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Author Topic: माननीय श्री श्रीकृष्ण खापर्डे की शिरडी डायरी  (Read 84294 times)

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ॐ साईं राम


दिसँबर १९१५ में तृतीय यात्रा-


दादा साहेब खापर्डे अपने मित्र बाबा गुप्ते को मिलने थाने गए और वहाँ से मनमाड होते हुए २९ दिसँबर को शिरडी पहुँचे। श्रीमति खापर्डे और उनके परिवार के दूसरे सदस्य सीधे शिरडी पहुँचे। दादा साहेब को ३१॰१२॰ १९१५ को वापिस लौटने की अनुमति मिली, अतः वह अमरावती लौट गए परन्तु श्रीमति खापर्डे वहीं रह गई। खापर्डे शिरडी की यात्रा से बहुत खुश थे जैसा कि मराठी भाषा में लिखी गई उनकी जीवनी के इन उद्धरणों से पता चलता है जो कि अँग्रेज़ी भाषा में रूपाँतरित की गई-

२९ दिसँबर की प्रविष्टि-

" मैं प्रातः लगभग ३॰३० बजे मनमाड में जागा और कोपरगाँव जाने वाली गाड़ी में बैठा। मैंने गाड़ी में ही प्रार्थना की और दिन चढ़ने से पहले ही कोपरगाँव पहुँचा और वहाँ डा॰ देशपाँडे से मिला, जो कि कोपरगाँव के औषधालय में प्रभारी हैं। मैं उन्हें पहले से नहीं जानता था। मैंने उन्हें और उनके पुत्र को औषधालय तक अपनी सवारी में जगह दी और उन्होंने मुझे गर्म चाय की प्याली और कुछ खाने को दिया। वहाँ गहरा कोहरा था और मुझे उसमें गाड़ी चला कर कोपरगाँव से पहुँचने में सुबह के ९ बज गए। मेरी पत्नि और बच्चे वहाँ थे।
मैं माधवराव देशपाँडे के साथ मस्जिद में गया और साईं महाराज को प्रणाम किया। उनका स्वास्थय बहुत खराब था। उन्हें खाँसी से बहुत तकलीफ हो रही थी। मैंने पूजा के समय छत्र पकड़ा। यहाँ दिन बड़ी सरलता से कट जाता है। जी॰एम॰बूटी उर्फ बापू साहेब अपने स्वामी गुरुष्टा के साथ यहाँ हैं। काका साहेब दीक्षित, बापू साहेब जोग, बाला साहेब भाटे और सभी पुराने मित्र यहाँ हैं। और मैं बहुत ही ज़्यादा खुश हूँ। " #

# पाठकों की सुविधा और निरँतरता बनाए रखने के लिए यह पँक्तियाँ पहले जोड़ दी गई हैं।

आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰

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३० दिसँबर की प्रविष्टि-


" मैंने आज नैवेद्य अर्पित किया और पूजा की। लगभग सौ लोग नाशते के लिए आमँत्रित किए गए थे जो कि बहुत देर तक चला। असल में हम शाम ४ बजे निवृत हुए। माधवराव देशपाँडे हमेशा की तरह बहुत सहायक सिद्ध हुए। बापू साहेब बूटी का वाड़ा बहुत सुन्दर तरीके से निर्मित हो रहा है। "


३१ दिसँबर की प्रविष्टि-


" भोजन के बाद मैं माधवराव देशपाँडे के साथ गया और मुझे बिना किसी परेशानी के लौटने की अनुमति मिल गई। मेरी पत्नि, मनु ताई, उमा, और बच्चे यहीं रहेंगे। "#

१९ मई १९१७ की चौथी यात्रा-

लोकमान्य तिलक के साथ दादा साहेब खापर्डे की यह आधे दिन की लघु यात्रा अपने नेता लोकमान्य को साईं बाबा का आशीर्वाद दिलवाने के लिए ले जाने के लिए आयोजित की गई थी। साईं लीला में इसका जो विवरण मिलता है वह लगभग पूर्ण ही है।


# पाठकों की सुविधा और निरँतरता बनाए रखने के लिए यह पँक्तियाँ पहले ही जोड़ दी गई हैं।

आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰


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मार्च १९१८ की पाँचवी यात्रा-


दादा साहेब की इस अनियत शिरडी यात्रा की कोई तिथियाँ मराठी में रचित जीवनी में नहीं मिलती। तो भी अनिर्दिष्ट दिनों की इस शिरडी यात्रा का एक उद्देश्य था। दादा साहेब को होम रूल की माँग के लिए काँग्रेस शिष्टमँडल के साथ इँग्लैंड जाना था और इसी सिलसिले में वह दिल्ली आए थे। दिल्ली छोड़ने के पूर्व उन्हें सर सँकरन नायर ने बुलाया, जिन्होंने १८९७ में अमरावती में हुए काँग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता की थी, जब दादा साहेब खापर्डे स्वागत समिति के प्रमुख थे। १९१८ के आसपास सँकरन नायर भारत के वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य बने थे और उन्हें अपने द्वारा उठाए गए कदम के सही होने को ले कर कुछ सँशय था। अतः उन्होंने खापर्डे से अनुरोध किया कि वह उनके इस कदम के बारे में साईं महाराज से इस विषय में राय और परामर्श लें। जैसा कि जीवनी में दी गई इस बेतारीखी प्रविष्टि से पता चलता है-

