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Author Topic: माननीय श्री श्रीकृष्ण खापर्डे की शिरडी डायरी  (Read 84291 times)

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Offline saisewika

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ॐ साईं राम


११ जनवरी, बृहस्पतिवार, १९१२-


मैं प्रातः बहुत जल्दी उठा, प्रार्थना की और काँकड आरती में सम्मिलित हुआ। रोज़ के समय पर मैंने, उपासनी, और बापू साहेब जोग ने रँगनाथ की योगवशिष्ठ पढी। हमने साईॅ महाराज के बाहर जाते हुए, और फिर लौटने पर दर्शन किए। वे अत्यँत प्रसन्नचित्त थे और सब कुछ अच्छे मनोहर तरीके से सम्पन्न हुआ। दोपहर के भोजन के बाद मैं कुछ देर लेट गया, फिर दीक्षित ने रामायण पढी। उन्होंने एकनाथ का एक गौड स्त्रोत भी पढा।


शाम होते होते हम हमेशा की तरह साईं महाराज की सैर के समय उनके दर्शन के लिए गए। राधा कृष्णा बाई ने एक फोनोग्राफ लगाया था। उसके शोर से साईं महाराज बहुत क्रोधित हुए, उन्होंने कटु शब्दों का प्रयोग किया और हम विचार करते हुए लौटे। रात को रोज़ की तरह भीष्म के भजन और दीक्षित की रामायण हुई। आज रहाता बाज़ार था, बन्दु वहाँ गया लेकिन सब्ज़ियों के अलावा कुछ नहीं खरीद सका।


जय साईं राम

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ॐ साईं राम


१२ जनवरी, शुक्रवार १९१२-


प्रातः जल्दी उठ कर प्रार्थना करने के बाद दिनचर्या प्रारंभ की ही थी कि नारायण राव के पुत्र गोविंद और भाई भाऊ साहेब आ गए। वे कुछ समय पूर्व हौशँगाबाद से अमरावती आए थे, किन्तु मुझे और मेरी पत्नि को वहाँ ना पा कर हम से मिलने यहाँ आ गए। स्वभाविक रूप से परस्पर मिल कर हम बहुत प्रसन्न हुए और बैठ कर बातें की। योगवशिष्ठ का पठन कुछ देर से शुरू हुआ, क्योंकि बापू साहेब जोग व्यस्त थे।


हमने साईं महाराज के मस्जिद से बाहर जाते हुए और फिर वापिस आते हुए दर्शन किए। उनके मुख पर अद्भुत तेज था और उन्होंने कई बार मुझ पर चिलम का धुआँ फेंका। आश्चर्यजनक रूप से मेरे मन की कई शँकाए दूर हो गईं और मेरा मन आनन्द से भर गया। दोपहर की आरती के बाद हमने खाना खाया और मैंने कुछ देर आराम किया। दीक्षित मस्जिद में ज्यादा देर तक रुके अतः उन्होंने रामायण पढना देर से शुरू किया। हम एक अध्याय भी पूरा नहीं पढ पाए क्योंकि वह बहुत लम्बा और कठिन भी था। इसके पश्चात हम मस्जिद में साईं महाराज के दर्शन के लिए गए। वहाँ दो लडकियाँ सँगीत के साथ गाना गा रही थीं और नाच रही थीं। रात को शेज आरती में सम्मिलित हुए। साईं महाराज (मेरे पुत्र) बलवन्त के प्रति अत्यँत दयालु हैं। उन्होंने उसे बुलवाया था और पूरी दोपहर उसके साथ बिताई।


जय साईं राम

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ॐ साईं राम


१३ जनवरी १९१२-


मैं सुबह जल्दी उठा और काँकड आरती में सम्मिलित हुआ। आज साईं महाराज ने एक शब्द भी नहीं कहा और ना ही उस दृष्टि से सब को निहारा जैसे प्रतिदिन वे हमें देखते हैं। आज खाँडवा के तहसीलदार यहाँ आए हैँ। हमने उन्हें तब देखा जब वे रँगनाथ की योगवशिष्ठ पढ रहे थे। हमने साईं महाराज के बाहर जाते हुए और जब वे वापिस लौटे तब दर्शन किए। कल जिन बालिकाओं ने भजन गाए थे वे आज भी आईं थीं। उन्होंने कुछ देर गाया, प्रसाद लिया और चली गईं।


दोपहर की आरती सुखद रूप से सम्पन्न हुई। मेघा की तबियत अभी भी ठीक नहीं है। माधवराव देशपाँडे के भाई बापाजी को सपत्नीक नाशते के लिए बुलाया था। खाँडवा के तहसीलदार अत्यंत सज्जन हैं, उन्होंने योगवशिष्ठ पढी। उन्होंने कहा कि उनकी धार्मिक प्रवृतियों के कारण अनेक लोगों ने उन्हें अनेक दुख दिए थे। दोपहर को कुछ देर आराम करने के बाद दीक्षित ने भावार्थ रामायण का ११वाँ अध्याय (बालकाण्ड) पढा जो योग वशिष्ठ का ही साराँश है तथा अति रोचक है। हमने साईं महाराज के उस समय फिर से दर्शन किए जब वे घूमने जा रहे थे। उनका स्वभाव बदला हुआ लगा, ऐसा प्रतीत हुआ कि वे नाराज़ हैं पर असल में वे रूष्ट नहीं थे। रात को रोज़ की भाँति भजन और रामायण का पाठ हुआ।


