विश्वनाथ सिरिपुर में रहता था । वह अध्यापक है और अपने पेशे की पूजा करता है । विघार्थियों को अच्छी तरह से पाठ सिखाता है । साथ ही उन्हें अनुशासन भी सिखाता है । इसलिये विघार्थी और उनके माता-पिता उसका बड़ा आदर करते है ।
विश्वनाथ की पत्नी लक्ष्मी बड़ी ही सुशील है । वह हर विषय में पति का साथ देती है । उसने अपने इकलौटे बेटे चैतन्य को बड़े ही लाड़-प्यार से पाला-पोसा ।
गाँव की पढ़ाई के बाद चैतन्य शहर गया, वहीं उच्च शिक्षा प्राप्त की और वहीं अपने लिये नौकरी भी ढूँढ ली । और वहीं माता-पिता की अनुमति के बिना ही उसने एक लड़की से शादी कर ली ।
यह जानकर विश्वनाथ के दिल को बड़ा धक्का लगा । उसने पत्नी से कहा, देखा चैतन्य ने हमसे बताये बिना शादी कर ली । अगव वह हमारी अनुमति माँगता तो हम थोडे ही मना करते ।
हमसे बताता तो अच्छा होता । पर उसन बताया नहीं । अब हम कर भी क्या सकते है । समय बदल गया है । जो हुआ, भूल जाएँ । उसकी पत्नी ने कहा ।
उस साल गर्मी की छुट्टियों में विश्वनाथ पत्नी समेत तीर्थ यात्रा पर गया और हरिद्वार में कुछ दिनो तक रहा । एक दिन भगवान के दर्शन के बाद जब वह मंदिर के सामने बैठा हुआ था, तब दस साल का एक बच्चा भीख माँगते हुए उसके सामने आया ।
बेटे, यह तो पढ़ने लिखने की उम्र है । भीख क्यों माँग रहे हो । तुम्हारे माता-पिता क्या करते है । विश्वनाथ ने पूछा ।
छः साल पहले एक नाव की दुर्घटना में मेरे माता-पिता चल बसे । हमारा परिवार गरीब है । मैं और मेरे अपाहिज दादा भीख माँगेंगे तभी हमारा पेट भरता है । लड़के ने दीन स्वर में कहा ।
विश्वनाथ ने बड़े ही प्यार से लड़के अपने पास बुलाया और पूछा, तुम्हारा क्या नाम है । उसने कहा, मल्लिक । विश्वनाथ ने पूछ तुम्हें मैं पढ़ाऊँगा तो पढ़ोगे । हाँ, हाँ, जरुर पढूँगा । तो फिर मेरे दादा का क्या होगा । मल्लिक ने पूछा ।
मैं उनकी देखभाल का पूरा इंतजाम करूँगा । कोई कमी आने नहीं दूँगा । पूरी जिम्मेदारी लूँगा । अब बताओ, तुम पढ़ोगे । मल्लिक ने खुशी से सिर हिलाया ।
इसके बाद विश्वनाथ ने पत्नी से भी अनुमति माँगी । मल्लिक उनके साथ उनके गाँव आया और अच्छी तरह से पढ़ने-लिखने लगा । समय तेजी से गुजरता गया । दस सालों में मल्लिक ने अच्छी शिक्षा पायी । वृद्घ विश्वनाथ का भी एक दिन निधन हो गया । लक्ष्मी के साथ पूरा गाँव विषाद-सागर में डूब गया । उनका इकलौता बेटा चैतन्य उस समय भी आ नहीं पाया, क्योंकि नौकरी से संबंधित काम पर उसे बहुत दूर के प्रांत में जाना पड़ा । मल्लिक ने ही विश्वनाथ की अन्त्येष्टि क्रियायें की ।
दो हफ्तों के बाद चैतन्य सिरिपुर आया । जब उसे मालूम हुआ कि उसके पिता ने अपनी पूरी जायदाद मल्लिक के नाम पर लिख दी तो वह क्रोधित हो उठा । इस विषय में माँ से लड़ने-झगड़ने बड़ी तेजी से जब वह घर में घुसा तो उसे अंदर से बातें सुनायी पड़ने लगी । वह दरवाजे पर ही रुक गया ।
गुरु ने मुझे शिक्षा दी । उस शिक्षा के बल पर कोई नौकरी ढूँढ लूँगा । अब तक आपने मुझे प्यार दिया, शिक्षा दी, आश्रय दिया, आपकी हर तरह से देखभाल करना मेरा कर्तव्य है, मेरी जिम्मेदारी है । गुरुजी ने जो जायदाद दी, उसे आपके बेटे को ही सौंप दूँगा । इसके लिये मुझे आपकी अनुमति चाहिये । मल्लिक कह रहा था । उसकी बातें सुनकर चैतन्य समझ गया कि मल्लिक का दिल कितना साफ है ।
वह अंदर आया और मल्लिक के हाथ पकड़ते हुए कहा, तुम भाई के समान हो । जन्म देने मात्र से कोई पुत्र नहीं हो जाता । तुमने साबित कर दिया कि जिसको पाला-पोसा है, वह सगे बेटे से कुछ कम नहीं है । पिता की दी जायदाद तुम ही संभालो । चूँकि माँ मेरे साथ शहर आने के पक्ष में नहीं है, इसीलिये सगी माँ की तरह तुम ही उसकी देखभाल करना ।
लक्ष्मी जब तक जीवित रही, तब तक मल्लिक के साथ गाँव में ही रही । मल्लिक ने अपना वचन निभाया ।
जिस पाठशाला मेंउसने शिक्षा प्राप्त की, उसी पाठशाला में वह अध्यापक का काम करता रहाऔर सगे बेटे से भी अधिक लक्ष्मी की देखभाल करने लगा । यों सबकी प्रशंसा का पात्र बना । सगा बेटा नहीं हुआ तो क्या हुआ ।