" सँकरन नायर को देखा। वह मुझे देख कर बहुत खुश हुए और हम बहुत देर तक बैठ कर बातें करते रहे। उन्होंने मुझे अपनी तरफ से शिरडी के साईं महाराज के सामने यह प्रश्न रखने को कहा - क्या उनके लिए नौकरी में बने रहना उचित होगा। क्या आध्यात्मिक रूप से वह गलत जा रहे हैं। यदि हाँ तो क्या साईं महाराज उन्हें सही मार्ग पर डालेंगे। मैंने उन्हें वचन दिया कि मैं साईं महाराज के समक्ष यह प्रश्न रखूँगा और उन्हें लिखूँगा कि साईं महाराज क्या कहते हैं।"


आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰


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दादा साहेब खापर्डे की जीवनी के लेखक ने आगे जोड़ा है कि दादा साहेब शिरडी साईं बाबा के दर्शन और आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद अमरावती लौट गए। लेखक ने आगे लिखा है कि डायरी में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि साईं बाबा से सँकरन नायर* के बारे में किए गए प्रश्नों का क्या उत्तर था। शायद यही निश्चय किया गया होगा कि इस विषय में गोपनीयता बरती जाएगी और दादा साहेब ने वचन का पालन किया होगा। यह इस बात का उदाहरण है कि डायरी से गोपनीय बातों को जानबूझ कर निकाला गया। अब जब कि दादा साहेब की मूल डायरियाँ राष्ट्रीय लेखागार के पास हैं, इन डायरियों पर आगे अनुसँधान के लिए जाँच और निरीक्षण का इँतज़ार है।


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*श्री के॰पी॰एस॰ मेनन, आई॰सी॰एस, जो कि सॅर सँकरन नायर के दामाद हैं, उन्होंने नवँबर १९६७ में भारत सरकार के प्रकाशन विभाग के द्वारा प्रकाशित उनके श्वसुर की जीवनी में कहा है कि सॅर सँकरन नायर १९१५ मे मध्य में वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य चुने गए थे( पृष्ठ ५५ ), पर उन्होंने १९१९ के जलियाँवाला बाग के हत्याकाँड के विरोध में इस्तीफा दे दिया ( पृष्ठ१०४-१०५ )। सॅर सँकरन का योग में पक्का विश्वास था ( पृष्ठ १३३ ) और उनका मस्तिष्क धीरे धीरे धर्म की ओर मुड़ गया। २४-४-१९३४ को एक कार दुर्घटना में सिर में चोट लगने के कारण उनकी मृत्यु हो गई।


श्री वी॰बी॰खेर द्वारा लिखित प्रथम परिशिष्ट की समाप्ति


आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰�� �॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰


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शिरडी डायरी और श्रीमति लक्ष्मीबाई गणेश खापर्डे-
परिशिष्ट -२
वी॰बी॰ खेर
-


श्रीमति लक्ष्मीबाई गणेश खापर्डे श्री साईं बाबा की प्रिय और शक्तिपात प्राप्त भक्त थीं। उनके श्री साईं के साथ ऋणानुबन्ध और साईं के हाथों शक्तिपात प्राप्त करने की कथा श्री साईं सत्चरित्र के सर्ग २७ के पद १३९- १६९ में उल्लिखित है।


इसी प्रकार सर्ग ७ के पद ११०- ११० में कथा प्राप्त होती है कि किस प्रकार उनके प्लेग से ग्रस्त पुत्र की कार्मिक पीड़ा को अपने ऊपर ले कर बाबा ने उन्हें सभी चिन्ताओं से मुक्त किया था।

हम पहले इन कथाओं का वर्णन करेंगें और फिर देखेंगे कि शिरडी डायरी में इन घटनाओं का उल्लेख किस प्रकार किया गया और दूसरे अन्य विषय जिनका उल्लेख श्री साईं सत्चरित्र में नहीं मिलता, उनका विशलेषण किया जाएगा। तत्पश्चात हम उनके जीवन की रूपरेखा का उनकी मृत्यु के समय तक अनुरेखण करेंगे, जो कि पाठकों को अति हृदयग्राही प्रतीत होगी। उनका अँत ना केवल शाँतिपूर्ण था अपितु उन्हें अपने सदगुरू श्री साईं बाबा के दर्शन का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। इससे बड़ा सुख एक साईं भक्त के लिए और हो भी क्या सकता है? अब हम उनके ऋणानुबन्ध और शक्तिपात,की कथा से प्रारँभ करते हैं॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰


आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰


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एक बार दादा साहेब अपने परिवार के साथ शिरडी जो आए तो बाबा के प्रेम में सरोबार हो गए। खापर्डे कोई मामूली आदमी नहीं थे। वह अत्यँत विद्वान थे, तो भी बाबा के सन्मुख श्रद्धा से नत्तमस्तक होते थे। अँग्रेज़ी शिक्षा में निपुण, सर्वोच्च विधान परिषद और राज्य सभा में उनका प्रखर विवादी के रुप में उच्च रुतबा था और विधान सभा को वह अपनी वाकपटुता से हिला देते थे। तो भी साईं के सन्मुख वह मूक ही रहते थे। बाबा के अनेकों भक्त थे, किन्तु खापर्डे, गोपालराव बूटी और लक्ष्मण कृष्ण नूलकर ही केवल बाबा के सन्मुख चुप रहते थे। दूसरे तो बाबा से बातें करते, कुछ वाद विवाद में उलझे रहते तो कुछ जो भी उनके दिमाग में आता, बोल देते थे। किन्तु ये तीनों सदैव पूर्णतः मौन धारण किए रहते थे। बोलना तो दूर की बात है बाबा के हर कथन से उनकी सहमति होती थी। उनकी विनम्रता और ध्यान देने की शिष्टता अवर्णनीय थी।


" दादासाहेब, विद्यारण्य स्वामी द्घारा रचित पंचदशी नामक प्रसिदृ संस्कृत ग्रन्थ, जिसमें अद्घैतवेदान्त का दर्शन है, उसका विवरण दूसरों को तो समझाया करते थे, परन्तु जब वे बाबा के समीप मस्जिद में आये तो वे एक शब्द का भी उच्चारण न कर सके । यथार्थ में कोई व्यक्ति, चाहे वह जितना वेदवेदान्तों में पारँगत क्यों न हो, परन्तु ब्रह्मपद को पहुँचे हुए व्यक्ति के समक्ष उसका शुष्क ज्ञान प्रकाश नहीं दे सकता । दादा चार मास तथा उनकी पत्नी सात मास वहाँ ठहरी । वे दोनों अपने शिरडी-प्रवास से अत्यन्त प्रसन्न थे । श्री मती खापर्डे श्रद्घालु तथा पूर्ण भक्त थी, इसलिये उनका साई चरणों में अत्यन्त प्रेम था । प्रतिदिन दोपहर को वे स्वयं नैवेद्य लेकर मस्जिद को जाती और जब बाबा उसे ग्रहण कर लेते, तभी वे लौटकर आपना भोजन किया करती थी । बाबा उनकी अटल श्रद्घा की झाँकी का दूसरों को भी दर्शन कराना चाहते थे ।"- अध्याय २७, श्री साईं सत्चरित्र।


गुरू द्वारा निर्देश देने के तरीके अनेकों हैं किन्तु बाबा का तरीका अद्भुत ही था। वे अपनी कृपा वृष्टि इस प्रकार करते थे कि वह अन्तरमन की गहराई में सहज ही पैठ जाते थे।


" एक दिन दोपहर को श्रीमति खापर्डे साँजा, पूरी, भात, सार, खीर और अन्य भोज्य पदार्थ का नेवैद्य लेकर मसजिद में आई । और दिनों तो भोजन प्रायः घंटों तक बाबा की प्रतीक्षा में पड़ा रहता था, परन्तु उस दिन वे तुरंत ही उठे और भोजन के स्थान पर आकर आसन ग्रहण कर लिया और थाली पर से कपड़ा हटाकर उन्होंने रुचिपूर्वक भोजन करना आरम्भ कर दिया ।"- अध्याय २७ ।


दूसरे कई और भी नेवैद्य थे। कई इस नेवैद्य से अधिक आलीशान थे, जो दूसरे भक्तों के द्वारा प्राप्त होते थे पर घँटो तक अनछुए ही पड़े रहते थे। तब इस महिला के साथ पक्षपात क्यों? यह एक सँसारी मनुष्य का व्यवहार तो हो सकता है पर एक सँत के मस्तिष्क को यह बात किस प्रकार छू सकती है? अतः माधवराव ने बाबा को कनखियों से देखा और जानना चाहा कि बाबा ने यह भेदभाव क्यों किया?


" तब शामा कहने लगे कि यह पक्षपात क्यों? दूसरो की थालियों पर तो आप दृष्टि तक नहीं डालते, उल्टे उन्हें फेंक देते है, परन्तु आत इस भोजन को आप बड़ी उत्सुकता और रुचि से खा रहे है । आज इस बाई का भोजन आपको इतना स्वादिष्ट क्यों लगा । यह विषय तो हम लोगों के लिये एक समस्या बन गया है ।"


" तब बाबा ने इस प्रकार समझाया- सचमुच ही इस भोजन में एक विचित्रता है । पूर्व जन्म में यह बाई एक व्यापारी की मोटी गाय थी, जो बहुत अधिक दूध देती थी । पशुयोलि त्यागकर इसने एक माली के कुटुम्ब में जन्म लिया । उस जन्म के उपरान्त फिर यह एक क्षत्रिय वंश में उत्पन्न हई और इसका ब्याह एक व्यापारी से हो गया । दीर्घ काल के पश्चात् इनसे भेंट हुई है । इसलिये इनकी थाली में से प्रेमपूर्वक चार ग्रास तो खा लेने दो । ऐसा बतला कर बाबा ने भर पेट भोजन किया और फिर हाथ मुँह धोकर और तृप्ति की चार-पाँच डकारें लेकर वे अपने आसन पर पुनः आ बिराजे ।


