पुण्य पाप
कांचनदेश के राजा धीरसिंह के आस्थान की नर्तकी थी, वसंतमालिनी । यघपि उसका जन्म साधारण परिवार में हुआ, परन्तु बचपन से ही नृत्य के प्रति वह विशेष रुचि दिखाती हुई आयी और बालिग होते-होते सुप्रसिद्व नर्तकी बन ई और नाम कमाया । राजा ने उसकी प्रतिभा को पहचाना और उसे आस्थान नर्तकी के पद पर नियुक्त किया । उसके नृत्य विन्यासों और असाधारण रुप भंगिमाओं को देखते हुए सबके सब मंत्रमुग्ध हो जाते थे । उस साल महारानी यामिनी देी के जन्म दिन के अवसर पर राजधानी में बड़े पैमाने पर उत्सव मनाये जा रहे थे । उस शुभ अवसर पर प्रजा के समक्ष उसका आदर-सत्कार करने का निर्णय राजा धीरसिंह ने लिया ।
परन्तु, राजा का यह निर्णय अन्य कलाकारों और पंडितों को ठीक नहीं लगा । उन्हें जो गौरव नहीं मिला, वह एक राज नर्तकी को मिले, यह उन्हें बिलकुल पसंद नहीं आया । वे इस विषय को लेकर अंदर ही अंदर कुढ़ रहे थे । मौका मिलने पर उसका अपमान करने और उसे नीचा दिखाने के लिये वे तैयार बैठे थे ।
उस दिन की शाम को महारानी का जन्म दिनोत्सव मनाया जाने वाला था । वसंतमालिनी सजाये गये मंच पर बड़े ही विनय के सात एक कोने में बैठी हुई थी ।
राजा धीरसिंह ने मूल्यवान भेंटें प्रदान करके उसका सत्कार किया और उसके नृत्य की प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए कहा, हमारी वसंतमालिनी किसी अप्सरा से कम नहीं है । उसका अदभुत नृत्य कितना ही प्रशंसनीय है । ऐसी अदभुत नर्तकियाँ बहुत ही कम होती है । उसका हमारे आस्थान में होना हमारा सौभाग्य है । उसके अदभुत नृत्य को देखने का भाग्य देवताओं को भी नहीं मिला ।
उपस्थित प्रजा ने तालियाँ बजाते हुए अपना हर्ष व्यक्त किया । पर, राजा से थोड़ी ही दूरी पर बैठे एक पंडित ने उठकर कहा, महाराज, क्षमा करें । आप अपूर्व कला पोषक है । कलाकारों का आदर करने में आपकी बराबरी करने की क्षमता किसी और में है ही नहीं । वसंतमालिनी एक सामान्य परिवार से आयी हुई कन्या है । किन्तु आपने उसे आस्थान नर्तकी बनाया, जो आपकी उदारता का ज्वलंत उदाहरण है । परन्तु, इसका यह मतलब नहीं कि आप उसकी तुलना अप्सराओं से करें । आपने ऐसा करके देवताओं का अपमान किया । मैंने जो कहा, उसमें कोई त्रुटि हो तो मुझे माफ करें ।
इसके दूसरे ही क्षण एक नृत्य कलाकार उठ खड़ा हुआ और कहने लगा, मैंने अनगिनत नर्तकियों की नृत्य प्रतिभा देखी । वसंतमालिनी के नृत्य में स्वाभाविकता कम है और दिखावा अधिक । उसके नृत्य को देखते हुए आप ही आप हँसी फूट पड़ती है । यह दुर्भाग्य की बात है कि महाराज अपने हाथों उसका सम्मान कर रहे है । हमारे राज्य ने जो पाप किया, उसका यह फल है ।
वही बैठे आस्थान बिदूषक गंगाधर शास्त्री ने उठकर कहा, महाप्रभु, हमारे राज्य ने जो पुण्य-पाप किये, इसके बारे में मैं नही जानता, पर इतना अवश्य जानता हूँ कि आस्थान नर्तकी वसंतमालिनी ने पुण्य-पाप दोनों किये ।
बिदूषक की बातों ने महाराज में कुतूहल जगाया । उसने विदूषक से पूछा, ये लोग तो िसे पाप कह रहे है, अपमान मान रहे है, परन्तु आपका कहना है कि हमारी नर्तकी ने पाप-पुण्य दोनों किये है । यह कैसे संभव है । कृपया इस पर प्रकाश डालिये ।
विदूषक ने कहा, आप श्रेष्ठ कला पोषक है । आपके राज्य में उसका जन्म लेना उसका पुण्य है । इसी कारण, आप आज इस विराट सभा में उसका सत्कार कर रहे है । परन्तु किसी जन्म में उसने पाप किया होगा और वह पाप अब उसका पीछा कर रहा है ।
महाराज ने विदूषक से कहा कि वे इसे विशद रुप से समझाएँ और संदेहों को दूर करें ।
साथी कलाकारों को जो आदर-सम्मान प्राप्त हो रहा है, उसे देखते हुए अन्य कलाकार ईर्ष्या के मारे जले जा रहे है । ऐसे लोगों के सम्मुख वसंतमालिनी को नाचना पड़ रहा है । यह उसका किया गया पाप है । विदूषक ने गंभीर स्वर में कहा ।
इसके पहले जिन-जिन लोगों ने वसंतमालिनी की समालोचना की, उसके नृत्य को दिखावटटी बताया, उन्होंने शर्म के मारे सिर झुका लिये . तब राजा ने कहा, ऐसे चाँद की सुन्दरता का आनन्द कोई नहीं ले सकता, जो चांदनी को नहीं फैलाता । उसी प्रकार साथी मानव में जो अच्छाई है, शक्ति-सामर्थ्य है, उनका जो आदर नहीं करता, उनका पांडित्य निष्प्रयोजन है । ऐसे लोगों के व्यक्तित्व में वह काला धब्बा है । मुझे इस बात का दुख है कि ऐसे लोग मेरे आस्थान में मौजूद है ।
अपनी बाक् पटुता के बल पर जिन ईर्ष्यालु लोगों की असलियत का पर्दाफाश विदूषक ने किया, उसका सत्कार वसंतमालिनी के हाथों किया गया । जनता ने आन्नद-भरित होकर जोर से तालियाँ बजायी ।