जय साईं राम

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१४ जनवरी, रविवार, १९१२-


प्रातः जल्दी उठा, प्रार्थना की और बापू साहेब जोग तथा राम मारूति के साथ बैठ कर रँगनाथी योग वशिष्ठ का पठन किया। साईं महाराज के बाहर जाते हुए दर्शन करते हुए भी पठन जारी रखा। जब बाबा वापस आए तब उनके दर्शन के लिए मस्जिद गया, परन्तु वे स्नान की तैयारी कर रहे थे, अतः मैं लौट आया और दो पत्र लिख कर पुनः मस्जिद गया।
साईं महाराज मेरे प्रति अत्यंत कृपालु थे, उन्होंने मुझे और बलवन्त को बापू साहेब जोग द्वारा लाया हुआ तिल गुड दिया।

दोपहर की आरती थोडी देर से हुई क्योंकि मेधा की तबियत अभी भी ठीक नहीं है और आज तिल सक्रान्ति होने के कारण 'परोस' (भक्तों के द्वारा लाया गया भोग का थाल) में भी कुछ देर हुई। जब तक हमने वापिस आ कर भोजन किया तब तक ४ बज गए थे। दीक्षित ने कुछ देर रामायण पढी किन्तु हम पाठ में आगे नहीं बढ पाए। पुनः मस्जिद गया परन्तु साईं महाराज किसी को प्रवेश की अनुमति नहीं दे रहे थे, अतः मैं बापू साहेब के घर की तरफ चल पडा । सन्ध्या के नमस्कार के लिए समय पर पहुँच गया। खाँडवा के तहसीलदार अभी यहीं हैं, और इस स्थान की दिनचर्या के अनुरूप धीरे धीरे ढल रहे हैं।


एक सज्जन श्री गुप्ते अपने भाई और परिवार के साथ आए हैं। उन्होंने कहा कि वे थाने में रहने वाले मेरे एक मित्र श्री बाबा गुप्ते के दूर के रिश्तेदार हैं। मैंने उनके साथ बैठकर कुछ देर बातचीत की। रात को शेज आरती , भीष्म के भजन और दीक्षित की रामायण हुई। हम सभी ने सक्रान्ति भी मनाई।


जय साईं राम

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१५ जनवरी, सोमवार, १९१२-


मैं आज प्रातः जल्दी उठा, प्रार्थना की और काँकड आरती में सम्मिलित हुआ। आरती देर से शुरू हुई, क्योंकि मेधा अस्वस्थ है अतः उसे उठ कर शँख बजाने में देर हुई। साईं महाराज ने एक शब्द भी नहीं कहा और वे उठ कर चावडी से चले गए। उपासनी शास्त्री और बापू साहेब जोग देर से आए अतः मै पत्र लिखने बैठ गया। जब साईं महाराज बाहर जा रहे थे तब उन्होंने मुझसे पूछा कि मैंने सुबह कैसे बिताई। असल में यह एक हल्की फटकार थी कि उन्हें पता है कि मैंने प्रातः रामायण नहीं पढी।


साईं महाराज जब वापिस आए तब मैं पुनः उनके दर्शन के लिए गया। वे अत्यंत विनम्र थे। उन्होंने एक कहानी सुनाना शुरू किया। वे मेरी ओर देख कर ही कहानी सुना रहे थे, किन्तु मुझे नींद आ रही थी अतः मैं कहानी को बिल्कुल भी नहीं समझ सका। बाद में मुझे पता चला कि वह कहानी असल मे गुप्ते के जीवन में घटने वाली घटनाओं का ब्यौरा थी। दोपहर की आरती देर से हुई, और वापिस आ कर भोजन करते हुऐ ३ बज गए। मैंने कुछ देर आराम किया और फिर दीक्षित की पुराण में सम्मिलित हुआ। बाद में हम पुनः मस्जिद गए परन्तु हमें दूर से ही प्रणाम करने की आज्ञा हुई। हमने वैसा ही किया। जब साईं महाराज घूमने के लिए गए तब हमने उन्हें हमेशा की तरह प्रणाम किया।


कल दीक्षित ने मस्जिद में रोशनी की थी और आज भी उन्होंने वैसा ही किया। रात को रोज़ की तरह भीष्म के भजन और दीक्षित का पारायण हुआ।


