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"गालियों का प्रभाव"
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महात्मा बुद्ध एक बार एक गांव से गुजरे। वहां के कुछ लोग उनसे शत्रुता रखते थे। उन्होंने उन्हें रास्ते में घेर लिया। बेतहाशा गालियां देकर अपमानित करने लगे। बुद्ध सुनते रहे। जब वे थक गए तो बोले, आपकी बात पूरी हो गई हो, तो मैं जाऊं। वे लोग बड़े हैरान हुए।
उन्होंने कहा- हमने तो तुम्हें गालियां दीं, तुम क्रोध क्यों नहीं करते? बुद्ध बोले- तुमने देर कर दी। अगर दस साल पहले आए होते, तो मैं भी तुम्हें गालियां देता। तुम बेशक मुझे गालियां दो, लेकिन मैं अब गालियां लेने में असमर्थ हूं। सिर्फ देने से नहीं होता, लेने वाला भी तो चाहिए। जब मैं पहले गांव से निकला था, तो वहां के लोग भेंट करने मिठाइयां लाए थे, लेकिन मैंने नहीं लीं, क्योंकि मेरा पेट भरा था। वे उन्हें वापस ले गए।
बुद्ध ने थोड़ा रुककर कहा- जो लोग मिठाइयां ले गए, उन्होंने मिठाइयों का क्या किया होगा? एक व्यक्ति बोला - अपने बच्चों, परिवार और चाहने वालों में बांटी होंगी। बुद्ध बोले- तुम जो गालियां लाए हो, उन्हें मैंने नहीं लिया। क्या तुम इन्हें भी अपने परिवार और चाहने वालों में बांटोगे..? बुद्ध के सारे विरोधी शर्मिदा हुए और वे बुद्ध के शिष्य बन गए।
कथा-मर्म : संयम और सहिष्णुता से आप बुरे से बुरे व्यक्ति का भी दिल जीत सकते हैं..।
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"सुंदरता"
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हर सुबह घर से निकलने के पहले सुकरात आईने के सामने खड़े होकर खुद को कुछ देर तक तल्लीनता से निहारते थे.
एक दिन उनके एक शिष्य ने उन्हें ऐसा करते देखा. आईने में खुद की छवि को निहारते सुकरात को देख उसके चेहरे पर बरबस ही मुस्कान तैर गयी.
सुकरात उसकी ओर मुड़े, और बोले, “बेशक, तुम यही सोचकर मुस्कुरा रहे हो न कि यह कुरूप बूढ़ा आईने में खुद को इतनी बारीकी से क्यों देखता है!? और मैं ऐसा हर दिन ही करता हूँ.”
शिष्य यह सुनकर लज्जित हो गया और सर झुकाकर खड़ा रहा. इससे पहले कि वह माफी मांगता, सुकरात ने कहा, “आईने में हर दिन अपनी छवि देखने पर मैं अपनी कुरूपता के प्रति सजग हो जाता हूँ. इससे मुझे ऐसा जीवन जीने के लिए प्रेरणा मिलती है जिसमें मेरे सद्गुण इतने निखरें और दमकें कि उनके आगे मेरे मुखमंडल की कुरूपता फीकी पड़ जाए”.
शिष्य ने कहा, “तो क्या इसका अर्थ यह है कि सुन्दर व्यक्तियों को आईने में अपनी छवि नहीं देखनी चाहिए?”
“ऐसा नहीं है”, सुकरात ने कहा, “जब वे स्वयं को आईने में देखें तो यह अनुभव करें कि उनके विचार, वाणी, और कर्म उतने ही सुन्दर हों जितना उनका शरीर है. वे सचेत रहें कि उनके कर्मों की छाया उनके प्रीतिकर व्यक्तित्व पर नहीं पड़े”.
कथा-मर्म : मनुष्य की सच्ची सुंदरता उसके गुणों से पहचानी जाती है।
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"बड़ा परिवर्तन"
(http://images.jagran.com/images/19_10_2012-rishi.jpg)
एक दार्शनिक व्याख्यान लिख रहे थे। हाथ में पेंसिल लेकर चिंतन में मग्न थे। तभी उनका शिष्य आ गया। बोला- मैं जीवन में बड़ा परिवर्तन चाहता हूं.. लेकिन हो नहीं पा रहा है। दार्शनिक बोले - खुद को तराशो, धैर्य रखो और अपने गुणों को बढ़ाओ, बड़ा परिवर्तन आ जाएगा। शिष्य बोला- ये तो छोटी-छोटी बातें हैं, इनसे बड़ा परिवर्तन कैसे आ जाएगा?