फिर श्रीमती खापर्डे ने बाबा को नमन किया और उनके पाद-सेवन करने ली । बाबा उनसे वार्तालाप करने लगे और साथ-साथ उनके हाथ भी दबाने लगे । इस प्रकार परस्पर सेवा करते देख शामा मुस्कुराने लगा और बोला कि देखो तो, यह एक अदभुत दृश्य है कि भगवान और भक्त एक दूसरे की सेवा कर रहे है । उनकी सच्ची लगन देखकर बाबा अत्यन्त कोमल तथा मृदु शब्दों मे अपने श्रीमुख से कहने लगे कि अब सदैव राजाराम, राजाराम का जप किया करो और यदि तुमने इसका अभ्यास क्रमबदृ किया तो तुम्हे अपने जीवन के ध्येय की प्राप्ति अवश्य हो जायेगी । तुम्हें पूर्ण शान्ति प्राप्त होकर अत्यधिक लाभ होगा । आध्यात्मिक विषयों से अपरिचित व्यक्तियों के लिये यह घटना साधारण-सी प्रतीत होगी, परन्तु शास्त्रीय भाषा में यह शक्तिपात के नाम से विदित है, अर्थात् गुरु द्घारा शिष्य में शक्तिसंचार करना । कितने शक्तिशाली और प्रभावकारी बाबा के वे शब्द थे, जो एक क्षण में ही हृदय-कमल में प्रवेश कर गये और वहाँ अंकुरित हो उठे ।" -अध्याय -२७ ।


श्री समर्थ साईं इतने करूणाशील थे, दीनों के रक्षक थे। उन्होंने अपने भक्तों की इच्छाओं को पूर्ण किया और उनके हितों को सुनिश्चित किया।


आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰

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शिरडी डायरी में उपरोक्त घटनाक्रम का उल्लेख ४-३-१९१२ की प्रविष्टि में मिलता है और उसे इन थोड़े शब्दों में बताया गया है- " मेरी पत्नि को साईं साहेब की पूजा करने के लिए जाने में देर हुई, लेकिन साईं साहेब ने अत्यँत कृपा पूर्वक अपना भोजन बीच में ही रोक कर उसे पूजा करने दी। "


श्री साईं लीला के प्रारम्भिक अँकों में स्वामी साईंशरण आनन्द ने उपरोक्त घटना का उल्लेख करते हुए इस प्रकार कहा है- " बाबा के स्पर्श का अनुभव भक्तों को उस समय होता था जब बाबा उन्हें ऊदी प्रदान करते थे, या बाबा उन्हें अपने चरण स्पर्श करने या दबाने की अनुमति देते थे। यहाँ भी वे सभी को एक समान स्पर्श नहीं करते थे या करने देते थे। जब उनकी इच्छा अपने किसी भक्त को कोई निर्देश देने की होती तब वे भक्त को उसकी श्रद्धा और भाव के अनुसार ही उन्हें स्पर्श करने देते या रोकते थे। जब उनकी इच्छा माननीय श्री जी॰एस॰खापर्डे की पत्नि को 'राजाराम' का मन्त्र जाप करने का उपदेश देने की हुई तब उन्होंने ना केवल दोपहर के समय महिलाओं के मस्जिद में प्रवेश ना करने देने के नियम की अवहेलना करके उन्हें अँदर आने दिया अपितु उनके द्वारा लाए हुए नेवैद्य को स्वीकार और ग्रहण किया, तथा अपने चरण सीधे कर उन्हें दबाने की अनुमति दी तथा साथ ही साथ उनके (श्रीमति खापर्डे) के हाथ दबा कर उन्हें धीमें से कहा-" राजाराम राजाराम का जाप किया करो। "

स्वामी साईं शरण आनन्द के द्वारा इस घटना का उल्लेख यह दर्शाता है कि बाबा के हृदय में श्रीमति खापर्डे के लिए कितना सम्मान था।


आगे जारी रहेगा॰॰॰॰


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आइए अब हम श्री साईं सत्चरित्र के सातवें सर्ग में दिए उद्धरण की चर्चा करते हैं कि किस प्रकार साईं बाबा ने लक्ष्मी बाई खापर्डे को उनके पुत्र की बीमारी की चिन्ता से मुक्त किया था।


