जय सांई राम।।।
प्रेम भक्ति का अंकुर न्यारो - प्रेम किससे होता है यह महत्वपूर्ण नहीं है, प्रेम हुआ यह बहुत मूल्यवान है।
प्रेम एक ऐसी अद्भुत संजीवनी है, जिसके लिए सृष्टि का हर प्राणी तरसता है-फिर चाहे वे पशु पक्षी हों या मनुष्य। प्रेम की सकारात्मक शक्ति पेड़ पौधों को भी नव जीवन देती है। वे ज्यादा तेजी से बढ़ने लगते हैं, अधिक हरे-भरे हो जाते हैं, अगर प्रेम से उन्हें सींचा जाए। यह प्राणों की गहरी प्यास है, जो सिर्फ प्रेम जल से ही बुझती है। सबके भीतर जलती है इसकी लौ, लेकिन प्रेम की परिभाषा कोई कर नहीं सका। भक्ति सूत्र जैसे ग्रंथ में भक्ति का अद्वितीय विवेचन करने वाले महर्षि नारद भी अंतत: हार कर कह उठे: अनिर्वचनीयं पे्रम स्वरूपम। प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है।
भक्ति की परिभाषा देते हुए पहले ही सूत्र में वे लिखते हैं, सा तु अस्मिन परम प्रेम रूपा। भक्ति जो है, वह उससे परम प्रेम स्वरूप होती है। उससे किससे इसे वे स्पष्ट नहीं करते। क्योंकि वह अमूर्त है, अनाम है। अगर भक्ति की आध्यात्किता को छोडें और मानवीय प्रेम की बात करें तो जब किसी से प्रेम हो जाता है, उस व्यक्ति के गहरे केंद्र से संबंध जुड़ जाता है। उसका चेहरा खो जाता है। शुरुआत भले ही चेहरे से होती हो, लेकिन जैसे गहरे उतरते हैं तो केवल अहसास शेष रहता है। इस अहसास का क्या नाम है? उसकी चुंबकीय शक्ति का क्या रूप है? इसलिए नारद मुनि का यह कहना कि प्रेमी अनाम होता है, बहुत अर्थपूर्ण है। आदमी जहां खड़ा है, वहीं से तो पहला कदम उठाएगा न! भक्ति का रास्ता प्रेम की गली से ही गुजरता है। ऊपर से देखने पर भक्ति बिलकुल सामान्य लगती है। बल्कि ऐसा माना जाता है कि योग, ध्यान, वेदान्त, सांख्य ये सब अत्यंत कठिन और दुरूह मार्ग हैं और भक्ति तो बिलकुल साधारण है। भक्त को रोने-गाने के सिवाय कोई काम ही नहीं रहता। लेकिन भक्ति सर्वाधिक कठिन है।
कबीर कहते हैं, भगति करै कोई सूरमा जाति बरन कुल खोय। प्रेम की पगडंडी आंसुओं से पटी है। मीरा ने लिखा है, अंसुअन जल सींच सींच प्रेम बेलि बोई। भक्ति की राह आंसुओं से भीगी क्यों है? क्योंकि भक्ति हृदय में जीती है। उसके आंसू दुख के आंसू नहीं होते, यह छलकता हुआ हृदय रस होता है। कोई भी भाव अतिशय हो जाए तो छलकने लगता है। ये आंसू मन के मैल को धोकर भाव-शरीर को एकदम निर्मल और स्वच्छ बना देते हैं। असल में भावनाओं का यह ऐश्वर्य भक्ति की खास पहचान है। यह हर किसी के बस की बात नहीं। बहुत मजबूत दिल और उतना ही मजबूत जिस्म चाहिए तो भक्ति का पेड़ मनोभूमि में उग सकता है। इधर आधुनिक मानव भक्ति की इस रस पूर्ण उन्मनी दशा से वंचित रह गया है। जैसे-जैसे बुद्धिवाद का उदय हुआ, वह लोगों के दिल-ओ-दिमाग पर छा गया, वैसे-वैसे मनुष्य की प्रेम की क्षमता कम होती गई। दिमाग मजबूत होता गया और दिल सिकुड़ता गया। स्वर्गीय अमृता प्रीतम ने बड़ी खूबसूरती से कहा है, आज मैं किसी के मुंह से प्रेम और भक्ति के