Join Sai Baba Announcement List


DOWNLOAD SAMARPAN - Nov 2018





Author Topic: माननीय श्री श्रीकृष्ण खापर्डे की शिरडी डायरी  (Read 84268 times)

0 Members and 1 Guest are viewing this topic.

Offline saisewika

  • Member
  • Posts: 1549
  • Blessings 33
ॐ साईं राम

३० दिसम्बर, बृहस्पतिवार, १९१५-
शिरडी-

मैं प्रातः रोज़ाना की तरह उठा, प्रार्थना की और कोई एक कार्निक के साथ बात करने लगा, जो कि स्वर्गीय अमृतराव अबाजी के सँबँधी निकले। मैंने बैठ कर फकीर बाबा से भी बात की, उन्होंने बहुत अच्छे ढँग से प्रगति की है और एक ऐसे मुकाम पर पहुँच गए हैं, जहाँ से वह स्थायी रूप से आध्यात्मिक पथ पर स्थापित हो गए हैं। मैं बैठ कर उनसे बात करता रहा।

साईं महाराज पहले से कुछ ठीक हैं। मैंने आज नैवेद्य अर्पित किया और पूजा की। लगभग सौ लोग नाशते के लिए आमँत्रित किए गए थे जो कि बहुत देर तक चला। असल में हम शाम ४ बजे निवृत हुए। माधवराव देशपाँडे हमेशा की तरह बहुत सहायक सिद्ध हुए। बापू साहेब बूटी का वाड़ा बहुत सुन्दर तरीके से निर्मित हो रहा है। वह एक पत्थर की इमारत है और बहुत मज़बूत है तथा अधिवास के लिए बहुत सुविधाजनक है।

आज चावड़ी उत्सव था और मैंने छत्र पकड़ कर उसमें हिस्सा लिया। आईसाहेब भी अस्वस्थ हैं श्रीमान पी॰हाटे आज कल्याण चले गए क्योंकि उनके दामाद अस्वस्थ कहे जा रहे हैं। साईं बाबा ने उन्हें पूरा श्रीफल दिया। अतः मुझे लगता है कि वह युवक ठीक हो जाएगा।

जय साईं राम

Offline saisewika

  • Member
  • Posts: 1549
  • Blessings 33
ॐ साईं राम

३१ दिसँबर, शुक्रवार, १९१५-
शिरडी-भुसावल

मैं काँकड़ आरती के लिए मस्जिद जाना चाहता था पर एन मौके पर अनिच्छुक हो गया और नहीं गया। प्रातः की प्रार्थना के बाद मैं मस्जिद जा रहा था कि राव बहादुर साठे ने मुझे पकड़ लिया और मुझे अपनी माडी को ले गए। वहाँ कोई ८ सज्जन इकट्ठा हुए थे और उन्होंने मुझसे कहा कि वे सब साईं बाबा सँस्थान के लिए व्यवस्था करना चाहते हैं। उनके पास एक अच्छी योजना है और मैंने उन्हें परामर्श दिया कि उन्हें उन लोगों से धन इकट्ठा करने का प्रयास नहीं करना चाहिए जिन्हें स्वयँ साईं बाबा ने दिया है। उन्होंने मेरे सुझाव को मान लिया। इन सब में समय लग गया और हमें आरती के लिए विलम्ब हुआ, पर हम समय पर पहुँच गए और मुझे चँवर या कहें तो मयूर पँख मिला।

भोजन के बाद मैं माधवराव देशपाँडे के साथ गया और मुझे बिना किसी परेशानी के लौटने की अनुमति मिल गई। मेरी पत्नि, मनु ताई, उमा, और बच्चे यहीं रहेंगे। मस्जिद के आँगन में मैं मलकापुर के वासुदेवराव दादा पिरिप्लेकर और कोपरगाँव के प्रश्नकर्ता प्रबँधक श्रीमान भागवत से मिला।

मैं तैयार हुआ और बाला भाऊ के ताँगे से कोपरगाँव पहुँचा और स्टेशन मास्टर से बात की। उनके सहायक एक समय अमरावती में थे। मैंने शाम ६॰३० की गाड़ी ली और मनमाड पहुँचा और उस यात्री गाड़ी में चढ़ा जो रात ८॰३० बजे छूटती है। मैं एक डिब्बे में अकेला यात्री था और प्रातः ४ बजे मैं भुसावल पहुँचा तथा प्रतीक्षालय में गया।

