षमा हॆ नाथ पर ऐसा कैसे हुआ?

    ऋषिवर - हॆ वत्स साधु जब भी मन्दिर जाता तो उस ब्राह्मण
    और नर्तकी को कई बार बात करते हुये देखता और वो
    यही सोचता रहता की काश मेरा घर इस ब्राह्मण के यहाँ होता तो
    कितना अच्छा होता वो साधु रात दिन उस नर्तकी के विचारों मे ही
    खोया हुआ रहता था संसार के सामने उसने चतुराई से प्रसिद्धि
    पाई पर ठाकुर की नजरो से कौन बचा है?

    और नर्तकी मन से बड़ी दुःखी रहती थी एक बार वो ब्राह्मण के घर
    गई तो ब्राह्मण ने उसे कहा कहो देवी आज यहाँ कैसे आई
    और जैसे ही उस ब्राह्मण ने उसे देवी कहा नर्तकी फूटफूटकर
    रोने लगी और कहने लगी ये सारा संसार मुझे हेय द्रष्टि से देखता है
    और हॆ ब्राह्मण देव आप और वो साधु जी कितने भाग्यशाली है
    जिसे ईश्वर के गुणगान का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ है और
    फिर उस ब्राह्मण ने उसे समझाया और भगवान की भक्ति की
    राह से जोड़ा!

    अब नर्तकी का सम्पुर्ण ध्यान भगवान श्री भगवान के चरणों मे
    लगा रहता चौबीसों घण्टे वो भगवान श्री भगवान मे खोई रहती
    और जब कोई समस्या आती तो वो ब्राह्मण के पास जाती और
    उनसे उस समस्या पर बातचीत करती!

    जब दोनो बात करते थे तो संसार ब्राह्मण के बारे मे न जाने
    क्या क्या उल्टी सीधी बाते करते थे फिर एक दिन उस नर्तकी ने
    कहा हॆ ब्राह्मण देव आपने जो मुझे भगवान भक्ति से जोड़ा है
    आपका इस जीवन पर ये वो उपकार है जिससे मैं कभी उऋण
    नही हो पाऊंगी पर हॆ देव ये संसार आपके बारे मे न जाने
    क्या क्या बाते करता है!

    तो ब्राह्मण ने बहुत ही सुन्दर जवाब दिया, ब्राह्मण देव ने कहा

    संसार आपके और हमारे बारे मे क्या सोचता है क्या कहता है
    वो इतना महत्वपूर्ण नही है यदि हम अपनी नजरो मे सही है
    तो फिर संसार कुछ भी सोचे सोचने दो कुछ भी कहे कहने दो
    क्योंकि संसार कुछ तो कहेगा कुछ तो सचेगा
    बिना सोचे बिना कहे तो रह ही नही सकता है!

    अरे जब राम और कृष्ण तक को नही बक्शा
    इस संसार ने तो आप और हम क्या चीज है!

    अरे हम तो अपना निर्माण करे ना, हम भला क्यों
    किसी और की सोच की परवाह करे!

    जिसकी जैसी प्रवर्ति होगी उसका वैसा स्वभाव होगा
    और जिसकी जैसी प्रवर्ति होगी स्वयं नारायण उसके
    जीवन मे वैसे ही साथी भेज देंगे!

    अपनी प्रवर्ति और स्वभाव अपने काम आयेगा और
    औरों का स्वभाव और प्रवर्ति औरों के काम आयेगी!

    यदि हमने अपनी और अपने भगवान की नजरो मे
    अपने आपको बना लिया तो फिर और क्या चाहिये,
    और यदि हम अपनी और भगवान की नजरो मे
    न बन पायें तो फिर क्या मतलब?

    संसार क्या सोचे सोचने दो, संसार क्या कहे कहने दो
    लक्ष्य पर एकाग्रचित्त हो जाओ!

    संसार की सेवा करते रहो संसार सेवा के
    लायक है विश्वास के लायक नही और विश्वास करो नारायण पर
    क्योंकि एक वही नित्य है बाकी सब अनित्य है
    और जो अनित्य है उसके लिये क्यों व्यथित होते हो?
    व्यथित होना ही है तो उस परमात्मा के लिये होवे ना
    किसी और के लिये क्यों एक वही सार है
    बाकी सब बेकार है!

    अब कुछ समझ मे आया वत्स बस एक ध्यान रखना की
    स्वयं की नजर और नारायण की नजर दो अतिमहत्त्वपूर्ण है !




    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!
    « Last Edit: May 08, 2016, 07:16:55 AM by ShAivI »

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    प्रेम की परिभाषा
    « Reply #393 on: May 08, 2016, 07:08:15 AM »
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  • ॐ साईं राम !!!

    प्रेम की परिभाषा

    एक बार संत राबिया एक धार्मिक पुस्तक पढ़ रही थीं।
    पुस्तक में एक जगह लिखा था, शैतान से घृणा करो, प्रेम नहीं।
    राबिया ने वह लाइन काट दी।
    कुछ दिन बाद उससे मिलने एक संत आए।
    वह उस पुस्तक को पढ़ने लगे।
    उन्होंने कटा हुआ वाक्य देख कर सोचा कि
    किसी नासमझ ने उसे काटा होगा।
    उसे धर्म का ज्ञान नहीं होगा।
     उन्होंने राबिया को वह पंक्ति दिखा कर कहा,
    जिसने यह पंक्ति काटी है वह जरूर नास्तिक होगा।

    राबिया ने कहा- इसे तो मैंने ही काटा है।

    संत ने अधीरता से कहा- तुम इतनी महान संत होकर
    यह कैसे कह सकती हो कि शैतान से घृणा मत करो।
    शैतान तो इंसान का दुश्मन होता है।

    इस पर राबिया ने कहा- पहले मैं भी यही सोचती थी कि
    शैतान से घृणा करो। लेकिन उस समय मैं प्रेम को समझ
    नहीं सकी थी। लेकिन जब से मैं प्रेम को समझी,
    तब से बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं कि घृणा किससे करूं।
    मेरी नजर में घृणा लायक कोई नहीं है।

    संत ने पूछा- “क्या तुम यह कहना चाहती हो कि
    जो हमसे घृणा करते हैं, हम उनसे प्रेम करें।“

