जय साई राम
परिवार रचना की दो परम्पराएँ
स्रोत: ऋषि चिंतन
परिवारों का गठन दो प्रकार का होता है एक रक्त-परिवार, दूसरा विचार-परिवार । माता-पिता के खून
से बनकर जो परिवार बनता है वह घर,कुटुम्ब कहलाता है । भावनाओं और आकांक्षाओं की एकता वाले
लोग भी एक कुटुम्बी ही बन जाते हैं । चोर, डाकू, जुआरी, नशेबाज जब एक स्वभाव और एक कार्यक्रम
के कारण अत्यन्त घनिष्ट बन जाते हैं तो आध्यात्मिक-भावनाओं,प्रेरणाओं और योजनाओं से प्रभावित
व्यक्ति आपस में घनिष्ट क्यों न होंगे ? रक्त के आधार पर बना हुआ संगठन वंश परिवार कहलाते हैं
और भावनाओं के आधार पर बना संगठन ज्ञान-परिवार या गुरु-परिवार कहलाता है ।
प्राचीनकाल में गोत्रों की रचना दोनों ही प्रकार से हुई है, वंश परम्परा से भी और गुरु परम्परा से भी ।
कश्यप, भारद्वाज, गर्ग, वशिष्ठ आदि गोत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र चारों ही वर्णों में मिलते हैं ।
इससे यह भ्रम होता है कि उन ऋषियों के वंशज चारों वर्णों में कैसे हुए ? बात यह है कि गोत्र पुत्र परम्परा
से ही नहीं, शिष्य परम्परा से भी चले हैं । इसी तरह से सब वर्णों में ऋषियों के गोत्र मिलते हैं । हमें अपने
वंश परिवार के विकास का नहीं, गुरु परिवार के, ज्ञान परिवार के निर्माण का भी ध्यान रखना होगा और
उसके विस्तार का भी ।