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Author Topic: बाबा की यह व्यथा  (Read 231851 times)

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Offline saib

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Re: बाबा की यह व्यथा
« Reply #180 on: February 06, 2010, 01:24:00 AM »
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  • साईं का नाम लेने से मरना कोई मरना नहीं है वोह तो मुक्ति है जनम  और मरण के बन्धनों से. हर भक्त अपने में अजब है, हर भक्त की भक्ति ग़जब है . किसी की भी किसी के साथ कोई भी तुलना नहीं की जा सकती . कोई बस साईं साईं करना चाहता है, कोई बस साईं की ही मूरत निहारना चाहता है, कोई साईं के गुणगान ही हर पल करना चाहता है, कोई बस साईं की लीलाओं में ही खो जाना चाहता है , साईं तो अजब है ही उनके पूरण भक्त भी कम नहीं !

    साईंसेविका जी, इतने अद्भुत शब्दों में अपनी प्रीत व्यक्त करते हुए आप हमें भी कुछ समय के लिए जैसे साईं के चरण कमलों से जोड़ देती है . धन्य है आपकी लेखनी . साईं आपकी सभी समरथ कामनाओं को पूरण करें, और आपके माध्यम से हमें अपनी पावन मूरत की अनुभूति कराते रहे  !

    ॐ श्री साईं राम!
    om sai ram!
    Anant Koti Brahmand Nayak Raja Dhi Raj Yogi Raj, Para Brahma Shri Sachidanand Satguru Sri Sai Nath Maharaj !
    Budhihin Tanu Janike, Sumiro Pavan Kumar, Bal Budhi Vidhya Dehu Mohe, Harahu Kalesa Vikar !
    ........................  बाकी सब तो सपने है, बस साईं ही तेरे अपने है, साईं ही तेरे अपने है, साईं ही तेरे अपने है !!

    Offline saisewika

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    Re: बाबा जी के भक्त-8
    « Reply #181 on: February 08, 2010, 11:39:20 AM »
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  • ॐ साईं राम

    दासगणु जी महाभक्त थे
    भक्तों के भक्तार
    साईं की महिमा पहुँचाई
    हर घर में हर द्वार

    गणपत्त राव दत्तात्रेय
    ये असली था नाम
    कार्यरत थे पुलिस बल में
    रक्षा का था काम

    नानासाहेब चाँदोरकर के सँग
    शिरडी धाम को आते थे
    बाबा जी का प्रेम और आशिष
    दोनो ही वो पाते थे

    नाच और गाना प्रिय था उनको
    पुलिस की नौकरी के साथ
    गाँव जिले की नौटँकी में
    खुश हो कर लेते थे भाग

    परख लिया था बाबाजी ने
    गणपतराव की क्षमता को
    लेकिन गणपत्त समझ ना पाए
    साईं नाथ की ममता को

    बाबा जी चाहते थे, गणु जी
    छोड दें अब पुलिस का काम
    प्रभु को जीवन अर्पण करके
    पाँवें श्री चरणों मे स्थान

    परम देव ने लीला रच कर
    उनको खींचा अपनी ओर
    आशिष पा कर बाबा जी का
    'दासगणु' जी हुए विभोर

    त्यागपत्र दे दिया उन्होंने
    छोड दिया था पुलिस का काम
    साईं नाम का कीर्तन करते
    घूमें गणु जी ग्राम ग्राम

    अलख जगाई साईं नाम की
    बहुत किया गुण गान
    शब्दों के मोती चुन चुन कर
    रचना करी महान

    एक दिवस निश्चय किया
    दासगणु ने आप
    प्रयाग स्नान कर पाएँ तो
    होंगे वो निष्पाप

    देवा की आज्ञा लेने वो
    पहुँचे द्वारका माई
    बाबा जी की मधुर सी वाणी
    उनको पडी सुनाई

    इधर उधर क्यूँ व्यर्थ भटकते
    मुझ पर करो विश्वास
    प्रयाग काशी सारे तीरथ
    पाओगे मेरे पास

