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Author Topic: जीवन- दर्शन  (Read 5212 times)

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Offline PiyaSoni

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जीवन- दर्शन
« on: February 01, 2012, 01:20:19 AM »
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  • **चुनौतियों पर विजय**

    शारीरिक समस्याओं का असर यदि हमारे मन पर पड़ने लगा, तो हमारा जीवन दुष्कर हो जाता है। इसलिए शारीरिक चुनौतियों का सामना डटकर करें और मन को विकार रहित रखें..

    एक युवक कॉलेज में पढ़ता था। वह अन्य विद्यार्थियों से थोड़ा अलग था। उसे ह्वीलचेयर पर बैठकर कॉलेज जाना पड़ता था। विकलांगता के बावजूद उसके सहपाठी और शिक्षक उसे बहुत पसंद करते थे। क्योंकि वह मिलनसार और आशावादी युवक था। एक दिन उसके सहपाठी ने उससे पूछा- तुम्हारी इस विकलांगता का कारण क्या है? युवक ने उत्तर दिया- मुझे बचपन में ही लकवा मार गया था। मित्र ने पूछा- इतने बड़े दुर्भाग्य के बावजूद तुम इतनी मुस्कराहट और आत्मविश्वास के साथ संसार का सामना कैसे करते हो? लड़के ने मुस्कराकर जवाब दिया- उस रोग ने सिर्फ मेरे शरीर को छुआ है, मेरे मन और आत्मा को नहीं।

    कितनी ही बार हम स्वयं को या अपने परिवार के सदस्यों को छोटी-मोटी तकलीफों की शिकायत करते देखते हैं। हम आमतौर पर मुश्किलों से परेशान होकर शिकायत करते रहते हैं। लेकिन अगर हम आसपास नजर दौड़ाएं, तो देखेंगे कि कितने ही लोग गंभीर रोगों से ग्रस्त हैं। किसी का कोई अंग नहीं है, तो किसी को जानलेवा बीमारी है। इनमें से कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो इन चुनौतियों के बावजूद जिंदगी को भरपूर जीते हैं। क्योंकि वे उस विद्यार्थी की तरह उसका असर अपने मन और आत्मा पर नहीं पड़ने देते।

    कई बार कार खराब हो जाती है और उसे मरम्मत के लिए भेजना पड़ता है। इससे हमें चाहे थोड़े दिनों के लिए असुविधा हो, लेकिन हमें ऐसा नहीं लगना चाहिए कि हमारी जिंदगी ही खत्म हो गई है। हम जानते हैं कि कार तो सिर्फ एक भौतिक साधन है, जिसका इस्तेमाल हम खुद को एक स्थान से दूसरी जगह ले जाने के लिए प्रयोग करते हैं। इसी तरह हमारा शरीर भी हमारी आत्मा के लिए एक भौतिक साधन है। कभी-कभी इसमें खराबी भी आ सकती है, लेकिन इससे हमारे मन और आत्मा पर प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। हम अपने जीवन को भरपूर जी सकते हैं, चाहे हमारे पास भौतिक साधन हों या न हों।

    जीवन के किसी न किसी मोड़ पर हमारे शरीर में बढ़ती आयु के चिन्ह दिखने लगते हैं। हमारा शरीर उतना अच्छा काम नहीं करता, जितना युवावस्था में करता था। लेकिन हमें इससे निराश नहीं होना चाहिए। मन और आत्मा की गहराई में शांति और प्रसन्नता है, जिसे हम खोज सकते हैं।

    हमारी शारीरिक स्थिति कैसी भी हो, लेकिन हम लोगों के बीच प्रेम और प्रसन्नता बांट सकते हैं। यदि बीमारी के कारण हम घर में हैं, तो परिवार के सदस्यों को प्रेम दे सकते हैं। बीमार तो सिर्फ हमारा शरीर ही रहता है, मन और आत्मा तो सदैव पूर्ण रूप से स्वस्थ रहते हैं। आशावादी और सकारात्मक रवैया अपनाकर हम हर विपरीत चुनौती पर विजय पा सकेंगे और दूसरों के जीवन में खुशी ला सकेंगे।


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    « Last Edit: February 15, 2012, 01:05:36 AM by piyagolu »
    "नानक नाम चढदी कला, तेरे पहाणे सर्वद दा भला "

    Offline PiyaSoni

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    Re: जीवन- दर्शन
    « Reply #1 on: February 09, 2012, 02:00:48 AM »
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  • **विचारों से आती है व्यवस्था**