जय साईं राम

Offline saisewika

  • Member
  • Posts: 1549
  • Blessings 33
ॐ साईं राम


सँगमनेर से लोकमान्य तिलक की शिरडी यात्रा-
१९ मई, १९१७-


मैं प्रातः जल्दी उठा पर इतने लोग एकत्रित थे कि मैं प्रार्थना नहीं कर सका। वहाँ हम लोगों को रोके रखने के लिए और दोपहर तक हमें ना जाने देने के लिए एक लहर सी चल रही थी और केलकर ऊपना पूरा ज़ोर लहर के पक्ष में लगा रहे थे परन्तु अत्यँत अप्रत्याशित रूप से मुझे क्रोध आ गया और मैंने चल पड़ने के लिए ज़ोर दिया। अतः सँगमनेर के एक प्रमुख प्रवक्ता श्रीमान सँत के घर पान सुपारी के बाद हम सुबह लगभग ८॰३० बजे चल पड़े। रास्ते में एक पँचर के बाद हम लगभग १० बजे शिरडी पहुँचे।


हम दीक्षित के वाड़े में रुके। बापू साहेब बूटी , नारायण राव पँडित और बूटी के नौकर चाकर यहाँ हैं। मेरे पुराने मित्र माधवराव देशपाँडे , बाला साहेब भाटे, बापू साहेब जोग और अन्य सभी एकत्रित हुए। हम मस्जिद में गए और साईं महाराज को सम्मान पूर्वक प्रणाम किया। मैंने उन्हें इतना खुश पहले कभी नहीं देखा। उन्होंने हमेशा की तरह दक्षिणा माँगी और हम सबने दी। लोकमान्य की ओर देखते हुए उन्होंने कहा- "लोग बुरे हैं, स्वयँ को अपने तक ही सीमित रखो।" मैंने उन्हें प्रणाम किया और उन्होंने मुझसे कुछ रुपये लिए। केलकर और पारेगाँवकर ने भी दिए।


माधवराव देशपाँडे ने हमारे यिओला जाने के लिए आज्ञा माँगी। साईं साहेब ने कहा-" तुम इतनी धूप में रास्ते में मरने के लिए क्यों जाना चाहते हो? अपना भोजन यहीं करो और शाम की ठँडक में चले जाना। शामा इन लोगों को भोजन कराओ।" अतः हम रूक गए, हमारा भोजन माधवराव देशपाँडे के साथ किया, कुछ देर लेट गए और पुनः मस्जिद में गए और देखा कि साई महाराज लेटे हुए थे, मानों सो रहे हों।


लोगों ने लोकमान्य को चावड़ी में पान सुपारी दी और हम मस्जिद में वापिस लौटे। साईं महाराज बैठे हुए थे, उन्होंने हमें ऊदी और जाने की अनुमति दी अतः हम मोटर से चले।


जय साईं राम

Offline saisewika

  • Member
  • Posts: 1549
  • Blessings 33
ॐ साईं राम


परिशिष्ट-१
दादा साहेब खापर्डे की "शिरडी डायरी" के बारे में कुछ अन्य जानकारी-
वी॰बी॰खेर कृत-

अगस्त १९८५ से माननीय श्री गणेश श्रीकृष्ण खापर्डे की "शिरडी डायरी" श्री साईं लीला में महीने दर महीने छापी जा रही है। शिरडी डायरी का सारतत्व की प्रतिलिपी सर्वप्रथम १९२४-१९२५ की श्री साईं लीला में प्रकाशित हुई थी। मैंने जानबूझ कर जो भी प्रकाशित किया गया था उसे सारतत्व कहा है क्योंकि मुझे नहीं लगता कि सम्पूर्ण शिरडी डायरी अभी तक प्रकाश में आई है।

जब पहली बार शिरडी डायरी श्री साईं लीला में पहली बार क्रमवार छापी गई थी तब जी॰एस॰खापर्डे, जो कि स्वरगीय लोकमान्य तिलक के दाहिने हाथ थे, सक्रिय केन्द्रिय राजनीति की परिधि से अवकाश लि चुके थे। राजनीतिक आकाश पर महात्मा गाँधी के उदय ने भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस और जन साधारण पर जादू सा कर दिया था।

खापर्डे के सदगुरू और आध्यात्मिक गुरू साईं बाबा भी शरीर त्याग चुके थे। और खापर्डे अर्ध-अवकाश की स्थिति में थे। उनके पास अपने जीवन को पीछे मुड़ कर देखने का और अपनी उन रूचियों के बारे में सोचने का, जिन्हें वह अपनी भागदौड़ की राजनीतिक ज़िन्दगी में एक कार्यकर्ता और नेता होने के कारण आगे नहीं बढ़ा पाए थे, काफी समय था। अतः उनकी सहमति और जानकारी से ही शिरडी डायरी का पहली बार १९२४-१९२५ में श्री साईं लीला के प्रारम्भिक अँकों में प्रकाशन किया गया। पाठकगण यहाँ उचित रूप से प्रश्न कर सकते हैं कि किन आधारों पर मैं ऐसा निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ। और उन्हें ऐसा पूछने का अधिकार भी है। मुझे इस प्रश्न का उत्तर देना होगा और पाठकों के समक्ष मेरे पास एकत्रित सामग्री रखनी होगी।

आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰�� �॰॰॰

जय साईं राम

Offline saisewika

  • Member
  • Posts: 1549
  • Blessings 33
ॐ साईं राम


सौभाग्यवश हम सब के लिए बालकृष्ण, उर्फ बाबासाहेब खापर्डे जो कि जी॰एस॰खापर्डे के सबसे बड़े पुत्र हैं ने अपने पिता की जीवनी लिखी । यह जीवनी मराठी में लिखी गई थी और सबसे पहले १९६२ में प्रकाशित हुई थी। इसकी भूमिका में लेखक ने प्रारम्भ में ही स्पष्ट रूप से कहा है कि पुस्तक " जीवनी नहीं है अपितु दादा साहेब खापर्डे की डायरी में से ली गई सँशोधित सामग्री है।"

जीवनी के नायक का जन्म २७ अगस्त १८५४ को गणेश चतुर्थी के दिन हुआ था अतः उनका नाम गणों के स्वामी पर रखा गया। अब हम गणेश के जीवन का कुछ अवलोकन करेंगे। उनके पिता श्रीकृष्ण नारहार उर्फ बापू साहेब जिन्होंने बचपन में बहुत गरीबी देखी थी, मात्र अपने उद्यम और कड़ी मेहनत से ब्रिटिश राज में सी॰पी॰ प्रान्त और बेरार के तहसीलदार (मामलेदार) के पद पर पहुँचे थे।


गणेश की प्रारम्भिक और माध्यमिक शिक्षा नागपुर और अमरावती में हुई थी। वह मैट्रिक में दो बार फेल हुए क्योंकि उनकी रूचि पाठ्यक्रम से अलग विषयों में और पुस्तकों में अधिक थी। साथ ही वह गणित में कमज़ोर थे। १८७२ में मैट्रिक के बाद उन्होंने बम्बई के एलफिन्स्टन कॅालेज में दाखिला लिया। वह डा॰ रामाकृष्णा भँडारकर के जो कि सँस्कृत के प्रोफेसर थे, चहेते विद्यार्थी थे। गणेश ने अपने बचपन में अकोला में एक शास्त्री की देखरेख में सँस्कृत का अध्ययन बहुत विस्तृत रूप से किया था, अतः उन्हें विषय की बेहतरीन जानकारी थी। साथ ही, वह सँस्कृत साहित्य के लोलुप पाठक थे, और एलफिन्सटन कॅालेज में प्रवेश लेने के पूर्व ही वह बान की कादम्बरी और भवभूति की उत्तररामचरित्र कँठस्थ कर चुके थे। अतः कॅालेज में पढ़ाई जाने वाली सँस्कृत तो उनके लिए बच्चों का खेल ही थी। उन्हें अँग्रेज़ी साहित्य के पठन में भी रूचि थी। प्रोफेसर वर्ड्सवर्थ जो कि विलियम वर्ड्सवर्थ के, जो कि अँग्रेज़ी साहित्य के प्रख्यात प्राकृतिक कवि थे, के पोते थे। इन दो प्रोफेसरों की देख रेख में उन्होंने उन दो भाषाओं का गहन ज्ञान अर्जित कर लिया था। असल में उनका सँस्कृत ज्ञान इतना उत्तम था कि उन्हें आर्य समाज के सँस्थापक, स्वामी दयानन्द सरस्वती के साथ वाद विवाद के लिए एकमत से चुन लिया गया था, जब स्वामी एलफिन्स्टन कॅालेज में निरीक्षण के लिए आए थे। आश्चर्य नहीं है कि स्वामी ने स्वयँ गणेश की उनके उत्तम प्रदर्शन के लिए प्रशँसा की थी।


आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰

जय साईं राम

Offline saisewika

  • Member
  • Posts: 1549
  • Blessings 33
ॐ साईं राम


गणेश जो कि अपने जीवन के अगले चरण में दादा साहेब के नाम से विख्यात हुए, एलफिन्स्टन कॅालेज में पहले जूनियर फैलो और फिर सीनियर फैलो बने और इस हैसियत से सँस्कृत और अँग्रेज़ी पढ़ाने में सहायक बने। यह भी कहा जा सकता है कि दादासाहेब एक जन्मजात बहुभाषाविद थे क्योंकि वह दूसरी भाषाओं जैसे कि गुजराती में भी सिद्ध थे और इन भाषाओं के कुशल सुवक्ता थे।

