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Author Topic: माननीय श्री श्रीकृष्ण खापर्डे की शिरडी डायरी  (Read 84262 times)

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Offline saisewika

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ॐ साईं राम


२७ जनवरी, शनिवार, १९१२-


मैं प्रातः जल्दी उठा , प्रार्थना की और काँकड़ आरती में सम्मलित हुआ।   साईं बाबा बिना बोले मस्जिद नहीं गए , फिर भी उन्होंने ज्यादा कुछ नहीं कहा।   मैं, उपासनी, बापू साहेब जोग और भीष्म ने परमामृत पढी और साईं बाबा के बाहर जाते हुए और फिर वापस लौटने के बाद दर्शन किए।


दोपहर की आरती आराम से हो गयी और उसके बाद हमने सामान्य दिनों की तरह भोजन किया।  मैं थोड़ी देर लेटा, फिर मैंने एक पत्र लिखा, और दोपहर में दीक्षित द्वारा रामायण के पाठ में सम्मलित हुआ।  हमने साईं बाबा के सैर के समय दर्शन किए।  उन्होंने सुखद रूप से लेकिन गंम्भीरता से बातें की।  बातों के आखिर में वे आवाज़ ऊँची कर  क्रुद्ध भाव में वे बोले।। मुझे बताया गया कि अन्धेरा होने के बाद वे और ऊँचा बोले और इस बात के लिए अपना क्रोध दिखाया कि इब्राहिम जिसने अपना धर्म बदल लिया था वह खींड के पास टूटी हुई दीवार पर अपना हाथ रख कर खड़ा हुआ था।  साईं साहेब के कपड़े भी राधा कृष्णाबाई के द्वारा धोए गए थे और वे ऐसा करने पर उनसे नाराज़ थे।
 

बाला भाऊ जोशी आज वकालत की परीक्षा की पढ़ाई के लिए पूना चले गए।  वह वाड़ा आरती के समय उपस्थित नहीं थे।  उसके बाद भीष्म ने हॅाल में भजन गाए और दीक्षित ने रामायण पढ़ी।  मैं आज बरामदे में ही सोऊँगा।  यहाँ सर्दी के मौसम के सारे चिन्ह तेजी से खत्म होते जा रहे हैं।


जय साईं राम

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ॐ साईं राम


२८ जनवरी, रविवार, १९१२-


मैं रात बहुत अच्छी नींद सोया और दिन चढने से पूर्व प्रार्थना के लिए समय पर उठ गया। अपने दिनचर्या के कार्य पूरे किए तथा लगभग ८ बजे खँडोबा के मँदिर पहुँच गया जहाँ उपासनी रहते हैं। कुछ देर उनके साथ बैठकर बात की। यह एक छोटा सा सुँदर स्थान है। हमने 'परमामृत' का पठन बापू साहेब जोग के घर पर किया क्योंकि मेरे निवास स्थान पर वेदान्त विषय पर बातचीत और चर्चा मेरे पुत्र बलवन्त को परेशान करती है।


हमने साईं महाराज के बाहर जाते हुए और फिर मस्जिद में लौटते हुए दर्शन किए। उन्होंने मुझसे पूछा कि हमने अपनी सुबह कैसे बिताई? मैंने उन्हें वह सब बताया जो हमने किया था। वे प्रसन्न चित्त थे। दोपहर की आरती निर्विघ्न समाप्त हुई, सिवाय इस बात के कि राधाकृष्णा माई आहत और दुखी थीं। उन्होंने दरवाज़ा बन्द कर लिया था, अतः आरती का सामान मिलने में देरी हुई।


दोपहर के भोजन के बाद मैंने कुछ देर आराम किया, फिर एक पत्र लिखा और कुछ देर दीक्षित की रामायण सुनी। फिर हम साईं महाराज की शाम की सैर के समय उनके दर्शन के लिए गए। इसके पश्चात वाडे में आरती हुई परन्तु भीष्म के भजन नहीं हुए क्योंकि वह अस्वस्थ थे। रात में शेज आरती के बाद जब हम लौटे तब दीक्षित की रामायण हुई।