    यदि आप किसी चीज को गहराई और तीव्रता से अनुभव करते हैं, तो आपकी यह भावना ही एक अद्भुत तरीके से आपके जीवन में नई व्यवस्था का निर्माण करती है।

    हममें से अधिकांश व्यक्ति अव्यवस्थित हैं। अपने पहनावे में, विचार में, व्यवहार में और कार्र्यो में। इसका कारण क्या है? हम समय के पाबंद क्यों नहीं हैं, दूसरों के प्रति अविचारी क्यों हैं? और वह कौन सी बात है, जिससे हम प्रत्येक कार्य में सुव्यवस्थित हो जाते हैं? व्यवस्थित होने का अर्थ है दबावरहित होकर शांत और स्थिर बैठना, भागदौड़ से मुक्त होकर सौम्य एवं सुंदर ढंग से भोजन करना, अवकाशपूर्ण रहते हुए भी उत्तरदायित्वपूर्ण और तत्पर रहना, अपने विचारों में स्पष्ट और सटीक होते हुए भी संकीर्ण न होना। जीवन में यह व्यवस्था किस प्रकार आती है? यह सचमुच बहुत महत्वपूर्ण विषय है। निश्चित रूप से इस व्यवस्था का आगमन सद्गुण के माध्यम से होता है। यदि आप केवल छोटी-छोटी बातों में ही नहीं, अपितु जीवन की समस्त गतिविधियों में सद्गुणी नहीं हैं, तो आपका जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। सद्गुणी होने का अपने आपमें कोई अर्थ नहीं है, लेकिन सद्गुणी होने से आपके विचारों में निश्चितता और आपके संपूर्ण अस्तित्व में व्यवस्था का आगमन होता है। इसीलिए सद्गुणों का महत्व है। लेकिन जब कोई सद्गुणी बनने का प्रयत्न करता है, तब क्या घटित होता है? जब वह दयालु, कार्यकुशल, विचारशील और सावधान बनने के लिए अपने आपको नियंत्रित करने का प्रयत्न करता है।

    वह व्यक्तियों को कष्ट न देने के लिए सतत प्रयास करता है और वह अपनी शक्तियों का इस व्यवस्था को पाने एवं अपने जीवन को अच्छा बनाने के लिए अपव्यय करता है, तो क्या घटित होता है? उसके ये सारे प्रयत्न उसे प्रतिष्ठा की ओर ले जाते हैं, जो मन को एकदम सामान्य बना देता है। अंतत: वह सद्गुणी नहीं बन पाता। क्या आपने कोई फूल बहुत निकटता से देखा है? उसमें अपनी समस्त पंखुडि़यों के साथ कितनी यथार्थता होती है, फिर भी उसमें बेहद सुकोमलता, सुगंध और सौंदर्य होता है। अब यदि कोई इस सुव्यवस्था को साधने का प्रयत्न करता है, तो उससे भले ही उसका जीवन निश्चितता का बन जाए, पर उसमें वह माधुर्य नहीं आ पाएगा, जिसका आगमन प्रयत्नों की अनुपस्थिति में फूलों में होता है। अत: हमें बिना प्रयत्नों के ही निश्चित, सुस्पष्ट और व्यापक होना चाहिए। यही हमारी कठिनाई भी है। सुव्यवस्थित होने के लिए किए गए प्रयत्न का प्रभाव बहुत संकीर्ण होता है। यदि मैं जान-बूझकर अपने कमरे में सुव्यवस्थित होने का प्रयत्न करूं, प्रत्येक वस्तु को उसके स्थान पर रखने का पूरा खयाल रखूं। यदि मैं हमेशा खुद को देखता रहूं कि मेरे पैर ठीक पड़ रहे हैं या नहीं, तब इसका क्या परिणाम होगा? मैं अपने और दूसरों के लिए असहनीय बोझ बन जाऊंगा। लोगों के लिए वह एक थका-मांदा व्यक्ति बन जाएगा, जो हमेशा कुछ बनने का प्रयत्न कर रहा है, जो अपने विचारों को बड़ी सावधानी से सजाता है, जो किसी एक विचार की तुलना में दूसरे विचार का चुनाव करता है।

