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Author Topic: माननीय श्री श्रीकृष्ण खापर्डे की शिरडी डायरी  (Read 84267 times)

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ॐ साईं राम

                             माननीय श्री श्रीकृष्ण खापर्डे
                             अधिवक्ता, अमरावती
                             के शिरडी में आवास का दैनिक ब्यौरा

                           प्रस्तावना-

माननीय श्री श्रीकृष्ण खापर्डे ना केवल अमरावती के ( फौजदारी मामलों के ) सफल वकील थे, अपितु लोकमान्य तिलक के प्रतिष्ठित सहायक थे, जो कि उस समय बर्मा की मँडाले जेल में छः वर्ष की सजा काट रहे थे।  केन्द्रिय विधानसभा के सदस्य और प्रवीण प्रवक्ता होने के साथ श्री श्रीकृष्ण खापर्डे संस्कृत और मराठी के दक्ष विद्वान थे।  उन्हें दोनों भाषाओं की मुख्य धार्मिक पुस्तकों का अच्छा ज्ञान था।  श्री दाभोलकर की 'श्री साईं सत्चरित्र' के अध्याय २७ में श्री खापर्डे द्वारा की गई 'विद्यारणय की पँचदशी' की उत्कृष्ट व्याख्या का उल्लेख मिलता है।
 
श्री खापर्डे और उनकी पत्नि श्री साईं बाबा के महान भक्त थे।  वे दो बार शिरडी गए और काफी समय तक वहाँ रुके। इनमें से एक प्रवास की अवधि १९१० में ७ दिवस की और दूसरे की १९११-१७१२ में ३-४ मास की थी। काफी दिलचस्प बात यह है कि दोनो ही प्रवास के दौरान उन्होंने अपनी दिनचर्या का विस्तृत ब्यौरा एक रोजानमचे (डायरी) में लिखा, जो कि आज सँयोगवश एक ऐतिहासिक महत्व प्राप्त कर चुका है।  उनके लिखने का तरीका, और व्यक्तिगत भावनाओं और प्रतिक्रियाओं को उजागर करने में अल्पभाषिता, इसे भावी सँदर्भ के लिए एक प्रकार का ज्ञापन पत्र बना देती है। यही शायद श्री खापर्डे का इरादा भी था। उनकी सामान्य शैली को देख कर यह जाना जा सकता है कि उनका लक्ष्य इसे प्रकाशित कराना नहीं था। 

तो भी श्री साईं बाबा की उपस्थिति- उनकी गुप्त टिप्पणियाँ, कहानियों के माध्यम से उनके द्वारा दी जाने वाली शिक्षाएँ, और सबसे आवश्यक मानवता के प्रति उनके अटूट प्रेम को प्रदर्शित करने में यह दस्तावेज़ अत्यँत सफल रहा।  इन पृष्ठों ने उन दिनों के (शिरडी में ) माहौल को पाठकों के सम्मुख जीवन्त कर दिया है।  दुर्भाग्यवश जो 'डायरी' वर्षों पूर्व मद्रास के अखिल भारतीय साईं समाज के द्वारा प्रकाशित की गई थी, वह अप्राप्य हो गई।  अतः इसे अगस्त १९८५ और फरवरी १९८६ में श्री साईं लीला पत्रिका में छापा गया। अब यह भक्तों के लिए एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित की गई है।

जय साईं राम

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ॐ साईं राम


५ दिसँबर १९१०-


हम शाम के लगभग ४ बजे शिरडी पहुँचें और र॰ब॰ साठे द्वारा लोगों की सुविधा के लिए बनवाए गए वाड़े में ठहरे ।
माधव राव देशपांडे अत्यँत उपकारी सिद्ध हुए तथा उन्होंने हमारी सहायता की और हमारा अतिथि सत्कार किया ।
वाड़े में तात्या साहेब नूलकर अपने परिवार के साथ ,बापूसाहेब जोग और बाबा साहेब सहस्त्र बुद्धे भी ठहरे हैं।
पहुँचने के तुरंत बाद हम सभी साईं महाराज के दर्शन के लिए गए। वे मस्जिद में थे ।


प्रणाम करने के बाद मैनें और मेरे पुत्र ने अपने साथ लाए हुए फल और उनके आग्रह पर कुछ रूपये भेंट किए। साईं साहेब तब बोले कि पिछले दो वर्ष से ज्यादा समय से वे ठीक नहीं रहे , और ये भी कि, वे केवल ज्वार की रोटी और थोड़ा पानी लेते रहे।   उन्होंने अपने पाँव पर एक छोटा सा घाव दिखलाते हुए कहा कि उसमे कोई कीड़ा पड गया था , उसे निकाल तो दिया लेकिन निकालते हए वह बीच में ही टूट गया और फिर से पनप गया इत्यादि। 


वे बोले कि उन्होंने सुना है कि जब तक वे उस जगह वापस नहीं जाएँगे जहाँ से वे आए थे तब तक उनके लिए ठीक नहीं रहेगा।  उन्होंने कहा कि इस बात को उन्होंने अपने ध्यान में तो रखा है लेकिन उन्हें अपने जीवन से अधिक अपने लोगों की फिक्र है।  वे बोले कि लोगों ने उन्हें परेशान कर रखा है इसीलिए उन्हें कोई आराम नहीं मिलता।  पर इस बारे में कुछ नहीं किया जा सकता। उसके बाद उन्होंने हमें जाने के लिए कहा और हमने वैसा ही किया भी।


शाम के समय साईं महाराज वाड़े के पास से निकले , हम गए और उन्हें प्रणाम किया।  मैं और माधवराव देशपांडे एक साथ थे ।  जब हमनें प्रणाम किया तो वे बोले - " वाड़े में जाओ और चुपचाप बैठो"।  इसीलिए मैं और माधवराव लौट आए।  हम सब बातचीत करने बैठे।   उनके पास बतलाने के लिए बहुत से चमत्कार हैं।