    दासगणु ने साईं चरणों में
    श्रद्धा से शीश नवाया
    गँगा जमना की धारा को
    श्री चरणों में बहता पाया

    भक्ति भाव से रोमाँचित हो
    रोए 'गणु' बेहाल
    "साईं स्त्रोतस्विनी" उनके मुख से
    प्रवाहित हुई तत्काल

    साईं नाम की ध्वजा को
    पकड कर अपने हाथ
    भवसागर से पार गए
    भजते 'गणु' साईं नाथ

    जय साईं राम

    Offline saisewika

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    Re: बाबा की यह व्यथा
    « Reply #182 on: February 12, 2010, 04:51:00 PM »
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  • ओम साईं राम

    शिवरात्रि के अगले दिन
    झील के किनारे टहलने गई
    तो बाबा को पहले से ही वहां बैठा पाया
    आंखे मली, चुटकी काटी
    खुद को ही यकीं ना आया

    करीब गई, ध्यान से देखा
    हां मेरे प्यारे साईं ही थे
    मेरे राम, मेरे देव
    मेरे कृष्ण कन्हाई ही थे

    दण्डवत प्रणाम किया
    पर बाबा ने ना ध्यान दिया
    फिर रूखे स्वर में बाबा बोले
    वैसे तो तुम साईं नाम का दम भरती हो
    पर जो मुझे रूचते नहीं
    वो काम क्यूं करती हो?

    हाथ जोडकर मैंने पूछा
    मुझसे क्या कुछ भूल हो गई?
    मेरी कैसी करनी आपकी
    शिक्षा के प्रतिकूल हो गई?

    बाबा बोले गलती करके भी
    तुम्हें उसका अहसास नहीं
    यकीन जानो अभी तुम्हें
    साईं नाम का अभ्यास नहीं

    कल तुम शिव पूजन के लिए
    मन्दिर गई थीं
    याद करो तुमने एक नहीं
    गलतियां करी कई थीं

    मन्दिर के बाहर एक भूखा बालक
    मां का हाथ थामें रोता था
    एक और मां के आंचल में
    भूखा ही सोता था

    तुम उन्हें देख कर भी
    आगे बढ गई
    दूध की थैली लिए
    तुम मन्दिर की सीढियां चढ गई

    शिवलिंग पर तुमने
    पंचामृत और दूध चढाया
    और सोचा अपने कर्मों के खाते में
    एक और पुण्य बढाया

    अगर तुम उन भूखे बच्चों को
    दूध पिलाती
    और शिवलिंग पर
    भक्ती भाव का तिलक ही लगाती

    तो भी भोले बाबा
    उसे स्वीकार करते
    तुम्हारे दिल में दया है
    इसलिए तुम्हें प्यार करते

    पर तुम निर्दयी ही नहीं
    क्रूर भी थी
    खुद को बडा भक्त समझने के
    अहंकार में चूर ही थीं

    इसीलिए तुम लाईन तोड
    गलत तरीके से आगे बढी
    एक वृद्धा को धक्का मारा
    और उसके पैर पर चढी

    दर्द से वो कराही
    पर तुमने ना ध्यान दिया
    कई भक्तों को पीछे छोडा
    इस जीत पर भी अभिमान किया

    तुम क्या सोचती हो
    तुम्हारी पूजा स्वीकार होगी
    पूजा का आडम्बर करके
    तुम भवसागर से पार होगी

    तुम्हे लगता है
    भक्ती मर्ग पर चलना बहुत आसान है
    नहीं, इस पर चलना
    पतली सुतली पर चलने के समान है

    पग पग पर
    गड्डे हैं,खंदक है, खाई है
    ज़रा सी भूल
    और पतन की गहराई है

    मुझ तक पहुंचने के लिए
    बीच का कोई रास्ता नहीं
    या तो तुम्हारा इस माया से
    या मुझसे कोई वास्ता नहीं

    इसलिए या तो तुम
    मेरे नाम का दम मत भरो
    या फिर पूरे मन से ही
    मुझे याद करो

    तुम्हे बार बार समझाने
    तुम्हारे पास आता हूं
    क्यूंकि अपना नाम लेने वालों को
    मैं बहुत चाहता हूं