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१६ जनवरी, मँगलवार, १९१२-


प्रातः मैं रोज़ की भाँति उठा, प्रार्थना की और 'परमामृत' के पठन के बाद अपने दैनिक कार्य सम्पन्न किए। यह वेदान्त पर मराठी भाषा में रचित एक अत्यँत चर्चित पुस्तक है। उपासनी ने इसका पाठ किया और मैंने, बापू साहेब जोग और भीष्म ने सुना। पाठ बहुत रोचक था और जहाँ आवश्यकता थी वहाँ मैंने उसकी व्याख्या की। मैंने साईं महाराज के बाहर जाते हुए दर्शन किए किन्तु जब वे मस्जिद में वापिस लौटे तब मैं वहाँ देर से पहुँचा। मेरे देर से पहुँचने पर बाबा ने क्रोध नहीं दर्शाया अपितु मेरे साथ अत्यँत सकारात्मक दयालु व्यवहार किया। मेधा अभी भी अस्वस्थ है, अतः उसे जल्दी मस्जिद आने की आज्ञा नहीं मिली। परिणामतः दोपहर की आरती जब मेधा आया तब देर से शुरू हुई।


वापिस आकर भोजन करते हुए ४ बज गए। दीक्षित ने कुछ देर रामायण पढी। फिर हम साईं महाराज के दर्शन के लिए मस्जिद गए। बाबा ने हमें ज़्यादा देर बैठने की अनुमति नहीं दी और स्वँय भी शीघ्रता से सैर के लिए निकल गए। उन्होंने हमें वाडे में लौट जाने को कहा। हमें समझ में नहीं आया कि साईं महाराज ने ऐसा व्यवहार क्यों किया।


परन्तु जब हम वाडे में लौटे तब पता चला दीक्षित का नौकर हरी जो कुछ दिन पूर्व अस्वस्थ महसूस कर रहा था, चल बसा। उस रोज़ हमने किसी को उपासनी से दवा लाने भेजा भी था किंतु वे नहीं मिले थे। अन्ततः हरी की मृत्यु हो गई। हमने वाडे में रोज़ की आरती की और फिर रोज़ की तरह शेज आरती में सम्मिलित हुए। साईं महाराज ने हरी के प्रति विशेष कृपा दिखाई और उसके प्रति भाव पूर्ण शब्द कहे । राम मारूति भी साईं महाराज के विशेष कृपा पात्र हैं।


मस्जिद से हम सँतुष्ट हो कर लौटे । आधी रात से कुछ देर पूर्व ही हम हरी का अँतिम सँस्कार कर पाए। उसके लिए लकडी इकट्ठा करने में मुश्किल हुई। बापाजी ने किसी प्रकार लकडी की व्यवस्था की और अँतिम सँस्कार हो पाया। यदि माधवराव देशपाँडे यहाँ होते तो इतनी मुश्किल ना होती, लेकिन वे अपनी पत्नि और बच्चों को लेने नगर गए हैं। सँस्कार में बहुत देर लगी। रात को ना तो भीष्म के भजन हुए और ना दीक्षित का पुराण ही हुआ।


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१७ जनवरी, बुधवार, १९१२-


मैं प्रातः बहुत जल्दी उठा और बापू साहेब जोग को स्नान के लिए बाहर जाते हुए देखा। तब तक मैंने प्रार्थना पूर्ण की। काँकड आरती के लिए हम चावडी गए। मेघा अत्यँत रूग्ण होने के कारण आरती करने के लिए नहीं आ पाया अतः बापू साहेब जोग ने आरती की। साईं महाराज ने श्री मुख ऊपर उठाया और अत्यँत दयापूर्वक मुस्कुराए। उस मुस्कुराहट की एक झलक पाने के लिए यदि यहाँ वर्षों तक भी रुकना पडे तो भी वह कम है। मैं अत्याधिक हर्षित हो दीवानों की तरह उन्हें निहारता रहा।

जब हम वापिस लौटे तो नारायणराव के पुत्र गोविन्द और भ्राता भाऊ बैलगाडी पर सवार हो कर कोपरगाँव होते हुए होशँगाबाद गए। तब मैंने अपनी दिनचर्या के कार्य पूर्ण किए। मैंने कुछ पँक्तियां लिखी और बापू साहेब जोग तथा उपासनी के साथ 'परमामृत' का पठन किया। हमने साईं महाराज के बाहर जाते हुए और फिर मस्जिद में लौटते हुए दर्शन किए। साईं महाराज ने मेरी ओर देख कर कुछ मूक निर्देश दिए किन्तु मैं एक मूर्ख की भाँति कुछ समझ नहीं सका।


वाडे में लौटने पर मैंने स्वँय को बिना किसी कारण से निराशाजनक रूप से उदास महसूस किया। बलवन्त भी उदास लग रहा था , उसने कहा कि वह शिरडी से जाना चाहता है। मैंने उसे साईं महाराज की अनुमति लेने के बाद ही कोई निर्णय लेने को कहा। भोजन करने के बाद मैं कुछ देर लेटा। मेरी इच्छा हुई कि मैं दीक्षित से रामायण सुनूं, किन्तु साईं महाराज ने उन्हें बुला भेजा और उन्हें जाना पडा।