     ऐसा व्यक्ति भले ही बहुत व्यवस्थित हो, स्पष्ट हो, अपनी बात सावधानी से कहता हो, अत्यंत सजग हो, विचारशील हो, लेकिन उसने जीवन के सृजनात्मक आनंद को खो दिया है। अत: व्यक्ति किस प्रकार जीवन का यह सृजनात्मक आनंद प्राप्त कर सकेगा? अनुभवों में विस्तीर्ण और विचारों में व्यापक होते हुए भी वह जीवन में सुनिश्चित, सुस्पष्ट और सुव्यवस्थित हो सके? मेरा खयाल है कि हममें से अधिकांश व्यक्ति इस प्रकार के नहीं होते, क्योंकि हम किसी वस्तु को तीव्रता से महसूस नहीं करते। हम अपने दिल और दिमाग को किसी वस्तु में संपूर्णता के साथ नहीं लगाते। मुझे याद है कि गुच्छेदार लंबी पूंछ और सुंदर रोयेंवाली दो गिलहरियों को एक लंबे वृक्ष पर एक-दूसरे को धकेलते हुए मैं लगभग दस मिनट तक देखता रहा- केवल जीवन में आनंद के लिए। यदि हम वस्तुओं को गहराई से महसूस नहीं करते हैं, यदि हमारे जीवन में यह अनुराग नहीं है, तो हम जीवन का यह आनंद नहीं प्राप्त कर सकते। यह वस्तुओं को गहराई से महसूस करने का अनुराग है। हममें यह अनुराग तभी पैदा हो सकता है, जब हमारे जीवन में, हमारे विचारों में परिवर्तन हो जाए। जब आप किसी वस्तु को गहराई और तीव्रता से अनुभव करते हैं, तो आपकी यह भावना ही एक अद्भुत मार्ग से आपके जीवन में एक नई व्यवस्था का निर्माण करती है।


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    « Last Edit: February 15, 2012, 01:07:34 AM by piyagolu »
    "नानक नाम चढदी कला, तेरे पहाणे सर्वद दा भला "

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    Re: जीवन- दर्शन
    « Reply #2 on: February 15, 2012, 01:05:04 AM »
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  • **दुख पंछी बन जाएगा**


    जीवन सुख-दुख का मेल है, इसलिए दुख को हमें स्वीकार कर उसका सामना करना चाहिए। जो इस चुनौती को स्वीकार करता है, वही सुख प्राप्त कर सकता है.

    हमारे जीवन में बहुत-सी विपरीत स्थितियां आ जाती हैं, जिनके लिए हम आमतौर पर दूसरों को दोषी ठहराते हैं। कभी किसी व्यक्ति को, कभी किसी स्थिति को, तो कभी भगवान को। इसका अर्थ यह है कि दूसरों के साथ हमारे संबंधों का असर हमारी अपनी स्थितियों पर पड़ता है। यदि हम दूसरों को दोषी न ठहराकर दूसरों के प्रति अपने व्यवहार और संबंधों को जांच लें, तो हमारा दृष्टिकोण बदल जाएगा। लोगों से हमारे संबंध कैसे हैं? मित्रों, परिवारजनों या सहकर्मियों के साथ हमारा कैसा व्यवहार है? हम दूसरों के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखते हैं? जब हम इन प्रश्नों के उत्तर जान लेते हैं, तब जीना सीख लेते हैं। तब हम किसी और को दोषी नहीं ठहराते। जीवन का हर रास्ता कठिन एवं दुष्कर होता है, यह मानकर चलना चाहिए। जो हिम्मत से इसे पार कर लेता है, वह फौलाद के समान सुदृढ़ एवं सशक्त हो जाता है।

    जीवन में हर चुनौती एकदम नई एवं रोमांचक होती है। यह चुनौती हौसला पस्त कर देती है, परंतु सब का नहीं। कुछ होते हैं, जो हारने के लिए पैदा ही नहीं हुए होते। जीवन को खेल मानकर उसके सुख-दुख के दोनों पहलुओं को अंत तक खेल लेते हैं। इसे खेलने की तकनीक यह है कि कैसे दुख को, पीड़ा को और कठिनाइयों को सहजता से लिया जा सके, ताकि दु:ख के पल के अवरोध को न्यूनतम किया जा सके। जीवन में सुख और दुख धूप-छांव के समान सतत परिवर्तित होते रहते हैं। कभी सुख की शीतल सुगंध की फुहारें उड़ती हैं, तो कभी दुख की जलती-बिखरती चिनगारियां फैलती हैं। सुख के पल यों फिसल जाते हैं कि पता ही नहीं चलता। सुख की सदियां भी कम लगती हैं, परंतु दुख के पल काटे नहीं कटते। जो दुख के दरिया को पार कर लेता है, वही शूरवीर कहलाता है। कमजोर इसमें डूब जाते हैं और बहादुर डूबकर पार चले जाते हैं। मनीषी कहते हैं कि दुख के क्षण में वाणी का प्रयोग कम कर देना चाहिए। बुरे समय में व्यक्ति इतनी घुटन एव असहजता अनुभव करता है कि उसकी अभिव्यक्ति वाणी के क्रूर प्रयोग के रूप में प्रकट होती है। दूख से दूर होने का एक महत्वपूर्ण उपाय यह है कि हम दूसरों के दुख दूर करने में प्रवृत्त हो जाएं।