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ॐ साईं राम
 
         
२९ जनवरी, सोमवार, १९१२-


मैं प्रातः बहुत जल्दी उठ गया, प्रार्थना की देखा कि मैं ज्यादा ही जल्दी उठ गया था,  लेकिन फिर मैं जागा ही रहा और काँकड़ आरती में सम्मिलित हुआ।  लौटने के बाद मैंने अपनी दिनचर्या प्रारम्भ की।  लगभग प्रातः ९ बजे मैं बापू साहेब के पास गया और फिर उनके साथ उपासनी के पास, परमामृत शुरू की, लेकिन बिना किसी खास वजह के मुझे इतनी ज्यादा नींद आती रही कि मैं कोई प्रगति नहीं कर पाया। अन्ततः मैं अपने आवास पर लौट आया और लेट गया, और इतने देर तक सोता रहा कि दोपहर १२॰३० या १ बजे तक भी उठ नहीं पाया।   माधवराव देशपांडे और दूसरों ने मुझे जगाने की कोशिश की, और ज़ोर से आवाज़े भी दी लेकिन मैंने कोई जवाब नहीं दिया।  आखिर वे लोग आरती के लिए चले गए और किसी तरह ये बात साईं महाराज के कानों तक पहुँच गयी और उन्होंने कहा कि वे मुझे जगाएँगे। जो भी हो,  जब आरती पूरी की जा रही थी तब मैं किसी तरह से उठा और उसके अंतिम चरण में सम्मलित हुआ।  मैं इतनी देर तक सोने के लिए बहुत शर्मिन्दा हुआ |  बाकी दिन भर भी मैं सुस्त ही रहा।


नारायण राव बामनगाँवकर आज सोलापुर से आए।  वह एक भले युवक हैं,  और मैं उनसे बातचीत करने बैठा।  फिर दोपहर में मैं दीक्षित के पुराण में सम्मलित हुआ और साईं साहेब के शाम की सैर पर दर्शन किए।  मैंने उनके दर्शन सुबह ९ और १० बजे के बीच में भी किए थे , जब वे बाहर गए थे।  शाम को भीष्म के भजन हुए और बाद में दीक्षित का पुराण भी।  उन्होंने और दिनों की तरह रामायण का पाठ किया।


जय साईं राम

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ॐ साईं राम


३० जनवरी, मँगलवार, १९१२-


मैं प्रातः जल्दी जागा किन्तु उठ कर दैनिक कार्य करना मुझे रूचिकर नहीं लगा, क्योंकि मुझे डर था कि कहीं मैं कल की तरह दिन भर सोता ना रहूँ। फिर भी दिन चढने से पूर्व उठा और अपनी प्रार्थना की और फिर बापू साहेब जोग के पास 'परमामृत' पढने चला गया। उपासनी शास्त्री, श्रीमति कौजल्गी, और बापू साहेब वहाँ थे। हमने पढने में अच्छी प्रगति की। हमने साईं महाराज के बाहर जाते हुए और फिर मस्जिद में लौटते हुए दर्शन किए। उन्होंने मुझसे पूछा कि हमने अपनी सुबह कैसे व्यतीत की? मैंने उन्हें सब बताया जो जो भी हमने किया था। दोपहर की आरती के बाद मैं लौटा और भोजन किया। उसके पश्चात मैंने बैठकर दैनिक समाचार पत्र पढा और कुछ पत्र लिखे। बाद में दीक्षित ने रामायण पढी, माधव राव देशपाँडे और बापू साहेब जोग भी पारायण में सम्मिलित हुए।


इस गाँव के कोई दो लोग और सीताराम डेंगले के छोटे भाई आए और पारायण के बाद हमने कुछ देर बातें की। उनमें से एक ने रामायण का छँद पढा। फिर हम साईं महाराज के दर्शन के लिए गए। उन्होंने पुनः मुझसे पूछा कि दोपहर में मैंने क्या किया? मैंने उन्हें बताया कि मैंने बैठ कर कुछ पत्र लिखे। वे मुस्कुराए और बोले- "बेकार बैठने से हाथ चलाना अच्छा है"।


हमने शाम की सैर के समय साईं महाराज के दर्शन किए और शेज आरती में सम्मिलित हुए। आज रात को भजन नहीं हुए, भागवत के पठन में सारा समय बीता, और दीक्षित की रामायण भी हुई।