खाँडवा के तहसीलदार साहेब श्री प्रह्लाद अम्बादास ने आज जाने की अनुमति माँगी जो उन्हें मिली। वहाँ जलगाँव के श्री पाटे और उनके साथ लिंगायत भी हैं। वे दोनो शायद कल जायेंगे। हमने साईं महाराज के शाम की सैर के समय दर्शन किए। वे बहुत प्रसन्न दिख रहे थे। रात को रोज़ की भाँति भीष्म के भजन और दीक्षित की रामायण हुई। रात को वाडे की आरती के समय मुझे सुबह साईं महाराज द्वारा दिए गए मूक निर्देशों का अर्थ समझ में आया अतः मुझे बहुत प्रसन्नता हुई।


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१८ जनवरी १९१२-


आज बहुत कुछ लिखने को है। आज सुबह बहुत जल्दी उठा, प्रार्थना की, तब भी दिन चढने में लगभग एक घँटा बाकी था। मैं कुछ देर लेट गया और सूर्योदय देखने कि लिए समय पर उठ गया। मैं, उपासनी, बापू साहेब जोग तथा भीष्म 'परमामृत' पढने बैठे। तहसीलदार साहेब प्रह्लाद अम्बादास, श्री पाटे और उनके सहयोगी लिंगायत अपने निवास स्थान पर लौट चुके हैं। श्री पाटे और लिंगायत को जाने की अनुमति चलने के एक दम पूर्व मिली। हमने साईं महाराज के मस्जिद से बाहर जाते हुए और फिर वापिस आते हुए दर्शन किए। उन्होंने मेरे साथ बहुत अच्छा बर्ताव किया और जब मैं वहाँ सेवा कर रहा था तब उन्होंने मुझे दो या तीन कहानियाँ सुनाईं।


उन्होंने कहा कि बहुत से लोग उनका धन लेने आए थे। उन्होंने कभी उन लोगों का विरोध नहीं किया और उन्हें धन ले जाने दिया। उन्होंने बस उन लोगों के नाम लिख लिए और उनका पीछा किया। फिर जब वे लोग भोजन करने बैठे तब मैंने ( साईं महाराज ने ) उन्हें मार डाला।


दूसरी कहानी इस प्रकार थी कि एक नेत्र विहीन व्यक्ति था। वह तकिया के पास रहता था। एक व्यक्ति ने उसकी पत्नि को फुसला लिया और नेत्र विहीन व्यक्ति को मार डाला। चावडी में चार सौ लोग इकट्ठा हुए और उसे दोषी करार दिया। उसका सिर काटने का फरमान जारी किया गया। यह कार्य गाँव के जल्लाद ने करना था। उसने इसे अपना कर्तव्य समझ कर नहीं अपितु किसी अन्य इरादे से पूरा किया। अगले जन्म में वह हत्यारा जल्लाद के घर बेटा बन कर पैदा हुआ।


इसके बाद साईं महाराज एक अन्य कहानी सुनाने लगे। तभी वहाँ एक फकीर आया और उसने साईं महाराज के चरण स्पर्श किए। साईं महाराज ने अत्यँत क्रोध प्रकट किया और उसे परे धकेल दिया किन्तु वह जिद पूर्वक बिना धीरज खोये वहीं खडा रहा। अन्त में साईं महाराज के क्रोध के कारण वह मस्जिद के आँगन की बाहर की दीवार के साथ जा कर खडा हो गया। बाबा ने गुस्से से आरती का थाल और भक्तो के द्वारा लाया गया भोग उठा कर फेंक दिया। उन्होंने राम मारूति को उठा लिया, बाद में उसने बताया कि उसे साईं महाराज के ऐसा करने से इतनी प्रसन्नता हुई मानो उसे उच्च अवस्था प्राप्त हुई हो। एक अन्य गाँव वासी और भाग्या के साथ भी साईं महाराज ने ऐसा ही व्यवहार किया।


सीताराम पुनः आरती का थाल लाये और हमने रोज़ की तरह लेकिन जल्दी में आरती की। म्हालसापति के पुत्र मार्तण्ड ने समय की सूझ दिखाते हुए समझाया कि आरती को सही तरीके से ही पूरा किया जाना चाहिए। उन्होंने ऐसा तब कहा जब साईं महाराज अपना स्थान छोड कर परे हट गए। परन्तु आरती पूर्ण होने से पूर्व वे वापिस अपने स्थान पर आ गए। सब कुछ भली प्रकार से सँपन्न हुआ सिवा इसके कि ऊदि का वितरण व्यक्तिगत रूप से नहीं अपितु सामूहिक रूप से हुआ। निश्चित रूप से साईं महाराज क्रोधित नहीं थे अपितु उन्होंने भक्तों को दिखाने के लिए ही सम्पूर्ण 'लीला' रची थी।


