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आस्था
अंधविश्वास

Author Topic: ~*आस्था या अंधविश्वास*~  (Read 3464 times)

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Offline rajiv uppal

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  • ~*साईं चरणों में मेरा नमन*~
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झाबुआ के आदिवासी अंचल का गाय गौरी उत्सव 
जहाँ गाय के खुरों तले कुचले जाते हैं लोग
 

भारत रस्मो-रिवाज और अनूठी प्रथाओं का देश है। यहाँ भाँति-भाँति की परंपराएँ हैं, जिनकी शुरुआत तो आस्था से होती है, लेकिन अंतत: वे अंधविश्वास में परिण‍ित हो जाती हैं। आस्था और अंधविश्वास की अपनी इस कड़ी में मैं आपको रूबरू करा रहा हूं मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल झाबुआ की अनूठी प्रथा गाय गौरी से।

यह उत्सव दीवाली के अगले दिन गोवर्धन (पड़वा) के दिन मनाया जाता है। इस दिन सुबह से ही आदिवासी अपने गाय-बैलों को नहला-धुलाकर उन पर रंगीन छापे लगाकर, उनके सींगों पर कलगी बाँधते हैं। फिर गाँव में स्थित गोवर्धन मंदिर में पूजा-अर्चना की जाती है। पूजा के बाद गाँववासी मंदिर की पाँच परिक्रमा लगाते हैं।

परिक्रमा के दौरान गाँवभर की गायें परिक्रमा की अगवानी करती हैं। गाँव की महिलाएँ और बुजुर्ग ढोल-मंजीरे की थाप पर अष्ट छाप कवियों के पद गाते हुए परिक्रमा करती हैं। ये नजारा बेहद सुंदर लगता है, लेकिन तभी शुरू हो जाता है गाय गौरी का वह रूप जिसे देखकर अच्छे से अच्छा व्यक्ति काँप जाता है।
 
जी हाँ, गोमाता को मनाने के लिए आदिवासी अपनी गाय और सैकड़ों अन्य गायों के खुरों के नीचे लेटता है। चौंकिए नहीं, दीवाली के दूसरे दिन झाबुआ में गाय गौरी उत्सव कुछ इसी तरह मनाया जाता है। परिक्रमाओं के दौरान यहाँ के आदिवासी गोमाता का आशीर्वाद पाने की लालसा में कई बार इन जानवरों के सामने लेटते हैं और जानवरों का पूरा रेला इनके ऊपर से गुजर जाता है।

ये आदिवासी अपने परिवार की खुशहाली के लिए गाय गौरी से मन्नत माँगते हैं। मन्नत के लिए वे इस खतरनाक रस्म को निभाते हैं। इस रस्म को निभाने से पहले वे दिनभर उपवास रखते हैं। उसके बाद मंदिर की परिक्रमा करते हुए जानवरों के रेले के सामने लेट जाते हैं।
 
इस संबंध में जब गाँव के बुजुर्ग भूरा से बात की गई तो उन्होंने बताया हम गाय माता से माफी और मन्नत दोनों ही माँगते हैं। वे पिछले कई सालों से इस रस्म को निभा रहे हैं और हर बार उन्हें चोटें भी आती हैं।
« Last Edit: December 22, 2007, 02:54:55 AM by rajiv uppal »
..तन है तेरा मन है तेरा प्राण हैं तेरे जीवन तेरा,सब हैं तेरे सब है तेरा मैं हूं तेरा तू है मेरा..

Offline rajiv uppal

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Re: ~*आस्था या अंधविश्वास*~
« Reply #1 on: December 22, 2007, 03:11:13 AM »
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  • आस्था का अंधा ज्वार 
    शक्ति पूजा में भक्तों ने काटी जीभ, देवी को चढ़ाया रक्त 



    आस्था के उन्माद में व्यक्ति क्या कुछ नहीं कर गुजरता। इस बार आस्था और अंधविश्वास की अपनी विशेष प्रस्तुति में हम आपको बता रहे हैं शक्ति पूजा के बारे में । खासकर नवरात्र के मौके पर श्रद्धालुओं का उन्माद। इस ज्वार में भक्त कभी स्वयं के शरीर को तकलीफ पहुँचाकर देवी को प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं तो कभी ‘देवी आना’ यह मानकर अजीब हरकतें करते हैं।