अल्फाज सुनती भी हूं तो ऐसे घबराए हुए से, मानों दूसरों के बाग में से चुराए हुए फूल हों। बात सच है। प्रेम की चाहत तो लोगों में बहुत है, लेकिन उसके लिए वह माहौल नहीं, जिसमें प्रेम पनपे। प्रेम के चर्चे तो बहुत हैं, लेकिन प्रेम में वह गहराई नहीं है, जो भक्ति के समुंदर को अपने सीने में समा ले। इस विज्ञान युग में प्रेम और भक्ति कैसे पनपेगी? अंतर्दृष्टि यही है कि प्रेम के साथ ध्यान को जोड़ें। ध्यान और प्रेम दो पंख हैं जिसके सहारे मनुष्य आसमान में उड़ सकता है। प्रेम है मन से मन का मिलन, काम है तन से तन का मिलन और भक्ति है, आत्मा का आत्मा से मिलन। प्रेम बीच की कड़ी है। एक तरफ काम है, दूसरी तरफ भक्ति। प्रेम को चाहिए कि वह ऊर्ध्वगति करे। अकेला प्रेम एक भाव है, अकेला उड़ान भरने में असमर्थ है, लेकिन वह ध्यान का सहारा ले तो उसके पंखों में बल आ जाएगा। ध्यान एक रूपांतरण का विज्ञान है, जो ऊर्जा को निरंतर ऊर्ध्वगामी कर सकती है।
वस्तुत: प्रेम को भक्ति में परिवर्तित करना वैसे ही है, जैसे पानी को उबाल कर भाप बनाना। प्रेम को निकृष्ट भाव ईष्र्या, काम, भय, आधिपत्य से विलग कर, निष्काम ऊर्जा में बदलना भक्ति की कीमिया है। नारद ने बड़ी महीन बात कही है कि पूजा अनुराग पूर्वक होना चाहिए, रूखी सूखी नहीं। उसकी व्याख्या इस प्रकार कर सकते हैं: प्रेम आस्तिकता की पहली गंध, पहली लहर, आस्तिकता की तरफ पहला कदम। कम से कम एक में ही सही, परमात्मा दिखा तो। और एक में दिखा तो सब में दिख सकता है। लेकिन जल्दी ही तुम्हारी प्रेम की आंख धुंधली पड़ जाती है। जिसमें तुम्हें परमात्मा दिखा था वह भी एक ख्वाब, एक सपना हो जाता है। जल्दी ही तुम भूल जाते हो, धूल जम जाती है। जब प्रेम की घटना घटे तो जल्दी करना उसे पूजा बनाने की, अन्यथा समय ढांक देगा। इसलिए मैं कहता हूं, पूजा जवानी के दिन हैं। लेकिन लोग कहते हैं, पूजा बुढ़ापे में करेंगे। इतना फासला प्रेम में और पूजा में होगा तो प्रेम मर जाएगा, पूजा न आ पाएगी। और असलियत यह है कि प्रेम ही पूजा बनता है।
प्रेम के मरने से पूजा नहीं आती, प्रेम के पूरे निखरने से पूजा आती है। एक में जो दिखाई पड़ा है, अब इस सूत्र को पकड़ लेना इसको औरों में भी देखने की कोशिश करना। जरा आंख ताजी हो, लहर नई हो, उमंग अभी जोश भरी हो, उत्साह युवा हो तो जल्दी कर लेना। जो तुम्हें अपने प्रेमी में, प्रेयसी में, बच्चे में दिखा हो, अपने मित्र में दिखा हो, जल्दी करना, क्योंकि उस वक्त तुम्हारे पास आंख है, उस वक्त जगत को गौर कर देख लेना, और तुम अचानक पाओगे, वह सभी के भीतर छिपा है, क्योंकि उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। प्रेम किससे होता है यह महत्वपूर्ण नहीं है, प्रेम हुआ यह बहुत मूल्यवान है। दूसरा तो सिर्फ बहाना है, घटना तो अपने भीतर हृदय के अतल में घटती है। लेकिन किसी भी बहाने से हो, उसकी याद आ जाए यह क्या कम है।
हम खुदा के कभी कायल न थे
उनको देखा तो खुदा याद आया।
ॐ सांई राम।।।