इन सब घटना क्रम के कारण सब कुछ देर से हुआ। तात्या पाटिल ने अपने पिता के अँतिम सँस्कार के मृत्युभोज का आयोजन किया था, अतः भोजन करते हुए हमें ४॰३० हो गए। क्योंकि बहुत देर हो चुकी थी अतः और कुछ करने का समय नहीं था इसलिए हम साईं महाराज के दर्शन करने चले गए जब वे घूमने जा रहे थे। उसी समय हमने उन्हें प्रणाम किया।


रोज़ की तरह वाडे में आरती हुई। मेघा इतना बीमार है कि वह खडा भी नहीं हो सकता। साईं महाराज ने रात में ही उसके अँत की भविष्यवाणी की। इसके पश्चात हम चावडी समारोह में सम्मिलित हुए । मैंने हमेशा की तरह छत्र उठाया। सब कुछ आराम से सँपन्न हुआ। सीताराम ने आरती की। रात को भीष्म के भजन और दीक्षित की रामायण हुई।

P.S.
उप लेख- मैं यह बताना भूल गया कि जब साईं महाराज क्रोध में कुछ कह रहे थे तब उन्होंने यह भी कहा था कि उन्होंने मेरे पुत्र की रक्षा की थी और कई बार यह वाक्य भी दोहराया कि "फकीर दादासाहेब (अर्थात मुझे) को मारना चाहता है पर मैं ऐसा करने की आज्ञा नहीं दूँगा। उन्होंने एक और नाम का उल्लेख भी किया परन्तु वह मुझे अब याद नहीं है।


जय साईं राम

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ॐ साईं राम


१९ जनवरी १९१२-


आज का दिन अत्यँत दुखद था। मैं बहुत जल्दी उठ गया और प्रार्थना करने के बाद देखा तो भी दिन नहीं चढा था। सूरज चढने में एक घँटा बाकी था। मैं पुनः लेट गया और मुझे बापू साहेब जोग ने काँकड आरती के लिए उठाया। दीक्षित काका ने मुझे बताया कि प्रातः ४ बजे मेघा चल बसा। काँकड आरती हुई किन्तु साईं महाराज ने स्पष्ट रूप से अपना श्री मुख नहीं दिखाया। ऐसा प्रतीत हुआ कि वे आँखें नहीं खोलेंगे । ना ही उन्होंने अपनी कृपा से भरी दृष्टि भक्त जनों पर डाली।


हम लौटे और मेघा के अँतिम सँस्कार की तैयारियां की। जब मेघा के शरीर को बाहर लाया गया तभी साईं महाराज बाहर आए और उन्होंने उच्च स्वर में उसकी मृत्यु के लिए आर्तनाद किया। उनके स्वर में इतना दर्द था कि वहाँ उपस्थित सभी लोगों की आँखे भीग गई। साईं महाराज गाँव के मोड तक मेघा के शव के साथ चले, और फिर दूसरी ओर मुड गए।


मेघा के शरीर को गाँव के बडे पेड के नीचे अग्नि के हवाले किया गया। इतनी दूर से भी मेघा की मृत्यु पर रोते हुए साईं महाराज की शोकाकुल आवाज़ सुनाई दे रही थी। वे अपना हाथ इस प्रकार हिला रहे थे मानों आरती में मेघा को अँतिम बिदाई दे रहे हों। सूखी लकडियाँ बहुतायत में थीं अतः शीघ्र ही ऊँची लपटें उठने लगी। दीक्षित काका, मैं, बापू साहेब जोग, उपासनी, दादा केलकर और अन्य सभी लोग वहीं थे और मेघा की प्रशँसा कर रहे थे कि साईं महाराज ने उसके शरीर को सिर, हृदय, कँधे और पैर पर छुआ।


अँतिम सँस्कार के बाद हमें बैठ कर प्रार्थना करनी चाहिए थी, परन्तु बापू साहेब जोग आ गए और मैं उनके साथ बैठ कर बातें करने लगा। बाद में जब मैं साईं महाराज के दर्शन के लिए मस्जिद गया तब उन्होंने मुझसे पूछा कि मैंने दोपहर कैसे बिताई? मुझे यह बताते हुए बडी शर्म महसूस हुई कि मैंने बाते करने में समय गँवाया। यह मेरे लिए एक सबक था।


मुझे याद आया कि किस प्रकार साईं महाराज ने मेघा की मृत्यु की तीन दिन पूर्व भविष्यवाणी की थी-" यह मेघा की अँतिम आरती है"। मेघा मरने के समय कैसा महसूस कर रहा होगा कि उसका सेवा का समय पूर्ण हो गया। वह यह सोच कर भी आँसू बहा रहा था कि वह साठे साहेब से नहीं मिल पाया जिन्हें वह अपना गुरू समझता था, और किस प्रकार उसने निर्देश दिया साईं महाराज की गायों को कैसे चरने के लिए छोडना है। उसने अन्य कोई इच्छा नहीं प्रदर्शित की। हम सबने उसके अतिशय भक्ति से पूर्ण जीवन की प्रशँसा की। मुझे बहुत दुख हुआ कि मैं उसके लिए प्रार्थना ना कर, बेकार की बातों में उलझा रहा।