    संभलो, जीवन को यूं ना
    बेकार करो
    दुखियों का दर्द समझो
    प्राणीमात्र से प्यार करो

    अगर तुम ये सीधा सच्चा
    रास्ता अपनाओगी
    नि: संदेह अपने बाबा को
    एक दिन अपने सन्मुख पाओगी

    जय साईं राम
     

    Offline saisewika

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    साईं मेरे वैलन्टाइन
    « Reply #183 on: February 15, 2010, 09:31:35 AM »
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  • ॐ साईं राम

    कल वैलन्टाइन डे पर
    बाबा की मूरत के आगे
    सिर झुकाया
    तो बाबा जी को
    मँद मँद मुस्कुराते हुए पाया

    बाबा ने अपने
    सुन्दरतम लब खोले
    और प्रेम से होले होले
    ये बोले
     
    "लगता है आज फिर
    प्रेम दिवस आया है
    इसीलिए तुमने
    लाल गुलाब का फूल
    चढाया है"
     
    मैनें कहा बाबा आपने
    बिल्कुल ठीक पहचाना है
    असल में मुझे आपको
    अपना वैलन्टाइन बनाना है
     
    क्या आप मेरा
    वैलन्टाइन बनोगे?
    और मेरी झोली
    ढेर सारे प्रेम से भरोगे?

    बाबा ने कुछ सोचा
    और मुस्कुरा कर कहा
    असल में मेरे दिल में भी है
    किसी का वैलन्टाइन बनने की चाह

    पर क्या तुम वो लाई हो
    जो सब अपने वैलन्टाइन को देते हैं
    और बदले में उनका
    ढेर सा प्रेम पा लेते हैं?

    वो मँहगे चाकलेट,
    दिल की आकृति के गुब्बारे
    गुलदस्ते और कार्ड
    और गिफ्ट्स ढेर सारे

    मैनें कहा- नहीं बाबा
    मैं ये सब तो नहीं लाई हूँ
    आपको अपना वैलन्टाइन बनाने
    मैं खाली हाथ ही आई हूँ

    पर मेरे दिल में
    श्रद्धा और सबूरी है और प्रेम का भाव है
    और सच बताऊँ मुझे हर दिन
    आप को अपना वैलन्टाइन बनाने का चाव है

    ये कहते हुए मेरा कँठ रूँध गया
    आँखों में आसूँ भर आए
    बाबा के चरणों में मैने
    आँसुओं के फूल चढाए

    बाबा बडे प्रेम से बोले
    पगली-----
    मुझे इसी प्रेम भाव की ही
    दरकार है
    मैं अपने सब भक्तों का
    वैलन्टाइन हूँ
    मुझे अपने सब प्रेमी भक्तों से
    बेपनाह प्यार है

    जय साईं राम

    Offline drashta

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    Re: बाबा की यह व्यथा
    « Reply #184 on: February 15, 2010, 10:12:12 AM »
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  • Om Sai Ram.

    Dear Saisewika ji, thanks much for such beautiful verses! You made my day. Lately, I've been thinking that Baba does not love me. But your poem conveyed His message. Thank you.

    Love, and regards,
    Om Sai Ram.

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: बाबा की यह व्यथा
    « Reply #185 on: February 18, 2010, 12:12:28 AM »
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  • जय सांई राम।।।
     
    सदैव की भांति अति सुन्दर,  सुरेखा बहन की वैलेन्टाईन दिवस की अति उतम कृति...