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३१ जनवरी, बुधवार, १९१२-


मैं काँकड़ आरती के लिए समय पर उठा और उसमें नारायणराव बामनकर के साथ सम्मिलित हुआ। जब हम लौटे तब साईं महारान ने हल्के क्रोध का प्रदर्शन किया। हमने अपनी पँचदशी की जमात बापू साहेब जोग, उपासनी शास्त्री और श्रीमति कौज्लगी के साथ की, और उसका काफी भाग समाप्त किया। मैं दिन के लगभग ११ बजे अपने आवास पर लौटा और कुछ पत्र लिखे , लेकिन बिना कारण के लिखते हुए सो गया। दादा केलकर के पुत्र भाऊ ने मुझे जगाया और दोपहर की आरती के लिए मैं मस्जिद में गया। उससे पूर्व मैंने हमेशा की तरह साईं महाराज के लिए बाहर जाते हुए दर्शन किए थे।


दोपहर की आरती हमेशा की तरह सम्पन्न हुई। दादा केलकर ने दोनों वाड़ों के अतिथियों को एक साथ मेघा की १३वीं के मृत्युभोज के लिए दोपहर के भोजन के लिए बुलाया था। स्वाभाविक रूप से भोजन में देरी हुई और मैं थोड़ी देर के लिए लेट गया, गहरी नींद सोया, और उसके लिए तभी गया जब मुझे बुलाया गया। भोजन लगभग ५ बजे तक खत्म हुआ, उसके बाद मैं मस्जिद में गया और साईं साहेब के पास बैठा। वे बहुत आन्नदित भाव में थे, उन्होंने मनमोहक रूप से बात की, नृत्य किया और गाया और मुझे और दूसरे सभी को ज़ोरदार तरीके से वह याद दिलाया जो भगवान कृष्ण गोकुल में करते थे।


हमने उनके शाम की सैर के समय दर्शन किए। वाड़े की आरती के बाद भीष्म ने कुछ भजन गाए और दीक्षित ने रामायण का पाठ किया। उन्होंने उसमें से सुन्दरकाँड सम्पूर्ण किया।


जय साईं राम

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१ फरवरी, बृहस्पतिवार, १९१२-


मुझे उठने में कुछ देर तो हुई, किन्तु मैं प्रार्थना करने में और समय पर 'परमामृत' के पठन में सम्मिलित होने में सफल रहा। आज कार्य पूरा हो गया और कल हम उसमें सँशोधन करना शुरू करेंगे। फिर मैं मस्जिद गया, साईं महाराज के पास बैठा और साठे वाडा तक जाने में उनका साथ दिया। वहाँ लोग साईं महाराज को प्रणाम करने के लिए पहले से ही एकत्रित थे। मैं भी उनके समूह में सम्मिलित हो गया और साईं महाराज को नमस्कार किया, फिर बापू साहेब जोग के निवास स्थान पर जा कर पँचदशी का पाठ करते हुए पहले दस छँदो की व्याख्या की, जिनमें कि सम्पूर्ण पुस्तक का निचोड है। इसके पश्चात मैं अपने आवास पर लौटा, कुछ पत्र लिखे, उन्हें भेजा और दोपहर की आरती में सम्मिलित होने के लिए मस्जिद में गया। आरती भली भाँति सँम्पन्न हुई। अहमदनगर के श्री मानेकचँद जिन्होंने इस वर्ष वकालत की पढाई पूरी की है, यहाँ आए और पूरा दिन रूके। आरती से लौटने के बाद हमने भोजन किया। मैंने बैठ कर सखरेबा की सँपादित ज्ञानेश्वरी का पाठ किया। दुर्भाग्यवश, अन्य सँस्करणों के समान उसने मेरी मुश्किलों का समाधान नहीं किया। बाद में दीक्षित ने रामायण पढी।


शिरडी के मामलेदार श्री साने, उप जिलाधीश श्री साठे और उप प्रभागीय अधिकारी आए और कुछ देर बैठ कर बातें की। उनके जाने के बाद हमने रामायण का पाठ पुनः प्रारँभ किया, शाम को हम साईं बाबा के शाम की सैर के समय उनसे मिलने मस्जिद गए। वाडे की आरती के बाद हम शेज आरती में सम्मिलित हुए। भीष्म ने भजन नहीं गाए अपितु उन्होंने सखाराव की प्राकृत भागवत पढी। रात को दीक्षित ने रामायण पढी।