     यूँ तो शक्ति पूजा में उन्माद का नजारा बेहद आम होता है, लेकिन नवरात्र के समय उन्माद का यह ज्वार अपनी हर सीमा पार कर जाता है। गली-गली में बने दुर्गा मंदिर के बाहर लोग पागलों की तरह झूमते-नाचते नजर आते हैं। इन लोगों का न तो अपने शरीर पर काबू रहता है न ही दिमाग पर।

    सबसे पहले हम रुख करते हैं इंदौर के एक दुर्गा मंदिर का। कहा जाता है कि यहाँ के पुजारी को दुर्गाजी की सवारी आती है। वहाँ कई लोग अजीब तरह से झूमते रहते हैं। वहाँ के मुख्य पुजारी जलता कपूर अपने मुख में रखकर तलवार हाथ में लिए भक्तों के बीच कूदते रहते हैं। यहाँ आए श्रद्धालु उन्हें देवीस्वरूप मान उनकी पूजा करते हैं। साथ ही साथ कई अन्य भक्त भी पागलों की तरह झूमते रहते हैं। इनमें से कुछ लोग बड़े व्यवसायी यहाँ तक कि सरकारी मुलाजिम भी होते हैं। वहीं भक्तों की तादाद में भी हर वर्ग के लोग शामिल होते हैं।

     पुजारी सुरेश बाबा के अनुसार सालों से उन्हें माँ की सवारी आती है। यह वरदान उन्हें ओंकारेश्वर में स्नान के दौरान मिला। सवारी के समय उनके दर पर आने वाला कोई भी व्यक्ति खाली हाथ नहीं जाता। यहाँ आकर उनकी हर मुराद पूरी होती है।

    गाँव के पास बने तालाब में लोगों की शक्ति पूजा देख कोई भी डर जाए। कुछ महिलाएँ भावुक हो अपनी जीभ पर तलवार फिरा रही थीं। लोग तरह-तरह से अपने जिस्म को तकलीफें देते हैं

    इसके साथ ही मध्यप्रदेश के कई शहरों में हमें ऐसे ही नजारे देखने को मिलते हैं। कहीं कोई खुद को दुर्गा का अवतार कहता है, तो कहीं कोई काली का स्वरूप धरे हुए मिल जाएगा। शक्ति पूजा का यह आलम धीरे-धीरे भयावह रूप अख्तियार कर लेता है जब अजीब तरह से झूमते लोग देवी को अपना रक्त चढ़ाना शुरू कर देते हैं।
    ..तन है तेरा मन है तेरा प्राण हैं तेरे जीवन तेरा,सब हैं तेरे सब है तेरा मैं हूं तेरा तू है मेरा..

    Offline rajiv uppal

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    Re: ~*आस्था या अंधविश्वास*~
    « Reply #2 on: December 22, 2007, 03:17:20 AM »
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  • अंधी आस्था में गई जान... 
    जबलपुर के भर्रा गाँव में हुआ हादसा
     

    आस्था और अंधविश्वास नामक प्रस्तुति में अब तक आपको समाज में फैली कई ऐसी मान्यताओं और पद्धतियों से रूबरू कराया गया है जो कभी आस्था तो कभी घातक अंधविश्वास का रूप ले लेती हैं।मेरा इस खास प्रस्तुति के पीछे उद्देश्य आप सभी को सच्चाई से परिचित कराना और धोखे से बचाना रहा है।

    हम चाहते हैं कि हमारे सुधी पाठक आस्था और अंधविश्वास के बीच खिंची पतली लकीर को पहचानें और पूरी सूझ-बूझ से फैसला लें और अंधविश्वास के नाम पर चल रहे गोरखधंधे को पहचानकर न सिर्फ उससे दूर रहें, बल्कि अपने परिचितों को भी सचेत करें।

    हमारी इस कड़ी में मैं आपको अंधविश्वास का एक बेहद घिनौना रूप बता रहा हूं, जिसके कारण 11 लोगों की मौत हो गई। मै बात कर रहा हूं जबलपुर के कथित सरोता वाले बाबा की।

    ये बाबा सुपारी काटने वाले सरोते से लोगों की आँखों की बीमारी ठीक करने का दावा करते थे। अंधश्रद्धा की गिरफ्त में फँसे भोले-भाले लोग बाबा के दावे पर विश्वास करके अपनी लाचारी लेकर उनके दर पर चले आते थे।