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline saisewika

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    बाबा जी के भक्त - 9
    « Reply #186 on: February 18, 2010, 01:08:55 PM »
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  • ॐ साईं राम

    राधाकृष्णा माई जी
    परम भक्त थी बाबा की
    शिरडी ही उनकी काशी थी
    शिरडी ही उनका काबा थी

    २५ वर्ष की आयु में वो
    शिरडी धाम पधारी थी
    भक्ति भाव अटूट था उनमें
    पर किस्मत की मारी थी

    सुन्दरा बाई नाम था असली
    दुनिया का कुछ ज्ञान ना था
    अति रुपवान थी वो पर
    रँग रूप का मान ना था

    सतरह वर्ष की आयु में ही
    विवाह हो गया था उनका
    लेकिन उनके भाग्य में
    प्रणय बँध का सुख ना था

    आठ दिवस पश्चात विवाह के
    विधवा हो गई नार नवेली
    दुख का सागर उमडा उन पर
    दुनिया में रह गई अकेली

    मोह भँग हो गया था उनका
    चैन कहीं ना पाती थी
    परम ईश को लगी ढूँढने
    शहर शहर वो जाती थी

    यूँ हीं ढूढती सदगुरू अपना
    पहुँची थी वो शिरडी धाम
    साईं नाथ का दरस जो पाया
    आहत रूह को मिला आराम

    अँतरयामी बाबा जी ने
    हाल सभी था जान लिया
    "राधामाई" कह कर पुकारा
    और 'शाला' में स्थान दिया

    अगले दस बरस तक भक्तिन
    भूली अपना नाम ग्राम
    केवल साईं नाथ की सेवा
    बस ये ही था उनका काम

    जिन जिन रस्तों से बाबा जी
    गुज़रा करते थे दिन में
    'माई' उनको झाड बुहार
    स्वच्छ करती थी पल छिन्न में

    चावडी में सोने की जब
    बाबा की बारी होती थी
    राधा माई उस दिन जतन से
    द्वारकामाई को धोती थी

    राधामाई की प्रेरणा से ही
    गठित हुआ था साईं सँस्थान
    धीरे धीरे दस दिश गूँजा
    शिरडी धाम का पावन नाम

    साईं सँस्थान की हर इक वस्तु
    राधामाई ने सँजोयी थी
    साईं की सेवा में "राधा"
    मीरा बन कर खोई थी

    निःस्वार्थ यूँ सेवा करती
    राधाकृष्णा माई जी
    अँतरँग भक्तिन कहलाई
    साईं सर्व सहाई की

    दस वर्ष पश्चात अचानक
    उन्नीस सौ सोलह में वो
    परम ईश को प्रिय हो गई
    परम नींद में गई वो सो

    निष्काम भक्ति का प्रतीक बना
    राधाकृष्णा माई का जीवन
    अर्पण करके साईं नाथ को
    पाया अमोलक साईं नाम धन

    जय साईं राम


    Offline saisewika

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    मोहभँग
    « Reply #187 on: February 22, 2010, 02:37:10 PM »
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  • ॐ साईं राम

    तुझसे अब ये दूरियाँ
    मुझसे सही ना जाती
    मोहिनी माया जगत की
    पग पग पर भरमाती

    माया साँपिन बन चढी
    जकडा सकल शरीर
    सुख पाने की चाह में
    भटकी बनी अधीर

    जग के जँतर मँतर में
    भूली अपनी राह
    कितने विषम विकार ओढे
    ईर्ष्या, द्वेष और ढाह

    विषय सुखों से मोहित हो
    छिटकी तुझसे दूर
    आशा,तृष्णा मान में
    मैं तो हो गई चूर

    राग रँग में मस्त हुई
    समय गँवाया व्यर्थ
    श्रद्धा, भक्ति, प्रेम के
    समझ ना पाई अर्थ

    मेरे 'मैं" ने ढाँप लिया
    परम ईश का ज्ञान
    तेरा रूप ओझल हुआ
    बिसरी तेरा नाम

    धीरे धीरे सुख सारे
    बने गले की फाँस
    जग के नाते रिश्तों से
    पाया कटुतम त्रास

    मोहभँग सब हो गया
    गई आत्मा चेत
    मन उचटा सँसार से
    जैसे उड जाए रेत

    पश्चाताप के आँसू से
    भरे मेरे दो नैन
    तुझे ढूँढने निकली मैं
    पाऊँ कहीं ना चैन

    पत्ता गिर कर डाल से
    सूखे और मुरझाए
    ऐसे तुझसे बिछड कर
    भक्त नहीं जी पाए