    राबिया बोली- प्रेम किया नहीं जाता। प्रेम तो मन के भीतर अपने आप
    अंकुरित होने वाली भावना है। प्रेम के अंकुरित होने पर मन के
    अंदर घृणा के लिए कोई जगह नहीं होगी। हम सबकी एक ही
    तकलीफ है। हम सोचते हैं कि हमसे कोई प्रेम नहीं करता।
    यह कोई नहीं सोचता कि प्रेम दूसरों से लेने की चीज नहीं है,
    यह देने की चीज है। हम प्रेम देते हैं। यदि शैतान से प्रेम करोगे तो
    वह भी प्रेम का हाथ बढ़ाएगा।


    संत ने कहा- “अब समझा, राबिया! तुमने उस पंक्ति को काट कर
    ठीक ही किया है। दरअसल हमारे ही मन के अंदर प्रेम करने का
    अहंकार भरा है। इसलिए हम प्रेम नहीं करते, प्रेम करने का
    नाटक करते हैं। यही कारण है कि संसार में नफरत
    और द्वेष फैलता नजर आता।“

    वास्तव में प्रेम की परिभाषा ईश्वर की परिभाषा से अलग नहीं है।
    दोनो ही देते हैं बदले में बिना कुछ लिये। ईश्वर, माता-पिता,
    प्रकृति सभी बिना हमसे कुछ पाने की आशा किये हमें देते हैं,
    और यह इंतजार करते रहते हैं कि; हम कब उनसे और
    अधिक पाने के योग्य स्वयं को साबित करेंगे और वे हमें और
    अधिक दे सकेंगे। प्रेम को जानना है तो पेडों और फूलों को देखिये
    तोडे और काटे जाने की शिकायत तक नहीं बस देने में लगे हैं।




    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!

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    • बाबा मुझे अपने ह्र्दय से लगा लो, अपने पास बुला लो।
    भुल भी जाना और भुलना भी मत
    « Reply #394 on: May 10, 2016, 12:48:22 AM »
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  • ॐ साईं राम !!!

    भुल भी जाना और भुलना भी मत

    ऋषिवर के आश्रम मे एक दिन दुर नगर से एक राजा आये
    ऋषिवर को प्रणाम करने के बाद वो अपने मुख से ऋषिवर
    के सामने अपने किये गये शुभ-कर्मों का बखान करने लगे!

    राजा - हॆ देव मैंने अपनी जिन्दगी मे कई धर्मशालाओ का
    निर्माण करवाया कई कुंवारी कन्याओं का विवाह करवाया
    और कई निर्धन लोगो को खुब दानदक्षिणा दी!
    हॆ देव मेरे इन सभी सतकर्मों का कितना फल मिलेगा!

    ऋषिवर - हॆ वत्स पर उन सब को ये कैसे पता की ये विवाह
    आपने करवाये और किसी को कैसे पता चलेगा की
    अमुक-अमुक निर्माण आपने करवाये है उन बच्चो को
    कैसे पता चलेगा की उनकी शिक्षा-दीक्षा आपने करवाई है?

    राजा - हॆ देव ये तो बहुत ही आसान है क्योंकि मैंने जितने भी
    निर्माण करवाये उन सभी पर मैंने बड़े बड़े अक्षरों मे अपना नाम
    लिखवाया है की अमुक निर्माण मैंने करवाया है जैसै किसी मन्दिर
    मे पंखा लगवाया तो मैंने उस पर अपना नाम लिखवाया की
    ये पंखा मेरी तरफ से सप्रेम भेंट!

    और जिन कन्याओं का विवाह करवाया जिनको पढाया
    अथवा जिसकी भी किसी भी प्रकार की कोई मदद की
    मैं उन सबको बराबर याद दिलाता रहता हुं की मैंने
    तुम्हारे लिये किया है!

    हॆ देव मैंने जो इतने महान कर्म किये है उसका कितना
    फल मिलेगा! और वो कितना हुआ अर्थात किसके बराबर है?

    ऋषिवर - इसका उत्तर आपको तब मिलेगा जब आप पहले
    ये ताम्बे का लोटा बीहड़ मे बड़ी दुर एक नदी बह रही है
    वहाँ से इसे बिल्कुल साफ करके भरकर लाना और ध्यान
    रखना की थोड़ा भी खाली मत लाना नही तो सारी मेहनत
    व्यर्थ चली जायेगी!

    कुछ दिनो बाद राजा आया!

    ऋषिवर - लाओ वत्स वो लोटा इधर लाओ

    राजा - पर इसमे जल नही है देव!

    ऋषिवर - पर क्यों ? और अपनी यात्रा का वर्णन बताओ!

    राजा - मैं उस बहती हुई नदी तक तो सहजता से पहुँच गया
    और जल भी पात्र मे भर लिया पर जब वापिस रवाना हुआ तो
    राह मे बीहड़ मे अनेक रास्तों की वजह से मैं भटक गया
    जोरों से भुख लगने लगी चलते चलते किसी गाँव मे पहुँचा
    वहाँ कोई विवाह का समारोह हो रहा था आश्चर्य की बात की
    परिवार तो गरीब था पर पता नही न जाने किसने उसका
    विवाह करवाया मैंने वहाँ भोजन किया और फिर रवाना हुआ!

    ऋषिवर - क्या आपने पता किया की वो विवाह कौन करवा रहा था?

    राजा - हॆ देव बहुत कोशिश की पर मैं सफल न हो पाया की
    विवाह कौन करवा रहा था शायद कोई परदे के पिछे था!

    फिर मैं रवाना हुआ तो पानी की प्यास सताने लगी जंगल मे
    एक जगह एक कुआँ था और एक डोर लोटा रखा हुआ था पानी की
    व्यवस्था मिल गई और वहाँ पानी पिया फिर मैंने सोचा इस बीहड़ मे
    ये व्यवस्था किसने की पर कुछ भी पता न चला फिर खुब चला और
    फिर पानी की प्यास सताने लगी चारों तरफ देखा पर पानी कही
    न मिला पानी के अभाव मे मैं दम तोड़ने लगा फिर मैं नीचे गिरा
    और कलश का लगभग आधा पानी व्यर्थ बह गया आधा पानी बचा
    फिर मैंने सोचा की जिन्दगी रही तो फिर आगे कुछ करेंगे पहले ये
    पानी पी लो! और वो बचा हुआ आधा पानी भी मैं पी गया!

