DwarkaMai - Sai Baba Forum
Main Section => Little Flowers of DwarkaMai => Topic started by: JR on April 03, 2007, 09:44:19 AM
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सुबह की उजास फुटपाथ से लगे ठेलों पर उतर आई थी। सामने सड़क पर लोगों की आमद-रफ्त शुरू हो चुकी थी। लेकिन सुंदरा अपने ठेले के बगल में सुख की नींद लिए सपनों में खोया पड़ा था, तभी यकायक उसके कानों के पास साइकल की घंटी बज उठी। उसने मिचमिचाती आँखों से देखा- सामने दूधवाला खड़ा था।
'क्यों रे सुंदरा! आज, ठेला नहीं लगाना क्या?' दूधवाला बोला- 'सेठ आने ही वाला होगा, तेरी ऐसी-तैसी करने।'
सुंदरा हड़बड़ाकर उठ बैठा और आँखें मलते हुए उसने ठेले की तालपत्री खोली। नीचे के खाने से टोप निकालकर जम्हाई लेते हुए बोला- 'तीन लीटर डाल दे।' दूधवाला दूध देकर आगे बढ़ गया। सुंदरा ने जल्दी-जल्दी स्टोव जलाया और उस पर दूध का टोप रख दिया। दूसरे बड़े स्टोव पर चाय का पानी भी चढ़ा दिया। यह उसका रोजमर्रा का काम था।
उसे यह देखकर थोड़ा संतोष हुआ कि शेट्टी-उसका सेठ, अभी तक नहीं आया था।
दूध उबल चुका था। पानी भी खौलने को था। ठेले की साफ-सफाई करने के बाद वह ठेले पर चाय, चीनी, बिस्कुट और खारी के डिब्बे लगाने लगा, तभी उसे शेट्टी आता दिखाई दिया। उसने खोखे से कुछ अदरक की गाँठें निकालीं और उन्हें कूटने लगा।
'जल्दी-जल्दी हाथ चलाया कर रे कलवे। ग्राहकों का टाइम होयेला है।'
'सब हो गया शेठ।' वह जबरन मुस्कुराते हुए बोला और जल्दी-जल्दी अदरक कूटने लगा, तभी उसकी पीठ लचक गई और वह जोर से कराह उठा।
'अब फूट यहाँ से। नल से बल्टियाँ भर ला। जल्दी कर' शेट्टी टोप के पानी में अदरक डालते हुए बोला।
सुंदरा बल्टियाँ लेकर म्युनिसपलिटी के नल की ओर चल दिया। यह भी उसकी रोज की ड्यूटी थी। शेट्टी नहीं चाहता था कि पहला ग्राहक उसकी सूरत देखे। उसकी सूरत भी क्या थी- बड़ा कद्दू सा सर, मोटी बैंगन-सी नाक, दाँत बाहर को निकले हुए, छोटी-छोटी अधखुली-सी आँखें और रंगत बिलकुल कोयले जैसी। पहली बार उसे देखने पर मन मिचला-सा जाता था।
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जब वह गाँव में था, तब भी उसकी उमर के लड़के उसे अपने साथ नहीं खिलाते थे। उन्होंने उसका नाम कलवा रख दिया था। वह एक कोने में खड़ा लड़कों को खेलता देखता रहता था। उसका भी मन होता था कि वह भी खेले, लेकिन वे उसे डरा देते थे, उसकी हँसी उड़ाते थे और कभी-कभी कुछ शरारती लड़के उसको ही अपना खेल बना लेते थे।
उसके घर में बस एक बड़ी बहन सुक्खी थी, जो आसपास के लोगों के घर झाडू-पोंछा करती और किसी तरह दोनों जनों के लिए रोटी जुटा लेती थी। वह जानती थी कि उसका भाई तन से न सही, मन से बड़ा सुंदर है, लेकिन सभी उसकी बाहरी बदसूरती देखते हैं, उसके भीतर कोई नहीं झाँकता। वैसे गाँव के लोग भी उससे कतराते रहते थे। हाँ, आड़े वक्त में उसी को बेगारी के लिए बुला लेते और सुंदरा था कि खुशी-खुशी उनका काम कर देता था। कभी-कभी अपनी खटारा साइकल पर बड़े बाजार से वह उनका सौदा भी ले आता था। उसे साइकल चलाने में बड़ा मजा आता था।