    क्षमा करो हे नाथ जी
    मेरे पाप के कर्म
    तुझसे बिछड, वियोग का
    जाना मैनें मर्म

    तू तो परम दयालु है
    क्षमाशील करतार
    प्रेम पगी सुदृष्टि से
    अब तो मुझको तार

    मानुष जीवन बीत रहा
    बन कर दिन और साल
    महा मृत्यु के आने से
    पहले मुझे सँभाल

    निज भक्ति का दान दे
    माँगूँ ना कुछ और
    तुझसे निकटता पाऊँ मैं
    श्री चरणों की ठौर

    जय साईं राम

    Offline saib

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    Re: बाबा की यह व्यथा
    « Reply #188 on: February 23, 2010, 01:40:46 AM »
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  • मित्र परिजन लगे बेगाने
    जब मन हुए साईं दिवाने
    मन न रमता अब कही और
    जब न मिलती साईं की ठोर
    गिरते पड़ते भागे साईं की और
    साईं बोले मेरा भक्त यूंह परेशान
    क्या है चिंता  लो विराम
    ले आंसू अखियों में
    गिर पड़ा साईं चरणों में
    साईं माया बहुत सताती है
    बहुत प्रलोभन दिखाती है
    रूप बदल कर आती है
    साईं से दूर कर जाती  है .
     
    साईं मुस्कुराये बोले
    ओह नादाँ , क्यों भटके
    साईं को कहाँ खोजे
    में तो घट घट का वासी
    माया को भी रूप मेरा जान
    जो साईं को द्रेत कर जाने
    माया उन्हें सताती है
    पर जो साईं को पहचाने
    माया ही तो उनको मुझ तक लाती है .

    अब मन शांत हुआ
    द्रेत भाव साईं का दूर हुआ
    साईं ही तो हर रूप मे
    मन से तड़प ख़तम हुई
    अनुतरित था जो प्रशन सदियों से
    खोज वोह ख़तम हुई .

    माया फिर आई पर अब अग्न शांत थी
    हर बार वोह मुस्कुराती थी
    और सताती थी
    पर अब जो भक्त मुस्कुराया
    माया पहले तो हैरान हुई
    फिर मुस्कुराई और बोली
    अच्छा तो साईं ने तुम्हे ज्ञान दिया
    मेरे हर रूप में साईं विराजे
    यह तुमने जान लिया
    बस बदल गया जीवन
    माया संग न अब बेगाना था
    हर रिश्ता साईं अक्स
    साईं का ही गाना था .
    om sai ram!
    Anant Koti Brahmand Nayak Raja Dhi Raj Yogi Raj, Para Brahma Shri Sachidanand Satguru Sri Sai Nath Maharaj !
    Budhihin Tanu Janike, Sumiro Pavan Kumar, Bal Budhi Vidhya Dehu Mohe, Harahu Kalesa Vikar !
    ........................  बाकी सब तो सपने है, बस साईं ही तेरे अपने है, साईं ही तेरे अपने है, साईं ही तेरे अपने है !!

    Offline saisewika

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    बाबा जी के भक्त -१० मेघा जी
    « Reply #189 on: February 25, 2010, 05:46:02 PM »
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  • ॐ साईॅ राम

    मेघा नामक गुजराती ब्राह्मण
    विरम गाँव का रहने वाला
    निर्धन और निरक्षर था पर
    शिव भक्त था भोला भाला

    साठे जी के घर रहता था
    रसोईया था बडा गुणवान
    गायत्री मँत्र तक बोल ना पाता
    पर भक्ति की था वो खान

    पहली बार उन्नीस सौ नौ में
    शिरडी धाम में आया था
    लेकिन तब बाबा का आशिष
    उसको मिल ना पाया था

    सुना था उसने रस्ते में कि
    साईं नाथ जी हैं यवन
    भोला ब्राह्मण कर ना पाया
    भक्ति भाव से उन्हें नमन

    मेघा के दिल की दुविधा को
    बाबा ने जाना तत्काल
    क्रोधित हो गए साईं, उस को
    द्वारकामाई से दिया निकाल