    इससे दूसरों के दुख के आगे हमें अपनी पीड़ा छोटी लगने लगती है। तब दूसरों के साथ अपना दुख भी पक्षी की तरह पंख फैलाकर उड़ जाएगा


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    "नानक नाम चढदी कला, तेरे पहाणे सर्वद दा भला "

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    Re: मन- दर्शन
    « Reply #3 on: February 22, 2012, 04:01:02 AM »
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  • **मन के रूप अनेक**

    मन के तीन रूप माने गए हैं-चेतन, अवचेतन और अचेतन, लेकिन मन की संख्या इतने तक ही सीमित नहीं है। कई बार ये तीन मन तीन हजार बन जाते हैं। कैसे और कब बनता है मन एक से अनेक..?


    जब हम कुछ सोचते हैं या किसी से बात करते हैं, तब हमारा एक ही मन सक्रिय रहता है। यहां तक कि जब हम निर्णय लेने के लिए द्वंद्व की स्थिति में रहते हैं, तब भी। हालांकि तब लगता है कि हमारे दो मन हो गए हैं, जिसमें से एक हां कह रहा है तो दूसरा नहीं। लेकिन यहां भी मन एक ही होता है, बस वही मन विभाजित होकर दो हो जाता है।

    सामान्यतया मन [चेतना] के तीन स्तर माने गए हैं- चेतन, अवचेतन और अचेतन मन। लेकिन मन की संख्या यहीं तक सीमित नहीं है। ये तीन मन परिवर्तन एवं सम्मिश्रणों द्वारा तीन हजार मन बन जाते हैं, लेकिन इनका उद्गम इन तीन स्तरों से ही होता है।

    चेतन मन वह है, जिसे हम जानते हैं। इसके आधार पर अपने सारे काम करते हैं। यह हमारे मन की जाग्रत अवस्था है। विचारों के स्तर पर जितने भी द्वंद्व, निर्णय या संदेह पैदा होते हैं, वे चेतन मन की ही देन हैं। यही मन सोचता-विचारता है।

    लेकिन चेतन मन संचालित होता है अवचेतन और अचेतन मन से। यानी हमारे विचारों और व्यवहार की बागडोर ऐसी अदृश्य शक्ति के हाथ में होती है, जो हमारे मन को कठपुतली की तरह नचाती है। हम जो भी बात कहते हैं, सोचते हैं, उसके मूल में अवचेतन मन होता है।

    अवचेतन आधा जाग रहा है और आधा सो रहा है। मूलत: यह स्वप्न की स्थिति है। जिस तरह स्वप्न पर नियंत्रण नहीं होता, उसी प्रकार अवचेतन पर भी नियंत्रण नहीं होता। हम जाग रहे हैं, तो हम फैसला कर सकते हैं कि हमें क्या देखना है, क्या नहीं।लेकिन सोते हुए हम स्वप्न में क्या देखेंगे, यह फैसला नहीं कर सकते। स्वप्न झूठे होकर भी सच से कम नहींलगते।

    मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जो इच्छाएं पूरी नहीं हो पातीं, वे अवचेतन मन में आ जाती हैं। फिर कुछ समय बाद वे अचेतन मन में चली जाती हैं। भले ही हम उन्हें भूल जाएं, वे नष्ट नहीं होतीं। फ्रायड का मानना था कि अचेतन मन कबाड़खाना है, जहां सिर्फ गंदी और बुरी बातें पड़ी होती हैं, पर भारतीय विचारकों का मानना है कि संस्कार के रूप में अच्छी बातें भी वहां जाती हैं।

    अचेतन एक प्रकार का निष्क्रिय मन है। यहां कुछ नहीं होता। यह भंडार गृह है। हमारा अवचेतन या चेतन मन जब इन वस्तुओं [विचारों] में से किसी की मांग करता है, तब अचेतन मन उसकी सप्लाई कर देता है।