उन दिनों गाँव में एक अंधी बुढ़िया रहती थी। वह दिनभर गाँव में भीख माँगती फिरती। एक दिन कुछ बदमाश लड़कों ने बुढ़िया के कटोरे से सारे पैसे उठा लिए। सुंदरा ने उनको रोकना चाहा, लेकिन लड़के उससे भिड़ गए और उसे इतना मारा कि वह वहीं सड़क पर बेहोश होकर गिर पड़ा। जब तक उसे होश आया, लड़के भाग चुके थे। वह किसी तरह अपनी झोपड़ी तक पहुँच पाया।
सुक्खी ने जब सुंदरा को खून से लथपथ देखा तो जैसे उसके हाथों के तोते उड़ गए। उसने उसे खाट पर बिठाया, उसके घावों का खून पोंछा और उसके घावों पर हल्दी का लेप कर दिया। उस रात वह रातभर सुंदरा के पास बैठी रही और अपनी बदकिस्मती पर रोती रही।
कुछ दिनों में सुंदरा चंगा हो गया। लेकिन अब इस गाँव से उसका मन ऊब गया था। उसे लगा कि यहाँ उसके लिए कुछ नहीं रखा है। वह जब तक यहाँ रहेगा, ऐसे ही सबसे दुत्कारा जाता रहेगा; ऐसे ही शरारती लड़के उसको पीटते रहेंगे और उसका मजाक बनाते रहेंगे। एक दिन जब काम-धंधा निपटाकर सुक्खी घर पहुँची और दोनों भाई-बहन खाने पर बैठे तो सुंदरा उससे बोला- 'सुक्खी, अब इस गाँव में नहीं रहा जाता।'
सुक्खी कुछ देर उसके चेहरे को देखती रही, फिर बोली- 'तो कहाँ रहेगा?'
'कहीं भी रह लूँगा। धरती बहुत बड़ी है। कहीं तो ठौर मिल जाएगी।'
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'तू चला जाएगा तो मेरा क्या होगा?'
कुछ सोचकर सुंदरा बोला- 'तू भी चल, मेरे कने।'
'बाप-दादा की झोपड़ी को, पिछवाड़े के जमीन के टुकड़े को छोड़कर चल पडँू तेरे साथ, तो इस सब का क्या होगा?'
'तू सोच ले। मैं तो यहाँ रहने का नईं अब,' फिर कुछ रुककर बोला- 'तू इस झोपड़े और जमीन का मोह छोड़ दे। मोह दुख ही देते हैं।'
सुक्खी को समझ नहीं आ रहा था कि वह सुंदरा को कैसे समझाए। वह गुमसुम हो, चिंता में डूब गई। और दूसरे ही दिन सबेरे जब सुक्खी जागी तो उसने देखा, सुंदरा का बिस्तर खाली था। वह सिर पीटकर रह गई।
सुंंदरा को शहर में आए छः महीने हो गए थे। इस दौरान कभी वह भूखा ही सो रहता और कभी किसी होटल के बाहर मँगतों की कतार में बैठा दो रोटी के टुकड़ों का इंतजार करता। वह लोगों के सामने काम के लिए गिड़गिड़ाता, लेकिन उसकी भयानक सूरत को देखकर हर कोई उसे अपने पास से भगा देता। एक दिन वह भूखा-प्यासा एक चाय के ठेले के पास खड़ा था। ठेले के पास चाय-नाश्ता करते लोगों को वह भूखी आँखों से देखे जा रहा था, तभी उसे चाय पिला रहे शेट्टी की डाँटती आवाज सुनाई पड़ी- 'क्या है रे, चल हट यहाँ से।'
'सेठ, दो दिन से खाना नहीं खाया है।' वह रुँआसा होकर बोला।
'तो मैं क्या करूँ?'