    ऋषिवर - हॆ राजन जिस तरह से इतनी मेहनत के बावजूद भी
    तुम खाली हाथ लोटे हो आपके प्रश्न का यही उत्तर है!

    राजा - हॆ देव मैं कुछ समझा नही

    ऋषिवर - ध्यान से सुनना राजन और उसपर गहरा चिन्तन भी
    करना दान है महान पर कब?

    जब दान देकर भुला दिया जाता है और जो दान गुप्त हो वही दान
    सात्विक कर्म है पर जो दान गिनाया और दिखाया जाये वो राजसिक
    कर्म है और राजसीक दान का आधा पुण्य प्रदर्शन मे चला जाता है
    और जिसे बार-बार गिनाया जाये और मन मे ये भाव आये की
    ये मैंने तुम्हे दिया, ये भवन मैंने बनवाया है, मैंने तुम्हे पढाया है,
    अमुक निर्माण मैंने किया है, वो तामसिक कर्म है और ऐसे तामसिक
    दान का सारा पुण्य व्यर्थता मे चला जाता है!

    सात्विक का एक आना राजसीक के लाख आनों से और तामसिक
    के करोड़ों आनों से ज्यादा श्रेष्ठ और महान है!

    दान और सेवा का प्रदर्शन मत करो दान और सेवा जितनी गुप्त
    होगी उतना ही ज्यादा अच्छा होगा!

    सेवा करके भुल जाओ दान ऐसे दो की दायाँ हाथ दे तो बायें हाथ को
    भी पता न चले की दायें हाथ ने क्या दिया, और मत तो उसे गिनाना
    और मत उसे मन मे याद रखना नही तो किया न किया सब व्यर्थ
    हो जायेगा!

    सबसे अच्छा तरीका जो भी करो उसे परमपिता परमेश्वर को
    समर्पित कर दो!

    अरे आप दिखावे के लिये कर रहे हो या उस परमतत्व के लिये?

    आपने किसी और के लिये क्या किया उसे भुल जाओ पर किसी
    और ने आपके लिये क्या किया उसे कभी मत भुलना!

    राजा - हॆ नाथ अब तक मैं राजसीक और तामसिकता के मद मे अंधा होकर
    चल रहा था पर आज आपने मेरी आँखे खोल दी आज के बाद प्रभु मुझसे
    जो भी करवायेंगे वो सब गुप्त रखा जायेगा और सात्विकता से इस जीवन
    को चलाया जायेगा!

    ऋषिवर - हाँ वत्स हमेशा याद रखना की जो नही है बस वही है और
    जो है वो कही नही है अर्थात प्रदर्शन से बचना और गोपनीय दान और
    गोपनीयता का अपना एक अलग ही स्थान है!

    और सेवा करके भुल जाना पर सेवा लेके मत भुलना!




    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!

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    ॐ साईं राम !!!

    खुश रहना है तो जितना है उतने में ही संतोष करो

    एक बार की बात है। एक गाँव में एक महान संत रहते थे।
    वे अपना स्वयं का आश्रम बनाना चाहते थे जिसके लिए
    वे कई लोगो से मुलाकात करते थे। और उन्हें एक जगह से दूसरी
    यात्रा के लिए जाना पड़ता था। इसी यात्रा के दौरान एक दिन
    उनकी मुलाकात एक साधारण सी कन्या विदुषी से हुई। विदुषी ने
    उनका बड़े हर्ष से स्वागत किया और संत से कुछ समय कुटिया में रुक कर
    विश्राम करने की याचना की। संत उसके व्यवहार से प्रसन्न हुए और
    उन्होंने उसका आग्रह स्वीकार किया।

    विदुषी ने संत को अपने हाथो से स्वादिष्ट भोज कराया। और उनके
    विश्राम के लिए खटिया पर एक दरी बिछा दी। और खुद धरती पर टाट
    बिछा कर सो गई। विदुषी को सोते ही नींद आ गई। उसके चेहरे के भाव से
    पता चल रहा था कि विदुषी चैन की सुखद नींद ले रही हैं। उधर संत को
    खटिया पर नींद नहीं आ रही थी। उन्हें मोटे नरम गद्दे की आदत थी जो
    उन्हें दान में मिला था। वो रात भर चैन की नींद नहीं सो सके और विदुषी के
    बारे में ही सोचते रहे सोच रहे थे कि वो कैसे इस कठोर जमीन पर इतने
    चैन से सो सकती हैं।

    दूसरे दिन सवेरा होते ही संत ने विदुषी से पूछा कि – तुम कैसे इस कठोर
    जमीन पर इतने चैन से सो रही थी। तब विदुषी ने बड़ी ही सरलता से उत्तर
    दिया – हे गुरु देव! मेरे लिए मेरी ये छोटी सी कुटिया एक महल के समान ही
    भव्य हैं | इसमें मेरे श्रम की महक हैं। अगर मुझे एक समय भी भोजन मिलता हैं
    तो मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूँ। जब दिन भर के कार्यों के बाद मैं इस धरा
    पर सोती हूँ तो मुझे माँ की गोद का आत्मीय अहसास होता हैं। मैं दिन भर के
    अपने सत्कर्मो का विचार करते हुए चैन की नींद सो जाती हूँ। मुझे अहसास भी
    नहीं होता कि मैं इस कठोर धरा पर हूँ।

    यह सब सुनकर संत जाने लगे। तब विदुषी ने पूछा – हे गुरुवर! क्या मैं भी
    आपके साथ आश्रम के लिए धन एकत्र करने चल सकती हूँ ? तब संत ने विनम्रता
    से उत्तर दिया – बालिका! तुमने जो मुझे आज ज्ञान दिया हैं उससे मुझे पता चला
    कि मन का सच्चा का सुख कहाँ हैं। अब मुझे किसी आश्रम की इच्छा नहीं रह गई।

    यह कहकर संत वापस अपने गाँव लौट गये और एकत्र किया धन उन्होंने गरीबो में
    बाँट दिया और स्वयं एक कुटिया बनाकर रहने लगे।

    जिसके मन में संतोष नहीं है सब्र नहीं हैं वह लाखों करोड़ों की दौलत होते हुए भी
    खुश नहीं रह सकता। बड़े बड़े महलों, बंगलों में मखमल के गद्दों पर भी उसे चैन की
    नींद नहीं आ सकती।
    उसे हमेशा और ज्यादा पाने का मोह लगा रहता है। इसके विपरीत
    जो अपने पास जितना है उसी में संतुष्ट है, जिसे और ज्यादा पाने का मोह नहीं है
    वह कम संसाधनों में भी ख़ुशी से रह सकता है।




    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!

