जय सांई राम।।।
शुक की परीक्षा
व्यास मुनि ने अपने बेटे शुक को अच्छी शिक्षा-दीक्षा और सत्य ज्ञान देकर अंतिम दीक्षा के लिए राजा जनक के पास भेजा। राजा जनक को पहले ही मालूम हो गया था कि व्यास पुत्र शुक उनके पास अंतिम ज्ञान लेने आ रहे हैं। शुक आकर राजभवन के द्वार पर खड़े हो गए। राजभवन के प्रहरियों ने शुक की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया। काफी देर खड़े रहने के बाद उनके लिए द्वार के बाहर एक आसन डाल दिया गया। उस पर वह बैठ गए। किसी ने नहीं पूछा कि वह कहां से आए हैं, कहां जाना है, क्या काम है। लेकिन शुक पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्हें न क्रोध आया और न ही प्रसन्नता हुई। वे निर्विकार भाव से वहां बैठे रहे।
तीन दिनों के बाद एक मंत्री आया और शुक को राजभवन के भीतर ले गया। आठ दिनों तक उन्हें राजमहल की सभी सुख-सुविधाएं मिलीं, लेकिन शुक में तब भी कोई बदलाव नहीं आया। इसके बाद उन्हें राजा जनक के दरबार में लाया गया। उनके सम्मान में संगीत कार्यक्रम का आयोजन किया गया, फिर राजा जनक ने शुक को दूध से लबालब एक कटोरा दिया और कहा कि वे बिना एक बूंद छलकाए सभाभवन की सात बार परिक्रमा करें। शुक ने दूध भरा कटोरा ले लिया और सात बार परिक्रमा कर आए, लेकिन एक बूंद भी नहीं छलका। दूध का कटोरा लेकर शुक सम्राट के पास आए। राजा जनक ने कहा, 'वत्स तुम्हारी शिक्षा पूरी हो चुकी है। तुम परीक्षा में सफल हुए। तुम्हें जो शिक्षा तुम्हारे पिता मुनि व्यास ने दी है और जो तुमने स्वयं सीखा है, वह पर्याप्त है। तुमने अपनी इंद्रियों, मोह, क्रोध, अहंकार सभी विकारों को जीत लिया है। एकचित्त होकर तुमने अनुकूल और प्रतिकूल सभी परिस्थितियों में रहना सीख लिया है। वास्तव में कोई गुरु किसी को सिखाता नहीं है, हम सबको अपने-आप सीखना पड़ता है। गुरु तो केवल संकेत देता है। वत्स, अब तुम घर जाओ। तुमने अपने मन को वश में करने की शक्ति पा ली है, यही सत्य ज्ञान है।'
ॐ सांई राम।।।