आज शाम को जब हम मस्जिद में साईं बाबा के शाम की सैर से पूर्व मस्जिद में इकट्ठा हुए थे, उस समय साईॅ साहेब ने श्रीमान दीक्षित को कहा कि वह मेरी पत्नि को दो सौ रुपये दे देवें, जो उस समय साईं साहेब के पैर धो रहीं थीं। यह निर्देश समझाया नहीं जा सकता। क्या इसका अर्थ यह है कि मुझे अपना जीवन दान के सहारे काटना पडेगा? मैं मृत्यु को इससे बेहतर समझूँगा। मुझे लगता है कि साईं साहेब मेरे अहम को नियँत्रित करके अँततः उसे नष्ट कर देना चाहते हैं। इसीलिए वे मुझे गरीबी और दूसरों के दान का अभ्यस्त बनाना चाहते हैं।*

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* मैंने १ फरवरी १९१२ को डायरी में लिखे पृष्ठ को पढा। मैंने अपनी भावनाओं को सही प्रकार से व्यक्त किया है। हमारे सदगुरू साईं महाराज ने निर्देश दिया। वे अँतरयामी थे और वे सब कुछ, यहां तक कि मेरे अँतःकरण में दबे हुए विचारों को भी भली भाँति जानते थे। उन्होंने उस निर्देश को कार्यान्वित करने को नहीं कहा। अब मेरा ध्यान इस विषय की ओर खींचा गया, मुझे ऐसा लगता है, कि उस समय मेरी पत्नि को दीनता ओर परिश्रम का जीवन पसँद नहीं था। काका साहेब दीक्षित उस जीवन को अपना चुके थे और प्रसन्न थे। इसीलिए साईं महाराज ने उन्हें मेरी पत्नि को दो सौ रुपये- 'दीनता' और 'सब्र' देने को कहा।


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२ फरवरी १९१२-


मैं काँकड आरती के लिए उठा और उसके बाद हमने अपनी पँचदशी की जमात शुरू की। किन्तु पता नहीं क्यों, मैं पहले पँचदशी के विषय में थोडा बोला और फिर उसका पठन शुरू किया। यह अपने विषय की लगभग सर्वश्रेष्ठ कृति है, उससे बेहतर और कोई नहीं है। साईं महाराज के बाहर जाने से पूर्व मैं उनका दर्शन करने के लिए मस्जिद में गया और साठे वाडा तक उनके साथ चला। इसके पश्चात दोपहर ही आरती में सम्मिलित हुआ।


आज मुझे अमरावती से एक पत्र प्राप्त हुआ जिसमें मुझे अपनी वकालत पर लौट आने के लिए कहा गया था। मैंने माधवराव देशपाँडे से साईं महाराज से आज्ञा लेने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि वह ऐसा करेंगे।


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३ फरवरी १९१२-


मुझे सुबह उठने में थोडी देर हुई, ऐसा लगता है कि वह आलस्य की लहर सी थी। बापू साहेब जोग कुछ देर से आए, श्रीमान दीक्षित भी देर से आए, और लगभग सभी अन्य लोग भी। अपनी प्रार्थना पूर्ण करने के बाद मैं मस्जिद में गया, किन्तु साईं महाराज ने मुझे कहा कि अँदर आए बिना ऊदी ले लो। मैंने वैसा ही किया, और बापू साहेब जोग के निवास स्थान की ओर बढ गया। वहाँ उनके, उपासनी और श्रीमति कौजल्गी के साथ बैठ कर पँचदशी का पठन किया। हमने दोपहर तक पाठ किया और फिर साईं बाबा की आरती के लिए चले गए। इसके बाद हमने दोपहर का भोजन किया। मैंने थोडा आराम किया और बैठ कर 'दास-बोध' का पठन किया। दोपहर को दीक्षित ने रामायण का पारायण किया। साईं महाराज के एक स्थानीय भक्त गनोबा अबा उसे सुनने के लिए आए। उन्हें अने छँदो के बारे में पता है और कई तो उन्हें कण्ठस्थ हैं।


हमने साईं महाराज के सैर पर जाते हुए दर्शन किए। माधवराव देशपाँडे ने मुझे बताया कि उन्होंने साईं बाबा से मेरे अमरावती लौटने के बारे में बात की, लेकिन उन्होंने यह कहते हुए आज्ञा देने से मना कर दिया कि " वह एक वृद्ध व्यक्ति है और अपनी 'आबरू' गवाँना पसँद नहीं करेगा।" उन्होंने कहा कि लगभग दो सौ लोग पडोसी जिले में गए और उन्हें दंगाई कह कर गिरफ्तार कर लिया गया, और माधव राव का नाम भी बेकार में ही दँगाईयों की सूची में डाल दिया गया और उसे लेकर कुछ गडबडी थी।