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    • बाबा मुझे अपने ह्र्दय से लगा लो, अपने पास बुला लो।
    ॐ साईं राम !!!

    नफरत को ख़त्म करके अपने विचारों को शुद्ध करें

    ये मनुष्य की प्रकृति है कि वो नकारात्मक चीजों को बहुत जल्दी पकड़ता है।
    परिस्थितियों के सकारात्मक पक्ष के बारे में बहुत कम लोग सोचते है।
    कोई भी स्थिति हो हम सबसे पहले दूसरों की कमियाँ ढूँढ़ते हैं, उनकी
    गलतियाँ तलाश करते हैं और फिर बिना सोचे समझे लग जाते हैं उन पर आरोप,
    इल्ज़ाम लगाने में।

    किसी से कोई काम गलत हो गया, किसी से कोई गलती हो गयी, किसी ने हमारे
    अनुसार काम नहीं किया, कोई हमारी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा तो बस आरोपों का
    सिलसिला शुरू। और कभी कभी इस प्रक्रिया में हम दूसरों के प्रति अपने मन में इस कदर
    नफरत पाल लेते हैं कि हर पल वो नफरत हमें परेशान करती है। और कभी कभी तो
    हम ऐसी फ़ालतू बातों को लेकर नफरत करने लग जाते है जिसका सामने वाले को
    पता तक नहीं होता। हम अकेले ही घुटते रहते हैं मरते रहते है और सामने वाला
    उस बारे में सोच तक नहीं रहा होता है।

     एक बार की बात है। एक संत अपने शिष्य के साथ जंगल से गुजर रहे थे।
    जंगल से गुजरते हुए उन्होंने देखा कि एक नदी किनारे एक लड़की चट्टान पर बैठी हुई है।
    लड़की ने संत को प्रणाम करके कहा, ” महाराज!  मैं ये नदी पार करके सामने के
    गाँव में जाना चाहती हूँ, परन्तु नदी के बहाव को देखकर, इसे पार करने की
    हिम्मत नहीं जुटा पा रही हूँ। लड़की ने संत से प्रार्थना करते हुए कहा,
    ”महाराज!  शाम होने को है और मुझे अपने घर पहुँचना है,
    अगर आप मुझे नदी पार करवा दें तो आपकी बड़ी कृपा होगी।”

    संत ने एक पल के लिए कुछ विचार किया। फिर उन्होंने उस लड़की को
    अपनी पीठ पर बिठाया और तैर कर नदी के पार उतार दिया। लड़की ने
    संत को प्रणाम करके विदा ली। शिष्य संत के इस व्यवहार को देख कर विस्मित सा हो रहा था।
    लेकिन उसने कुछ कहा नहीं।


    तीन महीने बाद, एक दिन दोनों गुरु शिष्य पेड़ के नीचे बैठे हुए ध्यान कर रहे थ।
    एकाएक शिष्य चिल्ला उठा, ”बस अब और नहीं, मुझसे और बर्दाश्त नहीं होता।
    उसने संत से कहा, महाराज!  मुझे यकीन नहीं होता कि आपने एक संत होते हुए भी
    एक स्त्री को छुआ और उसे पीठ पर बैठा कर नदी के पार उतारा।
    मैंने आपको एक सच्चा संत मान कर आपकी दिन-रात सेवा की और
    आपने ये कर्म किया? आपने न केवल मेरा विश्वास तोड़ा है बल्कि
    आपने तो उस परमात्मा को भी धोखा दिया है। आप संत नहीं हो सकते।”

    अपने शिष्य के वचन सुनकर संत हल्के से मुस्कुराये और बोले,
    ”वत्स, मैंने उस स्त्री को केवल दो मिनट में नदी के उस पार उतार दिया।
    क्योंकि मानव सेवा और समाज का भला ही एक संत का उदेश्य होता है।
    उस दिन के बाद एक पल के लिए भी वो स्त्री मेरे मन या स्मरण में नहीं रही।
    परन्तु तुमने हर पल उसको अपने मन में रखकर, पिछले तीन महीने उसके साथ बिताये है।
    ध्यान के समय, विचरण करते समय, भोजन करते हुए, पल-पल वो तुहारे साथ थी।
    वो रह रही थी उस नफरत में, जो तुम्हारे मन में घर कर गयी, उसने तुम्हारी विचार
    करने की शक्ति पर भी अधिकार कर लिया।”

    फिर संत ने शिष्य को समझाते हुए कहा, “वत्स, मनुष्य के अंदर ह्रदय ही वो स्थान है
    जहां शांति और शुद्धता का वास ज़रूरी है। जीवन के सफ़र में साथ चलने वाले राहगीरों के
    कार्यो से हमारे मन में अशुद्धता का आगमन नहीं होना चाहिए। मानव सेवा और समाज का
    भला करते हुए हमें अपने हृदय में अशुद्ध  विचारों को कभी नहीं आने देना चाहिए।”

    गुरु की बात सुनकर शिष्य निरुत्तर हो गया।

    मित्रों, हमारे साथ भी ज़्यादातर ऐसा ही होता है। हममें से भी ज़्यादातर लोग परिस्थितियों के
    सकारात्मक पक्ष को ना देखते हुए उसके नकारात्मक पक्ष को पकड़ कर बैठ जाते हैं।
    फिर वे नकारात्मक विचार धीरे धीरे नफरत में बदल जाते हैं और हमारे जीवन के हर एक पल
    में इस कदर शामिल हो जाते हैं कि उठते, बैठते, सोते, जागते, खाना खाते हुए, कुछ भी काम
    करते हुए हर पल हमें परेशान करते हैं। हम अंदर ही अंदर घुटते रहते हैं। जबकि कभी कभी
    उस नकारात्मक विचार या नफरत को कोई मतलब ही नहीं होता है।

    तो मित्रों, फ़ालतू के नकारात्मक विचारो को, नफरत को अपने दिलो दिमाग से निकाल दो। प
    रिस्थितियों के सकारात्मक पक्ष को देखते हुए सभी पहलुओं पर विचार करो तथा सकारात्मक
    विचारों से अपने मन को शुद्ध करें और समाज का भला करते हुए अपनी ज़िंदगी को
    बेहतर बनाने का प्रयास करें।





    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!