स्नातक होने के बाद दादासाहेब ने १८८४ में कानून की डिग्री ली और उसके तुरँत बाद वकालत शुरु की। उसके बाद १८८५ से १८८९ के बीच मुन्सिफ का कार्य करने के बाद वह वकालत के पेशे में लौटे और शीघ्र ही एक अग्रणीय वकील के रूप में स्थापित हो गए। १८९० से उन्होंने सार्वजनिक जीवन में हिस्सा लेना शुरू किया और उसी वर्ष जिला परिषद के प्रधान बन गए।

आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰


जय साईं राम

Offline saisewika

  • Member
  • Posts: 1549
  • Blessings 33
ॐ साईं राम


१८९७ में जब भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का अधिवेशन अमरावती में, तब तक वह राष्ट्रीय जीवन के एक महत्वपूर्ण प्रसिद्ध व्यक्ति बन चुके थे और स्वागत समिति के अध्यक्ष भी चुने जा चुके थे। अब हम समय में थोड़ा पीछे जाएँगे और देखेंगे कि दादा साहेब ने कब और कैसे अपने दैनिक ब्यौरे की डायरी रखना शुरू किया और इस प्रकार की उनकी कितनी डायरियाँ उपलब्ध हैं।

दादा साहेब की १८७९ की एक छोटी डायरी मिली है। हालाँकि उसमें कई महत्वपूर्ण प्रविष्टियाँ हैं, पर उसके कई पन्ने खाली हैं और कुछ पन्नों में केवल छुट पुट वाक्य हैं। तो भी १८९४ से ले के १९३८ तक दादा साहेब के अपने हाथ से लिखी ४५ डायरियाँ उपलब्ध हैं। अतः कुल मिला कर राष्ट्रीय पुरातत्व विभाग में सभी ४६ डायरियाँ जो कि विद्यमान हैं, रखी गई हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि १८७९ से पूर्व या १८८० से १८९३ के बीच उनके द्वारा कोई डायरी नहीं रखी गई। १८९४ से १९३८ के बीच की डायरियों में १९३८ की एक "राष्ट्रीय डायरी " भारत में निर्मित थी, चार "कोलिन्स डायरियाँ", और बाकी "लेट्स की डायरियाँ", सब विदेश में निर्मित थी। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान लेट्स की डायरियाँ उपलब्ध नहीं थीं, अतः अन्य प्रकाशित डायरियाँ काम में लाई जाती थी। सभी डायरियाँ १२॰५" लम्बी और ८" इन्च चौड़ी थीं, उनमें हर दिन के लिए एक पन्ना था और उनका वज़न ४ पाउन्ड था और २६ तोले था।

आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰॰॰


जय साईं राम

Offline saisewika

  • Member
  • Posts: 1549
  • Blessings 33
ॐ साईं राम


दादा साहेब यात्रा में अपनी डायरी अपने साथ रखते थे। यह उनकी सामान्य आदत थी कि वह सोने से पूर्व दिन की प्रविष्टियाँ लिखते थे और इस नियम का वह सतर्कतापूर्वक पालन करते थे। कई ऐसी प्रविष्टियाँ हैं जो कि रात १ या २ बजे रेलवे स्टेशन के प्रतीक्षालय में सोने से पूर्व अँकित की गई। आगे के वर्षों में जब रात को लेटने से पूर्व दिन भर की घटनाओं को अँकित करना उन्हें असुविधाजनक लगने लगा तब उन्होंने पिछले दिन की घटनाओं को अगले दिन प्रातः अँकित करना शुरू कर दिया। अतः स्वप्न, दृष्टाँत और गहरी नींद आदि का उल्लेख इन डायरियों में मिलता है। चाहे घटना छोटी हो या बड़ी, उसके विषय में एक प्रविष्टि तो उनके दैनिक विवरण में मिलती ही है। आँगतुकों के नाम, बातचीत का सार, और प्रमुख प्रविष्टियों के सँवाद, विस्तार में प्रश्न-उत्तर आदि स्पष्ट, साफ और समझी जा सकने वाली लिखावट में बिना कुछ मिटाए या बिना किसी उपरिलेखन के पृष्ठ दर पृष्ठ मिलती है। यहाँ तक कि जब वह अस्वस्थ भी होते थे, तब भी अपनी डायरी लिखने में नहीं चूकते थे। केवल उनकी मृत्यु के दिन जो कि १ जुलाई, १९३८ था, और उसके एक दिन पूर्व उन्होंने कोई प्रविष्टि नहीं की, अतः उनकी अँतिम प्रविष्टि २९ जून १९३८ को पाई गई।