जय साईं राम

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ॐ साईं राम


६ दिसम्बर १९१०-


प्रातः मैंने सैर की और स्नान के बाद हम सबने साईं महाराज को जाते हुए देखा। उनके सर के ऊपर एक बड़ी कड़ाईदार छतरी की छाया की गई थी।  बाद में हम मस्जिद गए।  साईं बाबा उत्साहित दिखाई दिए। फिर वे उठे और वहाँ एकत्रित भोजन को बाँटा और उदी देने के बाद हमसे जाने का अनुरोध किया।  हमने वैसे ही किया ।


दोपहर का भोजन लगभग ढाई बड़े तक नहीं परोसा गया था।  इसके बाद हमने बैठ कर कछ देर बात की।  शाम को जब साईं महाराज सैर के लिए निकले तब हमने उनके दर्शन किए।  बाद में हम चावड़ी गए , आज रात साईं महाराज वहाँ सोते है उनके सँग राजसी छत्र , चांदी की छडियाँ, चँवर और पंखे आदि थे।  वह स्थान मनोहर रूप से प्रकाशित था ।  एक स्त्री जिन्हें राधाकृष्णा के नाम से जाना जाता है,  दीपक लेकर बाहर आईं ।  मैंने उन्हें दूर से देखा ।  माधवराव देशपांडे ने बताया की वे कल बाहर जाएँगे और परसों लौटेंगे ।  उन्होंने साईं महाराज से जाने की आज्ञा माँगी जो उन्हें मिल गई।


जय साईं राम

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ॐ साईं राम


७ दिसम्बर १९१०-


प्रातः मेरे प्रार्थना करने के बाद श्री बाबा साहेब भाटे , जो एक निवृत्त मामलेतदार हैं वाड़े में आए, और हमसे बातचीत करने बैठे।   वे यहाँ पिछले कुछ समय से रह रहे हैं और उनके चेहरे पर अदभुत शान्ति है।  हमने साईं महाराज के बाहर जाते हुए दर्शन किए और दोपहर में उनके पास मस्जिद में गए। मैं, बाबासाहेब सहस्त्रबुद्धे, मेरा पुत्र बाबा, बापूसाहेब जोग और सब बच्चे इकट्ठे हुए और वहाँ बैठे।  साईं महाराज प्रसन्न भाव में थे।  उन्होंने बाबासाहेब सहस्त्रबुद्धे से पूछा कि क्या वे बंबई से आए हैं?  बाबासाहेब सहस्त्रबुद्धे ने इसका उत्तर "हाँ " में दिया।  बाबासाहेब सहस्त्रबुद्धे से फिर पूछा गया कि क्या वे बंबई वापस जाएँगे ?उन्होंने फिर से इस बात का उत्तर ' हाँ ' में दिया परन्तु ये भी कहा कि वे वहाँ रहने के बारे में निश्चित नहीं हैं क्यों कि यह परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।  तब साईं महाराज ने कहा, " हाँ ये सच है कि तुम्हारे हाथ में बहुत सारे काम हैं,और अभी और भी करने हैं।   तुम्हें यहाँ लगभग चार- पाँच दिन रहना चाहिए।  तुम यहीं रहोगे, यह तुम खुद देख लेना।   जो अनुभव हो रहे हैं वे सच हैं। काल्पनिक नहीं हैं।  मैं यहाँ हज़ारों साल पहले था।"  फिर साईं महाराज मेरी ओर मुड़े और स्पष्टतया अलग बात के बारे में बोलने लगे।
 

वे बोले - " ये दुनिया भी अजीब है,  सभी मेरी प्रजा है, मैं सबको समान रूप से देखता हूँ,  लेकिन कुछ चोर बन जाते है,  और मैं उनके लिए क्या कर सकता हूँ ? जो लोग खुद मृत्यु के निकट हैं वे दूसरों की मृत्यु चाहते हैं और उसकी तैयारी करते हैं। ऐसे लोगों ने मुझे बहुत दुख दिया है।  उन्होंने मुझे अच्छी  खासी चोट पहुँचाई है, लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा।  मैं चुप रहा।   ईश्वर बहुत महान है, उसके पदाधिकारी सब जगह हैं और वे सभी शक्तिशाली हैं। हर किसी को उसी स्थिति में खुश रहना चाहिए जिसमें ईश्वर उसको रखता है।  लेकिन मैं बहुत सशक्त हूँ ।मैं यहाँ आठ-दस हज़ार साल पहले था।"


मेरे पुत्र ने उनसे एक कहानी सुनाने के लिए कहा जो उन्होंने पहले भी सुनाई थी। साईं महाराज ने पूछा कौनसी कहानी थी।   मेरे पुत्र ने जवाब दिया कि वह कहानी तीन भाईयों के बारे में थी जो एक मस्जिद में गए। उनमें से एक ने बाहर जा कर भिक्षा माँगनी चाही।  बाकी भाई उसे यह करने देना नहीं चाहते थे , क्योंकि भिक्षा में माँगा हुआ खाना अशुद्ध होता और उनका चौका दूषित कर देता।  तीसरे भाई ने उत्तर दिया कि अगर वह भोजन उनका चौका खराब कर दे तो उसकी टाँगे काट देनी चाहिए इत्यादि।