    निष्क्रिय होकर भी अचेतन मन में कुछ न कुछ उबलता-उफनता रहता है, जो हमारे व्यक्तित्व के रूप में उभर कर सामने आता है। हम भले ही अचेतन मन की उपेक्षा करें, लेकिन चेतन मन और अवचेतन मन जो कुछ भी करते हैं, वे सब वही करते हैं, जो अचेतन मन उनसे कराता है।

    फ्रायड ने बिल्कुल सही कहा था कि मन एक हिमखंड की तरह होता है, जिसका 10 प्रतिशत हिस्सा ही ऊपर दिखाई देता है। 90 फीसदी भाग तो पानी के अंदर छिपा होता है। इसी तरह युंग ने भी कहा था - ज्ञात मन [चेतन] तो केवल छोटे से द्वीप के समान है, पर चारों तरफ फैला महासागर अज्ञात [अचेतन] मन है। यही अज्ञात मन सब कुछ है।


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    "नानक नाम चढदी कला, तेरे पहाणे सर्वद दा भला "

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    Re: जीवन- दर्शन
    « Reply #4 on: March 14, 2012, 01:49:42 AM »
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  • **प्रेम का मार्ग**

    प्रेम में सोच-विचार नहींहोता, सिर्फ भाव होता है। विचार वृक्ष में लगे पत्तों की भांति है, जबकि भाव उसके नीचे छिपी जड़ों की तरह। प्रेम को महसूस करने के लिए हृदय को जगाना होगा।

    मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि मेरा किसी से प्रेम हो गया है। मैं कहता हूं, सोचकर कहो, तो वे चिंतित हो जाते हैं। वे कहते हैं कि मैं सोचता हूं कि मुझे प्रेम हो गया है। हुआ या नहीं, यह तो पक्का नहीं, लेकिन विचार आता है कि मुझे प्रेम हो गया है। क्या प्रेम का विचार आवश्यक है? तुम्हारे पैर में कांटा गड़ता है, तो तुम्हें बोध होता है कि पैर में पीड़ा हो रही है। तुम ऐसा तो नहीं कहते कि मैं सोचता हूं कि शायद पैर में पीड़ा हो रही है। कांटा सोच-विचार को छेद देता है। उसके आर-पार निकल जाता है। जब तुम आनंदित होते हो, तो क्या तुम सोचते हो कि तुम आनंदित हो रहे हो या सिर्फ आनंदित होते हो? कोई प्रियजन चल बसे, तो क्या तुम श्मशान पर सोचते हो कि तुम दुखी हो रहे हो। सोचते हो, तो शायद दिखावा होगा।

    दूसरों को दिखाने के लिए हंसना भी पड़ता है, दुखी भी होना पड़ता है, लेकिन तब तुम्हारे भीतर कुछ नहीं हो रहा होता। प्रेम सोच-विचार वाला नहीं होता। यह तो भाव का प्रेम है। जब भाव से तुम्हें कोई बात पकड़ लेती है, तो समझो तुम्हें वह जड़ों से पकड़ लेती है। विचार तो वृक्षों में लगे पत्तों की भांति है, जबकि भाव वृक्षों के नीचे छिपी जड़ों की तरह। छोटा सा बच्चा भी जन्मते ही भाव में समर्थ होता है, विचार में समर्थ नहीं होता। विचार तो बाद का प्रशिक्षण है। उसे सीखना पड़ता है- स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, संसार, अनुभव से, लेकिन बच्चा भाव तो पहले ही क्षण से करता है। अभी-अभी पैदा हुए बच्चे को देखो, वह भाव से आंदोलित होता है। अगर तुम प्रसन्न हो, आनंद से तुमने उसे छुआ है, तो वह भी पुलकित होता है। अगर तुम उपेक्षा से भरे हो और तुम्हारे स्पर्श में प्रेम की ऊष्मा नहीं है, तो वह तुम्हारे हाथ से अलग हट जाना चाहता है।