भीष्म और मेरा पुत्र बलवन्त स्वस्थ नहीं हैं, अतः भजन नहीं हुए। रात को दीक्षित काका ने रामायण पढी। गुप्ते, अपने भाई और परिवार सहित आज सुबह बम्बई रवाना हो गए।


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२० जनवरी १९१२-


प्रातः प्रार्थना के लिए मैं दिन चढने के पूर्व समय पर उठ गया और अपनी दिनचर्या के सभी कार्य उसी प्रकार किए जिससे यहाँ पर सभी लोगों को सुविधा हो। दिन सुहाना प्रतीत हुआ, और वह अच्छे से बीता। मैने बापसाहेब जोग, उपासनी और राम मारूति के साथ 'परमामृत' पढी। भीष्म और मेरे पुत्र बलवन्त की तबियत ठीक नहीं है। हमने साईं महाराज के बाहर जाते हुए और फिर लौटने पर दर्शन किए। उन्होंने बैठकर सुखद रूप से बातचीत की।


अभी एक गाँव के जागीरदार आए लेकिन साईं महाराज ने उन्हें पूजा करना तो दूर, पास तक नहीं आने दिया। कई लोगों ने उसके लिए अनुनय की किन्तु सब बेकार सिद्ध हुआ। अप्पा कोते आए और उन्होंने बहुत कोशिश के बाद साईं महाराज से इतनी अनुमति ली कि वह जागीरदार मस्जिद मे आ कर धूनि के पास के स्तम्भ की पूजा कर ले पर वे उसे 'ऊदी' नहीं देंगे। मुझे लगा कि साईं महाराज क्रोधित होंगे परन्तु ऐसा नहीं हुआ और दोपहर की आरती भली प्रकार से सम्पन्न हुई। साईं महाराज ने बापू साहेब जोग को निर्देश दिया कि अब वे ही सभी समय सब आरतियाँ करेंगे। मेघा की मृत्यु से दो दिन पूर्व मैनें ऐसे ही घटनाक्रम की अपेक्षा की थी।


मध्याह्न आरती के बाद मैनें बैठ कर समाचार पत्र पढा। दीक्षित के छोटे भाई (जो अब भुज के कार्यकारी दीवान हैं), खाँडवा में वकालत करते हैं , आज सुबह आए और दोपहर को उनके बम्बई के कर्मक भी आए। दीक्षित के भाई ने उन्हें काम पर लौटने के लिए प्रेरित करने का प्रयास किया जो कि बेकार सिद्ध हुआ। उन्होंने साईं महाराज से भी प्रार्थना की परन्तु साईं महाराज ने निर्णय स्वयँ दीक्षित पर ही छोड दिया।


बापू साहेब जोग के भी चार अतिथि आए हैं। उनकी पत्नि की बहन के पति जो कि साँगली के मुख्य खजान्ची हैं, दिल्ली दरबार से लौटते हुए अपने पूरे परिवार के साथ यहाँ आए हैं। उनकी पत्नि बापू साहेब जोग की पत्नि को अपने साथ ले जाना चाहती हैं ,परन्तु साईं महाराज ने इसकी अनुमति नहीं दी।


हमने साईं महाराज के उस समय दर्शन किए जब वे शाम की सैर के लिए बाहर आए। बाद में वाडे में और फिर शेज आरती हुई। दीक्षित ने हमेशा की तरह रामायण पढी। आज भजन नहीं हुए क्योंकि भीष्म अस्वस्थ हैं और बलवन्त की तबियत पहले से ज़्यादा खराब है। यहाँ मोरेश्वर जनार्दन पथारे भी अपनी पत्नि के साथ आए हुए हैं। वे लकवे कि शिकार हैं और उन्होंने बहुत दुख भोगा है। वसई के जोशी आए हैं और वे यहाँ गाई जाने वाली प्रार्थनाओं की कुछ छपी हुई प्रतिलिपियाँ भी लाए हैं।


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२१ जनवरी १९१२-


मैं उठा और काँकड आरती में साम्मिलित हुआ। वहाँ वे सभी लोग उपस्थित थे जो प्रतिदिन होते हैं, सिवाय बाला शिम्पी के। आरती के बाद रोज़ की तरह साईं बाबा ने आँतरिक शत्रुओं के प्रति कडे शब्दों का प्रयोग कई नाम जैसे अप्पा कोते, तेली, वामन तात्या आदि लेकर किया। मैंने बापू साहेब जोग, उपासनी और राम मारूति के साथ बैठ कर 'परमामृत' का पठन किया। बापू साहेब जोग के जो अतिथि साँगली से आए हैं, वे भी हमारे समूह में बैठे। उनका नाम लिमये है।