 
साईं महाराज बोले वह बहुत अच्छी कहानी थी। वे फिर कभी एक और कहानी सुनाएँगे जब उनका मन करेगा।   मेरे बेटे ने कहा कि उसे नहीं मालूम कि ऐसा कब होगा और अगर उनका मन हमारे जाने के बाद करेगा तो उसका क्या फायदा ? इस पर साईं साहेब ने उससे कहा कि वह भरोसा रखे कि कहानी उसके जाने से पहले सुनाई जाएगी ।


मैंने उनसे पूछा कि वे कल नाराज़ क्यों थे?  उन्होंने जवाब दिया कि वे नाराज़ थे क्योंकि तेली ने कुछ कहा था।  तब मैंने पूछा कि आज खाना परोसने के समय वे ऐसा कहते हुए क्यों चिल्लाए - " मत मार, मत मार ", उन्होंने कहा कि वे इसलिए चिल्लाए थे क्योंकि पाटिल के परिवार वाले आपस में झगड़ रहे थे। साईं साहेब ने यह बात ऐसी अनोखी मधुरता से कही और वे ऐसे असाधारण लावण्य के साथ  मुस्कुराए कि यह बातचीत मेरी स्मृति में हमेशा अंकित रहेगी।  बदकिस्मती से तभी कुछ और लोग आ गए और बातचीत बीच में ही रुक गई।
 
हमें इस बात का बहुत अफसोस हुआ लेकिन इस बारे में कुछ किया नहीं जा सकता था।   हम इस बारे में बात करते हुए लौट आए।  तात्यासाहेब नूलकर बातचीत के पहले हिस्से में मौजूद नहीं थे, लेकिन बाद में आ गए थे।  बालासाहेब भाटे शाम को आए और हम सबने फिर वार्तालाप के बारे में बात की।

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८ जनवरी १९१०-


प्रातः प्रार्थना के बाद हमने साईं साहेब के रोज़ की तरह उस समय दर्शन किये जब वे बाहर जा रहे थे | बाद में हम दोपहर में उनके दर्शन के लिए गए लेकिन हमें लौटना पड़ा क्योंकि वे अपने पैर धो रहे थे | बाबासाहेब सहस्त्रबुद्धे , मैं, मेरा पुत्र और एक अन्य सज्जन, जो आज सुबह ही आए थे उस समूह में सम्मिलित थे जिसे वापस लौटना पड़ा।  तात्या साहेब नूलकर हमारे साथ नहीं आए थे | बाद में हम फिर से गए लेकिन साईं साहेब ने हमें जल्दी ही वापिस कर दिया इसीलिए हम लौट आए | वे कुछ सोचने में बहुत व्यस्त दिखलाई पड़े |


रात्रि में साईं साहेव चावडी में सोए और हम चावडी शोभा यात्रा देखने गए | वह बहुत मनमोहक थी | जिन सज्जन के बारे में पहले उल्लेख किया गया है वे एक पुलिस अफसर , मेरे विचार में हेड कांस्टेबल हैं|  उन पर घूसखोरी का आरोप था और सेशन कोर्ट ने उन पर मुकद्दमा चलाया | उन्हेंने संकल्प किया था कि अगर वे इस मुकद्दमे में छूट जाएँगे तो वह साईं महाराज के दर्शन के लिए आएँगे|  वह विमुक्त हो गए और अपना संकल्प पूरा करने आये हैं | उनको देख कर साईं महाराज कुपित हुए और उनसे पूछा - " तुम कुछ और दिनों वहाँ क्यों नहीं ठहरे ? बेचारे लोग निराश हुए होंगे।"  उन्होंने यह बात दो बार कही। बाद में हमें पता चला कि उन सज्जन के मित्रों ने उनको रुकने के लिए बहुत कहा लेकिन उन्होनें मित्रों के आग्रह को नहीं माना।  उन सज्जन ने साईं साहेब को पहले कभी नहीं देखा था। और उनके मित्रों ने भी निश्चय ही साईं साहेब को कभी नहीं देखा होगा।  आश्चर्य है कि साईं महाराज ने कैसे उनको जान लिया और वह सब कहा जो उन सज्जन ने किया था।


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९ दिसँबर १९१०-


मैंने और मेरे पुत्र ने आज जाना चाहा।   सुबह पूजा के बाद हमेशा की तरह हम साईं महाराज के दर्शन को गएI  उन्होंने मेरे पुत्र से पूछा कि क्या वे जाना चाहता है?  और फिर बोले कि हम जा सकते हैं।   हमने सोचा कि हमें जाने की आज्ञा मिल गयी और हम चलने की तैयारी करने लगे।   मेरे पुत्र बाबा ने सारी चीज़ें बाँधीं और एक ताँगा जाने के लिए और दूसरी गाडी सामान ले जाने के लिए बुलाई।
 

दोपहर में रवाना होने से पहले हम औपचारिक रूप से साईं महाराज से मिलने गए।  मुझे देखकर साईं महाराज बोले , " क्या तुम्हारा वास्तव में जाने का इरादा है ?"  मैंने उत्तर दिया - " मैं जाना चाहता हूँ लेकिन अगर आप अनुमति न दें तो नहीं।"  उन्होंने कहा , " तुम कल या परसों जा सकते हो।  ये तो हमारा घर है।  वाडा हमारा घर है और जब मैं यहाँ हूँ तो किसी को भी डरने की ज़रूरत नहीं।"
 

मैं रुकने के लिए मान गया और हमने अपने रवाना होने के सारे प्रबंध रोक दिए।  हम बातचीत करने के लिए बैठ गए।  साईं महाराज बहुत प्रसन्न थे और उन्होंने बहुत सारी अच्छी बातें कहीं लेकिन मुझे लगता है कि मैं उन्हें समझ नहीं पाया।