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    • बाबा मुझे अपने ह्र्दय से लगा लो, अपने पास बुला लो।
    World is also a room with 1000 mirrors ....
    « Reply #397 on: July 21, 2016, 04:24:06 AM »
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  • OM SAI RAM !!!

    Mirror

    A person asked a question to his Guru.

    My workers are not true to me.
    My children, my wife and the entire world is very selfish.
    No body is correct.

    Guru smiled and told a story.

    In one small  village there was  a room with 1000 mirrors.
    One small girl used to  go inside and play.
    Seeing thousands of children around her she was joyful.

    She would clap her hands and all the 1000 children
    would clap back at her,
    She considered this place as the world's happiest and
    beautiful place and would visit often.

    This same place was once  visited by a sad n a depressed person.
    He saw around him thousands of angry men staring at him
    He got scared and raised his hands to hit them
    and in return 1000 hands lifted to hit him back.
    He thought This is the worst place in the world and left that place.


    This world is also a room with 1000 mirrors around you

    What we let out of us is what the society will give back to  us.

    Keep your heart like a child

    "This world is a heaven. It's up to us what we make out of it ",,  said the Guru


    OM SAI RAM, SHRI SAI RAM, JAI JAI SAI RAM !!!

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    • बाबा मुझे अपने ह्र्दय से लगा लो, अपने पास बुला लो।
    क्रोध पर नियंत्रण
    « Reply #398 on: July 22, 2016, 01:10:23 AM »
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  • ॐ साईं राम !!!

    क्रोध पर नियंत्रण

    एक बार एक राजा घने जंगल में भटक जाता है
    जहाँ उसको बहुत ही प्यास लगती है।
    इधर उधर हर जगह तलाश करने पर भी उसे कहीं पानी नही मिलता,
    प्यास से उसका गला सुखा जा रहा था
    तभी उसकी नजर एक वृक्ष पर पड़ी
    जहाँ एक डाली से टप टप करती थोड़ी -थोड़ी पानी की बून्द गिर रही थी।

    वह राजा उस वृक्ष के पास जाकर नीचे पड़े पत्तों का दोना बनाकर
    उन बूंदों से दोने को भरने लगा जैसे तैसे लगभग
    बहुत समय लगने पर वह दोना भर गया और
    राजा प्रसन्न होते हुए जैसे ही उस पानी को पीने के लिए
    दोने को मुँह के पास ऊचा करता है तब ही वहाँ सामने बैठा हुआ
    एक तोता टेटे की आवाज करता हुआ आया
    उस दोने को झपट्टा मार के वापस सामने की
     और बैठ गया उस दोने का पूरा पानी नीचे गिर गया।

    राजा निराश हुआ कि बड़ी मुश्किल से पानी नसीब हुआ
    और वो भी इस पक्षी ने गिरा दिया लेकिन अब क्या हो सकता है।
    ऐसा सोचकर वह वापस उस खाली दोने को भरने लगता है।
    काफी मशक्कत के बाद वह दोना फिर भर गया और
    राजा पुनः हर्षचित्त होकर जैसे ही उस पानी को पीने दोने को उठाया तो
    वही सामने बैठा तोता टे टे करता हुआ आया
    और दोने को झपट्टा मार के गिरा के वापस सामने बैठ गया ।

    अब राजा हताशा के वशीभूत हो क्रोधित हो उठा कि
    मुझे जोर से प्यास लगी है, मैं इतनी मेहनत से पानी इकट्ठा कर रहा हूँ
    और ये दुष्ट पक्षी मेरी सारी मेहनत को आकर गिरा देता है
    अब मैं इसे नही छोड़ूंगा अब ये जब वापस आएगा तो
    में इसे खत्म कर दूंगा। इस प्रकार वह राजा
    अपने हाथ में चाबुक लेकर वापस उस दोने को भरने लगता है।

    काफी समय बाद उस दोने में पानी भर जाता है
    तब राजा पीने के लिए उस दोने को ऊँचा करता है
    और वह तोता पुनः टे टे करता हुआ जैसे ही उस दोने को
    झपट्टा मारने पास आता है वैसे ही
    राजा उस चाबुक को तोते के ऊपर दे मारता है
    और उस तोते के वहीं प्राण पखेरू उड़ जाते हैं।

    तब राजा सोचता है कि इस तोते से तो पीछा छूंट गया
    लेकिन ऐसे बून्द-बून्द से कब वापस दोना भरूँगा
    और कब अपनी प्यास बुझा पाउँगा इसलिए
    जहाँ से ये पानी टपक रहा है वहीं जाकर झट से पानी भर लूँ
    ऐसा सोचकर वह राजा उस डाली के पास जाता है
    जहां से पानी टपक रहा था वहाँ जाकर जब राजा देखता है
     तो उसके पाँवो के नीचे की जमीन खिसक जाती है।

    क्योकि उस डाली पर एक भयानक अजगर सोया हुआ था
    और उस अजगर के मुँह से लार टपक रही थी
    राजा जिसको पानी समझ रहा था वह अजगर की जहरीली लार थी।

    राजा के मन में पश्चॉत्ताप का समन्दर उठने लगता है की हे प्रभु !
    यह मैंने क्या कर दिया, जो पक्षी बार बार मुझे जहर पीने से बचा रहा था
    क्रोध के वशीभूत होकर मैने उसे ही मार दिया।

    काश मैने सन्तों के बताये उत्तम क्षमा मार्ग को धारण किया होता,
    अपने क्रोध पर नियंत्रण किया होता तो
    ये मेरे हितैषी निर्दोष पक्षी की जान नही जाती।

    हे भगवान मैने अज्ञानता में कितना बड़ा पाप कर दिया??
    हाय ये मेरे द्वारा क्या हो गया ऐसे घोर पाश्चाताप से प्रेरित हो
    वह राजा दुखी हो उठता है।

    मित्रो इसीलिये कहा गया हैं कि क्षमा औऱ दया धारण करने वाला ही
    सच्चा वीर होता है क्रोध में व्यक्ति दुसरो के साथ-साथ
    अपने खुद का ही अधिक नुकसान कर देता है।

    क्रोध वो जहर है जिसकी उत्पत्ति अज्ञानता से होती है
    और अंत पाश्चाताप से होता है।
    इसलिए हमें हमेशा अपने क्रोध पर नियंत्रण रखना चाहिये।




    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!