रात को वाडा आरती और शेज आरती हुई और मैं दोनो में सम्मिलित हुआ। भीष्म के भजन नहीं हुए अपितु उन्होंने भागवत पढी और दीक्षित की रामायण हुई।


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४ फरवरी १९१२-


प्रातः मैं जल्दी उठा, काँकड आरती में सम्मिलित हुआ और अपनी प्रार्थना पूर्ण की। जब मैं नहा रहा था तब दो लोग नारायण राव बामनगाँवकर को पूछते हुए आए। वे लिंगायत शास्त्री थे। ज्येष्ठ व्यक्ति शिवानन्द शास्त्री के नाम से जाना जाता है। उनके साथ दो स्त्रियाँ भी थीं। ये स्त्रियाँ ब्राह्मण थीं। उनमें से बडी स्त्री का नाम ब्रह्मानन्द बाई था। लगभग तीन वर्ष पूर्व वह नासिक में एक लिंगायत स्त्री से मिली जिसका नाम निजानन्द बाई था। वह एक उच्च श्रेणी की योगिनी थी। उसने ब्रह्मानन्द बाई को उपदेश दिया था।

हमने साईं महाराज के बाहर जाते हुए और फिर उस समय दर्शन किए जब वे मस्जिद लौटे। ब्रह्मानन्द बाई ने उनकी पूजा की और बडी नज़ाकत से दो आरतियाँ गाईं। दोपहर की आरती के बाद मैंने भोजन किया और कुछ देर लेटा। उसके बाद दीक्षित ने पारायण किया, फिर हम शाम की सैर के समय साईं महाराज के दर्शन के लिए गए। रात को वाडे की आरती के बाद दीक्षित का पुराण और भीष्म के भजन हुए। दोनों स्त्रियों- ब्रह्मानन्द बाई और उनकी साथी ने अति सुन्दर भजन गाए और हमने भजनों का बहुत आनन्द लिया। शिवानन्द शास्त्री ने भी गाया। शास्त्री और स्त्रियाँ नासिक से आए हैं। वे वहीं के स्थायी निवासी हैं।


जय साईं राम

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ॐ साईं राम


५ फरवरी १९१२-


आज प्रातः जैसे ही अपनी प्रार्थना समाप्त की, नागपुर से राजारामपँत दीक्षित आ गए। वह काका साहेब दीक्षित के बडे भाई हैं। वह साईं साहेब से मिलने गए। मैं अपनी पाठ की सँगत में सम्मिलित हुआ, जिसमें हमने पँचदशी का और अमृतानुभव के एक पद का पठन बापू साहेब जोग, उपासनी शास्त्री, शिवानन्द शास्त्री, ब्रह्मानन्द बाई और अन्य लोगों के साथ किया। हमने साईं साहेब के दर्शन बाहर जाते हुए और उस समय किए जब वे मस्जिद में वापिस लौटे। वे मेरे प्रति अत्यँत कृपालु थे। उन्होंने कुछ शब्द कहे, और जब आरती के बाद सब लोग विदा हो रहे थे तब मेरा नाम ले कर मुझे बुलाया, और कहा कि मुझे आलस्य त्याग कर सब स्त्रियों और बच्चों की देख भाल करनी चाहिए।


श्रीमति लक्ष्मी बाई कौजल्गी को एक रोटी का टुकडा दिया गया और कहा गया कि वह उसे जा कर राधाकृष्णा बाई के साथ खाऐं। यह एक महा प्रसाद ऐश्वर्य पाने के समान था। वह अब से हमेशा सुखी रहेंगी।


मैंने शिवानन्द शास्त्री, ब्रह्मानन्द बाई और उनके साथ के सभी लोगों को हमारे साथ भोजन करने के लिए आमन्त्रित किया। उसके पश्चात मैं कुछ क्षणों के लिए लेटा। दीक्षित ने रामायण पढी और उसके बाद हम साईं महाराज की शाम की सैर के समय उनके दर्शन के लिए गए। वाडे की आरती के पश्चात रात को शेज आरती हुई। ब्रह्मानन्द बाई ने अति सुन्दर तरीके से भजन गाए। यह कार्यक्रम आधी रात तक चला। मेरे जाने का विषय आज फिर खुला। उसके बारे में निर्णय कल होगा।