दार्शनिक ने अपनी पेंसिल उठाई और बोले - यह छोटी-सी पेंसिल है, यह भी तुम्हारे जीवन में बड़ा परिवर्तन ला सकती है। शिष्य बोला - कैसे? उन्होंने बोलना शुरू किया - मान लो तुम पेंसिल हो। पेंसिल चले, इसके लिए एक हाथ की जरूरत है। वह हाथ गुरु का भी हो सकता है और ईश्र्वर का भी। अत: गुरु और ईश्र्वर में श्रद्धा रखो। अगर तुमने खुद को तराशा नहीं, तो तुम नहीं चल पाओगे। अपने गुणों को भी तराशो और मेधा को भी..।
तराशने में कष्ट होता है, लेकिन उसे सहो। इसके लिए धैर्य पैदा करो। दुख, अपमान और हार को बर्दाश्त करना सीखो। यदि तुमसे कोई गलती हो गई है, तो उस गलती को सुधार लो। अपने विवेक की रबड़ अपने पास अवश्य रखो। तुम्हारे बाहर की लकड़ी (शरीर) भले ही कमतर हो, लेकिन भीतर जो ग्रेफाइट की छड़ (अंतस) है, उसकी गुणवत्ता अच्छी होनी चाहिए, यानी अपने भीतर के विचारों को शुद्ध करो। क्या तब तुममें बड़ा परिवर्तन नहीं आ जाएगा..?
दार्शनिक की बात सुनकर शिष्य चकित था।
कथा-मर्म : छोटी-छोटी चीजें ही जीवन में बड़ा परिवर्तन लाने में मददगार होती हैं।
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"असली सुख"
चींटी हर समय काम करती रहती थी। कभी बिल की व्यवस्था करती, तो कभी राशन-पानी की। उसे काम करते अकर्मण्य कछुआ देखता रहता था। एक दिन चींटी अपने परिवार के लिए खाना लेने बाहर गई हुई थी। लौटकर आई, तो देखा कि कछुआ उसके बिल के ऊपर पत्थर बना बैठा हुआ है। चींटी ने उसके खोल पर दस्तक दी, तो उसने मुंह निकाला।
चिढ़कर बोला- क्या है? चींटी बोली- यहां मेरा घर है, यहां से हट जाओ। कछुए ने कहा - देखती नहीं, मैं आराम कर रहा हूं। मुझे यहां से कोई नहीं हटा सकता। जाओ, मेरी तरह जाकर आराम करो। चींटी ने कहा - क्या तुम्हें अपने आलस में सुख मिलता है? कछुए ने कहा- मैं क्या, जो भी मेरी तरह अपने हाथ-पांव सभी कामों से खींचकर अपने में लीन हो जाता है, वही सुखी है।
यह कहकर कछुआ फिर अपने खोल के भीतर समा गया। चींटी तो मेहनती थी। उसने कछुए के पास से बिल बनाया और जमीन के भीतर-भीतर अपने बिल में चली गई। चीटियां संगठित होकर कछुए के नीचे पहुंच गईं और उसे बेतरह काटने लगीं। आखिरकार चींटियों के प्रहार से बचने के लिए कछुए को आलस त्याग कर वहां से हटना ही पड़ा। चींटी आकर बोली- अब बताओ, तुम्हें सुख किसमें मिला? चींटियों से कटते रहने में या अपने हाथ-पांव हिलाकर वहां से हटने में?.