    अभी उसके पास सोच-विचार नहीं है। अभी मस्तिष्क के तंतु तो निर्मित होने हैं। अभी तो ज्ञान, स्मृति बनेंगे, तब वह जानेगा कि कौन अपना है, कौन पराया। अभी वह अपना-पराया नहीं जानता। अभी तो जो भाव के निकट है, वह उसका अपना है, जो भाव के निकट नहीं है वह पराया है। फिर तो जो अपना है, उसके प्रति भाव दिखाएगा। इसीलिए तो छोटे बच्चे में निर्दोषता का अनुभव होता है। प्रेम भाव का होता है। उसे महसूस करने के लिए मैं लोगों से कहता हूं- थोड़ा हृदय को जगाओ। कभी आकाश में घूमते हुए बादलों को देखो। उन्हें देखकर नाचो भी, जैसे मोर नाचता है। पक्षी गीत-गाते हैं, तो उनके सुर में सुर मिलाओ। वृक्ष में फूल खिलते हैं, तो तुम भी प्रफुल्लित हो जाओ। चारों तरफ जो विराट फैला है, उसके हाथ अनेक-अनेक रूपों में तुम्हारे करीब आए हैं- कभी फूल, कभी सूरज की किरण, कभी पानी, कभी लहर बनकर।

    इस विराट से थोड़ा भाव का नाता जोड़ो। बैठे सोचते मत रहो। इंद्रधनुष आकाश में खिले, तो तुम यह मत सोचो कि इसकी फिजिक्स क्या है। यह मत सोचो कि जैसे प्रकाश प्रिज्म से गुजरकर सात रंगों में टूट जाता है, इसी तरह किरणें पानी के कणों से गुजरकर सात रंगों में टूट गई हैं। इस पांडित्य के कारण तुम भाव से वंचित रह जाओगे। इंद्रधनुष का सौंदर्य खो जाएगा, हाथ में फिजिक्स की किताब रह जाएगी। आकाश की तरह अपने अंदर भी इंद्रधनुष खिलने दो। अपनी जिंदगी में उसके रंग उतरने दो। विचार का प्रेम सौदा ही बना रहता है, क्योंकि विचार चालाक है। विचार यानी गणित। विचार यानी तर्क। विचार के कारण तुम निर्दोष हो ही नहीं पाते। वहीं भाव निर्दोष होता है। विचार के कारण तुम अपनी सहजता, सरलता और समर्पण का अनुभव नहीं कर पाते, क्योंकि विचार कहता है कि सजग रहो। सावधान, कोई धोखा न दे जाए। विचार भले ही तुम्हें धोखों से बचा ले, लेकिन अंतत: धोखा दे जाता है।

    भाव के साथ तुम्हें शायद कुछ खोना पड़े, लेकिन भाव पा लिया तो सब कुछ पा लिया। एक आदमी सपना देखता रहा है कि उसने बड़ी हत्याएं की हैं, चोरियां की हैं, और वह परेशान है कि उनसे छुटकारा कैसे मिलेगा। वह कैसे अच्छे कर्म कर पाएगा। तभी तुम जाते हो और उसे जगा देते हो। आंख खुलते ही उसका सपना टूट जाता है। उसे कर्म नहीं बदलने पड़ते, बस सपना टूट जाए। फिर वह खुद ही हंसने लगता है कि मैं भी क्या सोच रहा था। मैं सोच रहा था कि इससे छुटकारा कैसे मिलेगा और सपना टूटते ही छुटकारा मिल गया। विचार तुम्हारे स्वप्न हैं। कर्म तो विचार के भीतर घटित हो रहे हैं। विचार टूट जाए, तो तुम जाग गए। तुम्हारे पूर्व जन्म भी दु:स्वप्न ही हैं, उन्हें बदलने का सवाल ही नहीं। बस जागते ही परिवर्तन आ जाता है। जिन विचारों से झंझावात और ऊहापोह मचा है, बस उसे शांत कर लो। इन्हें शांत करने के दो उपाय हैं। एक ढंग ध्यान है।

    दूसरा मार्ग प्रेम का है। तुम इतने प्रेम से भर जाओ कि तुम्हारे जीवन की सारी ऊर्जा प्रेम बन जाए। जो ऊर्जा भावना बन रही थी, विचार बन रही थी, तरंगें बन रही थी, वह खिंच आए और प्रेम में नियोजित हो जाए। ध्यान का रास्ता सूखा है, तो प्रेम का रास्ता हरा-भरा है। उस पर पक्षी गीत गाते हैं, मोर भी नाचते हैं। उस पर गीत भी है, नृत्य भी। उस पर तुम्हें कृष्ण मिलेंगे बांसुरी बजाते। उस पर तुम्हें चैतन्य मिलेंगे गीत गाते, उस पर तुम्हें मीरा मिलेंगी-नाचती-गाती।


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    Re: जीवन- दर्शन
    « Reply #5 on: August 22, 2012, 03:04:40 AM »
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  • **खुद को सुधारें, फिर दूसरों को**

    जो स्वयं दुखों से घिरा है, वह दूसरों को कैसे खुशी देगा? इसीलिए दूसरों को सुधारने से पहले खुद को सुधारना जरूरी है..