'मुझे काम चाहिए सेठ। खाना बाद में दे देना।'
'क्या काम करेगा तू?'
'कुछ भी, जो कहोगे, करूँगा।'
शेट्टी के ठेले पर काम करने वाला लड़का दो दिन पहले ही काम छोड़कर चला गया था। उसने एक बार सुंदरा की तरफ देखा और बोला- 'काम करने के बाद खाएगा?'
'हाँ सेठ।'
'तो ठीक है। ले इन गिलासों को साफ कर...जल्दी-जल्दी हाथ चलाना।' उसने चाय के जूठे गिलासों की ओर इशारा करके कहा।
'हाँ सेठ।'
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सुंदरा वहीं फुटपाथ पर बैठ गया और जल्दी-जल्दी गिलासों, कपों, तश्तरियों को माँज-माँजकर धोने लगा। ग्राहकों को निपटाते हुए शेट्टी, सुंदरा को भी देखे जा रहा था। उसकी फुर्ती और लगन को देखकर शेट्टी को अच्छा लगा। उसे लगा कि यह काम का लड़का है। इससे उसकी अच्छी मदद हो जाएगी।
देर रात को ठेला बंद करने के बाद शेट्टी ने उसके हाथ में एक रुपया पकड़ाते हुए कहा- 'कहीं जा के पाव-भाजी खा लेना...और सुबो छः बजे काम पर आ जाना।'
नोट को मुट्ठी में भींचकर सुंदरा बोला- 'मैं कहाँ जाऊँ सेठ? मेरा तो कहीं भी कुछ नहीं है।'
'अरे वाह, अब तेरे रहने का बंदोबस्त भी मैं करूँ...?' सुंदरा कुछ नहीं बोला। बस, शेट्टी के सामने चुपचाप खड़ा रहा।
शेट्टी ने पास लगे और ठेलों की ओर इशारा करके कहा- 'ये लड़के भी रात को यहीं पड़े रहते हैं, अपने ठेलों के पास। तू भी वहीं सोए रहना।'
'ठीक है सेठ।' सुंदरा ने गर्दन हिला दी।
उसे सुबह के काम की कुछ हिदायतें देकर शेट्टी अपनी खोली में जाने के लिए आगे बढ़ गया।
रात हुए काफी वक्त हो गया था। पास के लड़के अपने ठेलों के बराबर में अपनी गुदड़ी लेकर सोने लगे थे, तभी एक लड़का, जो सुंदरा से उम्र में बड़ा था, उसके पास आया और बोला- 'तू नवा-नवा आएला है क्या?'
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सुंदरा ने 'हाँ' में सर हिला दिया।
'क्या नाम है तेरा?' उस लड़के ने फिर पूछा।
'सुंदरा।' सुंदरा ने धीरे से कह दिया। लड़का बड़े जोर से हँसने लगा, 'सुंदरा...हा...हा...हा...सुंदरा। सुंदरा नहीं, काला भूत है तू। कालिया कहीं का। हा...हा...हा...।' वह हँसे जा रहा था और दूसरे लड़कों को बुला-बुलाकर कह रहा था- 'देखो, काला भूत देखो...मुफ्त में देखो...देखने का कोई पैसा, कोई टिकस नहीं...।'
उस बढ़ती हुई रात में, बिजली की मद्धम रोशनी में सुंदरा के आसपास कई लड़के जमा हो गए थे और उसका मजाक बनाने लगे थे। किसी-किसी ने उसके सिर पर टिक्की भी मारी। बेचारा सुंदरा... वह चुपचाप सबकी हँसी, सबके ठहाकों और शरारतों को सहन करता रहा। उसकी जबान जैसे तालू से चिपक गई थी। वह किसी से कुछ कह भी नहीं पाया, तभी एक अधेड़-सा, लंबा-चौड़ा आदमी इन लड़कों के पास आकर चिल्लाया- 'यह क्या हो रहा है स्सालों? बहुत मस्ती आ रही है तुम्हें कुतरों। सबको काम से निकाल दूँगा...।'
लड़कों को जैसे साँप सूँघ गया। यह बड़ा शेठ था। आसपास के सब ठेलेवालों का शेठ। लड़के इसे पहचानते थे। वह ठेलों पर वसूली के लिए आता रहता था। उसे देखकर सब तितर-बितर होने लगे। बस सुंदरा ही अपनी जगह पर सर झुकाए बैठा रहा। बड़ा शेठ उसके सामने जाकर खड़ा हो गया। सुंदरा भी उसे देखकर उठ खड़ा हुआ।
'क्या नाम है तेरा।' शेठ ने उसकी ठुड्डी को ऊपर उठाते हुए पूछा।
'सुंदरा...।' सुंदरा ने डरते हुए रुक-रुककर कहा।
'किसी ठेले पर लगा है?'