    दुखी हृदय से मेघा पहुँचा
    नासिक के त्रयम्बकेश्वर धाम
    डेढ वर्ष तक रहा वहाँ पर
    शिव का भजता रहता नाम

    अगले वर्ष उन्नीस सौ दस में
    मेघा शिरडी वापस आया
    दादा केलकर के आग्रह पर
    बाबा ने उसको अपनाया

    लगा मानने बाबा को वो
    भोले शँकर का अवतार
    सेवा करने को साईं की
    हर दम रहता वो तैय्यार

    शिरडी के सब देवालयों में
    वो सुबह सवेरे जाता था
    फिर साईं की पूजा करके
    फूला नहीं समाता था

    एक बार सक्राँति के दिन
    अभिषेक कराने बाबा को
    गोदावरी का जल लाने को
    आठ कोस तक चला था वो

    भोले भक्त के भाव जान कर
    बाबा ने भी आग्रह माना
    पटिया पर बैठा बाबा को
    करने लगा अभिषेक दिवाना

    बाबा बोले सुन लो मेघा
    जल तुम मुझ पर ऐसे डालो
    शरीर ना गीला होने पाए
    थोडा अपना हाथ सँभालो

    लेकिन मेघा भाव विह्वल था
    हर हर गँगे कह कर वो
    गागर पूरी उडेल साईं पर
    भक्ति रस में गया वो खो

    फिर गागर को एक ओर रख
    देखी उसने अदभुत लीला
    देह सूखी थी बाबा जी की
    सिर्फ हुआ था सिर ही गीला

    बाबा की सेवा में मेघा
    खोया रहता था दिन रात
    परम कृपालु साईं ने उस पर
    किया आलौकिक 'शक्ति पात'

    काँकण, मध्याह्न और शेज आरती
    साईं सर्व सहाई की
    तीनो मेघा ही करता था
    भक्ति बनी सुखदाई थी

    १५ जनवरी उन्नीस सौ बारह को
    उसको थोडा ताप चढा
    विघ्न पडा पूजन अर्चन में
    ताप ना उतरा, और बढा

    अँतरयामी साईं नाथ ने
    अन्त उसका था जान लिया
    अब ना मेघा बच पाएगा
    देवा ने ऐलान किया

    १९ जनवरी उन्नीस सौ बारह का
    दिन आया बडा दुखदायी
    प्रातःकाल ४ बजे मेघा ने
    छोडे प्राण, परम गति पाई

    उसका मृत शरीर जो देखा
    फूट फूट कर रोए साईं
    हाथ फेरते थे शरीर पर
    रूदन करते सर्व सहाई

    "सच्चा भक्त था मेरा मेघा"
    ये कह कर साईं रोते थे
    सगा संबंधी गया हो वैसे
    धीरज अपना खोते थे

    अति प्रिय होते हैं भक्त
    परम पूज्य भगवान को
    मानव सम रोए थे साईं
    बतलाने इस ज्ञान को

    धन्य धन्य थे कर्म भक्त के
    साक्षात ईश्वर को पूजा
    जनम सफल हुआ उसका, उस सम
    बडभागी कोई और ना दूजा

    जय साईं राम

    Offline saisewika

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    साईं के सँग होली
    « Reply #190 on: February 27, 2010, 03:37:11 PM »
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  • ॐ साईं राम

    आओ हिलमिल होली खेलें
    साईंनाथ के संग
    भक्ति भाव में रंग ले खुद को
    रंगे साईं के रंग

    श्रद्धा की पिचकारी थामें
    सबुरी का हो गुलाल
    तज के सब दुर्भावना
    रंगे साईं के लाल

    आचार रँग लें,विचार रँग लें
    रँग ले सब व्यवहार
    भक्ति भाव में रँग लें आओ
    अपना घर सँसार

    चलो होलिका दहन में डालें
    काम, क्रोध, मद, मान
    भस्म करें पावन धूनि में
    छल, कपट,अज्ञान

    तन को रंग ले मन को रंग लें
    रंग लें दिल और जान
    साईं नाम की भंग चढा लें
    भूलें सकल जहान