    हवाई यात्रा में जहाज उड़ने से पहले एयर होस्टेस सुरक्षा सूचनाएं देती है। कहा जाता है कि आपातकालीन परिस्थिति में, जब हवा का दबाव कम हो जाए तो ऑक्सीजन मास्क का प्रयोग करें। लेकिन एक बात विचित्र बताई जाती है कि पहले अपना मास्क पहनें, उसके बाद जरूरतमंद को पहनाएं। अक्सर सुना जाता है कि अपने से पहले दूसरों की सोचें, परंतु यहां पहले अपने को बचाने की बात की जाती है। जिसमें थोड़ा सा भी विवेक होगा, वह यह समझ जाएगा कि हम दूसरों की सहायता तभी कर सकते हैं, जब हम स्वयं सक्षम होंगे। जो खुद बीमार होगा, वह क्या किसी की सहायता करेगा? जो खुद कर्जे में हो, वह क्या किसी की आर्थिक मदद करेगा? जो स्वयं दुखों में फंसा हो, वह क्या किसी को खुशी देगा? जो स्वयं अज्ञान से ढका हो, वह क्या ज्ञान का दीया जलाएगा? सौ बातों की एक बात, पहले अपना उद्धार करो, फिर किसी और के उद्धार की सोचो। गीता के अध्याय 6 (श्लोक 5) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

    उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत।
    आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मन:।।


     इसका भावार्थ है कि एक ही व्यक्ति आपका उद्धार कर सकता है, एक ही व्यक्ति आपको बर्बाद कर सकता है और वह हैं आप स्वयं। असल समस्या यह है कि हम सोचते हैं कि हम दूसरे को ठीक कर सकते हैं। हर कोई दूसरे को ठीक करना चाहता है, परंतु स्वयं को कोई ठीक नहीं करना चाहता। आप एक ही व्यक्ति का उद्धार कर सकते हैं, और वह आप स्वयं हैं। अब प्रश्न यह है कि अपना उद्धार कैसे करें? इसके लिए शास्त्र तीन योगों पर प्रकाश डालते हैं। पहला कर्मयोग, जिसमें मनुष्य अपने जीवन में श्रेष्ठ लक्ष्य बनाकर मन और बुद्धि को उस लक्ष्य से जोड़ देता है। दूसरा है भक्तियोग, जिसमें मन को प्रभु के चरणों में लगाकर हर कार्य को निमित्त भाव से करता है। तीसरा है ज्ञानयोग, जिसमें व्यक्ति अपने जीवन के अज्ञान रूपी अंधकार को हटाकर ज्ञान का दीपक जलाता है। यही है अपने उद्धार का सर्वोत्तम मार्ग! इसके बाद हम दूसरों का उद्धार कर सकते हैं।


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    « Reply #6 on: September 12, 2012, 02:00:12 AM »
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  • **मनुष्य रूप में इश्वर **

    हमें इश्वर की कल्पना मनुष्य रूप में ही कर सकते है , लेकिन हमें उनके चमत्कारों के बजाए गुणों की पूजा करने चाहिए! वही हमें स्वतंत्र बना सकते है ......

    हम मनुष्य हैं, इसलिए हमें ईश्वर की मनुष्य रूप में ही पूजा करनी होगी। तुम परमात्मा को मनुष्य के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में देख ही नहीं सकते। हम चाहे बड़े-बड़े व्याख्यान दे डालें, बड़े तर्कवादी हो जाएं और यह भी सिद्ध कर दें कि ईश्वर संबंधी सारी कथाएं झूठी हैं, पर हमें अपनी कुछ साधारण बुद्धि से भी तो काम लेना चाहिए।