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    • बाबा मुझे अपने ह्र्दय से लगा लो, अपने पास बुला लो।
    पहले अपने अंदर झांको
    « Reply #399 on: July 23, 2016, 01:14:16 PM »
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  • ॐ साईं राम !!!

    पहले अपने अंदर झांको

    पुराने जमाने की बात है। गुरुकुल के एक आचार्य अपने शिष्य की
    सेवा भावना से बहुत प्रभावित हुए।

    विधा पूरी होने के बाद शिष्य को विदा करते समय उन्होंने
    आशीर्वाद के रूप में उसे एक ऐसा दिव्य दर्पण भेंट किया,
    जिसमें व्यक्ति के मन के भाव को दर्शाने की क्षमता थी।

    शिष्य उस दिव्य दर्पण को पाकर बहुत खुश हुआ।
    उसने परीक्षा लेने की जल्दबाजी में दर्पण का मुँह सबसे पहले गुरुजी के
    सामने ही कर दिया। वह यह देखकर आश्चर्यचकित हो गया कि गुरुजी के
    हृदय में मोह, अहंकार, क्रोध आदि दुर्गुण परिलक्षित हो रहे थे।
    इससे उसे बड़ा दुख हुआ। वह तो अपने गुरुजी को समस्त दुर्गुणों से
    रहित सत्पुरुष समझता था।

    दर्पण लेकर वह गुरुकुल से रवाना हो गया। उसने अपने कई मित्रों
    तथा अन्य परिचितों के सामने दर्पण रखकर परीक्षा ली। सब के हृदय में
    कोई न कोई दुर्गुण अवश्य दिखाई दिया।

    और तो और अपने माता व पिता की भी वह दर्पण से परीक्षा लेने से नहीं चूका।
    उनके हृदय में भी कोई न कोई दुर्गुण देखा, तो वह हतप्रभ हो उठा।
    एक दिन वह दर्पण लेकर फिर गुरुकुल पहुँचा।

    उसने गुरुजी से विनम्रतापूर्वक कहा-
    “गुरुदेव, मैंने आपके दिए दर्पण की मदद से देखा
     कि सबके दिलों में तरह तरह के दोष और दुर्गुण हैं।“

    तब गुरु जी ने दर्पण का रुख शिष्य की ओर कर दिया।
    शिष्य दंग रह गया। क्योंकि उसके मन के प्रत्येक कोने में राग,द्वेष,
    अहंकार, क्रोध जैसे दुर्गुण थे।

    तब गुरुजी बोले- “वत्स यह दर्पण मैंने तुम्हें अपने दुर्गुण देखकर
    जीवन में सुधार लाने के लिए दिया था। दूसरों के दुर्गुण देखने के लिए नहीं।
    जितना समय तुमने दूसरों के दुर्गुण देखने में लगाया, उतना समय यदि
    तुमने स्वयं को सुधारने में लगाया होता तो अब तक तुम्हारा व्यक्तित्व बदल
    चुका होता। मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यही है
    कि वह दूसरों के दुर्गुण जानने में ज्यादा रुचि रखता है।
    वह स्वयं को
    सुधारने के बारे में नहीं सोचता। इस दर्पण की यही सीख है
    जो तुम नहीं समझ सके।“

    दोस्तों ये हम पर भी लागु होती है। हममें से भी ज़्यादातर
    लोग अपने अंदर छिपी बड़ी बड़ी बुराइयों को, दुर्गुणों को, गलत आदतों
    को भी सुधारना नहीं चाहते। लेकिन दूसरों की छोटी छोटी बुराइयों को भी
    उसके प्रति द्वेष भावना रखते हैं या उसे बुरा भला कहते हैं या फिर
    दूसरो को सुधरने के लिए उपदेश देने लग जाते हैं। तो सबसे पहले अपने
    अंदर झांको और अपनी बुराइयों को दूर करो।





    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!
    « Last Edit: July 23, 2016, 01:20:37 PM by ShAivI »

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    A truly beautiful story
    « Reply #400 on: August 13, 2016, 07:57:58 AM »
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  • OM SAI RAM !!!

    A truly beautiful story :

    During World War II, a soldier was separated from his unit on an island.
    The fighting had been intense, and in the smoke and the crossfire
    he had lost touch with his comrades.

    Alone in the jungle, he could hear enemy soldiers coming in his direction.
    Scrambling for cover, he found his way up a high ridge to several
    small caves in the rock. Quickly he crawled inside one of the caves.

    Although safe for the moment, he realised that once the enemy soldiers
    looking for him swept up the ridge, they would quickly search all the
    caves and would be killed.

    As he waited, he prayed, "Lord, please spare my life. Whatever will happen,
    I love you and trust you. Amen." After praying, he lay quietly listening to
    the enemy begin to draw close.

    He thought, "Well, I guess the Lord isn't going to help me out of this one."
     Then he saw a spider begin to build a web over the front of his cave.
    "Hah" he thought, "What I need is a brick wall and what the Lord has
    sent me is a spider web. God does have a sense of humour. "

    As the enemy drew closer he watched from the darkness of his hide out
    and  could see them searching one cave after another.

    As they came to his, he got ready to make his last stand, but then
    he heard the leader of the soldiers say, "You may as well ignore looking
    in this cave....if he had entered here this web would be broken!"
    So they left and he was delivered!



    To his amazement, however, after glancing in the direction of his cave,
    they moved on. Suddenly he realised that with the spider web over the entrance,
    his cave looked as if no one had entered for quite a while.

    "Lord, forgive me," he prayed. "I had forgotten that in you a spider's web is
    stronger than a brick wall."

    God's ways are not our ways, God's thoughts are not our thoughts..
    He will neither leave us nor forsake us..

    Let's trust in God always!!!


    OM SAI RAM, SHRI SAI RAM, JAI JAI SAI RAM !!!
    « Last Edit: August 13, 2016, 08:40:59 AM by ShAivI »

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    Think Different
    « Reply #401 on: September 13, 2016, 06:25:10 AM »
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  • OM SAI RAM !!!

    Think Different

    An engineer in a car manufacturing company designs a world class car.

    While trying to bring out the car from the manufacturing area to the showroom,
    they realised that the car is few inches taller than the entrance.