कथा-मर्म : संकट आने पर हम काम करें, इससे अच्छा है कि काम करने की आदत डाल लें, जिसमें असली सुख है।
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"समाधान"
(http://images.jagran.com/images/19_12_2012-smadhan.jpg)
गांव में एक बूढ़ा व्यक्ति था। उसकी दो बेटियां थीं। उसने बड़ी बेटी की शादी मिट्टी का काम करने वाले कुम्हार से की, तो छोटी की एक किसान से। एक बार पिता अपनी बेटियों से मिलने निकला। पहले वह बड़ी बेटी से मिला तो उसने बताया कि हमने मेहनत करके मिट्टी का खूब सारा सामान बनाया है। अगर बारिश न हो, तो खूब फायदा होगा। उसने पिता से कहा कि वह प्रार्थना करे कि बारिश न हो।
अब वह छोटी बेटी के घर पहुंचा। छोटी ने कहा - हमने बहुत मेहनत करके खेती की है। बस, बारिश हो जाए, तो खूब फसल होगी। उसने पिता से कहा कि वह प्रार्थना करे कि खूब अच्छी बारिश हो। पिता असमंजस में पड़ गया। एक के लिए प्रार्थना करता है, तो वह दूसरी बेटी के खिलाफ जाएगी। उसने एक युक्ति निकाली।
वह अगले दिन फिर अपनी बेटियों के घर गया। उसने बड़ी बेटी को समझाया कि यदि बारिश नहीं होती है, तो तुम अपनी आय का आधा हिस्सा छोटी बहन को दे देना। फिर उसने छोटी बेटी के घर जाकर उससे वचन लिया कि यदि बारिश होती है, तो तुम बड़ी को अपनी आय का आधा हिस्सा दे देना। दोनों बेटियां इस बात पर सहमत हो गईं
कथा-मर्म : समझदार वही है, जो दुविधा के वक्त परेशान न होकर समस्या का सही समाधान निकाल ले।
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"सकरात्मक सोच "
जूतों का एक व्यापारी था, जो दूसरों से जूते बनवाकर बेचता था। उसने अपने व्यवसाय का विस्तार करने का विचार किया और जूते बनाने की फैक्ट्री के लिए एक जगह का चुनाव किया, जो व्यापार की दृष्टि से अनुकूल थी। उसने दो लोगों को सर्वे करने भेजा कि इस इलाके में जूते की फैक्ट्री लगाना कितना सही रहेगा।
एक व्यक्ति सर्वे करके लाया और बोला - यहां कंपनी खोलना बिल्कुल भी ठीक नहीं है, क्योंकि यहां के लोग तो जूते पहनते ही नहीं। जब ये जूते पहनेंगे नहीं, तो वे कैसे बिकेंगे। मालिक ने कुछ नहीं कहा और दूसरे का इंतजार करने लगा।
दूसरा व्यक्ति बारीकी से सर्वे करके आया। वह बोला - यह तो बहुत ही अच्छी जगह है कंपनी खोलने के लिए। क्योंकि यहां के लोग जूते पहनते ही नहीं। बस हमें जूते पहनने के फायदे लोगों को समझाने होंगे। जब वे एक बार जूते पहनेंगे तो उन्हें जूते पहनने की आदत पड़ जाएगी। मालिक ने दूसरे व्यक्ति की बात मानी और कंपनी खोली और दूसरे वाले सेल्समैन को कंपनी का मैनेजर नियुक्त कर दिया।
कथा मर्म : सकारात्मक सोच ही व्यक्ति को ऊंचाइयों पर पहुंचाती है।
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"मनोभाव "
एक आदमी गुब्बारे बेच कर जीवन-यापन करता था. वह गाँव के आस-पास लगने वाली
हाटों में जाता और गुब्बारे बेचता.
बच्चों को लुभाने के लिए वह तरह-तरह के गुब्बारे रखता …लाल, पीले ,हरे, नीले….
और जब कभी उसे लगता की बिक्री कम हो रही है वह झट से एक गुब्बारा हवा में छोड़ देता,
जिसे उड़ता देखकर बच्चे खुश हो जाते और
गुब्बारे खरीदने के लिए पहुँच जाते.
इसी तरह तरह एक दिन वह हाट में गुब्बारे बेच रहा था और बिक्री बढाने के लिए बीच-बीच
में गुब्बारे उड़ा रहा था. पास ही खड़ा एक छोटा बच्चा ये सब बड़ी जिज्ञासा के साथ देख रहा था .
इस बार जैसे ही गुब्बारे वाले ने एक सफ़ेद गुब्बारा उड़ाया वह तुरंत उसके पास पहुंचा और
मासूमियत से बोला, ” अगर आप ये काल वाला गुब्बारा छोड़ेंगे…तो क्या वो भी ऊपर जाएगा ?”
गुब्बारा वाले ने थोड़े अचरज के साथ उसे देखा और बोला, ” हाँ बिलकुल जाएगा. बेटे !
गुब्बारे का ऊपर जाना इस बात पर नहीं निर्भर करता है कि वो किस रंग का है बल्कि इस पर
निर्भर करता है कि उसके अन्दर क्या है .”