    हमें साधारण बुद्धि की आवश्यकता है। साधारण बुद्धि बड़ी दुर्लभ है। हम अपनी वर्तमान प्रकृति के अनुसार मर्यादित हैं और भगवान को मनुष्य के रूप में देखने को ही बाध्य हैं। यदि भैसे ईश्वर की पूजा कर पाते, तो वे ईश्वर को एक बड़ा भैंसा जैसा ही समझते। यदि मछली ईश्वर की पूजा करना चाहे, तो वह ईश्वर को एक बड़ी मछली के आकार का समझेगी। इसी प्रकार यदि मनुष्य ईश्वर की पूजा करना चाहता है, तो उसे ईश्वर को मनुष्य-रूप ही मानना पड़ेगा। आप और हम, भैंसा और मछली, मानो भिन्न-भिन्न पात्रों (बर्तनों) के समान हैं। पात्र समुद्र में पानी भरने जाते हैं और मनुष्य की आकृति के अनुसार मनुष्य में, भैंसे के अनुसार भैंसे में, मछली के अनुसार मछली में पानी भर जाता है। प्रत्येक पात्र में पानी के सिवाय और कोई वस्तु नहीं है। इसी प्रकार उन सभी में जो ईश्वर है, उसके विषय में भी समझो। मनुष्य ईश्वर को मनुष्य के रूप में देखता है। परमेश्वर को तुम इसी प्रकार देख सकते हो। मनुष्य के रूप में ही तुम उसकी उपासना कर सकते हो, क्योंकि इसके सिवाय दूसरा कोई मार्ग नहीं है।

    जहां ऐसे उपास्य मानव ईश्वर हैं, वे धन्य हैं। ईसाइयों को ईसा मसीह के प्रति दृढ़ आस्था रखनी चाहिए। जैसे ईसा मसीह ईश्वर थे, वैसे ही बुद्ध भी ईश्वर हैं और भी सैकड़ों होंगे। ईश्वर को सीमाबद्ध मत करो।

    ईश्वर की पूजा नहीं हो सकती, क्योंकि ईश्वर तो सृष्टि में सर्वव्यापी है। उनके मानव रूप की ही हम उपासना कर सकते हैं। ईसा मसीह के नाम पर ईश्वर मानवजाति का उपकार करने मनुष्य बनकर आता है। भगवान श्रीकृष्ण का वाक्य है कि जब-जब धर्म का Oास और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं मानवजाति का उद्धार करने आता हूं। ईश्वर के अवतारों की ही पूजा हो सकती है। इनके जन्मदिवस, महासमाधि दिवस को हमें पूजनीय मानना चाहिए। ईसा की पूजा में, मैं उनकी पूजा ठीक उसी तरह करूंगा, जैसी कि वे स्वयं ईश्वर की पूजा करना चाहते थे। उनके जन्मदिवस पर मैं दावत उड़ाने के बदले प्रार्थना और उपासना करूंगा।

    जब हम इन अवतारों का, महान विभूतियों का चिंतन करते हैं, तब ये हमारी आत्मा के भीतर प्रकट होते हैं और हमें अपने समान बना देते हैं। हमारी संपूर्ण प्रकृति बदलकर उनके समान हो जाती है। पर तुम ईसा मसीह या बुद्ध की पूजा उनके चमत्कारों के कारण मत करना। ईसा मसीह की महान शक्ति उनके चमत्कारों में नहीं है। मैंने कुछ मनुष्यों को भूत, वर्तमान और भविष्य की बातें बताते देखा है। मैंने उन्हें इच्छाशक्ति से भयानक रोगों में आराम दिलाते देखा है। इनसे अलग एक दूसरी शक्ति है, जो ईसा मसीह की आध्यात्मिक शक्ति है। वह जीवित रहेगी और सदा रहती आई है। वह है सर्वशक्तिशाली, सबको अपनाने वाला प्रेम। वैसे ही, उन्होंने सत्य के जिन-जिन शब्दों का उपदेश दिया, वे भी सदा जीवित रहेंगे। उनका एक नजर से मनुष्यों को निरोग कर देना भूल भी सकता है, मगर उनकी यह उक्ति कि जिनका अंत:करण पवित्र है, वे धन्य हैं कभी भुलाई नहीं जा सकती। उनकी शक्ति पवित्रता की शक्ति थी।

    अत: हमें उनकी प्रार्थना करते समय यह सोचना होगा कि हम उनकी चमत्कार दिखलाने की शक्ति नहीं चाहते, वरन आत्मा की उन अद्भुत शक्तियों की आकांक्षा करते हैं, जो मनुष्य को स्वतंत्र बना देती हैं। उसे समग्र प्रकृति पर अधिकार प्राप्त करा देती है और उसे दासत्व की श्रृंखला से छुड़ाकर परमेश्वर के दर्शन करा देती है।


    OM SAI RAM, SRI SAI RAM, JAI JAI SAI RAM!!
    "नानक नाम चढदी कला, तेरे पहाणे सर्वद दा भला "

     


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