    प्रेमगंग में सरोबार हो
    झूमें तेरी तरंग में
    होली आए होली जाए
    रंगे रहें तेरे रंग में

    जय साईं राम

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    काश अगर साईं होता ऐसा
    « Reply #191 on: March 04, 2010, 07:38:31 AM »
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  • ॐ साईं राम


    काश अगर साईं होता ऐसा
    मन अभिलाषी सोचे जैसा

    आ जाते तुम मेरे द्वारे
    दर्शन पाती तेरे प्यारे

    निरख निरख तुझको ना थकती
    अखियाँ रहती टुक टुक तकती

    कभी देखती घर मैं अपना
    सच है या कोई है सपना

    हाथ पकड तुम्हें भीतर लाती
    सुख आसन पर तुम्हें बैठाती

    श्री चरणों को धो कर देवा
    पाँव दाब कर करती सेवा

    फिर पूजा का थाल सजाती
    चँदन धूप दिया और बाती

    अक्षत, कुमकुम, सुँदर हार
    बडे यतन से कर तैय्यार

    करती पूजा बडे भाव से
    नैवेद्य बनाती अति चाव से

    सांजा, उपमा, खीर और खिचडी
    छाछ, भात और पूरन पोली

    जो व्यँजन मेरे देव को भाते
    पलक झपकते वो बन जाते

    फिर मैं तुमको भोग लगाती
    बडे प्रेम से तुम्हें खिलाती

    लौंग, इलायची, पान सुपारी
    अर्पण करती तुम्हें मुरारी

    तकिये पर कुहनी को टेक
    कहते सब का मालिक एक

    श्री मुख से शुभ वचन सुनाते
    देवा अध लेटे हो जाते

    पलकें दिखतीं थोडी भारी
    निद्रा की होती तैय्यारी

    फिर मैं कहती देवा मेरे
    विश्राम करो अब भक्त के डेरे

    शेज आरती गाकर स्वामी
    तुम्हें सुलाती अँतरयामी

    अहो भाग्य मेरा ये होता
    जग का स्वामी सुख से सोता

    काश अगर कहीं ऐसा होता
    काश अगर कभी ऐसा होता

    जय साईं राम
    « Last Edit: March 04, 2010, 07:43:00 AM by saisewika »

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    सपने की सीख
    « Reply #192 on: March 10, 2010, 01:18:07 PM »
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  • ॐ साईं राम

    कल रात सपने में देखी
    साईं लीला न्यारी
    साईं माँ के घर जनमी मैं
    बनके बेटी प्यारी

    साईं माँ की गोदी में मैं
    निश्चित पडी थी सोती
    पल भर भी मैया जाती तो
    सुबक सुबक मैं रोती

    मेरे दिन और रात जुडे थे
    साईं माँ के साथ
    उन्हें काम करने ना देती
    थामे रहती हाथ

    साईं मैया जी ने सोचा
    इसका एक उपाय
    मुझे ले बाज़ार गईं और
    खिलौने कई दिलाए

    काठ की सखियाँ,काठ के साथी
    नन्हें बरतन, चूल्हा,
    छोटी प्यारी सुन्दर चीज़ें
    काठ का सुन्दर दूल्हा

    साईं मैया लगी काम में
    यूँ मुझको बहला कर
    मैं भी उनसे लगी खेलने
    भूली माँ का आँचल

    इतने में मेरी आँख खुल गई
    सपना मेरा टूटा
    सुन्दर खेल खिलौने और
    साईं माँ का आँचल छूटा

    उठ कर देखा ठीक सामने
    बाबा को बैठा पाया
    श्री चरणों में झुक कर मैंने
    श्रद्धा से शीश नवाया

    उत्साहित हो नाथ को मैंने
    अद्भुत स्वप्न सुनाया
    श्री मुख से तब बाबा जी ने
    ये मधुर वचन फरमाया

    क्या अर्थ है स्वप्न का आओ
    मैं तुमको समझाता हूँ
    बद्ध जीव और जीवन का मैं
    सार तुम्हें समझाता हूँ