बालक खापर्डे को प्लेग


" अब मैं बाबा की एक दुसरी अद्भभुत लीला का वर्णन करुँगा । श्रीमती खापर्डे (अमरावती के श्री दादासाहेब खापर्डे की धर्मपत्नी) अपने छोटे पुत्र के साथ कई दिनों से शिरडी में थी । पुत्र तीव्र ज्वर से पीड़ित था, पश्चात उसे प्लेग की गिल्टी (गाँठ) भी निकल आई । श्रीमती खापर्डे भयभीत हो बहुत घबराने लगी और अमरावती लौट जाने का विचार करने लगी । संध्या-समय जब बाबा वायुसेवन के लिए वाड़े (अब जो समाधि मंदिर कहा जाता है) के पास से जा रहे थे, तब उन्होंने उनसे लौटने की अनुमति माँगी तथा कम्पित स्वर में कहने लगी कि मेरा प्रिय पुत्र प्लेग से ग्रस्त हो गया है, अतः अब मैं घर लौटना चाहती हूँ । प्रेमपूर्वक उनका समाधान करते हुए बाबा ने कहा, आकाश में बहुत बादल छाये हुए हैं । उनके हटते ही आकाश पूर्ववत् स्वच्छ हो जायगा । ऐसा कहते हुए उन्होंने कमर तक अपनी कफनी ऊपर उठाई और वहाँ उपस्थित सभी लोगों को चार अंडों के बराबर गिल्टियाँ दिखा कर कहा, देखो, मुझे अपने भक्तों के लिये कितना कष्ट उठाना पड़ता हैं । उनके कष्ट मेरे हैं । यह विचित्र और असाधारण लीला दिखकर लोगों को विश्वास हो गया कि सन्तों को अपने भक्तों के लिये किस प्रकार कष्ट सहन करने पड़ते हैं । संतों का हृदय मोम से भी नरम तथा अन्तर्बाहृ मक्खन जैसा कोमन होता है । वे अकारण ही भक्तों से प्रेम करते और उन्हे अपना निजी सम्बंधी समझते हैं ।"- अध्याय ७, श्री साईं सत्चरित्र।


इस घटना का उल्लेख शिरडी डायरी में दिनॉक ८-१-१९१२, १७-१-१९१२, २०-१-१९१२, ६-२-१९१२ और ८-२-१९१२ को मिलता है जिन्हें इस प्रकार सँकलित किया गया है-


८ जनवरी १९१२-
" दोपहर की आरती के बाद साईं महाराज अचानक अत्याधिक क्रोधित लगे। वे उग्र भाषा का प्रयोग भी कर रहे थे। ऐसा लगता है कि यहाँ प्लेग के फिर से फैलने की सँभावना है और साईं महाराज उसे ही रोकने का प्रयास कर रहे हैं।"


१७ जनवरी १९१२-
" बलवन्त भी उदास लग रहा था , उसने कहा कि वह शिरडी से जाना चाहता है।"


१८ जनवरी १९१२-
" मैं यह बताना भूल गया कि जब साईं महाराज क्रोध में कुछ कह रहे थे तब उन्होंने यह भी कहा था कि उन्होंने मेरे पुत्र की रक्षा की थी और कई बार यह वाक्य भी दोहराया कि "फकीर दादासाहेब (अर्थात मुझे) को मारना चाहता है पर मैं ऐसा करने की आज्ञा नहीं दूँगा। उन्होंने एक और नाम का उल्लेख भी किया परन्तु वह मुझे अब याद नहीं है।"


२० जनवरी १९१२-
" भीष्म और मेरे पुत्र बलवन्त की तबियत ठीक नहीं है।॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰आज भजन नहीं हुए क्योंकि भीष्म अस्वस्थ हैं और बलवन्त की तबियत पहले से ज़्यादा खराब है।"


६ फरवरी १९१२-
" जब मेरी पत्नि ने मेरे जाने के बारे में पूछा तो साईं बाबा ने कहा कि मैंने उनसे व्यक्तिगत रूप से जाने की आज्ञा नहीं माँगी, अतः वे कुछ नहीं कह सकते।"


८ फरवरी १९१२-
" आज तीन सप्ताह में पहली बार बलवन्त ने बाहर मस्जिद तक जाने का साहस किया, और अपना सिर साईं महाराज के चरणों में रखा। उसमें काफी सुधार हुआ है।"


आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰॰॰
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९-१२-१९११ की शिरडी डायरी से ऐसा प्रतीत होता है कि साईं बाबा श्रीमति खापर्डे को "आजीबाई" के नाम से पुकारते थे। १-२-१९१२ की एक अद्भुत प्रविष्टि प्राप्त होती है जिसकी व्याख्या जी॰एस॰खापर्डे ने १९२४ में या उसके लगभग श्री साईं लीला में शिरडी डायरी के प्रकाशन के समय एक पाद टिप्पणी में की है। यह प्रविष्टि और उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-

१-२-१९१२-
" मैंने १ फरवरी १९१२ को डायरी में लिखे पृष्ठ को पढा। मैंने अपनी भावनाओं को सही प्रकार से व्यक्त किया है। हमारे सदगुरू साईं महाराज ने निर्देश दिया। वे अँतरयामी थे और वे सब कुछ, यहां तक कि मेरे अँतःकरण में दबे हुए विचारों को भी भली भाँति जानते थे। उन्होंने उस निर्देश को कार्यान्वित करने को नहीं कहा। अब मेरा ध्यान इस विषय की ओर खींचा गया, मुझे ऐसा लगता है, कि उस समय मेरी पत्नि को दीनता ओर परिश्रम का जीवन पसँद नहीं था। काका साहेब दीक्षित उस जीवन को अपना चुके थे और प्रसन्न थे। इसीलिए साईं महाराज ने उन्हें मेरी पत्नि को दो सौ रुपये-'दीनता' और 'सब्र' देने को कहा।"