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१० दिसँबर १९१०- 


सुबह की प्रार्थना के बाद मैंने अपने पुत्र से कहा कि वह हमारे जाने के बारे में साईं महाराज को कभी भी कुछ न कहे।  वे सब जानते है , और उन्हें पता है कि हमें कब भेजना है।  रोज की तरह हमने साईं साहेब को उस समय देखा जब वे बाहर जा रहे थे, और बाद में जब हम लोग मस्जिद गए।  साईं साहेब बहुत ही आनन्दित थे और उन्होंने एक बालिका के पूर्वजन्म की कहानी सुनाई जो उनके साथ खेल रही थी।  उन्होंने कहा कि वह एक कलाकार थी और वह मर गई और साधारण रूप से दफना दी गई।  साईं साहेब उस रास्ते से गुजरे और उसके मकबरे के पास एक रात ठहरे।   फिर वह उनके साथ चली आई।  उन्होंने उसे एक बाबुल के पेड़ में रखा और फिर उसे यहाँ ले आए।   उन्होंने कहा पहले वे कबीर थे और सूत कातते थे।  बातचीत अत्यंत आन्नद दायक थी।

 
दोपहर में वर्धा के श्रीधर परांजपे , श्री पंडित , एक अन्य चिकित्सक और एक तीसरे सज्जन आए। अहमदनगर के कनिष्ठ अधिकारी श्री पटवर्धन भी उनके साथ थे।  मेरा पुत्र और वह विश्वविद्यालय के पुराने सहपाठी हैं।  वे सभी साईं साहेब के दर्शन को गए और हमने भी उनका साथ दिया।   साईं साहेब ने उनके साथ वैसा ही व्यवहार किया जैसा वे हर किसी के साथ करते हैं और पहले वे तेली मारवाड़ी वगैरह के बारे में बोले।  फिर वे इमारतों के बारे में बोले जो बनवाई जा रही हैं और कहने लगे , '' दुनिया पागल हो गई हैं, हर व्यक्ति ने बुरी सोच का रुख़ अपना लिया हैं मैंने कभी भी अपने आप को उनमें से किसी की बराबरी में नहीं रखा।  इसीलिए वे क्या कहते है मैं कभी नहीं सुनता।  और न ही जवाब देता हूँ। मैं क्या जवाब दूँ ?" उसके बाद उन्होंने ऊदी वितरित की और हमें वाडे में लौट जाने को कहा।  उन्होंने पटवर्धन कनिष्ट को संकेत किया और हमेशा की तरह आने वाले कल को रवानगी का दिन बतलाते हुए उसे रुकने के लिए कहा।  मैं और बाबासाहेब सहस्त्रबुद्धे वाडे में लौट आए।  ऐसा लगता है कि परांजपे और उनके साथी राधा कृष्णा माई के पास गए।

बापूसाहेब जोग की पत्नि बीमार चल रही है।  उसे साईं साहेब जो कुछ कहते है उससे बहुत लाभ पहुंचा है, वे उसे  कोई दवाई नहीं देते। लेकिन ऐसा लगता  है कि आज उसका धैर्य ख़त्म हो गया और उसने यहाँ से चले जाना चाहा।  यहाँ तक कि बापूसाहेब जोग भी लाचार होकर उसको जाने देने के लिए मान गए।  साईं साहेब ने उसके स्वास्थ के बारे में और वे कब जा रही हैं , कई बार ऐसी पूछताछ की।   लेकिन शाम को जब बापूसाहेब जोग ने औपचारिक रूप से उसे साईं साहेब से आज्ञा लेने की बात कही तो वह बोली कि अब वह पहले से ठीक महसूस कर रही है और अब नहीं जाना चाहती है -- हमें हैरानी हुई।


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११ दिसँबर १९१०-


सुबह प्रार्थना के बाद मैनें हाथ मुँह धोया।  बंबई के श्री हरिभाऊ दीक्षित और उनके कुछ अन्य साथी स्वर्गीय डाँ-आत्माराम पांडुरंग के पुत्र श्री तर्खड, और श्री महाजनी, जो अकोला के अन्ना साहेब महाजनी के चचेरे भाई हैं, के साथ रोज़ की तरह साईं साहेब के पास गए।   आज की बातचीत महत्वपूर्ण थी और दो घटनाओं के कारण उल्लेखनीय थी।  साईं महाराज ने कहा कि वे एक कोने में बैठा करते थे और उन्होंने अपने शरीर का निचला हिस्सा एक तोते से बदलना चाहा।  ये आदान प्रदान हुआ लेकिन उन्हें इस बात का अहसास एक साल तक नहीं हुआ।और उन्होंने एक लाख रूपये गवा दिए।  फिर उन्होंने एक खम्बे के पास बैठना शुरू किया और तब एक विशाल सर्प जागा, वह बहुत क्रोधित था।  वह ऊपर की ओर उछलता था और ऊपर से नीचे की ओर भी गिरता था।


फिर उन्होंने इस विषय को बदल दिया और कहा कि वे एक जगह गए और वहां का पाटिल उन्हें तब तक जाने नहीं देता जब तक वे एक वाटिका न लगाएँ और उसमे से होती हुई पैदल चलने के लिए एक पगडँडी ना बनाएँ । वे बोले कि उन्होंने दोनों काम पूरे किए।   उसी समय कुछ लोग वहां आए।  एक व्यक्ति से वे बोले , " मेरे सिवाय तुम्हारी देखभाल करने वाला कोई नहीं है।"  फिर चारों ओर देखते हुए उन्होंने कहा कि , वह उसकी संबंधी है और रोहिला से ब्याही हुई है जो आदमियों को लूटते हैं।  फिर वे कहने लगे कि दुनिया खराब है, लोग अब वैसे नहीं जैसे वे पहले होते थे।   पहले वे शुद्ध आचरण वाले और विश्वसनीय होते थे। अब लोग एक दूसरे का विश्वास न करने वाले और किसी भी बात का गलत अर्थ निकालने वाले हो गए हैं।