हमने साईं महाराज के बाहर जाते हुए और फिर वापिस आते हुए दर्शन किए। जब हम मस्जिद में थे तब माधव राव देशपाँडे नगर से लौट आए। उनके साथ बडौदा के एक सज्जन श्री दादा साहेब करँदिकर भी थे। करँदिकर को देख कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। ऐसा लगता है कि वे किसी मुकदमे के सिलसिले में नगर आए थे और माधव राव से मिलने पर उन्होंने साई महाराज के दर्शन का निश्चय किया। हमने बैठ कर बातचीत की। वे लगभग ४॰३० बजे शाम को नगर लौट गए। लिमये भी चले गए। पहले उन्हें जाने की अनुमति नहीं मिली, किन्तु अन्ततः साईं बाबा ने उन्हें जाने को कहा। सदाशिवराव दीक्षित भी जाना चाहते हैं, लेकिन उन्हें कल सुबह अपने परिवार, बच्चों और राम मारूति के साथ जाने की आज्ञा हुई। हमने शाम की सैर के समय साईं बाबा के दर्शन किए। वाडे की आरती के बाद दीक्षित की रामायण हुई।


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२२ जनवरी १९१२-
 

प्रातः जल्दी उठा और प्रार्थना की।  हमने साईं महाराज के बाहर जाते हुए और फिर वापिस आते हुए दर्शन किए।  अर्चना के दौरान उन्होंने दो फूल अपनी दो नासिकाओं में और दो अपने कानों और सिर के बीच रख लिए।  उस ओर मेरा ध्यान माधव राव देशपाँडे ने आकर्षित किया। मैने सोचा कि यह किसी प्रकार का निर्देश है। साईं महाराज ने वही क्रिया दूसरी बार भी दोहराई।  और जब मैंने मस्तिष्क में उसकी व्याख्या करने का प्रयास किया तब साईं महाराज ने मुझे चिलम पीने के लिए दी, तब मेरा अनुमान सत्य सिद्ध हो गया ।  उन्होंने कुछ कहा जिसे मैंने तुरँत सुन लिया और निश्चित किया कि मैं उसे याद रख पाऊँ, किन्तु वह मेरे दिमाग से निकल गया और पूरा दिन हर सँभव प्रयास के बाद भी मैं उसे याद नहीं रख पाया।   मैं बहुत स्तब्ध हुआ क्योंकि मेरे लिए यह अपनी तरह का पहला अनुभव था।
 

साईॅ बाबा ने यह भी कहा कि उनका आदेश सर्वोपरि है। इसका अर्थ यह था कि मुझे अपने पुत्र के स्वास्थ्य के लिए चिंतित नहीं होना चाहिए।  जब दोपहर की आरती समाप्त हुई, और हम लौटे तब मैंने देखा कि मेरे आवास के बाहर श्रीमति लक्ष्मीबाई कौजल्गी खडी थी। मुझे उन्हें देख कर बडी प्रसन्नता हुई।  बाद में वह मस्जिद में उस समय आईं जब मैं साईं महाराज को नमन करके वापिस लौट रहा था। उन्होनें उस समय श्रीमति कौजल्गी को पूजा करने दी जो कि एक प्रकार का विशेष अनुग्रह था।
 

भोजन के बाद मैंने कुछ देर आराम किया।  दीक्षित ने रामायण और नाथ महाराज की कुछ गाथा पढी।  उपासनी वहाँ मौजूद थे और श्रीमति कौजल्गी भी उस सँगत में सम्मिलित हुई।  उन्होंने वार्तालाप में भी हिस्सा किया जिससे पता चला कि वे वेदान्त की अच्छी जानकार थी। हमने साईं महाराज के उस समय दर्शन किए जब वे शाम की सैर के लिए निकले और फिर शेज आरती के समय भी।  लक्ष्मीबाई ने कुछ गीत सुनाए।  वह राधाकृष्णा माई की मौसी हैं।  रात को उन्होंने मेरी प्रार्थना पर कुछ भजन सुनाए और दीक्षित ने रामायण पढी।
 

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ॐ साईं राम


२४ जनवरी, बुधवार, १९१२-

आज प्रातः मैं ज्यादा सो गया।   इससे मुझे हर चीज़ में देर हुई।  मुझे अपनी दिनचर्या में सब कुछ शीघ्रता से करना पड़ा।  श्री दीक्षित को भी देर हुई, और हर कोई इसी सँकट में घिरा हुआ लगा।  हमने साईं बाबा के दर्शन उनके बाहर जाते हुए किए , और फिर उपासनी , भीष्म और बापू साहेब जोग के साथ परमामृत की सँगत की।  उसके बाद मैं साईं बाबा के दर्शन के लिए मस्जिद गया।  लक्ष्मी बाई कौजल्गी हमारी परमामृत की सँगत में उपस्थित हुई और मेरे पहुचंने के बाद मस्जिद गयी।  साईं बाबा ने उन्हें अपनी सास कहा और उनके द्वारा प्रणाम करने पर विनोद किया।  इससे मुझे ऐसा विचार आया कि बाबा ने उन्हें शिष्यl रूप में स्वीकार कर लिया है।