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हमें दादा साहेब खापर्डे की इस पश्च दृष्टि ( hindsight )को उद्धृत करने का मौका मिलेगा जब हम श्रीमति लक्ष्मीबाई खापर्डे की कथा को रेखाँकित करेंगे। इस रूपरेखा का स्त्रोत श्री जी॰एस॰खापर्डे के पुत्र श्री बी॰जी॰ खापर्डे द्वारा मराठी में लिखित उनके पिता की जीवनी है जो कि १९६२ में प्रकाशित की गई थी।

दादा साहेब की जीवनी में लक्ष्मीबाई खापर्डे के प्रारम्भिक जीवन के विषय में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती। हमें केवल उनके एक पत्नि, माँ और खापर्डे परिवार की गृहस्वामिनी के रूप में कुछ जानकारी मिलती है। इस विषय में कोई सँदेह नहीं है कि लक्ष्मीबाई इस तरह अर्ध शिक्षित कही जा सकती हैं कि वह पढ़ना तो जानती थीं पर लिखना नहीं। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह अशिक्षित थीं। असल में तो वह उच्च रूप से सुसँस्कृत थी। उन्होंने पढ़ा था और कीरताँकरों से रामायण, महाभारत, पाँडव-प्रताप, शिव लिंगायत आदि की कथाऐं भी सुनी थीं।


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दादा साहेब खापर्डे जी की गृहस्थी बहुत बड़ी थी और एक समय में उसमें बच्चों को छोड़ कर लगभग ५० लोग हो जाते थे। दादा साहेब और उनकी पत्नि, तीन पुत्र, उनकी पत्नियाँ, तीन अन्य परिवार जिन्हें शरण दी गई थी, लगभग १२ से १५ विद्यार्थी, जो अपनी पढ़ाई पूरा करने आते थे, दो रसोइये और उनकी पत्नियाँ, दो मुँशी, एक चौकीदार, आठ साएस जो कि घोड़ों की देखभाल करते थे, दो बैलगाड़ी चालक, एक ग्वाला, दो नौकरानियाँ, और औसतन तीन मेहमान इस गिनती में शामिल थे।

अब इतनी बड़ी गृहस्थी का सँचालन करने में लक्ष्मीबाई की चौकस आँखें सभी का समान रूप से ध्यान रखती थीं। वह बड़े छोटे में कोई भेद नहीं करती थी। वह घर के सब बच्चों के लिए जिनमें उनके अपने बच्चे भी सम्मिलित थे, खाना बनाती थीं और उन्हें खिलाती थीं। यदि कोई बच्चा बीमार हो जाता था तो वह स्वयँ उसकी देखभाल करती थीं।

एक बार निलकारी नामक व्यक्ति की जाँघ पर एक फोड़ा हो गया और साथ ही तेज़ बुखार भी। उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया। लक्ष्मीबाई उसका भोजन ले कर खुद अस्पताल जाती थीं और स्वयँ खिलाती भी थीं। उसकी बीमारी दो मॅास तक लम्बी खिंची। वह सम्पूर्ण जीवन लक्ष्मी बाई का आभारी रहा और उसने कहा-" लक्ष्मीबाई ने जो मेरे लिए किया वह मेरी अपनी माँ भी नहीं कर पाती और उनकी दया के बिना मैं जीवित नहीं बचता। "


इस प्रकार के कई उदाहरण मिलते हैं। उन्होंने स्वँय बालकृष्ण नेने की पत्नि, जिन्हें खापर्डे ने शरण प्रदान की थी, उनके लिए "दोहाले जेवान"(गोदभराई)की व्यवस्था की, वह सभी भोज्य पदार्थ जिनकी इच्छा एक गर्भवती स्त्री करती है, तैयार किए, उसे एक सुन्दर साड़ी में सजाया और उपहार भी दिए। इस सारे आयोजन में कुछ भी असामान्य नहीं था क्योंकि यह लक्ष्मीबाई के स्वभाव में सम्मिलित था।


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जी॰ एस खापर्डे की डायरी में एक प्रविष्टि में कहा गया है कि इस "दोहेल जेवान" के कारण दोपहर के भोजन में देर हुई। गृह कार्यों को पूर्ण करते हुए वे शायद ही कभी क्रोधित हुई हों, तो भी उनका एक भय सा था और अगर कभी उन्हें उकसाया गया होता तो परिवार में किसी का साहस नहीं था कि उनका विरोध कर सके।

