हज़रत पैगम्बरे इस्लाम(स.) का जीवनकानून व न्याय प्रियता
कानून का पालन व न्याय प्रियता पैगम्बर(स.) की मुख्य विशेषताएं थीं।हज़रत पैगम्बर अपने साथ दुरव्यवहार करने वाले को क्षमा कर देते थे, परन्तु कानून का उलंघन करने वालों कों क्षमा नही करते थे। तथा कानूनानुसार उसको दणडित किया जाता था। वह कहते थे कि कानून व न्याय सामाजिक शांति के रक्षक हैं। अतः ऐसा नही हो सकता कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए कानून को बलि चढ़ा कर पूरे समाज को दुषित कर दिया जाये। वह कहते थे कि मैं उस अल्लाह की सौगन्ध खाकर कहता हूँ जिसके वश मे मेरी जान है कि न्याय के क्षेत्र मे मैं किसी के साथ भी पक्षपात नही करूगां। अगर मेरा निकटतम सम्बन्धि भी कोई अपराध करेगा तो उसे क्षमा नही करूगां और न ही उसको बचाने के लिए कानून को बली बनाऊँगा।
एक दिन पैगम्बर ने मस्जिद मे अपने प्रवचन मे कहा कि अल्लाह ने कुऑन मे कहा है कि प्रलय मे कोई भी अत्याचारी अपने अत्याचार के दण्ड से नही बच सकेगा। अतः अगर आप लोगो मे से किसी को मुझ से कोई यातना पहुंची हो या किसी का कोई हक़ मेरे ऊपर बाक़ी हो तो वह मुझ से लेले। उस सभा मे से सबादा पुत्र क़ैस नामक एक व्यक्ति खड़ा हुआ। तथा कहा कि ऐ पैगम्बर जब आप तायिफ़(एक स्थान का नाम) से लौट रहे थे तो आप के हाथ मे एक असा (लकड़ी का ड़डां) था। आप उसे घुमा रहे थे वह मेरे पेट मे लगा जिससे मुझे पीड़ा हुई। आप ने कहा कि मैं सौगन्ध के साथ कहता हूँ कि मैंने ऐसा जान बूझ कर नही किया परन्तु तू फिर भी उसका बदला ले सकता है। यह कह कर आपने अपना असा मंगाया तथा उस असा को सबादा के हाथ मे देकर कहा कि इससे तेरे शरीर के जिस भाग को पीड़ा पहुँची हो, तू इस से मेरे शरीर के उसी भाग को पीड़ा पहुँचा। उस ने कहा कि ऐ पैगमबर मैने आपको क्षमा किया । आपने कहा कि अल्लाह तुझे क्षमा करे। यह थी इस महान् पैगम्बर की न्याय प्रियता तथा सामाजिक क़ानून की रक्षा।
जनता के विचारों का आदर
जिन विषयों के लिए कुऑन मे आदेश मौजूद होता आदरनीय पैगम्बर(स.) उन विषयों मे न स्वयं हस्तक्षेप करते और न ही किसी दूसरे को हस्तक्षेप करने देते थे। वह स्वयं भी उन आदेशों का पालन करते तथा दूसरों को भी पालन करने पर बाध्य करते थे। क्योकि कुऑन के आदेशों की अवहेलना कुफ्र (अधर्मिता) है। इस सम्बन्ध मे कुऑन स्वयं कहता है कि व मन लम यहकुम बिमा अनज़ालल्लाहु फ़ा उलाइका हुमुल काफ़िरून। अर्थात वह मनुषय जो अल्लाह के भेजे हुए क़ानून के अनुसार कार्य नही करते वह समस्त काफ़िर (अधर्मी) हैं। जिन विषयों के लिए कुऑन मे आदेश नही होता था उनमे हस्तक्षेप नही करते थे। उन विषयों मे जनता स्वतन्त्र थी तथा सबको अपने विचर प्रकट करने की अनुमति थी।
वह दूसरों के परामर्श का आदर करते तथा परामर्श पर विचार करते थे। बद्र नामक युद्ध के अवसर पर आपने तीन बार अपने साथियों से विचार विमर्श किया । सर्वप्रथम इस बात पर परामर्श हुआ कि कुरैश से लड़ा जाये या इनको इनके हाल पर छोड़ कर मदीने चला जाये। सब ने जंग करने को वरीयता दी । दूसरी बार छावनी के स्थान के बारे मे परामर्श हुआ। तथा इस बार हबाब पुत्र मुनीज़ा की राय को वरीयता दी गयी। तीसरी बार युद्ध बन्धकों के बरे मे मशवरा लिया गया। कुछ लोगों ने कहा कि इन की हत्या करदी जाये, तथा कुछ लोगों ने कहा कि इनको फिदया (धन) लेकर छोड़ दिया जाये। पैगम्बर ने