    बाबा का असली नाम ईश्वरसिंह राजपूत है। चूँकि वे सरोते से इलाज करते थे, इसलिए आम लोग उन्हें सरोता बाबा के नाम से पहचानते हैं। इसके अलावा उन्हें सर्जन बाबा जैसे उपनामों से भी संबोधित किया जाता था। सरोता बाबा आँखों के इलाज के अलावा एड्स और कैंसर के इलाज का भी दम भरते थे, इसलिए लोगों का ताँता लगा रहता था।

    इनके इलाज करने का तरीका बेहद अजीब होता था। ये मरीज के मुँह पर कंबल ढँककर मरीज की आँखों में सरोते का एक हिस्सा डालकर इलाज करते थे। इन महाशय का दावा था कि जिस व्यक्ति ने पहले ही डॉक्टर से इलाज करवा लिया है या फिर उसकी आँखों का ऑपरेशन हो चुका है, तो उसके ठीक होने की गुंजाइश कम है, अन्यथा फायदा शर्तिया होगा।

    उनकी इन बातों को उनके सहयोगियों ने बुंदेलखंड-छतरपुर जैसे अपेक्षाकृत पिछड़ी जगहों पर फैला दिया था, जिसके कारण उनके दर पर लोगों की खासी भीड़ लगने लगी। फिर बाबा ने सरोते से लकड़ी काटकर देना भी शुरू कर दिया। वे दावा करते थे कि यह लकड़ी आपको हर रोग से दूर रखेगी।
     
     
    ये बाबा पिछले कई सालों से इसी तरह से इलाज करते चले आ रहे थे। उनका दावा था कि वे रोज डेढ़ घंटे अपने कुलदेवता नाग-नागिन के जोड़े की पूजा करते हैं। इस पूजा में वे जो जल चढ़ाते हैं, उसे पीने से व्यक्ति की हर बीमारी दूर हो जाती है। बाबा द्वारा फैलाई गई इन बातों पर भरोसा करके हजारों लोग गुरुवार के दिन बाबा से पवित्र जल लेने और सरोते से इलाज कराने भर्रा गाँव आते थे।
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    Offline rajiv uppal

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    • ~*साईं चरणों में मेरा नमन*~
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    Re: ~*आस्था या अंधविश्वास*~
    « Reply #3 on: December 22, 2007, 03:21:23 AM »
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  • देवी बनी बालिका....
     
     
     
    क्या शारीरिक विचित्रता को दैवी उपहार माना जा सकता है? आप कहेंगे नहीं... कदापि नहीं... यह तो अभिशाप है। लेकिन उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के इंडालपुर गाँव के लोग ऐसा नहीं मानते।

    इस गाँव में 4 जुलाई को पैदा हुई गीता, जिसके दो सिर, चार हाथ और दो पाँव हैं, उसकी लोग देवियों की तरह पूजा कर रहे हैं। उसे लोग देवी का अवतार मान रहे हैं।
    गीता के पिता रमेश बताते हैं कि उनकी बेटी के दो सिर और चार हाथों के कारण हर कोई उसे देवी माँ कहकर पुकार रहा है। दूर-दूर से लोग उनकी बच्ची को चढ़ावा चढ़ाने आ रहे हैं। वहीं डॉक्टरों का कहना है कि गीता दरअसल दो जुड़वा बच्चे हैं, जो शारीरिक तौर पर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।

    डॉक्टर अशोक अग्रवाल के अनुसार इन बच्चों को सिआमीज की संज्ञा दी जाती है। इसमें कोई दैवी शक्ति वाली बात नहीं, बल्कि यह प्राकृतिक विचित्रता का एक उदाहरण है। कई बार गर्भावस्था के दौरान दो भ्रूण आपस में जुड़ जाते हैं और एक साथ ही विकसित होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप इस तरह से बच्चे पैदा होते हैं।

    वहीं दूसरी ओर इस बच्ची के दर्शन के लिए दूर-दराज से लोग यहाँ आ रहे हैं। यहाँ तक कि इस बच्ची की दादी रामदेवी भी इसे देवी माँ का अवतार मानकर इसकी पूजा-अर्चना करती हैं।

