Join Sai Baba Announcement List


DOWNLOAD SAMARPAN - Nov 2018





Author Topic: हर सच्चा कर्म पूजा है  (Read 3297 times)

0 Members and 1 Guest are viewing this topic.

Offline rajiv uppal

  • Member
  • Posts: 892
  • Blessings 37
  • ~*साईं चरणों में मेरा नमन*~
    • Sai-Ka-Aangan
हर सच्चा कर्म पूजा है
« on: February 23, 2008, 11:48:25 PM »
  • Publish
  • हम अपने पूजाघर में बैठकर भगवान का भजन करते हैं और सोचते हैं कि हम भक्त हैं। हम मंदिर में बैठकर भजन-कीर्तन करते हैं और हमें लगता है कि हम भक्त हैं। लोगों के साथ मिलकर हम धार्मिक आयोजन करते हैं और हम समझते हैं कि हम भक्त हैं।

    ये सब धारणाएँ सही हैं, पर भक्ति की एक और भी अवस्था है, जिसे सही मायने में सच्ची भक्ति कहा जा सकता है। और वह है-ईश्वर को पूजाघर, मंदिर और धार्मिक आयोजनों के बाहर भी देखना। यदि यह सही है कि यह जगत ईश्वर से ही निकला है और उसी में स्थित है, तब इस संसार में ऐसा कुछ नहीं है,जो ईश्वर से रहित हो।

    संसार में सर्वत्र वही रमा है और उसकी भक्ति जैसे पूजाघर, मंदिर और धार्मिक आयोजनों के माध्यम से की जा सकती है, वैसे ही अपने हर कर्म के माध्यम से भी की जा सकती है। इस प्रकार सच्ची भक्ति की अवस्था वह है, जहाँ हमारा प्रत्येक कार्य भगवान की पूजा बन जाता है।

    और जब व्यक्ति का हर कर्म पूजा बन जाता है तब उसके लिए मंदिर और प्रयोगशाला में भेद नहीं रह जाता। भगिनी निवेदिता 'विवेकानंद साहित्य' की भूमिका में लिखती हैं- 'यदि एक और अनेक सचमुच एक ही सत्य की अभिव्यक्तियाँ हैं, तो केवल उपासना के ही विविध प्रकार नहीं वरन सामान्य रूप से कर्म के भी सभी प्रकार, संघर्ष के भी सभी प्रकार, सृजन के भी सभी प्रकार, सत्य साक्षात्कार के मार्ग हैं।

    अतः लौकिक और धार्मिक में आगे कोई भेद नहीं रह जाता। कर्म करना ही उपासना है। विजय प्राप्त करना ही त्याग है। स्वयं जीवन ही धर्म है। विदेशों की यात्रा से लौटने के बाद रामेश्वरम्‌ के मंदिर में भाषण देते हुए स्वामी विवेकानंद ने भक्ति की व्याख्या करते हुए कहा था -'वह मनुष्य जो शिव को निर्धन, दुर्बल तथा रुग्ण व्यक्ति में देखता है, वही सचमुच शिव की उपासना करता है, परंतु यदि वह उन्हें केवल मूर्ति में देखता है, तो कहा जा सकता है कि उसकी उपासना अभी नितांत प्रारंभिक ही है।

    यदि किसी मनुष्य ने किसी एक निर्धन मनुष्य की सेवा-सुश्रूषा बिना जाति-पाँति अथवा ऊँच-नीच के भेदभाव के, यह विचार कर की है कि उसमें साक्षात्‌ शिव विराजमान हैं तो शिव उस मनुष्य से दूसरे एक मनुष्य की अपेक्षा, जो कि उन्हें केवल मंदिर में देखता है, अधिक प्रसन्ना होंगे।'

    आगे उन्होंने कहा था- 'जो व्यक्ति अपने पिता की सेवा करना चाहता है, उसे अपने भाइयों की सेवा सबसे पहले करनी चाहिए। इसी प्रकार जो शिव की सेवा करना चाहता है, उसे उसकी संतान की, विश्व के प्राणीमात्र की पहले सेवा करनी चाहिए। शास्त्रों में भी कहा गया है किजो भगवान के दासों की सेवा करता है, वही भगवान का सर्वश्रेष्ठ दास है।' यही सच्ची भक्ति का स्वरूप है।
    ..तन है तेरा मन है तेरा प्राण हैं तेरे जीवन तेरा,सब हैं तेरे सब है तेरा मैं हूं तेरा तू है मेरा..

     


    Facebook Comments