उसके बाद उन्होंने कुछ और भी कहा जो मैं समझ नहीं पाया। ये उनके पिता , दादा और फिर उनके पिता और दादा बनने के बारे में था। अब घटनाओं के बारे में ऐसा है कि श्री दीक्षित फल लाए थे, साईं साहेब ने कुछ खाए और बाकी फल और लोगों में बाँट दिए।   बाला साहेब जो इस तालुके के मामलेतदार हैं, वहां थे ।उन्होंने कहा कि साईं महाराज केवल एक किस्म के ही फल बाँट रहे थे।। मेरे पुत्र ने अपने मित्र पटवर्धन को बतलाया कि साईं महाराज ने  जिस भक्ति भाव से वे फल अर्पित किए गए थे उसी के अनुपात में उन्हें स्वीकार या अस्वीकार किया।   मेरे पुत्र बाबा ने यह बात मुझे और पटवर्धन को भी बतलाने की कोशिश की।   इससे थोड़ा शोर हुआ और साईं महाराज ने मुझको ऐसी नज़रों से देखा जो अदभुत रूप से चमक रही थी और क्रोध की चिंगारी लिए हुई थी।  उन्होंने मुझसे इस सवाल का जवाब माँगा कि मैंने क्या कहा था। मैंने उत्तर दिया कि मैं कुछ नहीं कह रहा था और बच्चे आपस में बात कर रहे थे। उन्होंने मेरे पुत्र और पटवर्धन की ओर देखा और फिर तुरंत ही अपना मूड बदल लिया। अन्त में बाला साहेब मिरीकर ने टिप्पणी की कि साईं महाराज सारा वक्त हरिभाऊ दीक्षित से बात कर रहे थे।

 
दोपहर में जब हम लोग भोजन कर रहे थे, उस समय श्री मिरीकर के पिताजी आए जो अहमदनगर में इनामदार और विशेष मजिस्ट्रेट हैं।    वे पुराने स्वभाव के बहुत सम्माननीय व्यक्ति हैं।   मुझे उनकी बाते बहुत पसंद आई। शाम के समय हमने रोज़ की तरह साईं साहेब के दर्शन किए और हम रात को बातें करने बैठे।  श्री नूलकर के पुत्र विश्वनाथ ने भजन किए जैसे वह हर रोज़ करता है।
 

जय साईं राम

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१२ दिसँबर १९१०-


सुबह की प्रार्थना के बाद हमने साईं महाराज को हमने हमेशा की तरह निकलते हुए देखा और हर रोज़ की तरह हम आपस में बातें करने बैठे। श्री दीक्षित ऐसा मालूम पड़ता है कि पुरी तरह से बदल गए हैं, और बहुत सा समय उपासना में लगाते हैं । उनका स्वभाव हमेशा से ही विनम्र था, पर अब उसमें भी एक विचित्र मिठास आ गयी है जो पूरी तरह से उनके अंतर्मन की शान्ति के कारण है।  इसके तुरंत बाद रावबहादुर राजाराम पन्त दीक्षित पुलगाँव से आए।  उन्होंने बताया कि जब वे नागपुर से चले तब उनका शिरडी आने का को विचार नहीं था , लेकिन पुलगाँव में अचानक ही उनका आने का इरादा बन गया, और असल में शिरडी यात्रा का निश्चय उन्होंने क्षण भर में ही कर लिया।  मुझे उनको देखकर अत्यँत प्रसन्नता हुई।   बाद में हम सब साईं साहेब के दर्शन के लिए गए।


मुझे थोड़ी देर हो गई और में उन्हें द्वारा सुनाई जा रही एक बहुत रोचक कहानी नहीं सुन पाया।  वे नीति कथाओं से सीख देते हैं। वह कहानी एक ऐसे आदमी के बारे में थी जिसके पास एक सुन्दर घोड़ा था , वह कुछ भी करे लेकिन घोड़ा उसकी एक भी नहीं सुनता था।  उसे सभी जगह ले गए और सब सामान्य प्रशिक्षण दिया गया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। अँततः, एक विद्वान ने सुझाव दिया कि उसे उसी जगह ले जाया जाए जहां से वह मूलरूप से लाया गया था। ऐसा की किया गया और उसके बाद से वह ठीक हो गया और बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ।   मैंने इस किस्से का केवल अँतिम अंश ही सुना। 
 


फिर उन्होंने पूछा कि मैं कब जा रहा हूँ?  मैंने कहा कि मैं तभी जाऊँगा जब वे स्वयँ मुझे जाने की आज्ञा देंगे।
उन्होंने कहा - "तुम आज भोजन करने के बाद जाओ"  और बाद में माधव राव देशपांडे के हाथों मेरे लिए प्रसाद के रूप में दही भेजा।  मैंने उसे भोजन में लिया और उसके बाद तुरंत साईं साहेब के दर्शन के लिए गया।   जैसे ही मैं वहाँ पहुचा उन्होंने जाने के लिए अपनी आज्ञा को फिर से पक्का किया।   मेरा पुत्र इस अनुमति के बारे में निश्चित नहीं था इसलिए उसने फिर से खुल कर पूछा , और आज्ञा स्पष्ट शब्दों में दे दी गई।
 