    The engineer felt bad that he didn't notice this one before creating the car.

    The painter said that they can bring out the car and there will be a few scratches
    on top of the car which could be touched up later.

    The engineer said that they can break the entrance, take the car out, and
    later re-do it.

    A Watchman was observing & remarked "The car is only a few inches taller
    than the entrance so, simply release the air in the tyre, the height of the
    car will sink and can be easily taken out.

    LESSON

    Don't see problems from an expert's point of view.
    There is always a layman's outlook that gives an alternate solution.

    Life issues are also  same.

    Often, a friend may seem below our stature by few inches, making us seem taller.

    Release some air (ego) and adjust the height.

    Think Simple !!!
    Live Humble !!!


    अहंकार

    एक कार कंपनी में ऑटोमोबाइल इंजिनियर ने एक वर्ल्ड क्लास कार डिज़ाइन की।
    कंपनी के मालिक ने कार की डिजाईन बेहद पसंद की और इंजिनियर की खूब तारीफ की।
    जब पहली कार की टेस्टिंग होनी थी तो कार को फैक्ट्री से निकालते समय उसे अहसास हुआ
    कि कार शटर से बाहर निकल ही नहीं सकती थी, क्योंकि कार की ऊंचाई गेट से कुछ इंच
    ज़्यादा थी। इंजिनियर को निराशा हुई कि उसने इस बात का ख्याल क्यों नहीं किया।

    इसके दो उपाय सूझे:

    पहला, कार को बाहर निकालते समय गेट की छतसे टकराने के
    कारण जो कुछ बम्प, स्क्रैच आदि आएं, उन्हें बाहर निकलने के बाद
    रिपेयर किया जाये। पेंटिंग सेक्शन इंजिनियर ने भी सहमति दे दी,
    हालाँकि उसे शक था कि कार की खूबसूरती वैसी ही बरक़रार रहेगी।

    कंपनी के जनरल मैनेजर ने सलाह दी कि गेट का शटर
    हटाकर गेट के ऊपरी हिस्से को तोड़ दिया जाय।
    कार निकलने के पश्चात गेट को रिपेयर करा लेंगे।

    यह बात कंपनी का पहरेदार सुन रहा था।
    उसने झिझकते हुए कहा कि अगर आप मुंझे
    मौका दें तो शायद मैं कुछ हल निकाल सकूँ।
    मालिक ने बेमन से उसे स्वीकृति दी।

    पहरेदारने चारों पहियों की हवा निकाल दी,
    जिससे कार की ऊंचाई 3-4 इंच कम हो गयी
    और कार बड़े आराम से बाहर निकल गयी।

    सबक:

    किसी भी समस्या को हमेशा विशेषज्ञ की तरह ही न देखें।
    एक आम आदमी की तरह भी समस्या का बढ़िया हल निकल सकता है।

    ज़िन्दगी के लिए इस कहानी से सबक:

    "कभी कभी किसी दोस्त के घर का दरवाजा हमें छोटा लगने लगता है,
    क्योंकि हम अपने आपको ऊँचा समझते हैं।
    अगर हम अपने दिमाग से थोड़ी सी हवा (अहंकार)
    निकाल देवें, तो आसानी से हम अंदर जा सकते हैं।
     ज़िन्दगी सरलता का ही दूसरा नाम है।


    OM SAI RAM, SHRI SAI RAM, JAI JAI SAI RAM !!!


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    सर्वोच्च शिखर
    « Reply #402 on: November 05, 2016, 12:13:01 AM »
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  • ॐ साईं राम !!!

    सर्वोच्च शिखर

    एक युवक ने एक संत से कहा, 'महाराज, मैं जीवन में सर्वोच्च शिखर पाना चाहता हूं
    लेकिन इसके लिए मैं निम्न स्तर से शुरुआत नहीं करना चाहता।

    क्या आप मुझे कोई ऐसा रास्ता बता सकते हैं जो मुझे सीधा सर्वोच्च शिखर पर
    पहुंचा दे।'

    संत बोले, 'अवश्य बताऊंगा। पहले तुम आश्रम के बगीचे से सबसे सुंदर गुलाब
    का फूल लाकर मुझे दो। लेकिन एक शर्त है। जिस गुलाब को तुम पीछे छोड़ जाओगे,
    उसे पलटकर नहीं तोड़ोगे।'

    युवक यह आसान सी शर्त मानकर बगीचे में चला गया।

    वहां एक से एक सुंदर गुलाब खिले थे। जब भी वह एक गुलाब तोड़ने के लिए आगे
    बढ़ता, उसे कुछ दूर पर उससे भी अधिक सुंदर गुलाब नजर आते और वह उसे छोड़
    आगे बढ़ जाता। ऐसा करते-करते वह बगीचे के मुहाने पर आ पहुंचा। लेकिन
    यहां उसे जो फूल नजर आए वे एकदम मुरझाए हुए थे।

    आखिरकार वह फूल लिए बिना ही वापस आ गया।

    उसे खाली हाथ देखकर संत ने पूछा, 'क्या हुआ बेटा, गुलाब नहीं लाए?'

     युवक बोला, 'बाबा, मैं बगीचे के सुंदर और ताजा फूलों को छोड़कर आगे और
    आगे बढ़ता रहा, मगर अंत में केवल मुरझाए फूल ही बचे थे। आपने मुझे पलटकर
    फूल तोड़ने से मना किया था। इसलिए मैं गुलाब के ताजा और सुंदर फूल नहीं तोड़ पाया।'

    उस पर संत मुस्करा कर बोले, 'जीवन भी इसी तरह से है।

    इसमें शुरुआत से ही कर्म करते चलना चाहिए। कई बार अच्छाई और सफलता प्रारंभ के
    कामों और अवसरों में ही छिपी रहती है। जो अधिक और सर्वोच्च की लालसा पाकर
    आगे बढ़ते रहते हैं, अंत में उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ता है।'

    युवक उनका आशय समझ गया।




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    • बाबा मुझे अपने ह्र्दय से लगा लो, अपने पास बुला लो।
    तीन कठिन कार्य
    « Reply #403 on: November 28, 2016, 03:21:23 AM »
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  • ॐ साईं राम !!!