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६ फरवरी १९१२-


मैं उठा और काँकड आरती में सम्मिलित हुआ। माधवराव देशपाँडे ने कहा कि आज मुझे घर जाने की अनुमति मिल जाएगी। अतः मैं उनके और बामनगावॆँकर के साथ प्रातः लगभग ७॰३० बजे साईं साहेब के पास गया, किन्तु साईं साहेब ने हमसे कहा कि हम दोपहर को पुनः आऐं। अतः हम वापिस आ गए और मैंने अपनी दिनचर्या के कार्य शुरू किए। मैंने उपासनी और बापू साहेब जोग ने पँचदशी का पाठ किया। साईं महाराज के बाहर जाते हुए दर्शन किए, और दोपहर की आरती में सम्मिलित हुए। ब्रह्मानन्द बाई ने एक आरती और कुछ पदों का गायन किया। आज बापू साहेब जोग अपना निवृत्ति वेतन लेने कोपरगाँव गए, अतः आरती जल्दी समाप्त हो गई।


दोपहर के भोजन के बाद मैं और बामनगाँवकर मस्जिद में गए। काका साहेब दीक्षित वहाँ थे। साईं साहेब ने कहा कि हम शायद कल जाऐंगे। माधवराव देशपाँडे भी वहाँ आए। साईं साहेब बोले कि वे बहुत देर से सोच रहे थे और दिन और रात सोच रहे थे। सब चोर थे। किन्तु हमें उनसे निपटना ही था। उन्होंने कहा कि उन्होंने ईश्वर से उनके सुधार या बदलाव के लिए दिन रात प्रार्थना की, किन्तु ईश्वर ने देरी की और स्पष्ट रूप से उन लोगों के रवैये को और प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया। वे एक या दो दिन इँतज़ार करेंगे ,फिर देखेंगे कि क्या करना है। पर चाहे कुछ भी हो जाऐ वे वह ले कर ही रहेंगे जिसके लिए वे प्रार्थना कर रहे है। वे तेली या वणी के पास नहीं जाऐंगे और कभी उनसे भीख नहीं माँगेगे। लोग अच्छे और समर्पित भक्त नहीं हैं। वह मस्तिष्क से अस्थिर हैं आदि।


उन्होंने आगे कहा कि कुछ मित्र एकत्रित होंगे और दैविक ज्ञान की चर्चा करेंगे और बैठकर ध्यान करेंगे। उन्होंने कुछ हजार रुपयों का भी उल्लेख किया। परन्तु मुझे यह याद नहीं है कि उन्होंने किस सँदर्भ में वह बात की थी। इसके बाद मैं लौटा और दीक्षित ने रामायण पुराण का पठन किया। बाद में साईं महाराज की सैर के समय हम उनका दर्शन करने गए। वे अत्यँत प्रसन्नचित्त थे। श्री राजारामपँत दीक्षित आज खँडवा के लिए रवाना हो गए। उपासनी शास्त्री की पत्नि चल बसीं। यह दुखद समाचार एक पत्र से प्राप्त हुआ। मैं दीक्षित और माधवराव उपासनी के पास गए, सँवेदना प्रकट की और उन्हें वाडे में ले आए।


फकीर बाबा ने मेरे प्रस्थान के बारे में पूछा और साईं बाबा ने उत्तर दिया कि मैंने उसे कहा था कि वह कल जाएगा। जब मेरी पत्नि ने मेरे जाने के बारे में पूछा तो साईं बाबा ने कहा कि मैंने उनसे व्यक्तिगत रूप से जाने की आज्ञा नहीं माँगी, अतः वे कुछ नहीं कह सकते। मुझे इसके कुछ ही देर बाद वहाँ जाना पडा और तब साईं बाबा ने कहा कि मैं दादा भट्ट से पाँच सौ रूपये और दो सौ रुपये किसी और से ले कर, उन्हें इकट्ठा कर उन्हें दिए बिना नहीं जा सकता। रात को वाडा आरती कुछ देर से हुई, क्योंकि बापू साहेब जोग को कोपरगाँव से लौटना था। ब्रह्मानन्द बाई और शिवानन्द शास्त्री ने भजन गाए, और भीष्म ने भी।