लक्ष्मीबाई को देसी दवाईयों का भी ज्ञान था। विशेषतः पीलिया के लिए उनके पास एक अचूक दवाई थी जो उनकी सास के द्वारा उन्हें पारिवारिक परम्परा से प्राप्त हुई थी। उसकी केवल एक खुराक से पीलिया ठीक हो जाता था। यह तथ्य आस पास के इलाकों में अनेकों को पता था और औसतन तीन से चार लोग उनके पास इस दवाई के लिए आते थे और वह उन्हें धर्मार्थ ( बिना मूल्य लिए ) वितरित की जाती थी। यह औषधि परिवार में लक्ष्मीबाई के द्वारा अपनी बहू को प्रदान की गई।

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स्वभाविक रूप से लक्ष्मीबाई का दादा साहेब से विवाह बहुत छोटी आयु में ही हो गया होगा जैसा कि उस समय का प्रचलन था। उस समय उनके ससुर ब्रिटिश सरकार के राज में एक मामलेदार थे और उनके पास नाम और धन धान्य सब कुछ था। बाद में जब दादा साहेब वकील बन गए और उन्होंने वकालत शुरू की तब जल्द ही उन्होंने अपना रुतबा स्थापित कर लिया और उनकी वकालत खूब चलने लगी। अतः यह सरलता से कहा जा सकता है कि अपने पति के घर वह खुशहाली और समृद्धि के वातावरण में बड़ी हुई। साथ ही स्वभाव से वह दयालु थीं और मुक्त हस्त से खर्च करती थीं। घर में भोजन ५० लोगों के लिए और बहुतायत में बनता था और चार पाँच लोगों के लिए बच भी जाता था।

उनके बच्चे समय की रीति के अनुसार बुद्धिमान साबित हुए। वह अपने बच्चों को कभी सूती या फटे कपड़े नहीं पहनने देती थीं। वे हमेशा ९-१०" के सिल्क के बॉडर वाली धोती और सिल्क का कुर्ता पहनते थे। अगर कोई वस्त्र ज़रा सा भी फटता तो उसे नहीं पहना जाता था। दूध घड़ों के हिसाब से नापा जाता था और उसकी आपूर्ति बहुतायत में थी। घी कभी भी किसी भोज्य पदार्थ में अलग से नहीं डाला जाता था अपितु परिवार के सदस्यों और सभी नौकरों तक को तीन वटियों ( लोहे के बने कटोरों ) में हर भोजन के साथ परोसा जाता था। घर के साधारण सदस्यों तक के लिए चटपटे और मिष्ठान उच्च गुणवत्ता के ही बनाए जाते थे।


इस प्रकार की समृद्धि को भोगने के बाद जब तिलक की गिरफ्तारी के बाद दादा साहेब के भाग्यका कुछ समय के लिए थोड़ा हृास हुआ तब बदली हुई परिस्थितियों में वह अच्छे से ढल नहीं पाईं। जैसा कि हमने "शिरडी डायरी के विषय में और जानकारी " नामक लेख जो कि पहले श्री साईं लीला में छप चुका है, उसमें देखा है कि लोकमान्य तिलक पर मुकद्दमा चला और उन्हें २२-७-१९०८ को विद्रोह के आरोप में छः साल की सज़ा हुई। दादा साहेब ने अचानक १३ अगस्त को निश्चय किया कि वह लोकमान्य की रिहाई के प्रयास के लिए इँग्लैंड जाएँगे और १५ अगस्त को वह समुद्री यात्रा से इँग्लैड रवाना हो गए। इसके पश्चात दादा साहेब के बड़े पुत्र जो कि उस समय गवर्नमैंट लॅा कॅालेज बम्बई में वकालत की पढ़ाई कर रहे थे, अपनी माता को दादा साहेब की अचानक रवानगी के बारे में बता नहीं पाए और उनकी माता ने उन पर इसके बारे मे दोषारोपण किया। वह यह समझ नहीं पाईं कि समय बदल गया है।

दादा साहेब दो वर्ष से अधिक समय तक इँग्लैंड में रहे और वापस आने पर भी वह सरकार की चौकसी में ही थे। इसी लिए साईं बाबा ने उन्हें १९११-१२ में लगभग साढ़े तीन महीने तक शिरडी में ही रोक कर रखा। लक्ष्मीबाई भी दादा साहेब के साथ शिरडी में ही थीं और जैसा कि हमें श्री साईं सत्चरित्र से पता चलता है कि दादा साहेब शिरडी में लगभग चार मॅास ही रहे, और बाबा की आज्ञा मिलने पर उन्होंने वहाँ से प्रस्थान किया, परन्तु लक्ष्मीबाई वहाँ सात मॅास रहीं। अतः उन्हें परिस्थिति को समझने और उसे स्वीकारने में उन्हें लँबा समय लगा और वह स्वाभाविक रूप से उस समय प्रसन्न नहीं थीं। १-२-१९१२ को बाबा के द्वारा दीक्षित को लक्ष्मीबाई को २०० रुपये देने के लिए दिए गए निर्देश के विषय में १९२३-२४ में दादा साहेब ने जो पश्च दृष्टि दिखाई और कहा कि इसका उद्देश्य लक्ष्मीबाई को "दीनता" और "सब्र" का पाठ पढ़ाना था, उसे इसी पृष्ठभूमि और सँदर्भ में समझा जाना चाहिए।