आज साईं महाराज ने दूसरों से दक्षिणा माँगी लेकिन मुझसे और मेरे पुत्र से कुछ नहीं लिया।  मेरे पास धनराशि बहुत कम थी और ऐसा लगा कि उनको ये मालूम था। श्री नूलकर , श्री दीक्षित , श्री बापूसाहेब जोग , बाबासाहेब सहस्त्रबुद्धे , माधव राव देशपांडे , बालासाहेब भाटे , वासुदेव राव और अन्य सभी को अलविदा बोल कर हम पटवर्धन, प्रधान, काका महाजनी, श्री तर्खड और श्री भिंडे, जो आज ही आए थे, के साथ रवाना हुए।  हमने लगभग ६.३० बजे कोपरगाँव से रेलगाडी पकड़ी और मनमाड तक का सफर किया।   श्री भिंडे येवला में उतर गए। मैं और मेरा पुत्र जल्दी ही पँजाब मेल से मनमाड से निकलेंगे।


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खापर्डे शिरडी डायरी-
माननीय श्री श्रीकृष्ण खापर्डे का
शिरडी में दूसरा लँबा आवास
(६ दिसँबर १९११ से १५ मार्च १९१२)

६ दिसँबर १९११-


जैसे ही मेरा तांगा श्री दीक्षित द्वारा नवनिर्मित वाडे के पास पहुँचा पहले व्यक्ति जिनसे मेरी भेंट हुई वे थे श्री माधवराव देशपांडे | मेरे टाँगे से उतरने से पहले ही श्री दीक्षित ने आज रात मुझे रात  को अपने साथ भोजन करने के लिए कहा। उसके बाद मैं माधव राव के साथ साईं महाराज को नमस्कार करने के लिए गया और थोड़ी दूर से उन्हें प्रणाम किया | उस समय वे हाथ -पैर धो रहे थे | फिर मैं स्नान और पूजा करने में व्यस्त हो गया और जब वे बाहर निकले तब उन्हें प्रणाम नहीं कर सका |  बाद में हम लोग एक साथ उनके पास गए और  मस्जिद में उनके पास बैठे |


उन्होंने एक ऐसे फकीर की कहानी सुनाई जिसे अच्छे पकवानों का शौक था | इस फकीर को एक बार किसी रात्रि भोज पर आमंत्रित किया गया और वो साईं महाराज के साथ वहाँ गया।  निकलते समय फकीर की पत्नी ने साईं महाराज को उस भोज से कुछ खाना लाने के लिए कहा और इसके लिए एक बर्तन दिया | फकीर ने इतना जम कर खाया कि फिर उसी जगह पर सो जाने का फैसला किया | साईं महाराज रोटियाँ अपनी पीठ पर बाँधकर और रसदार भोज्य पदार्थ वाले बर्तन को अपने सर पर उठाए वापिस निकले | उन्हें रास्ता बहुत ही लंबा लगा | वे रास्ता भूल गए।  कुछ देर आराम करने के लिए वे एक मांग वाड़े के पास बैठ गए | कुत्ते भौकने लगे, वे उठे और अपने गाँव लौट आए और रोटी तथा  भोजन फकीर की पत्नी को दे दिया | तब तक फकीर भी लौट आया और उन सब ने एक साथ बहुत अच्छा भोजन किया।  उन्होंने यह भी कहा कि एक अच्छे फकीर का मिलना बहुत कठिन है।


श्री साठे जिन्होंने वह वाड़ा बनवाया जिसमें मैं पिछले साल ठहरा था, वे भी यहाँ आए हुए हैं।  मैंने उन्हें पहले मस्जिद में देखा और फिर रात्रि भोज पर।   श्री दीक्षित ने बहुत सारे लोगों को भोजन कराया | उनमें श्री थोसर भी हैं, जो स्वर्गीय माधव राव गोविन्द रानाडे की बहन के पुत्र हैं | थोसर बंबई के कस्टम विभाग में कार्य करते है | वे बहुत भले आदमी हैं।  हम बात करने बैठे | वहां पर एक सज्जन नासिक से हैं और अन्य कई लोग और हैं | उनमें से एक श्री टिपनीस हैं, उनकी पत्नि भी साथ हैं, और वे पुत्र-प्राप्ति की याचना के लिए आए हैं।   बापूसाहेब जोग यहाँ हैं, और अब उनकी पत्नी की तबीयत ठीक हैं | श्री नूलकर अब जीवित नहीं हैं और मैं उन्हें बहुत याद करता हूँ। उनके परिवार का यहाँ कोई नहीं हैं | बाला साहेब भाटे यहाँ हैं और उनकी पत्नी ने दत्त जयन्ती के दिन एक पुत्र को जन्म दिया है।  हम लोग दीक्षित वाड़े में ठहरे हैं जो बहुत सुविधाजनक है।


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७ दिसँबर १९११-


मैं कल अच्छी नींद सोया | मेरे पुत्र और पत्नी का भीष्म के साथ मन लग रहा था | विष्णु भी यहाँ हैं | हमने आज बहुत सारे लोगों को भोजन कराया , और मैं इस जगह की नियमित दिनचर्या में आ गया हूँ | मैंने  साईं महाराज को जब वे बाहर जा रहे थे , नमस्कार किया  और उनके मस्जिद में लौटने के बाद , और फिर से शाम को , बाद में फिर से जब वे सोने के लिए चावडी में गए तब भी | भजन-पूजन कुछ कम था | हमारे शेज आरती से लौटने के बाद , भीष्म ने और दिन की तरह भजन किए और श्री थोसर ने कुछ पद गाए।  कुछ रचनाएं उनकी अपनी थीं और बाकी कबीर , दासगणु और अन्य की | दासगणु की पत्नी बया, जो पिछले साल यहीं थी, अब उनके पिता के घर है | हम लोग देर रात तक बात करने बैठे |
 

