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Main Section => Little Flowers of DwarkaMai => Topic started by: JR on March 27, 2007, 03:58:06 AM

Title: रोटियों का त्यौहार
Post by: JR on March 27, 2007, 03:58:06 AM
रोटियों का त्यौहार  


देवीपुर गाँव में शिवदास नामक एक गृहस्थी रहा करता था ।  वह हर दिन अन्न दान किया करता था ।  एक दिन रात के समय एक बूढ़ी ने उसके घर का दरवाजा खटखटाया ।  शिवदास की पत्नी ने दरवाजा खोला और पूछा, क्या चाहिये ।

बूढ़ी ने कहा, मैं तुम्हारे लिये नहीं आयी हूँ ।  अपने पति को बुलाना ।  शिवदास ने बूढ़ी की आवाज सुनी और बाहर आया ।  उसने बूढ़ी को प्रणाम करते हुए पूछा, माँ, तुम्हें क्या चाहिये ।

तुम्हारे घर कोई थोड़े ही आता है ।  भोजन करने आयी हूँ ।  बूढ़ी ने कहा ।

बहुत प्रसन्न हुआ ।  अंदर आना माँ, शिवदास ने उसे अन्दर आने के लिये बुलाया ।

अगर तुम चाहते हो कि मैं भोजन करूँ तो तुम्हें एक वचन देना होगा, बूढ़ी ने कहा ।  शिवदास ने पूछा, कहो माँ मैं क्या करुँ ।

मैं बहुत तकलीफों में हूँ ।  जब तक मन में पीड़ा है, तब तक मैं भोजन नहीं कर सकती ।  मेरी तकलीफों को तुम अगर अपना लोगे तो मैं सहर्ष भोजन कर सकूँगी ।  बूढ़ी ने कहा ।

शिवदास ने फोरन कहा, इसी क्षण से मैं तुम्हारी तकलीफें अपना रहा हूँ ।  अंदर आना और भोजन करना माँ ।

उसकी इन बातों पर बेहद खुश होते हुए बूढ़ी ने काह, तुम्हारे वचन से मैं बहुत खुश हुई ।  कितने लोग ऐसे होंगे, जो दूसरोंके कष्टों को अपनाते होंगे ।  अवश्य ही मैं तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार करुँगी ।  परन्तु हाँ मैं अन्दर नहीं आऊँगी ।  घर मेरे लिये तंग होगा ।  यहीं रहूँगी ।  जाओ और भोजन यहीं ले आना ।  एक और बात आज रोटी खाने की मेरी इच्छा हो रही है ।  हों तो ज्वार की रोटियाँ ले आना ।

हाँ माँ कहते हुए शिवदास अंदर गया और पत्नी से ज्वार की रोटियाँ बनवाकर ले आया ।  बाहर आये शिवदास को वह बूढ़ी वहाँ दिखायी नहीं पड़ी ।  जहाँ वह बैठी थी, वहाँ अन्नपूर्णेश्वरी देवी की प्रतिमा थी । उस प्रतिमा के ऊपर नागसर्प फन फैलाये हुआ था ।

शिवदास जान गया कि वह बूढ़ी कोई और नहीं, साक्षात् अन्नपूर्णेश्वरी देवी ही है ।  उसके आनन्द की सीमा नहीं रही ।  यह समाचार गाँव भर में आग की तरह फैल गया लोगों की भीड़ लग गयी और वे देवी के दर्शन करने आने लगे ।

तीन महीनों के अंदर ही उस गाँव में एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण कराया गया और देवी की प्रतिमा उसमें प्रतिष्ठापित की गयी ।  जो भक्त देवी के दर्शन करने आते थे, गाँव की प्रजा उनका आतिथ्य करती थी ।  वे यह कहते हुए रोटियाँ बाँटते थे हम आपके कष्टों को अपना रहे है ।  आपका शुभ हो ।

तब से लेकर उस गाँव में हर साल रोटियों का त्योहार मनाया जाने लगा ।  जो ये रोटियाँ खाते थे, उनकी समस्याएँ हल हो जाती थी और उनके मन को शांति प्राप्त होती थी ।  इन स्वादिष्ट रोटियों की रुचि निराली होती थी ।  कहा जाने लगा कि राजा के रसोई-घर में भी ऐसी रोटियाँ नहीं बनती ।