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७ फरवरी १९१२-


मैं जल्दी उठा, प्रार्थना की और रोज़ की तरह हमारी पँचदशी की सँगत हुई। मैं साईं महाराज से अनुमति माँगने नहीं गया। हमने उन्हें बाहर जाते हुए देखा, और जब वे लौटे तब हम मस्जिद में गए। मैंने देखा कि साईं महाराज बैठे हुए थे और बाहर आँगन में एक व्यक्ति एक बँदर को उसके द्वारा सिखाई गई तरकीबों का प्रदर्शन कर रहा था। वहाँ पर एक पेशेवर गायिका और नर्तकी भी आई हुई थी। उसकी आवाज़ बहुत मधुर थी और उसने धार्मिक गानें सुनाए। बाद में ब्रह्मानन्द बाई और उसके सँगी सालूबाई और शिवानन्द शास्त्री आए। उन्होंने अर्चना की और ब्रह्मानन्द बाई ने, जिन्हें वे माईसाहेब कहते हैं, बडी ही सुन्दरता से गाया। साईं साहेब ने आसन आदि लाने का निर्देश दिया, और जब सब चीज़ों की व्यवस्था हो गई तब हम सब अपने स्थानों पर खडे हो गए। माईसाहेब ने पुनः दो भजन इतनी मधुरता से गाए कि हम सब मन्त्रमुग्ध से खडे रह गए। मुझे लगता है कि साईं महाराज को वे पसँद आए। फिर हमने रोज़ाना की तरह आरती की और दोपहर के भोजन के लिए वापिस आ गए। माईसाहेब और उनके लोगों ने मेरे स्थान पर ही भोजन किया। भोजन के उपरान्त बामनगाँवकर और माईसाहेब वापसी की अनुमति माँगने साईं साहेब के पास गए। माईसाहेब और सालूबाई को लौटने की अनुमति मिल गई और वे ताँगे से चले गए। शिवानन्द शास्त्री और बामनगाँवकर को साईं महाराज के द्वारा रोक लिया गया, और वे ठहर गए।


मैं लेटा और एक अच्छी झपकी ली। इसके बाद दीक्षित ने रामायण पढी और स्वँय मैने दासबोध का पठन किया। हम सबने साईं महाराज की सैर के समय उनके दर्शन किए। वाडा आरती के बाद हम शेज आरती में सम्मिलित हुए। रात को भीष्म ने भागवत का पठन किया और दीक्षित ने रामायण का।


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८ फरवरी १९१२-


मैं काँकड आरती के लिए उठा, और उसके बाद अपनी दिनचर्या के कार्य प्रारँभ किए। नारायणराव बामनगाँवकर को लौटने की अनुमति मिल गई। उनके पास अमरावती में देने के लिए मेरी पत्नि की ओर से दिया गया कुछ सामान भी है, और वे वास्तव में ताँगा ले कर चले गए। उनके चलने से पूर्व गणपतराव, मेरे एक सँबन्धी, खरबरी के पुत्र जो सतारा के मुतालिक हैं, मिलने आए। वे तिल सक्रान्ति के लिए तिल से बने हुए पारँपरिक उपहार लाए। इनमें बहुत कलात्मक रूप से तैयार की गई तिल और चीनी की बनी वस्तुऐं हैं।


आज तीन सप्ताह में पहली बार बलवन्त ने बाहर मस्जिद तक जाने का साहस किया, और अपना सिर साईं महाराज के चरणों में रखा। उसमें काफी सुधार हुआ है। गणपतराव चाहते थे कि मेरा पुत्र बलवन्त रँगपँचमी के लिए उनके साथ सतारा जाए। मैंने उन्हे साईं महाराज के पास भेज दिया।


दोपहर की आरती रोज़ की तरह सम्पन्न हुई, सिवाए इसके कि आरती के अन्त में साईं साहेब ने क्रोध का प्रदर्शन किया। हमने दोपहर का समय दीक्षित की रामायण पढने और मेरे दासबोध के पठन में बिताया। सुबह हमारी पँचदशी की सँगत भी हुई थी।


हमने साईं महाराज के दर्शन उनकी शाम की सैर के समय किए। कोई एक श्री कुलकर्णी बम्बई से आए हैं। उनकी एक प्रयोगशाला है जिसमें वह कच्ची धातु आदि का परीक्षण करते हैं। वे बोले कि उन्होंने मुझे १९०७ में सूरत में देखा था। हमने बैठकर पुरानी चीज़ों के बारे में बातचीत की। रात में भीष्म के भजन हुए, और दीक्षत ने रामायण पढी।