बापू साहेब जोग ने मुझे बताया कि जब मैं पिछले वर्ष चला गया था तब कमिश्नर और जिलाधीश साईं महाराज के दर्शन के लिए आए थे।  साईं महाराज ने उन दोनों को मस्जिद में नहीं आने दिया। उन्होंने चावडी में इँतज़ार किया। जब साईं महाराज घूमने के लिए निकले तब उन दोनों को अपने हाथ की अँगुलियों की दूरबीन बना कर देखा।  वे दोनों साईं महाराज से बात करना चाहते थे परन्तु बाबा ने उन्हें दो घँटे रूकने को कहा।  वे दोनो रुके नहीं और दस रूपये दक्षिणा के छोड कर चले गए।  साईं महाराज ने उस धन को हाथ नहीं लगाया और वह रुपये दान में दे दिए।


रात को माधव राव देशपान्डे ने हमें बताया की दादा केलकर का बाबू नाम का एक भतीजा था।  साईं महाराज उसके प्रति बहुत दयालु थे | वह (बाबू ) मर गया और महाराज आज तक उसे याद करते हैं | श्री मोरेश्वर विश्वनाथ प्रधान, जो की बंबई में एक पेशेवर अधिवक्ता हैं,  साईं महाराज के दर्शन करने आए | उनकी पत्नी को देख कर साईं महाराज ने कहाँ कि वह बाबू की माँ हैं | आगे चलकर वह गर्भवती हुई, और बंबई में उसके प्रसव के दिन यहाँ शिरडी में साईं महाराज ने कहा कि उन्हें पीड़ा हुई है,  और यह भी कि उसे जुडवाँ बच्चे होंगे और उनमें से एक मर जाएगा | ऐसा ही हुआ और श्रीमती प्रधान अपने छोटे पुत्र को लेकर यहाँ आई तो साईं महाराज ने उसे अपनी गोद में लिया और पूछा कि, क्या वह इस जगह आएगा , और दो महीने के उस बच्चे ने बहुत साफ जवाब  दिया " हूँ "।


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८ दिसँबर १९११-


मैं कल और परसों कहना भूल गया कि उपासनी वैद्य,  जो अमरावती में थे , यहाँ हैं और मेरे यहाँ पहुँचने के तुरंत बाद वे मिले फिर हम लोग बातचीत करने बैठे | उन्होंने मुझे अमरावती छोड़ने के बाद से अपनी कहानी संक्षेप में बतलाई कि किस तरह वे ग्वालियर स्टेट गए , किस तरह उन्होंने एक गाँव खरीदा उससे कोई आमदनी नहीं हुई। कैसे उनकी एक महात्मा से भेंट हुई,  कैसे वे बीमार हुए,  कैसे उन्होंने सभी इलाज आज़माए , कितने ही साधू और महात्माओं के पास गए , आखिर में किस तरह साईं महाराज ने उन्हें अपने हाथों में लिया , कैसे उनमें सुधार हुआ और अब यहीं रहने की आज्ञा का पालन कर रहे हैं |


उन्होंने संस्कृत में साईं महाराज के लिए एक स्त्रोत की रचना की है | हम सब जल्दी उठ गए और कांकड़ आरती में में सम्मिलित होने के लिए गए।  यह बहुत ही शिक्षाप्रद है | मैंने प्रार्थना की, स्नान किया और साईं महाराज के बाहर जाते हुए दर्शन किए | और फिर उनके लौटने के बाद,  और एक बार फिर दोपहर में | साईं महाराज मेरी और देखते हुए बोले "क्यों सरकार"


फिर उन्होंने सामान्य उपदेश दिया कि मुझे वैसे ही रहना चाहिए जैसे ईश्वर मुझको रखे , और फिर कहा कि जो आदमी अपने परिवार को बहुत चाहता है उसे बहुत कुछ सहन करना पड़ता है इत्यादि।  फिर उन्होंने एक अमीर व्यक्ति की कहानी सुनाई जो शाम तक दास का काम करता था,  अपने लिए भोजन बनाता था और एक मोटी  सूखी रोटी खाता था। इन सबके पीछे कारण कोई अस्थाई परेशानी थी।


हमने शाम को साईं महाराज के फिर दर्शन किए और दीक्षित द्वारा बनवाए वाडे के बरामदे में बैठे | बंबई के दो सज्जन एक सितार लाए और उसे बजाने लगे उन्होंने भजन भी गाए।  श्री ठोसर, जिन्हें मैं हज़रत कहता हूँ, ने भी बहुत सुन्दर गायन किया और भीष्म ने अन्य दिनों की तरह भजन किए। आधी रात तक समय बहुत आनन्द से बीत गया।  श्री ठोसर बहुत ही अच्छे साथी हैं।  मैंने अपने पुत्र बलवंत, बंबई के सज्जन और अन्य लोगों के साथ ध्यान आदि के बारे में लम्बी वार्ता की।


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९ दिसम्बर १९११-


मुझे उठने में और प्रार्थना करने में थोड़ी देर हो गई।  आज श्री चांदोरकर एक नौकर के साथ आए।  कुछ अन्य लोग भी आए और कुछ लोग जो पहले यहाँ थे, चले गए।   श्री चांदोरकर सरल और बहुत भले आदमी हैं, बातचीत में बहुत मधुर और अपने व्यवहार में सादे।   मैं मस्जिद में गया और देर तक वहां कही जाने वाली बातों को सुनता रहा | साईं महाराज आनन्द भाव में थे।  मैं अपना हुक्का वहीं ले गया और साईं महाराज ने उसमें से कश लिया। आरती के समय वे अद्भुत रूप से सुन्दर दिखे,  लेकिन उसके तुरंत बाद ही उन्होंने सब को वापिस भेज दिया।   उन्होंने कहा की वे हमारे साथ रात्रि भोज के लिए आएँगे।  वे मेरी पत्नी को " आजीबाई " कहते हैं।