दादा साहेब खापर्डे ने साईं बाबा के जीवन काल में पाँच बार शिरडी की यात्रा की। उनकी शिरडी यात्रा का कालानुक्रमिक विवरण और उनके शिरडी में निवास की अवधि का विवरण नीचे दिया गया है-

आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰


जय साईं राम

Offline saisewika

  • Member
  • Posts: 1549
  • Blessings 33
ॐ साईं राम


प्रथम आगमन- ५ दिसँबर १९१० - १२ दिसँबर, १९१०
द्वितीय आगमन- ६ दिसँबर १९११ - १५ मार्च, १९१२
तृतीय आगमन- २९ दिसँबर १९१५- ३१ दिसँबर, १९१५
चतुर्थ आगमन- १९ मई, १९१७ लोकमान्य तिलक के साथ शिरडी यात्रा
पाँचवा आगमन- मार्च १९१८ में अनिर्दिष्ट दिनों के लिए


आइए अब हम देखते हैं कि प्रत्येक यात्रा का पृथक विवरण जो कि दादा साहेब की जीवनी में दिया गया है, उसमें १९२४-१९२५ में श्री साईं लीला में प्रकाशित जानकारी से अलग क्या जानकारी दी गई है।


दिसँबर १९१० की प्रथम यात्रा-


दादा साहेब खापर्डे पुणे से बम्बई अपने सबसे बड़े बेटे बालकृष्ण के साथ आए और ५ दिसँबर को शिरडी पहुँचे। वह वहाँ ७ दिन तक ठहरे और १२ दिसँबर को साईं बाबा से अनुमति मिलने के बाद वहाँ से चले और १३ दिसँबर को अकोला पहुँचे। साधारणतः वह उस समय प्रथम श्रेणी में यात्रा किया करते थे जब रेल यात्रा में चार श्रेणियाँ हुआ करती थीं। तो भी इस बार पर्याप्त धन ना होने के कारण उन्होंने द्वितीय श्रेणी में यात्रा की और १९ दिसँबर को अकोला से होते हुए अमरावती पहुँचे। यह लिखा गया है कि उन्हें अमरावती रेलवे स्टेशन से पैदल अपने निवास स्थान तक जाना पड़ा। यह अति आश्चर्यजनक है कि दादा साहेब जैसे रूतबे के व्यक्ति के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह अपने आवास पर जाने के लिए कोई सवारी ले पाते। दादा साहेब की वार्षिक आय वकालत के पेशे से एक समय में ९०,००० से ९५,००० रूपये थी, वह भी उस समय जब आयकर का कोई कानून नहीं था और निर्वाह खर्च बहुत ही सस्ता था। तो भी ऊपर लिखित हालात उत्पन्न हुए क्योंकि दादा साहेब का रहन सहन उनके साधनों से अधिक था।


एक समय तो उनके पास आस्ट्रेलियन नस्ल के ७ घोड़े थे। दो गाड़ियाँ, जिनमें एक राजकीय और दूसरी सामान्य थी, तथा उनकी देखरेख के लिए कर्मचारी थे। वह इस हद तक दरियादिल थे कि कई परिवारों को शरण दी हुई थी। उनका घर हमेशा खुला रहता था और हमेशा अतिथियों से भरा रहता था जिनके आराम और मनोरँजन, नाच प्रीतिभोज सहित, के लिए वह खुले दिल से खर्च करते थे। अब पाठकगण समझ सकते हैं कि उन्हें क्यों रेलवे स्टेशन से घर तक का रास्ता चल कर तय करना पड़ा। श्री साईं लीला में दी गई उनकी यात्रा का विवरण, उनकी जीवनी में दिए गए विवरण की तुलना में अधूरा प्रतीत होता है।

आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰�� �॰॰

जय साईं राम

Offline saisewika

  • Member
  • Posts: 1549
  • Blessings 33
ॐ साईं राम


द्वितीय आवास, दिसँबर १९११-

दादा साहेब खापर्डे का शिरडी में द्वितीय आवास सबसे लम्बी अवधि, लगभग सौ दिन का था। यह तथ्य महत्वपूर्ण है और परीक्षण के योग्य है कि यद्यपि दादा साहेब और उनकी पत्नि बार बार अमरावती लौट जाना चाहते थे परन्तु साईं बाबा ने उन्हें शिरडी में ही रोक कर रक्खा और जाने नहीं दिया। और जबकि दादा साहेब का अपने सदगुरू पर अथाह विश्वास था, दादा साहेब ने कर्तव्यनिष्ठा से साईं बाबा के आदेशों का पालन पूर्ण आस्था से और भली भाँति यह मान कर किया कि बाबा का निर्णय उनके हित में ही था।