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९ फरवरी १९१२-


मैं रोज़ की तरह उठा, प्रार्थना की, और पँचदशी की सँगत में गया। इस दौरान हमने साईं महाराज को बाहर जाते हुए देखा। सामूहिक पाठ के बाद हम मस्जिद में गए। साईं बाबा बहुत प्रसन्नचित्त थे। वह युवक किष्य, जिसे हम पिष्य कहते हैं, हमेशा की तरह आया और उसे देख कर साईं साहेब ने कहा कि पिष्य अपने पिछले जन्म में एक रोहिल्ला था, कि वह एक बहुत अच्छा इंसान था, कि वह बहुत पूजा पाठ करता था और साईं साहेब के दादा के पास अतिथि बन कर आया था। उनकी एक बहन थी जो कि अलग रहा करती थी। स्वँय साईं साहेब युवा थे, उन्होंने मजाक में सुझाव दिया कि रोहिल्ला को उस से विवाह कर लेना चाहिए। ऐसा ही हुआ। रोहिल्ला ने उसके साथ अँततः विवाह कर लिया। लम्बे समय तक वह अपनी पत्नि के साथ वहाँ रहा और फिर आखिरकार उसके साथ चला गया, कोई नहीं जानता कि कहाँ। वह मर गया और साईं साहेब ने उसे उसकी वर्तमान माँ के गर्भ में डाल दिया। उन्होंने कहा कि पिष्य बहुत ही भाग्यशाली होगा और हजारों का सँरक्षक होगा।


दोपहर की आरती रोज़ की तरह सँपन्न हुई। उसके मध्य में साईं साहेब ने शिवानन्द शास्त्री से कुछ कहा और कुछ सँकेत भी दिए। दुर्भाग्यवश शास्त्री उसका अभिप्राय ग्रहण नहीं कर पाए। साईं साहेब ने बापू साहेब जोग को भी सँकेत दिए। थाने के अभिवक्ता श्री ओके भी यहाँ है I मैंने उन्हें कहा कि वे बाबा गु्प्ते और दूसरे मित्रों को मेरी याद दिलाऐं।


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ॐ साईं राम


१० फरवरी १९१२-


प्रातः मैं काँकड आरती में सम्मिलित हुआ। गणपतराव को मेरे पुत्र बलवन्त के साथ सतारा जाने की अनुमति मिल गई।उस समय माधवराव देशपाँडे उनके साथ थे। मैंने, बापूसाहेब जोग, उपासनी और श्रीमति एल॰ कौजल्गी ने हमारी पँचदशी के पाठ की सँगत की, और उसके बाद मैं मस्जिद में गया। साईं बाबा बहुत प्रसन्न चित्त थे और उन्होंने कहा कि उनकी टाँग उनके शरीर से अलग हो गई थी, कि वे अपने शरीर से तो उठ सकते हैं पर अपनी टाँग नहीं उठा सकते। उन्होंने कहा कि उनका तेली से झगडा हो गया था, कि जब वे युवा थे तब पारिवारिक उद्देश्य से उन्होंने धन कमाया और महाजन को ऋण चुकाने के लिए सहमत हो गए। पर उन्हें पता चला कि वे काम नहीं कर सकते अतः उन्होंने अपनी आँखों में भिलाँवा डाला और शरीर पर शार लगाया और बीमार हो गए। वे एक वर्ष के लिए बिस्तर पर थे, पर जैसे ही वे ठीक हुए, उन्होंने दिन रात काम किया और अपना ऋण चुका दिया।


उन्होंने बैठकर बडी मधुरता से बातें कीं पर दोपहर की आरती के समाप्त होते होते वे बेचैन दिखाई देने लगे। नासिक के अधिवक्ता श्री गडरे यहाँ हैं। मैं उनसे दीक्षित वाडे में मिला और बैठ कर बातें कीं। मैं उन्हें पहले से जानता हूँ। श्रीमान दीक्षित ने दोपहर को और रात को रामायण पढी। शाम को भीष्म के भजन हुए। गणपतराव और मेरा पुत्र बलवन्त आज अमरावती चले गए। वहाँ से वे सतारा चले जाऐंगे। हमें स्वाभाविक रूप से उनकी कमी महसूस हो रही है।


जय साईं राम

 


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