दोस्तों, ठीक इसी तरह हम इंसानों के लिए भी ये बात लागु होती है. कोई अपनी जीवन
में क्या हासिल करेगा, ये उसके बाहरी रंग-रूप पर नहीं निर्भर करता है ,
ये इस बात पर निर्भर करता है कि उसके अन्दर क्या है.
अंतत: हमारा मनोभाव ही हमारी ऊंचाई तय करता है..
कथा मर्म : हमारा मनोभाव ही हमारी ऊंचाई तय करता है..
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"सही तरीका"
(http://epaper.jagran.com/epaperimages/12062013/Ludhiana/11LDH-pg16-0/d114063400.png)
एक व्यक्ति बड़े से शिलाखंड को बैलगाड़ी पर चढ़ाने की कोशिश कर रहा था। लेकिन कई कोशिशों के बावजूद वह उस पत्थर को नहीं चढ़ा पा रहा था। एक राहगीर बड़ी देर से उसकी यह कोशिश देख रहा था। यह देखकर उसके पास आया और बोला, माफ करें, लेकिन आप गलत तरह से काम कर रहे हैं। इस तरह आप पत्थर को बैलगाड़ी में नहीं चढ़ा पाएंगे।
पसीने से लथपथ उस इंसान को गुस्सा आ गया। वह बोला, तुम अपना काम करो, मैं पहले भी पत्थर चढ़ा चुका हूं। राहगीर जानता था कि वह व्यक्ति स्वाभिमानी है और वह मदद नहीं लेगा। इसलिए उसने कहा, मैं आपको एक तरीका बताना चाहता हूं, जिससे आप आसानी से इसे बैलगाड़ी में चढ़ा सकते हैं। उस व्यक्ति ने उस शिलाखंड को जमीन पर टिका दिया और सीधा तन कर खड़ा हो गया और बोला, बताओ, तुम कौन-सा ऐसा तरीका बताना चाहते हो, जिसे मैं नहीं जानता।
राहगीर ने पत्थर का एक कोना उठाया और बोला, अगर हम दोनों मिलकर पत्थर को उठाएं, तो हम इसे बैलगाड़ी में चढ़ा सकते हैं। वह व्यक्ति मुस्कराया और दोनों ने पत्थर को पकड़ कर बैलगाड़ी में चढ़ा दिया।
कथा-मर्म : किसी के स्वाभिमान को चोट पहुंचाए बगैर मिलकर काम करना ही टीम भावना है। इससे हमारी शक्ति कई गुना बढ़ जाती है।
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"आंखों का खयाल "
एक युवती थी। एक दुर्घटना में उसकी आंखें चली गई थीं। वह हर समय हताश-निराश रहती। उसे अपनी जिंदगी बोझ लगने लगी। उसके मन में हर समय यही उलझन रहती कि आंखें न होने के कारण उसे कोई प्यार नहीं करता। अपने जीवन से गिले-शिकवों के बीच ही उसे एक युवक मिला। वह युवक उस युवती का बड़ा ही ख्याल रखता। उस युवक के जिंदगी में आने से युवती के अंदर जीने की इच्छा पैदा हुई। उसे युवक की आवाज, उसकी बातें बहुत अच्छी लगतीं। युवक ने उस लड़की से कहा- कुछ भी हो जाए, मैं तुम्हारी आंखें वापस लाकर रहूंगा। मेरा वादा है कि तुम दुनिया को अपनी आंखों से देख सकोगी।
युवक ने उस युवती की आंखों का ऑपरेशन किसी नामी सर्जन से करवाया। युवती की आंखों पर पट्टी बांध दी गई। युवती ने इच्छा जताई कि जब पट्टी खुलेगी तो मैं सबसे पहले युवक को ही देखना चाहूंगी। जिस दिन युवती की आंखों की पट्टी खुली, उसने सबसे पहले युवक को देखा और वह आश्चर्यचकित रह गई, क्योंकि युवक नेत्रहीन था। उसके सारे सपने धरे रह गए। उसने कहा- मैं एक नेत्रहीन से शादी नहीं कर सकती।
युवक ने इस पर कोई दुख या निराशा व्यक्त नहींकी। उसने कहा - अब तुम दुनिया को देख सकती हो, उसे भरपूर जी सकती हो। मेरा उद्देश्य पूरा हुआ, मैं चलता हूं। हां, मेरी आंखों का ख्याल रखना।
कथा-मर्म : भलाई करने वाला कभी यह नहीं सोचता कि उसे बदले में क्या मिलेगा। तब भलाई में सुख ही मिलता है, दुख नहीं।
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