अब वो क्या कारण था कि साईं बाबा ने दादा साहेब को इतने लम्बे समय तक शिरडी में रोक कर रखा? पाठकगण यह तो जानते ही हैं कि दादा साहेब लोकमान्य तिलक के प्रमुख सहायक और समर्थक थे। तिलक को २४ जून १९०८ को विद्रोह का दोष लगा कर गिरफ्तार कर लिया गया था। उनका मुकद्दमा १३ जुलाई, १९०८ को शुरू हुआ, उन्हें दोषी ठहराया गया और २२ जुलाई १९०८ को उन्हें छह वर्ष के कारागारवास की सज़ा सुनाई गई। इसी के कुछ दिन बाद ही १५ अगस्त १९०८ को दादा साहेब ने जलयान द्वारा इंग्लैंड को इसलिए प्रस्थान किया जिससे वह प्रीवी काउन्सिल के सम्मुख बम्बई उच्च न्यायलय के द्वारा लोकमान्य पर लगाए गए दोष के निर्णय के विरूद्ध दर्खाव्स्त कर सकें। वह ३१ अगस्त १९०८ को डोवर पहुँचे, और तुरँत ही लँदन को प्रस्थान किया।


योजना के अनुरूप उन्होंने बम्बई उच्च न्यायलय के निर्णय के विरूद्ध प्रीवी काउन्सिल के समक्ष प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया परन्तु प्रीवी काउन्सिल ने बम्बई उच्च न्यायलय के निर्णय को खारिज करने से मना कर दिया। खापर्डे का अगला कदम ब्रिटेन के उच्च सदन के सम्मुख याचिका को रखना था ,पर समर्थन के अभाव में वह भी रद्द हो गई। सैक्रैट्री आफ स्टेट लार्ड मॅारले को भेजा गया निवेदन पत्र भी बेकार साबित हुआ। १५ सितँबर १९१० को दो साल से अधिक इँग्लैंड में रहने के बाद खापर्डे रँगून होते हुए जलयान से भारत के लिए चले। उन्होंने तिलक के विरूद्ध दिए गए निर्णय को बदलवाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। वह नायक को छुड़वाने के लिए छेड़े गए अभियान के लिए स्वयँ अपने खर्च पर इँग्लैंड गए। वहाँ उनके द्वारा किए गए दुस्साध्य परिश्रम ने ना केवल अपने नेता के प्रति उनकी वफादारी और भक्ति को ही उजागर किया, अपितु उनके निःस्वार्थ भाव का पता चला और यह भी कि जिस बात को वह न्यायोचित्त समझते थे, उसके लिए अपनी ऊर्जा , समय और धन खर्च करने को भी तैयार रहते थे।

दादा साहेब की माता जी का स्वर्गवास २७ सितँबर १९१० को हुआ, जबकि वह समुद्री यात्रा के मध्य में थे। खापर्डे १६॰१०॰१९१० को रँगून पहुँचे और मँडाले जेल में २२॰१०॰ १९१० को तिलक से मिले। २७॰१०॰ १९१० को वह कलकत्ता पहुँचे और दो साल दो महीने बाईस दिन की अनुपस्थिति के बाद ५॰११॰१९१० को घर लौटे।


आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰

जय साईं राम

Offline saisewika

  • Member
  • Posts: 1549
  • Blessings 33
ॐ साईं राम


हमने पहले ही देखा कि दादा साहेब ने इँग्लैंड से आने के कुछ ही महीने के बाद शिरडी की पहली यात्रा की। यह यात्रा केवल एक सप्ताह की थी। जो भी हो, देश की राजनीतिक परिस्थिति कुछ ही महीनों में बहुत बिगड़ गई थी और सरकार ने राष्ट्रीय आँदोलन को दबाने के लिए दमन की नीति को तेज़ कर दिया था। इसका एक उदाहरण ७ अक्टूबर १९११ को बिपिन चन्द्र की गिरफ्तारी थी। वह इँग्लैंड से बम्बई के स्टीमर में यात्रा कर रहे थे और जैसे ही स्टीमर बम्बई पहुँचा वैसे ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और विद्रोह के आरोप में उन पर मुकद्दमा चलाया गया।