हमारे ठिकाने पर लौटने पर हमें पता चला कि श्री दीक्षित की पुत्री,  जो अस्वस्थ थी, चल बसी।  कुछ दिनों पहले मृतक को स्वप्न आया था कि साईं महाराज ने उसे नीम के पेड़ के नीचे रखा था।  साईं महाराज ने भी कल कहा था कि उस बालिका की मृत्यु हो गई है | हम लोग उस दुखद घटना के बारे में बात करने बैठे।  वह बच्ची केवल सात वर्ष की थी।   मैं गया और उसके पार्थिव शरीर को देखा।  वे बहुत मनमोहक लगा, उसके चहरे पर मृत्यु के बाद जो भाव था वह अनोखे रूप से मधुर था।  इससे मुझे मॅडोना के उस चित्र की स्मृति हो आई जिसे मैंने इंग्लैड में देखा था।  दाह संस्कार हमारे वाड़े के पीछे हुआ।


मैं शव यात्रा में शामिल हुआ और चार बजे शाम तक नाश्ता नहीं किया।  दीक्षित ने यह धक्का खूब अच्छी तरह झेला।   उनकी पत्नी स्वाभाविक रूप से दुःख के मारे टूट गई।  हर किसी ने उनके साथ सहानुभूति की।  शाम को सूर्यास्त और शेज आरती दोनों समय मैं साईं महाराज को देखने चावडी गया | रात को मैं, माधव राव देशपांडे, भीष्म और बाकी लोग देर तक साईं महाराज के बारे में बात करने बैठे। थोसर को साईं महाराज से बंबई लौटने की आज्ञा मिल गई।  वे कल सुबह जाएंगे।


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१० दिसँबर १९११-
 

सुबह मेरे प्रार्थना ख़त्म करने से पहले बंबई के सोलिसिटर दत्तात्रेय चिटनीस आए | जब मैं कालेज में व्याख्याता था, तब वे वहाँ नए-नए आए थे | इसलिए वे बहुत पुराने मित्र हैं | स्वभाविक ही है कि वे पुरानें दिनों की बातें वातें  करने बैठ गए |  हमेशा की तरह मैंने साईं महाराज के दर्शन किए जब वे बाहर गए , और बाद में फिर जब वे बाहर से लौटे और अपनी जगह पर बैठे।  हम सब आरती के बाद वापस लौटे। सुबह का नाश्ता कुछ देर में हुआ और उसके बाद मैं उपासनी से , फिर बाद में श्री नानासाहेब चांदोरकर के साथ बातचीत करने को बैठा।  वे साईं महाराज के अगर मुख्य नहीं तो सबसे पुराने शिष्य है | वे बहुत ही खुशमिजाज आदमी हैं।  उन्होंने मुझे बताया कि किस तरह वे साईं महाराज के संपर्क में आए और उन्नति की | वे मुझे उन निर्देशों को बतलाना चाहते थे जो उन्हें मिले थे लेकिन लोग इकट्ठा हो गए और वह बात सब के सामने बतलाई नहीं जा सकती थी।
 
 
मैंने दो बार दोपहर में साईं महाराज को देखने की कोशिश की लेकिन वे किसी से भी मिलने के इच्छुक नहीं थे | मैंने शाम को चावड़ी के पास उनके दर्शन किए और साठे साहेब,  चितनीस और अन्य लोगों के साथ लम्बी बातचीत की।   नरसोबा की वाड़ी से कोई एक गोखले आए है।   वह कहते हैं कि उन्हें किदगाँव के नारायण महाराज और साईं महाराज के दर्शन का निर्देश मिला है।  वह बहुत अच्छा गातें है।   और रात को मैंने उनके कुछ भजन सुने। श्री नाना साहेब चांदोरकर आज थाने लौट गए हैं।   बाला साहेब भाटे, जिनका कुछ दिन पहले पुत्र हुआ था वह आज शाम को चल बसा।   यह बहुत दुखद था।   साईं महाराज ने आज दोपहर को एक औषधि बनाई जो उन्होंने ली।
 
 
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११ दिसँबर १९११-
 
 
आज सुबह प्रार्थना बहुत बहुत आनन्ददायक थी,  और उसके बाद मैंने अपने को बहुत प्रफुल्लित अनुभव किया | उसके बाद मैं दत्तात्रेय चिटनीस को पंचदशी के शुरू के कुछ पद समझाने के लिए बैठा।  वह बहुत भले आदमी है।  उसके बाद हम साईं महाराज के पास गए , दोनों समय जब वे बाहर गए और जब वे लौटे | उन्होंने मुझे कई बार चिलम दी और अंगूर दिए जो राधा कृष्णा माई ने भिजवाए थे | उन्होंने दो बार मेरे पुत्र बलबंत को अंगूर दिए | दोपहर में मैंने सुना कि वे मस्जिद की सफाई कर रहे थे।  इसीलिए मैंने उस तरफ जाने का प्रयास नहीं किया।
 
 
सभी लोग साईं महाराज के पास प्लेग से छुटकारा पाने के लिए एक शिष्ट मंडल लेकर आए | उन्होंने लोगों को सड़कें साफ करने के लिए,  कब्रों तथा  दफनाने और जलाने वाले घाटों की सफाई करने और गरीबों को अन्नदान करने का आदेश दिया।  मैंने पूरी दोपहर दैनिक अखबार पढने और चिटनीस तथा अन्य लोगों से बाते करने में बिताई।  उपासनी कुछ रचना कर रहे हैं | शाम को हमने साईं महाराज के चावड़ी के पास दर्शन किए और फिर शेज आरती में सम्मिलित हुए।  बाद में चिटनीस उनके इंजिनियर मित्र और अन्य व्यक्ति चले गए। 
 
 
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