    तीन कठिन कार्य

    एक बार यशोधन नामक राजा अपने दरबार में दरबारियों से
    चर्चा कर रहे थे।

    अचानक यशोधन ने पूछा कि दुनिया में ऐसे तीन कौन से
    कार्य हैं जिन्हें करना मनुष्य के लिए सबसे कठिन होता है?

    राजा के प्रश्न सुनकर सभी दरबारी विचारमग्न हो गए।

    काफी सोचने के बाद एक दरबारी बोला,

    'महाराज, भारी-भरकम वजन उठाना दुनिया में सबसे कठिन कार्य है।'

    दूसरा दरबारी बोला, 'मेरे विचार में तो पहाड़ पर चढ़ना सबसे दुष्कर कार्य है।

    यह प्रत्येक व्यक्ति के बस की बात नहीं है।'

    यह सुनकर एक अन्य व्यक्ति बोला,
    'महाराज, मेरे ख्याल से पानी पर चलना और आग में जलना सबसे मुश्किल है।
    अग्नि की जरा सी चिंगारी व्यक्ति की जान ले लेती है।'

    इस प्रकार अपने-अपने अनुसार सभी ने अनेक ऐसे कार्यों को गिना दिया,
    जिन्हें कठिन माना जा सकता था किंतु राजा किसी के भी जवाब से सहमत नहीं हुए।

    उन्होंने स्वामी गिरिनंद का बहुत नाम सुना था।

    स्वामी गिरिनंद लोगों की सभी समस्याओं का समाधान करते थे।
    यशोधन स्वयं स्वामी गिरिनंद के आश्रम में गए और
    उन्हें प्रणाम कर उनके पास बैठ गए।

    स्वामी जी समझ गए कि राजा कुछ पूछने के लिए उनके पास आए हैं।

    स्वामी जी के पूछने पर राजा बोले,
    'महाराज, आप मुझे तीन ऐसे कार्य बताइए जो बेहद कठिन हैं।'

    यह सुनकर स्वामी गिरिनंद मुस्कराते हुए बोले, '
    तीन कठिन कार्य तो मैं बता दूंगा लेकिन
    तुमको उन कार्यों को करने का प्रयास करना पड़ेगा।'

    राजा ने उन कार्यों को करने का वचन दे दिया।

    तब स्वामी जी बोले, 'दुनिया के तीन कठिनतम कार्य शारीरिक नहीं हैं।
    वे कुछ और ही हैं।
    उनमें पहला है-घृणा के बदले प्रेम करना।
    दूसरा है अपने स्वार्थ व क्रोध का त्याग
    और
    तीसरा है-यह कहना कि मैं गलती पर था।'

    यह सुनकर राजा ने कहा, 'आप एकदम सही कह रहे हैं।
    मुझे आशीर्वाद दें कि मैं ये कार्य कर सकूं।'
    स्वामी जी ने राजा को आशीर्वाद दिया।




    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!

    JAI SAI RAM !!!

    Offline ShAivI

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    (((((( थोड़ा झुककर विनम्र बनें ))))))

    एक संत अपने शिष्य के साथ जंगल में जा रहे थे.
    ढलान पर से गुजरते अचानक शिष्य का पैर फिसला और वह तेजी से नीचे की ओर लुढ़कने लगा l

    वह खाई में गिरने ही वाला था कि तभी उसके हाथ में बांस का एक पौधा आ गया.
    उसने बांस के पौधे को मजबूती से पकड़ लिया और वह खाई में गिरने से बच गया l

    बांस धनुष की तरह मुड़ गया लेकिन न तो वह जमीन से उखड़ा और न ही टूटा
    वह बांस को मजबूती से पकड़कर लटका रहा थोड़ी देर बाद उसके गुरू पहुंचे l

    उन्होंने हाथ का सहारा देकर शिष्य को ऊपर खींच लिया दोनों अपने रास्ते पर
    आगे बढ़ चले राह में संत ने शिष्य से कहा- जान बचाने वाले बांस ने तुमसे कुछ कहा,
    तुमने सुना क्या ?

    शिष्य ने कहा- नहीं गुरुजी, शायद प्राण संकट में थे इसलिए मैंने ध्यान नहीं दिया
    और मुझे तो पेड-पौधों की भाषा भी नहीं आती. आप ही बता दीजिए उसका संदेश l.

    गुरु मुस्कुराए- खाई में गिरते समय तुमने जिस बांस को पकड़ लिया था,
    वह पूरी तरह मुड़ गया था फिर भी उसने तुम्हें सहारा दिया और जान बचा ली l

    संत ने बात आगे बढ़ाई- बांस ने तुम्हारे लिए जो संदेश दिया वह मैं तुम्हें दिखाता हूं.
    गुरू ने रास्ते में खड़े बांस के एक पौधे को खींचा औऱ फिर छोड़ दिया.
    बांस लचककर अपनी जगह पर वापस लौट गया l

    हमें बांस की इसी लचीलेपन की खूबी को अपनाना चाहिए तेज हवाएं बांसों के झुरमुट को
    झकझोर कर उखाड़ने की कोशिश करती हैं लेकिन वह आगे-पीछे डोलता
    मजबूती से धरती में जमा रहता है l

    बांस ने तुम्हारे लिए यही संदेश भेजा है कि जीवन में जब भी मुश्किल दौर आए तो
    थोड़ा झुककर विनम्र बन जाना लेकिन टूटना नहीं क्योंकि बुरा दौर निकलते ही पुन:
    अपनी स्थिति में दोबारा पहुंच सकते हो l

    शिष्य बड़े गौर से सुनता रहा. गुरु ने आगे कहा- बांस न केवल हर तनाव को झेल जाता है
    बल्कि यह उस तनाव को अपनी शक्ति बना लेता है और दुगनी गति से ऊपर उठता है l

    बांस ने कहा कि तुम अपने जीवन में इसी तरह लचीले बने रहना.
    गुरू ने शिष्य को कहा- पुत्र पेड़-पौधों की भाषा मुझे भी नहीं आती.
    बेजुबान प्राणी हमें अपने आचरण से बहुत कुछ सिखाते हैं l

    जरा सोचिए कितनी बड़ी बात है. हमें सीखने के सबसे ज्यादा अवसर उनसे मिलते हैं
    जो अपने प्रवचन से नहीं बल्कि कर्म से हमें लाख टके की बात सिखाते हैं.
    हम नहीं पहचान पाते, तो यह कमी हमारी है l




    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!

    JAI SAI RAM !!!

     


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