राजा को भी इसका समाचार मिला ।  राजा को इस पर आर्श्चय हुआ और उन्होंने अपने प्रधान रसोइयो को बुलवाकर कहा, देवीपुर की रोटियों को इतनी प्रसिद्घी कैसे मिली ।  एक बार वहाँ जाना और देखना कि वे ये रोटियाँ कैसे बनाते है ।

प्रभु रोटियों का स्वाद बनाने से नहीं आता ।  उन्हें जो बनवाते है और खिलाते है, उनका महान गुण इस स्वाद का रहस्य है ।  साथ ही जो खाते है, उनकी चाहेंअच्छी हों तो ये रोटियाँ और स्वादिष्ट लगती है, रसोइयो ने कहा ।

राजा ने आश्चर्य से पूछा, तुम्हारे कहने का क्या मतलब है ।

मेरे बचपन में इससे सम्बन्धित एक घटना घटी ।  कृपया सुनिये ।  रसोइये ने फिर वह घटना यों बतायी ।

मंगापुर, देवीपुर के बगल का ही गाँव है ।  मैं उसी गाँव का हूँ ।  उस गाँ में शांतन नामक एक चोर रहा करता था ।  चोरियाँ करते हुए वह जिन्दगी गुजारता था ।  पर उसकी पत्नी गौरी उससे बार बार कहा करती थी, कब तक चोरियाँ करते रहोगे ।  मुझे तो हमेशा इस बात का डर लगा रहता है कि किसी क्षण तुम आपत में फंस जाओगे ।  चोरी छोड़ो और मेहनत करके कमाओ, जो है, उसी में खुश रहेंगे ।

शांतन को मालूम था कि गौरी उसे बहुत चाहती है ।  कुछ दिनों के बाद इस विषय को लेकर वह सोचने भी लगा ।  तभी उसे मालूम हुआ कि देवीपुर में जाकर रोटियाँ खाने पर मन की मुराद पूरी होगी ।  उसने निश्चय किया कि एकबड़ी चोरी करके फिर चोरी करना छोड़ दूँगा ।

वह उसी दिन देवीपुर जाने के लिये निकल पड़ा ।  रास्ते में लोगों से उसने देवीपुर की रोटियों की प्रशंसा सुनी तो उसके मुँह में पानी भर आया ।  उसने मन ही मन सोचा, आज मेरी मनोकामना पूरी होगी ।  स्वादिष्ठ रोटियाँ भी खाऊँगा और चोरी करके बहुत-सा धन भी पाऊँगा ।

जैसे ही वह देवीपुर पहुँचा, सामने से आता रामदास नामक एक गृहस्थी ने उसका स्वागत करते हुआ कहा, आज मेरे घर आकर मेरा आतिथ्य स्वीकार करिये ।  वह उसे अपने घर ले गया, उसका स्वागत-सत्कार किया और कहा, आपकी सभी तकलीफों को मैं अपनाना चाहता हूँ ।  आपका शुभ होगा ।  फिर उसने उसे रोटियाँ खिलायीं ।

शांतन मुँह में रोटी रखते ही स्तंभित रह गया क्योंकि वह बहुत कड़वी थी ।  रामदास को यह मालूम नहीं था, इसलिये उसने कहा रोटी स्वादिष्ठ है न ।  सब अन्नपूर्णेश्वरी देवी की महमा है ।  शांतन रोटी को निगल भी नहीं पाता था ।  पर करे क्या ।  उसने बाकी रोटियों की गठरी बांध ली और वहाँ से निकल पड़ा ।

भले ही रोटी रुचिकर न हो, पर रामदास का आर्शीवाद फलीभूत हो ।  शुभ हो ।  यही सोचकर शांतन ने उस रात को एक धनवान के घर में चोरी करने का प्रयत्न किया ।  वह पकड़ा गया और धनिक के नौकरों ने उसे खूब पीटकर छोड़ दिया ।  दर्द के मारे कराहता हुआ वह घर लौटा ।  उसकी हालत देखकर गौरी भाँप गयी और उसने कहा कितनी बार कह चुकी हूँ ।  देख लिया ना, ।  आखिर वही हुआ, जिसका मुझे डर था ।  जो होना था, हो गया ।  वह देवीपुर जाकर रोटी ले आयी ।  सब अच्छा हो, शुभ हो, यही प्रार्थना करती हुई उसने दो रोटियाँ उसे दी ।

मैं खुद देवीपुर गया और वहां रोटियाँ खायी ।  वे तो बहुत कड़वी थी ।  मुझसे खाया नहीं गया ।  दर्द भरे स्वर में शांतन ने कहा ।