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लक्ष्मीबाई पुष्ट और स्वस्थ थीं पर वर्ष १९२८ से उनकी सेहत खराब होनी शुरू हो गई थी। उन्हें बुखार और श्वास रोग के दौरे आते थे और साथ ही घुटनों में दर्द भी रहता था। फलतः वह चल नहीं पाती थीं। दादा साहेब की डायरी की ३०-४-१९२८ की प्रविष्टि से पता चलता है कि उन्हें तेज़ सर दर्द और बुखार था। इसके बाद उनकी सेहत तेज़ी से खराब हो गई और दवाइयों ने असर करना बँद कर दिया। उन्हें शायद आने वाले घटनाक्रम का आभास हो गया था। उन्होंने सुझाव दिया कि सपरिवार एक चित्र खींचा जाना चाहिए। ११ जुलाई १९२८ को यह चित्र खींचा गया। इसके बाद एक मर्मस्पर्शी दृश्य उत्त्पन्न हुआ, जिसे दादा साहेब के शब्दों में सही प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है। मराठी में लिखी दादा साहेब की जीवनी में जो कहा गया है, उसका अनुवाद इस प्रकार है-


" दोपहर के भोजन के एकदम पूर्व जब मैं सँध्या ( ध्यान ) पर बैठा था , तब मेरी पत्नि आई और उसने मेरी पूजा उसी प्रकार की जिस प्रकार एक मूर्ति की करी जाती है। मैं व्याकुल हुआ और मैंनें उससे पूछा कि वह ऐसा क्यूँ कर रही है जबकि उसने इतने वर्षों में ऐसा कभी नहीं किया है। उसने कहा कि- "मैं इस दुनिया से शाँतिपूर्वक तरीके से जाना चाहती हूँ।" मुझे लगता है कि क्योंकि वह बहुत दिनों से बीमार है इसलिए उसने बचने की सभी उम्मीदें छोड़ दी हैं। मैंने उसे कहा कि उसे भगवान पर भरोसा रखना चाहिए और उसकी इच्छा पर सब छोड़ देना चाहिए।"


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उपरोक्त घटना की जानकारी उनके पुत्रों एवँ उनकी पत्नियों को तब तक नहीं हुई जब तक कि उन्होंने डायरी में किए गए उल्लेख को नहीं पढ़ा। उपरोक्त घटना के बाद लक्ष्मीबाई बिस्तर से नहीं उठीं , और आठ दिन के अँदर ही अर्थात २० जुलाई १९२८ को अपने सदगुरू साईं बाबा का दर्शन पा कर शाँति और सुखपूर्वक उनकी मृत्यु हो गई। उनके अँतिम समय की जानकारी सटीक तरीके से दादा साहेब के शब्दों में उनकी डायरी में उस दिन की प्रविष्टि में प्राप्त होती है-


" मैं अपनी पत्नि को देखने नीचे गया। स्पष्ट रूप से उनकी रात अच्छी नहीं बीती थी पर वह शाँत और सँयमित लग रही थीं। मेरे बड़े पुत्र के सुझाव पर परिवार के सभी सदस्यों ने जल्दी स्नान किया और मेरी पत्नि की शैय्या के पास एकत्रित हो गए। विशेष रूप से मैं पूरे समय उनके पास ही रहा। वह जिस कमरे में थीं, वहाँ से उन्हें निकाल कर उस कमरे के सामने लेटा दिया गया जिसमें हमने अपने देवी देवता को प्रतिष्ठित किया था। धीरे धीरे उनका श्वास गहरा और गहरा होता चला गया। पर वह शाँत और स्थिर थीं और लगभग शाम ३-१५ को उन्होने अँतिम श्वास लिया। मैं कुछ समय के लिए अभीभूत हो गया और अपने पर नियँत्रण नहीं रख सका। अँततः मैंने अपने ऊपर काबू पाया॰॰॰॰॰॰ सबने कहा कि वह बहुत सौभाग्यशाली थीं कि मेरे जीवन काल में ही उनकी मृत्यु हुई।


जब हम अँतिम सँस्कार से लौटे तब मैंने अपने पुत्र के मुख से सुना कि मेरी पत्नि ने कुछ सप्ताह पहले ही अपने सब गहने और कपड़े अपनी बहुओं और उनके बच्चों में बाँट दिए थे और कहा था कि वह अपनी सारी परिसँपत्ति से मुक्त हो गई हैं और उन्होंने सभी को खुश रहने का आशीर्वाद दिया ॰॰॰॰॰कि उन्हें उनके गुरू के दर्शन हुए॰॰॰॰॰अतः मुझे लगता है कि उन्हे इस बात का पूरा आभास था कि वह जाने वाली हैं। उन्होंने कभी दवाई नहीं माँगी और ना ही ठीक होने की इच्छा ही ज़ाहिर की। उन्होंने सुखपूर्वक अँतिम श्वास ली और मुझे इस बारे में कोई सँदेह नहीं है कि वह अब बहुत बहुत खुश है। "


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