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Author Topic: ॐ नमः शिवाय  (Read 6822 times)

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Offline JR

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ॐ नमः शिवाय
« on: April 09, 2007, 08:44:37 PM »
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  • ॐ नमः शिवाय

     
    वेदों में शिव

    आमतौर पर प्रचलित कथा के अनुसार- महाशिवरात्रि शिव-पार्वती के विवाह का अवसर है। शिव को 1008 नामों से पुकारा जाता है। कुछ नाम जो अक्सर सुनाई पड़ते हैं : शिव। शंकर। महादेव। अघोर। भागवत। प्रभु। चंद्रशेखर। गंगाधर। गिरीश। पशुपति। कालंजर। जलमूर्ति। काल। जटाधर। ईशान। हर। सर्व सदाशिव। विश्वनाथ। चंद्रभाल। स्वयंभू। शंभु। भोलेनाथ। ज्ञान। त्रयम्बक। उग्र। नीलकंठ। कैलासपति। पार्वतीनाथ। विरुपाक्ष। वैद्यनाथ। रुद्र। भूतनाथ। आशुतोष। कपर्दी। भव। शर्व। कत्तिवास। गौरीश। प्रलयंकर। त्रिशूलधारी। पिनाकी। हरि-हर आदि।

    वेद की ऋचाएँ परब्रह्म की सत्ता को स्पष्ट करती हैं। वेदों में ईश्वरभक्ति के विषय में जो मंत्र विद्यमान है, वे इतने सारगर्भित तथा रसयुक्त हैैं कि उनसे बढ़कर भक्ति का सोपान अन्यत्र मिलना कठिन है। ईश्वर-भक्ति के सुगंधित पुष्प वेद के प्रत्येक मंत्र में विराजमान हैं जो अपने प्राण की सुगंध से स्वाध्यायशील व्यक्तियों के हृदय को सुवासित कर देते हैं।

    श्वेताश्वतरोपनिषद में परम कल्याणकारी भगवान शिव के कल्याणकारी स्वरूप का विशद वर्णन है। इसमें इन्हें परब्रह्म अथवा 'रुद्र' कहा गया है। इस उपनिषद में 'ब्रह्म' के संबंध में जिज्ञासा उठाई गई है कि जगत का कारण जो ब्रह्म है, वह कौन है?

    'किं कारणं ब्रह्म' (1/1)

    श्रुति ने आगे चलकर इस ब्रह्म शब्द के स्थान पर 'रुद्र' और 'शिव' शब्द का प्रयोग किया है।

    'एको हि रुद्रः/ (3/2) 'स... शिव : ॥ (3-11) समाधान में बताया गया है कि जगत का कारण स्वभाव आदि न होकर स्वयं भगवान शिव ही इसके अभिन्ना निमित्तोपादान कारण हैैं। हालाँकि अवतारवाद को वेदों के विपरीत या अलग माना गया है परंतु वेदों का निचोड़ रखने वाले उपनिषद में यह वर्णन भगवान 'शिव' की ओर ही इंगित करता है।

    एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थु
    य इमाँल्लोकानीशत ईशनीभि :
    (श्वेताश्वतरोपनिषद 3/2)


    अर्थात जो अपनी शासन/ शक्तियों द्वारा लोकों पर शासन करते हैं, वे रुद्र भगवान एक ही हैं। इसलिए विद्वानों ने जगत के कारण के रूप में किसी अन्य का आश्रयण नहीं किया है। वे प्रत्येक जीव के भीतर स्थित हैं। समस्त जीवों का निर्माण कर पालन करते हैं। प्रलय में सबको समेट भी लेते हैं।

    इस तरह 'शिव' और 'रुद्र' ब्रह्म के पर्यायवाची हैं। 'शिव' को रुद्र भी इसीलिए कहा गया है क्योंकि वे अपने उपासकों के सामने अपना रूप शीघ्र ही प्रकट कर देते हैं। शिवतत्व तो एक ही है- 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म। परंतु उनके नाम अनेक हैं और रूप भी अनेक हैं।

    शुक्ल यजुर्वेद संहिता के अंतर्गत रूद्राष्टाध्यायी के रूप में भगवान 'रुद्र' का विशद वर्णन है। भक्तगण इस रुद्राष्टाध्यायी के मंत्र के पाठ के साथ जल, दुग्ध, पंचामृत, आम्ररस, इक्षुरस, नारिकेल रस, गंगाजल आदि से शिवलिंग का अभिषेक करते हैं।

    भूतभावन भगवान सदाशिव की प्रसन्नता के लिए इस सूक्त के पाठ का विशेष महत्व बताया गया है। पूजा में भगवान शंकर को सबसे प्रिय जलधारा है। इसलिए भगवान शिव के पूजन में सहस्राभिषेक, रुद्राभिषेक की परंपरा है। रुद्राभिषेक के अंतर्गत रुद्राष्टाध्यायी के पाठ में ग्यारह बार इससूक्त की आवृत्ति करने पर पूर्ण रुद्राभिषेक माना जाता है। यह 'रुद्र सूक्त' आध्यात्मिक, आधिदैहिक एवं आधिभौतिक त्रिविध तापों से मुक्त करने तथा अमरतत्व की ओर अग्रसर करने का अन्यतम उपाय है। 'ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव उतो त इषवे नमः' से इसका प्रारंभ होता है।

    रुद्र सूक्त में भगवान रुद्र के विविध स्वरूप वर्णित हैं यथा गिरीश, अधिवक्ता, सुमंगल, नीलग्रीव सहस्राक्ष आदि।

    शिवपुराण की शतरुद्र संहिता के अनुसार लोककल्याण हेतु सद्योजात, वामदेव, तत्पुरुष, अघोर, ईशान आदि अनेक अवतार रूपों में वे प्रकट हुए हैं। सनकादि ऋषियों के प्रश्न पर स्वयं शिवजी ने रुद्राष्टाध्यायी के मंत्रों द्वारा अभिषेक का महात्म्य बतलाया है। भूरि प्रशंसा की है औरबड़ा फल दिखाया है। इस प्रकार वेदों एवं उपनिषदों में 'शिव' का उद्धारक स्वरूप है।


     
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