जो रोटियाँ हम सबको स्वादिष्ट लगती है, वे तुम्हीं को क्यो कड़वी लग रही है ।  इसका यह मतलब हुआ कि देवी तुम्हारी दुर्बुद्घि जान गई ।  अब मेरी बात ध्यान से सुनो ।  तुम चोरियाँ करना नहीं छोड़ोगे तो मैं आत्महत्या कर लूँगी ।  गौरी ने आँसू बहाते हुए कहा ।

ऐसा मत करना गौरी ।  आगे से चोरी नहीं करुँगा ।  फिर उसने कसम भी खायी, पर उसमें यह संदेह जगा कि जो रोटियाँ सबको स्वादिष्ट लगती है, केवल उसी को क्यों कड़वी लग रही है ।  उसने यह बात गौरी को बतायी ।  तब गौरी ने उससे कहा, इस पूरे साल भर चोरियाँ मत करना ।  एक अच्छे आदमी की तरह जिन्दगी बिताना ।  फिर देखना, देवी की रोटियाँ कितनी स्वादिष्ट होती है ।

उस दिन से शांतन मजदूरी करने लगा ।  कभी-कभी चोरी करने की उसकी इच्छा होती थी, पर बड़ी कोशिश करके अपन को वह नियंत्रण में रखता था ।  एक साल के बाद पत्नी सहित वह देवीपुर गया और रोटियों के त्यौहार में भाग लिया ।  एक रोटी उसने मुँह में जब डाली, वह उसे बड़ी ही रुचिकर लगी ।  उसकी आँखों में आँसू उम़ आये ।  वह देवी के मंदिर में गया और हाथ जोड़ते हुए कहा, क्षमा करना माँ, अब मैं कभी भी चोरी नहीं करुँगा ।

पति में जो परिवर्तन आया, उससे गौरी बहुत खुश हुई ।  दो ही सालों के अंदर उन्होंने खेत भी खरीद लिया और अब वे आराम से जिन्दगी गुजारने लगे ।

शांतन की कहानी सुनते ही राजा ने ठान लिया कि देवीपुर जाकर अन्नपूर्णेश्वरी देवी के दर्शन करुँगा ।  राजा परिवार सहित वहाँ गये और देवी से प्रार्थना की, आर्शीवाद माँगा कि उसकी प्रजा सुखी हो, उन्हें किसी बात की कमी न हो ।  मंदिर से बाहर आते ही एक गरीब किसान ने उन्हें रोटियाँ दी ।  उन्हें खाकर राजा मुग्ध रह गये ।  दूसरों के कष्टों को अपनाने वाली, स्वीकार करने वाली देवीपुर की प्रजा को कोई कष्ट न पहुँचे इसके लिये उन्होंने आवश्यक प्रबन्ध भी किये ।   
Title: Re: रोटियों का त्यौहार
Post by: saibetino1 on March 28, 2007, 01:49:59 AM
Om Sai Ram Om Sai Ram ,

          Sai Ram Jyoti ji ,

                                     It is really nice story , it has 2 moral as i believe:-


  1)   Try to Helpful others , share their sorrows . Don't think they are not ur own people but think tht all this world is mine n all we are Brothers n sisters.

  2)   Roti has so much importance in everybodies life , n this importance can be evaulated by a man who is starving or diying 'coz of hunger , so pls don't waste it , try to feed a poor daily .


thanku soo much for sharing this wonderfull story with us...
           keep on writing ... we are here to read it .

sai sai sai
neelam
Title: Re: रोटियों का त्यौहार
Post by: Ramesh Ramnani on April 04, 2007, 01:25:10 AM
जय सांई राम।।।

संत अनेक हुए है, परन्तु भक्तों के लिये
अनाज पीसने वाले अकेले सांई ही थे। सांई बाबा मेरे।

चक्की का आटा अर्थात् भक्तों के पाप, शारीरिक और मानसिक कष्ट। चक्की का नीचे का पत्थर कर्म और उपर का पत्थर भक्ति है। उसका हत्था ज्ञान का है,  जिससे बाबा भक्तों के आधि व्याघि व पापों को पीस कर नष्ट करते है। सांई की लीलायें अघाग हैं। वे भक्तों के लिये बोधप्रद होकर पापविनाशक होंगी। जो मनुष्य संत का कृपापात्र है उसे इस कथा मे कुछ भी विचित्र नही लगेगा।

अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई


ॐ सांई राम।।।
Title: Re: रोटियों का त्यौहार
Post by: tana on April 04, 2007, 01:36:59 AM
जय सांई राम।।।

संत अनेक हुए है, परन्तु भक्तों के लिये
अनाज पीसने वाले अकेले सांई ही थे। सांई बाबा मेरे।

चक्की का आटा अर्थात् भक्तों के पाप, शारीरिक और मानसिक कष्ट। चक्की का नीचे का पत्थर कर्म और उपर का पत्थर भक्ति है। उसका हत्था ज्ञान का है,  जिससे बाबा भक्तों के आधि व्याघि व पापों को पीस कर नष्ट करते है। सांई की लीलायें अघाग हैं। वे भक्तों के लिये बोधप्रद होकर पापविनाशक होंगी। जो मनुष्य संत का कृपापात्र है उसे इस कथा मे कुछ भी विचित्र नही लगेगा।

अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई


ॐ सांई राम।।।


om sai ram....

Ramesh ji....
bahuttttttt accha.......karam.....bhakti.....gyan.......paap.....kasht....bahuttttttttt suder.....
sach main SAI ki leela he hai....sai ki chakki....

jyoti nae yeh katha likhi aap nae isse apne shabdo se paripurna kar diya...

phir se vhi ...tusi gr8 ho bha ji...

jai sai ram...
Title: Re: रोटियों का त्यौहार
Post by: Ramesh Ramnani on April 06, 2007, 01:33:58 AM
जय सांई राम।।।

रोटियों के त्यौहार के विषय को पढ़ने के बाद मुझे महाभारत में घटित उस घटना का ध्यान हो जाता है जिसमे भीष्म पितामह ने अन्न के प्रभाव के बारे में बताया था।
 
महाभारत का युद्ध अंतिम दौर में था। भीष्म पितामह शरशैया पर लेटे थे। युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ उनके चरणों के समीप बैठे उनका धर्मोपदेश सुन रहे थे। तभी द्रौपदी वहां उपस्थित हुई और बोली, 'पितामह मेरी भी एक शंका है।' 'बोलो बेटी', भीष्म ने स्नेहपूर्वक कहा। 'पितामह! मैं पहले ही क्षमा याचना कर लेती हूं। प्रश्न जरा टेढ़ा है।'

' बेटी, जो पूछना है निर्भय होकर पूछो।' भीष्म बोले। 'पितामह! जब भरी सभा में दु:शासन मेरा चीरहरण कर रहा था, उस समय आप भी वहां उपस्थित थे, किंतु आपने मेरी सहायता नहीं की। बताइए, उस समय आपका विवेक और ज्ञान कहां चला गया था? एक अबला के चीर हरण का दृश्य आप अपनी आंखों से किस प्रकार देख सके थे?' यह सुनकर पांडव चौंक उठे। भीष्म गंभीर हो गए। यह प्रश्न उनके सम्मुख पहली बार नहीं आया था। जिस समय यह घटना घटी थी उस समय भी यही प्रश्न उनके सम्मुख था। उसके बाद जब कभी उन्हें इस घटना का स्मरण होता, तो वह प्रश्न रूप में ही उनके सामने रहता। आज द्रौपदी ने स्पष्ट पूछ लिया था। भीष्म बोले, 'बेटी, तुम ठीक कहती हो। असल में बात यह है कि मैं उस समय दुर्योधन का पाप से पूर्ण अन्न खा रहा था। वही पाप मेरे मन और मस्तिष्क में समाया हुआ था। मैं देख रहा था कि यह अत्याचार हो रहा है, अधर्म हो रहा है, लेकिन उसको रोक नहीं सका। मैं चाहता था कि ऐसा न हो, किंतु मना करने का सार्मथ्य मुझमें नहीं रह गया था...।'

' लेकिन आज सहसा यह ज्ञान कैसे प्रकट हो रहा है?' द्रौपदी ने बीच में ही कहा। 'बेटी, आज अर्जुन के बाणों ने मेरा वह सारा रक्त बाहर निकाल दिया है जिसमें दुर्योधन के पाप के अन्न का प्रभाव था। अब तो मैं रक्तविहीन प्राणी हूं, इसलिए मेरा विवेक आज सजग है। मेरे शरीर से पाप के अन्न से बना रक्त निकल गया है।' इसके बाद द्रौपदी के पास कुछ कहने को नहीं रहा। इस उत्तर से वह संतुष्ट हो गई।
 
अपना साई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई


ॐ सांई राम।।।