मध्यान्ह आरती रोज़ाना की तरह बल्कि अत्यँत शांतिपूर्वक  सम्पन्न हो गयी।  मेरे वहां से लौटने के बाद मैंने कोपरगाँव के मामलेदार श्री साने को बरामदे में बैठा हुआ पाया वे गोत्थान के विस्तार कार्य और कब्रिस्तान और मरघट को हटाने के सम्बन्ध में राजस्व का कार्य कर रहे थे।  भोजन के बाद मैंने कुछ पत्र लिखने चाहे लेकिन फिर श्री साने के साथ बातचीत करने बैठ गया।  फिर श्रीमान दीक्षित ने रामायण पढ़ी, और बाद में मैं साईं साहेब के दर्शन के लिए मस्जिद गया , लेकिन क्यूँ कि सभी को जल्दी ही भेज दिया गया इसी लिए उदी ली और चावड़ी के पास खड़ा हो गया।  वहां मैं एक मुस्लिम कबीरपंथी सज्जन से मिला जो कुछ समय पहले साठे और असनारे के साथ अमरावती आए थे।  शाम को वाड़े में आरती हुई और फिर चावडी में शेज आरती हुई और मैंने हमेशा की तरह चवर पकड़ा।


जय साईं राम

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ॐ साईं राम


२५ जनवरी, बृहस्पतिवार, १९१२-


प्रातः माधवराव देशपाँडे ने मुझे उठाया और कहा कि उन्हें मुझे एक बार से ज़्यादा बार आवाज़ देनी पडी तभी मैं जागा। मैने प्रार्थना की और काँकड आरती में सम्मिलित हुआ। साईं बाबा चुपचाप मस्जिद की ओर गए। वापिस आकर मैंने उपासनी, बापू साहेब जोग, भीष्म और श्रीमति कौजल्गी के साथ परमामृत का पठन किया। हमने 'महावाक्य विवेक' के विषय में अध्याय पूरा किया। फिर हमने दो बार साईं महाराज के दर्शन किए, एक बार जब वे बाहर जा रहे थे, और दूसरी बार जब वे मस्जिद लौटे।


दोपहर की आरती रोज़ की तरह सम्पन्न हुई और साईं साहेब ने मुझे कई बार चिलम का धुआँ दिया। भोजन के बाद मैंने कुछ देर आराम किया और फिर हमने रामायण पढी। दीक्षित ने यह पठन किया। इसके बाद हम साईं बाबा के दर्शन के लिए गए। वे प्रसन्न भाव में थे। रात को वाडे में आरती, भीष्म के भजन और दीक्षित की रामायण हुई। मैं यह बताना चाहता हूँ कि शाम की सैर के समय साईं बाबा ने मुझे श्रीमति लक्ष्मीबाई कौजल्गी की सम्पूर्ण जीवन गाथा सुनाई। मुझे पता है कि वह सब सही था क्योंकि मुझे उसके बारे में पहले से ज्ञात था।


जय साईं राम
« Last Edit: May 11, 2012, 09:56:52 AM by saisewika »

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ॐ साईं राम


२६ जनवरी, शुक्रवार, १९१२-


आज मैं प्रातः बहुत जल्दी उठा और समय का गलत अनुमान लगा कर सूरज उगने की प्रतीक्षा करता रहा। मैंने प्रार्थना की और बरामदे में एक कोने से दूसरे कोने तक घूमता रहा। मुझे लगता है कि मैं लगभग एक या डेढ घँटा जल्दी उठ गया। सूर्योदय के बाद मैंने अपने दिनचर्या के कार्य सम्पन्न किए और फिर हम बाहर गए। मुझे पता चला कि पूना से ढाँडे बाबा आए हैं। मैं स्वाभाविक रूप से उनसे बात करने लगा। उन्होंने मुझे तिलक का नवीनतम पत्र दिखाया। राज्याभिषेक आया और गया लेकिन तिलक जेल से बाहर नहीं आ पाए। हम उनके और डा॰ गरडे के बारे में बात करते रहे, जिन्होंने बेकार में ही अब मुसीबत खडी कर दी है और वह विशेषतः मुझे नुकसान पहुँचाना चाहते हैं।


हमने कुछ देर 'परमामृत' पढी और फिर साईं महाराज के दो बार, बाहर जाते हुए और वापिस मस्जिद में आते हुए दर्शन किए। मुझे कुछ अस्वस्थता महसूस हुई, अतः मैं कुछ देर लेटा। ढाँडे बाबा लगभग ४ बजे चले गए। फिर दोपहर को दीक्षित ने रामायण पढी। हम साईॅ महाराज के दर्शन के लिए गए और चावडी के सामने टहले। रात को वाडे की आरती, शेज आरती, भीष्म के भजन और दीक्षित की रामायण हुई।

आज मुझे अँग्रेज़ी के कुछ पत्र मिले।


जय साईं राम

 


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