क्योंकि खापर्डे लोकमान्य की रिहाई के लिए आँदोलन कर रहे थे, वह सरकार की काली सूची में पहले से ही थे, और उनकी गिरफ्तारी अवश्यम्भावी थी। असल में खापर्डे के सबसे बड़े पुत्र अगर सँभव हो तो सरकार की मँशा के बारे में जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से शिमला गए थे।


यह सब साईं बाबा ने अपनी अतीन्द्रीय दर्शी दृष्टि से देख ही लिया था क्योंकि इस विश्व में ऐसा कुछ भी नहीं है जो वे ना जानते हों या उनके ध्यान में ना आया हो। असल में साईं बाबा ने अपनी साँकेतिक भाषा में उन्हें इसका इशारा भी दिया था, जिसका पता २९ दिसँबर १९११ की इस प्रविष्टि से चलता है-


आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰


जय साईं राम

Offline saisewika

  • Member
  • Posts: 1549
  • Blessings 33
ॐ साईं राम


२९ दिसँबर १९११ की प्रविष्टि का अँश-


"॰॰॰॰॰॰॰॰॰बाद में हम साईं बाबा के पास गए और मस्जिद में उनके दर्शन किए। उन्होंने आज दोपहर को मेरे पास सन्देश भेजा कि मुझे यहाँ और दो महीने रुकना पडेगा। दोपहर में उन्होंने अपने सन्देश की पुष्टि की और फिर कहा कि उनकी ' उदी ' में अत्याधिक आध्यात्मिक गुण है | उन्होंने मेरी पत्नी से कहा कि गवर्नर एक सैनिक के साथ आया और साईं महाराज से उसकी अनबन हुई और उन्होंने उसे बाहर निकाल दिया, और आखिरकार गवर्नर को उन्होंने शाँत कर दिया। भाषा अत्यंत संकेतात्मक है इसीलिए उसकी व्याख्या करना कठिन है।"


बाबा साहेब खापर्डे ने अपने पिता की जीवनी में "ऊदी" को साईं बाबा की "कृपा", गिरफ्तारी के आदेश को गवर्नर का "बर्छा" और बाबा की दैवीय शक्ति को "त्रिशूल" कहा है।


२९ दिसँबर १९११ की शिरडी डायरी की प्रविष्टि में श्रीमान नाटेकर का, जिन्हें 'हमसा' और 'स्वामी' भी कहते थे, उल्लेख मिलता है। वह थोड़े हल्के, गोरे और तीखे नैन नक्श वाले थे, उनकी वाणी मधुर थी और उन्हें बातचीत पर अच्छी पकड़ थी। उन्होंने खापर्डे को अपनी तथाकथित धार्मिकता, हिमालय और मान सरोवर की यात्रा की कहानियाँ सुना कर उनका अनुग्रह प्राप्त कर लिया था। जब दादा साहेब इँग्लैंड में थे तब उन्होंने एक महीने के लिए खापर्डे परिवार के अतिथि सत्कार का आनन्द भी उठाया था।


१९१३ में कभी पता चला कि दादा साहेब की ९ डायरियाँ जो की एक लकडी के बक्से में ताले में रखी गईं थी, वह चोरी हो गईं थी, और बाद में सरकार ने उन्हें लौटाया था, क्योंकि उसमें फँसाने वाला कोई तथ्य नहीं था।
 
इसके बहुत बाद खापर्डे को पता चला कि 'हमसा' एक सी॰आई॰डी॰ जासूस थे जिन्हें असल में सरकार ने ही खापर्डे परिवार में भेजा था और वह दादा साहेब के पीछे उनकी गतिविधियों का पता लगाने के लिए ही शिरडी गए थे।


आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰



जय साईं राम

Offline saisewika

  • Member
  • Posts: 1549
  • Blessings 33
ॐ साईं राम


२९ दिसँबर १९११ की शिरडी डायरी की पाद टिप्पणी में, जो कि बाद में जोड़ी गई थी, यह लिखा गया-

" 'हमसा' ने यह सब मुझे तब बताया जब वह हमारे मेहमान थे। बाद में वह सब झूठ सिद्ध हुआ। वह कभी मान सरोवर या हिमालय पर गए ही नहीं थे, और बाद में बुरे चरित्र के साबित हुए। गजानन पुरोहित उनके सह अपराधी थे और असल में दोनों ही पुलिस के जासूस थे। "

१४ जून १९१३ की उनकी प्रविष्टि में दादा साहेब ने लिखा है ( साईं लीला में यह प्रविष्टि नहीं दी गई है )-

" हमसा ने बहुत से लोगों को साधु बन कर ठगा है। "