     
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    Offline abhinav

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    • सबका मालिक एक।
    Re: ~*आस्था या अंधविश्वास*~
    « Reply #4 on: December 22, 2007, 11:09:01 AM »
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    मी पापी-पतित धीमंद । 
    तारणें मला गुरुनाथा, झडकरी ।।
    मुझसा कोई पापी तेरे दर पे ना आया होगा।
    और जो आया होगा, खाली लौटाया ना होगा॥
    ॐ साई राम          اوم ساي رام          ਓਮ ਸਾਈ ਰਾਮ          OM SAI RAM          ॐ साई राम          اوم ساي رام          ਓਮ ਸਾਈ ਰਾਮ          OM SAI RAM          ॐ साई राम          اوم ساي رام          ਓਮ ਸਾਈ ਰਾਮ          OM SAI RAM          ॐ साई राम          اوم ساي رام          ਓਮ ਸਾਈ ਰਾਮ          OM SAI RAM

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    Re: ~*आस्था या अंधविश्वास*~
    « Reply #5 on: July 14, 2008, 11:26:24 AM »
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  • नरबलि का एक और रूप... 
    काली माँ को संतुष्ट करती ‘अड़वी’ प्रथा... 


    क्या आपने इस आधुनिक युग में नर बलि के बारे में सोचा है? नहीं सोचा तो जरा द्रविड़ियन संस्कृति की पूजा-पद्धति पर गौर कीजिए, जहाँ भक्त अपने इष्ट देव को प्रसन्न करने के लिए नर बलि तक का सहारा लेता है। मगर अधिकतर हम ऐसी बातों को सुनकर या पढ़कर चकित ही होते हैं। आस्था और अंधविश्वास की इस कड़ी में हम आपको एक ऐसी ही अजीबोगरीब परंपरा के विषय में बता रहे हैं, जिसमें नर कटीली झाड़ियों को लपेटकर जमीन पर लोटता है और काली माँ को खून चढ़ाते हैं।

    अड़वी नामक यह प्रथा केरल के ‘कुरमपला देवी मंदिर’ में संपन्न की जाती है। यह मंदिर तिरुवनंतपुरम से करीब सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। काली माँ की आराधना के लिए की जाने वाली यह प्रथा हर पाँच साल में करीब एक बार आयोजित की जाती है।

    मान्यता के अनुसार अड़वी वेलन नामक एक पुजारी की पूज्यनीय देवी थीं। एक बार वेलन पूजा-अर्चना करके मंदिर के पास से गुजर रहे थे। मंदिर के पास देवी माँ ने वेलन के पास निहित अड़वी देवी को अपनी शक्तियाँ प्रदान कीं। तत्पश्चात देवा माँ की शक्तियों की आराधना हेतु भक्त नरबलि देने लगे और इस परंपरा का नाम ही अड़वी पड़ गया।

    इस प्रथा के दौरान श्रद्धालु बाँस की कटीली झाड़ियों को लपेटकर, जमीन पर लोटते हैं और अपना खून देवी माँ को अर्पित करते हैं। यह प्रथा मानव बलि से काफी हद तक मिलती-जुलती है।
     
    पणयानी के नौंवे दिन गाँववासी मंदिर पहुँचते हैं और कँटीले बाँस, नारियल के ताड़ आदि कटीली झाड़ियों को लपेटकर जमीन पर लोटते हैं। पणयानी शाम सात बजे से शुरू होती है। आधी रात को मंदिर के मुख्य पुजारी श्रद्धालुओं को भभूत का प्रसाद बाँटते हैं।

    श्रद्धालु भभूत प्राप्त करने के पश्चात विभिन्न स्थानों से कँटीले झाड़ एकत्रित करते हैं। इसके बाद उन झाड़ियों को अपने शरीर पर लपेटकर मंदिर की परिक्रमा करते हैं। इसमें उन्हें केवल उत्तर दिशा में ही परिक्रमा करनी होती है।

    अंत में इन काँटों को शरीर से हटाया जाता है। शरीर पर लगे हुए घाव से बहते हुए खून को एकत्रित किया जाता है और काली माँ को चढ़ाया जाता है। यह प्रथा मूल रूप से नरबलि का ही एक उदाहरण है। श्रद्धालुओं का दावा है कि वह इस दौरान किसी प्रकार का भी दर्द महसूस नहीं करते हैं। इस प्रक्रिया के पश्चात मंदिर परिसर पूरे दिन खाली रखा जाता है और इसे भूतों व प्रेत-आत्माओं का अड्डा माना जाता है।
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