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हाँ शेठ। इसी ठेले पर काम लगा है।' उसने शेट्टी के ठेले की तरफ इशारा कर दिया।
'अच्छा, शेट्टी के ठेले पर? कब से लगा है?'
'आज से ही शेठ।'
'ठीक है। खूब होशियारी से काम करना।'
'हाँ शेठ, करूँगा।' बड़ा शेठ दूसरे ठेलों का जायजा लेते हुए आगे बढ़ गया।
खुरदरा नंगा फुटपाथ। रातभर सुंदरा को नींद नहीं आई। वह करवटें बदलता रहा और चुप-चुप रोता रहा।
किसी तरह सुबह हुई तो वह उठकर बैठ गया। शेट्टी ने उसे पिछली रात काम समझा दिया था। उसने जल्दी-जल्दी ठेले की तालपत्री खोली। नीचे से चाय का सामान निकाला। एक टोप में रात का कुछ दूध बचा था, उसने स्टोव जलाकर दूध का टोप उस पर रख दिया।
कुछ देर बाद शेट्टी वहाँ आया और ठेले को तैयार देखकर खुश हो गया। लेकिन सुंदरा के चेहरे को वह सह नहीं पा रहा था। वह उससे बोला- 'देख सुंदरा, ठेला तैयार करके तू पानी की बल्टियाँ भरने चला जाया कर। पहले ग्राहक को तेरी सूरत नहीं दिखनी चाहिए। नहीं तो सारा दिन कोई ग्राहक नहीं फटकेगा ठेले पर।' तब से यह सुंदरा का रोज का नियम बन गया था।
शेट्टी के ठेले पर काम करते उसे सालभर हो चला था। शेट्टी अब उसके लिए दिन का खाना अपने घर से ले आया करता था। रविवार के दिन उसे छुट्टी भी मिल जाती थी। सुंदरा भी अपने हालात से संतुष्ट था। उसे किसी से कोई शिकायत नहीं थी। अब उसे पगार के डेढ़ सौ रु. भी मिलने लगे थे। कभी-कभी दोपहर को शेट्टी उसे बड़े शेठ के घर भी भेज देता था। ऊपरी काम के लिए। बदले में बड़े शेठ की औरत उसे कुछ खिला-पिला देती थी।
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सुंदरा को वह औरत अपनी माँ जैसी लगती, हालाँकि उसे अपनी माँ की कोई याद नहीं थी। वह सोचता, शायद माँ ऐसी ही होती होगी। एक दिन शाम को बड़ा शेठ, शेट्टी के ठेले पर आया। शेट्टी को डाँटते हुए वह बोला- 'शेट्टी चार महीने हो गए तूने अभी तक पिछला हफ्ता नहीं चुकाया।' शेट्टी बोला- 'शेठ, बड़ी बेटी बहुत बीमार है। दो महीने हो चले हैं, उसे सरकारी अस्पताल में दाखिल करवा रखा है। जो कमाई होती है, दवा-दारू में निकल जाती है। बस, इसीलिए देर हो गई है। मैं जल्दी ही कुछ इंतजाम करता हूँ।'
'ये तो तू पिछले हफ्ते से कहे है। तुझ पर पूरा हजार रुपया चढ़ गयेला है। अगर अगले हफ्ते तक पूरा पैसा नहीं मिला तो मैं ठेला किसी और को दे दूँगा।' कहता हुआ बड़ा शेठ दूसरे ठेलों की तरफ बढ़ गया। सुंदरा पास खड़ा सब सुन रहा था। उसे यह सोचकर फिक्र होने लगी कि अगर बड़े शेठ का पैसा नहीं चुकाया गया तो फिर उसका क्या होगा। इस बात को लेकर वह दिनभर अनमना बना रहा।