यह भी महत्वपूर्ण है कि २९ दिसँबर १९११ की प्रविष्टि में जो 'ऊदी' के बारे में और त्रिशूल से गवर्नर को मार भगाने की जो टिप्पणियाँ मिलती हैं, उस समय हमसा शिरडी में ही थे। कोई आश्चर्य नहीं है कि साईं बाबा को हमसा के षडयँत्र के बारे में पता था और उन्होंने अपने विश्वसनीय भक्त पर आए किसी भी खतरे को दूर भगाने के लिए उन्होंने अपनी शक्तियों का प्रयोग किया।


जय साईं राम

Offline saisewika

  • Member
  • Posts: 1549
  • Blessings 33
ॐ साईं राम


इस समयावधि की डायरी में जो कि १९२४-१९२५ में श्री साईं लीला में प्रकाशित हुई थी, उसके कुछ उद्धरण हैं जो कुछ मायने में अधूरे हैं, और कुछ तो बिल्कुल छूट गए हैं। आइए देखते हैं कि यह उद्धरण कौन से हैं।


८ दिसँबर १९११ की प्रविष्टि में से ये पँक्तियाँ छूट गई है॰॰॰॰॰॰॰॰


" माधवराव देशपाँडे यहाँ हैं और वह सो गए। मैंने जो अपनी स्वयँ की आँखो से देखा और जो अपने कानों से सुना, वह केवल पढ़ा था, कभी अनुभव नहीं किया था॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰माधवराव देशपाँडे की हर आती जाती साँस के साथ ' साईं नाथ महाराज', ' साईं नाथ महाराज ' की स्प्ष्ट ध्वनि सुनाई दे रही थी।॰॰॰॰॰॰॰यह ध्वनि जितनी स्पष्ट हो सकती थी, उतनी थी और माधवराव देशपाँडे के खर्राटों के साथ , दूरी से भी यह शब्द सुने जा सकते थे। यह सचमुच अद्भुत है। "


१२ से १५ मार्च १९१२ तक की प्रविष्टियाँ-

निम्नलिखित पँक्तियाँ १२ और १३ मार्च १९१२ की हैं और मराठी में लिखित जीवनी से अँग्रेज़ी में रुपाँतरित की गई-

१२ मार्च १९१२ की प्रविष्टि-

" हमने अपनी पँचदशी की सँगत की और आज के कार्य सम्पन्न किए। पुस्तक सम्पूर्ण करने के उपलक्ष्य में हमने दो अनार खाए। "#

" बाबा पालेकर नाना साहेब के साथ आए। वह अमरावती से आए हैं और मेरे साथ ठहरे हैं। मैं स्वाभाविक रूप से उनके साथ बैठ कर बात करने लगा। मेरे लोग काफी तँगी में हैं। "#

१३ मार्च १९१२ की प्रविष्टि-

" बाबा पालेकर को मुझे कल या परसों ले जाने की अनुमति प्राप्त हो गई। "#

१४ और १५ मार्च १९१२ की प्रविष्टियाँ श्री साईं लीला में प्रकाशित डायरी में से बिल्कुल अनुपस्थित थीं। यह पँक्तियाँ मराठी भाषा में लिखित जीवनी से ली गई हैं और अँग्रेज़ी में रूपाँतरित की गई है।

# पाठकों की सुविधा के लिए और निरँतरता को बनाए रखने के लिए यह पँक्तियाँ पहले जोड़ कर लिख दी गई हैं।

आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰


जय साईं राम

Offline saisewika

  • Member
  • Posts: 1549
  • Blessings 33
ॐ साईं राम


पालेकर खापर्डे से भुसावल में मिले और दोनों ने नागपुर जाने वाली रेल से यात्रा की। खापर्डे १६ मार्च को अमरावती पहँचे। उनका हृदय तो शिरडी में ही रह गया था, जैसा कि उनकी १८ मार्च १९१२ को लिखी गई प्रविष्टि से पता चलता है॰॰॰॰॰॰॰

" यहाँ शिरडी जैसा आध्यात्मिक वातावरण नहीं है और मैं अपने आप को अत्याधिक कष्ट में महसूस कर रहा हूँ बावजूद इसके कि हमसा मेरे साथ एक छत के नीचे हैं और उनका प्रभामँडल बहुत शक्तिशाली है। मैं वैसे ही उठना चाहता हूँ जैसे कि शिरडी में उठता था, पर नहीं उठ पाया और सूर्योदय से पूर्व मेरी प्रार्थना पूरी करने के लिए मुझे काफी मेहनत करनी पड़ी। " #

# पाठकों की सुविधा के लिए और निरँतरता को बनाए रखने के लिए यह पँक्तियाँ पहले जोड़ कर लिख दी गई हैं।

आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰

जय साईं राम

 


Facebook Comments