दूसरी राय का अनुमोदन किया। इसी प्रकार ओहद नामक युद्ध मे भी पैगम्बर ने अपने साथियों से इस बात पर विचार विमर्श किया, कि शहर मे रहकर सुरक्षा प्रबन्ध किये जायें या शहर से बाहर निकल कर पड़ाव डाला जाये व शत्रु को आगे बढने से रोका जाये। विचार के बाद दूसरी राय पारित हुई । इसी प्रकार अहज़ाब नामक युद्ध के अवसर पर भी यह परामर्श हुई कि शहर मे रहकर लड़ा जाये या बाहर निकल कर जंग की जाये। काफी विचार विमर्श के बाद यह पारित हुआ कि शहर से बाहर निकल कर युद्ध किया जाये। अपने पीछे की ओर पहाड़ी को रखा जाये तथा सामने की ओर खाई खोद ली जाये, जो शत्रु को आगे बढ़ने से रोक सके ।
जैसा कि हम सब जानते हैं कि सब मुसलमान आदरनीय पैगम्बर को त्रुटि भूल चूक तथा पाप से सुरक्षित मानते थे। तथा उनके कार्यों पर आपत्ति व्यक्त करने को अच्छा नही समझते थे। परन्तु अगर कोई पैगम्बर के किसी कार्य की आलोचना करता तो वह आलोचक को शांति पूर्ण ढंग से समझाते तथा उसको संतोष जनक उत्तर देकर उसके भम्र को दूर करते थे। उनका दृष्टिकोण यह था कि सृष्टि के रचियता ने चिंतन आलोचना व दो वस्तुओं के मध्य एक को वरीयता दने की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति को प्रदान की है। यह केवल सामाजिक आधार रखने वाले शक्ति शाली व्यक्तियों से ही सम्बन्धित नही है । अतः मनुष्यों से चिंतन व आलोचना के इस अधिकार को नही छीनना चाहिये।
शासकीय सद्व्यवहार
वह सदैव प्रजा के कल्याण के बरे मे सोचते थे। पैगम्बर ने स्वंय एक स्थान पर कहा कि -मै जनता कि भलाई का जनता से अधिक ध्यान रखता हूँ। तुम लोगों मे से जो भी स्वर्गवासी होगा तथा सम्पत्ति छोड़ कर जायगा वह सम्पत्ति उसके परिवार की होगी। परन्तु अगर कोई ऋणी होगा या उसका परिवार दरिद्र होगा तो उसके ऋण को चुका ने तथा उसके परिवार के पालन पोषण का उत्तरदायित्व मेरे ऊपर होगा।
पैगम्बर(स.) ने न्याय व दया पर आधारित अपनी इस शासन प्रणाली द्वारा संसार के समस्त शासकों को यह शिक्षा दी कि समाज मे शासक की स्थिति एक दयावान व बुद्धिमान पिता की सी है। शासक को चाहिये कि हर स्थान पर जनता के कल्याण का ध्यान रखे तथा अपनी मन मानी न करे।
पैगम्बर वह महान् व्यक्ति हैं जिन्होने बहुत कम समय मे मानव के दिलों मे अपने सद्व्यवहार की अमिट छाप छोड़ी। उन्होने अपने सद्व्यवहार, चरित्र व प्रशिक्षण के द्वारा अरब हत्यारों को शान्ति प्रियः, झूट बोलने वालों को सत्यवादी, निर्दयी लोगों को दयावान, नास्तिकों को आस्तिक, मूर्ति पूजकों को एकश्वरवादी, असभ्यों कों सभ्य, मूर्खों को बुद्धि मान, अज्ञानीयों को ज्ञानी, तथा क्रूर स्वभव वाले व्यक्तियों को विन्रम बनाया।
अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद
प्रियः अध्धयन कर्ताओं आज जबकि मानव समाज आध्यात्मिक पतन की ओर उनमुख है। तथा असदाचारिता, असत्यता ,छल, कपट, द्वेष, भोग विलासिता तथा अमानवियता चारों ओर व्याप्त है। इस पतन को रोकने के लिए अति आवश्यक है कि मानव जाति के सम्मुख एक आदर्श प्रस्तुत किया जाये। जिसका अनुसरन करके मानव जाति का कल्याण हो सके।हम विशवास के साथ कहते हैं कि अगर मानवता पूर्णरूप से आदरनीय पैगम्बर मुम्मद साहिब का अनुसरण करे तो कल्याण पासकती है।क्योंकि आदरनीय पैगम्बर मुहम्मद साहिब मे एक आदर्श के समस्त गुण विद्यमान हैं।
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