उस दिन सोमवार था।
बड़े शेठ का पैसा चुकाने में अब सिर्फ तीन दिन बचे थे। शेट्टी बहुत परेशान था। उसे कहीं से कोई मदद नहीं मिल पा रही थी। उसे यह चिंता खाए जा रही थी कि अगर बड़े शेठ ने किसी और को ठेला दे दिया, तो उसके तो खाने के लाले पड़ जाएँगे।
वह सोचता हुआ अपने ठेले के पास खड़ा था, तभी बड़ा शेठ उधर से निकला। शेट्टी को देखकर वह रुक गया और बोला- 'शेट्टी तेरे हजार रुपए मिल गए हैं। इस छोकरे के हाथ इतनी रकम क्यों भिजवाई? अगर वो इसे लेकर कहीं भाग जाता तो?' शेट्टी अचकचाकर बड़े शेठ का मुँह देखने लगा। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। कभी वह बड़े शेठ की तरफ देखता और कभी सुंदरा की तरफ, जो वहीं जमीन पर कप-गिलास धोने में लगा था।
'इन छोकरों का इतना विश्वास मत किया कर, नहीं तो एक दिन पछताएगा।' कहता हुआ बड़ा शेठ एक तरफ को चल दिया। अब शेट्टी सुंदरा की ओर मुड़ा। वह चुपचाप बाल्टी में डाले गिलासों को धो रहा था।
'तुझे इतने पैसे कहाँ से मिले रे?' शेट्टी उससे बोला।
'शेठ, शनिवार की रात में बड़े स्टेशन की तरफ निकल गया था। उसके सामने के मैदान में मेला लगा है। घूमता-घामता मैं भी मैदान में चला गया। वहाँ एक जगह मैंने बड़ी भीड़ देखी। सब लोग एक घेरा बनाकर तमाशा देख रहे थे। बड़े घेरे की बीच की जगह पर दस-बाहर लड़के साइकल चला रहे थे। एक आदमी हाथ में भोंपू लिए चिल्ला रहा था-'हजार रुपए...हजार रुपए का इनाम है भाइयों। जो सबसे ज्यादा देर तक साइकल चलाएगा, उसे हजार रुपए का इनाम दिया जाएगा।'
'तो?' शेट्टी ने पूछा।
'तो मैंने उस आदमी से पूछा, क्या मैं भी साइकल चला सकता हूँ।'
'जरूर, जरूर...।' उस आदमी ने कहा और एक ओर पड़ी साइकलों की ओर इशारा करके कहा- 'उठा ले, एक साइकल और हो जा शुरू।'
'मैंने साइकल उठाई और घेरे के चक्कर काटने लगा। पूरी रात मैं साइकल चलाता रहा और अगले दिन दोपहर तक मैंने साइकल नहीं छोड़ी। तब तक सभी लड़के थककर बैठ गए थे। बस, एक था जो मेरे साथ-साथ चलाता रहा था। लेकिन दोपहर को वह भी बेहोश होकर गिर पड़ा। उसके बाद मैंने दो चक्कर और लगाए और इनाम जीत लिया। कुछ और लोगों ने भी मुझे इनाम दिया।' शेट्टी उसको देखे जा रहा था- थोड़े आश्चर्य, थोड़ी खुशी और थोड़ी आत्मग्लानि के साथ।
'सुंदरा! तू सचमुच सुंदर है। बहोत-बहोत सुंदर है तू...।' और उसने उसे उठाकर अपनी छाती से लगा लिया। आज पहली बार उसे सुंदरा का चेहरा बहुत खूबसूरत लग रहा था।
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