    याद है तुमको स्वप्न में मैंने
    खिलौने कई दिलाए थे
    कैसे तुमको उलझाने को
    माया जाल फैलाए थे

    तुम भी उनको पा कर कैसे
    फूली नहीं समाई थी
    खेल खिलौनों में तुम डूबी
    याद ना मेरी आई थी

    ऐसे इस दुनिया में आकर
    जीव भूलते हैं मुझको
    मैं जो रचता माया उसमें
    उलझा लेते हैं खुद को

    सोने के पिंजरे में पँछी
    सुख सुविधा को पा कर के
    खुद को ना वो बद्ध समझता
    दाना दुनका खा कर के

    ऐसे जब तक मोक्ष की इच्छा
    मन में किसी के जागे ना
    बँधन को बँधन ना समझे
    मोह माया से भागे ना

    तब तक इस दुनिया में उसका
    आना जाना होता है
    ऐसे जनम जनम तक प्राणी
    मानव देह को ढोता है

    बाबा बोले - तुम पर है
    तुम इसको जैसा भी मानो
    माया में ही खुश रह लो
    या फिर इसको बँधन जानो

    पर अन्ततः आत्म मिलेगा
    परमात्मा से आकर
    जैसे नदिया बह कर मिलती
    महा समुद्र में जाकर

    ये कह कर बाबा जी प्यारे
    मँद मँद मुस्काए
    सपना दिखला कर माया के
    सभी भेद समझाए

    जय साईं राम


    Offline saisewika

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    धूनि माँ की महिमा
    « Reply #193 on: March 25, 2010, 11:00:46 AM »
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  • ॐ साईं राम

    इस बार द्वारकामाई में जाकर
    धूनि माँ के सन्मुख सिर झुकाया,
    तो उन्हे अपने से ही
    बात करते हुए पाया

    पिछले डेढ सौ साल से जलती धूनि ने
    मेरे माथे को हल्के से छुआ
    तो जैसे बाबा के स्पर्श का
    मधुर सा आभास हुआ

    यूँ ही अपने ताप को
    फैलाते होले होले
    धूनि माँ ने अपने
    जीवन के भेद खोले

    अपनी सुर्ख लपटों को
    हल्के से लहरा कर
    धूनि माँ बोली
    अपनी गर्मी को गहरा कर

    याद है मुझे आज भी वो दिन
    जब बाबा ने अपनी योग शक्ति से
    मुझे जलाया था
    फिर हर दिन सुबह और शाम
    मैनें प्रेम बाबा का पाया था

    बाबा अक्सर लकडियाँ डालते हुए
    मेरे सामने बैठ जाते थे
    कभी आसमान की ओर देखते,
    कभी श्री मुख से वचन फरमाते थे

    साईं प्रतिदिन भिक्षा में
    जो कुछ भी पाते थे
    सर्वप्रथम उसकी आहूति
    मेरी ज्वाला में चढाते थे

    फिर हवा में चमकीली चिंगारियाँ
    छोडते हुए धुनि माँ ने बताया
    कैसे समय ने उन्हे
    साईं की लीलाओं का साक्षी बनाया

    एक बार दशहरे के दिन बाबा
    क्रोधित हुए किसी बात पर
    भक्तों को लगा कि क्रोध
    शाँत ना होगा रात भर

    बाबा ने अपने सभी वस्त्र
    क्रोधित हो कर फाड डाले
    और मेरी अग्नि की लपटों के
    कर दिए हवाले

    इस आहूति को पा मेरी लपटें
    दुगुनी धधक पडी थी
    बाबा की क्रोधाग्नि और मेरी ज्वाला
    मानों एक साथ बढी थीं

    धीरे धीरे बाबा शाँत हुए
    और पुनः प्रेम बरसाया था
    सब भक्त जनों ने मानो
    नव जीवन सा पाया था

    एक दिवस मैने भी
    बाबा की लीला देखने का मन बनाया
    और अपनी लपटों को तेज कर
    ऊपर की ओर बढाया

    अपनी ज्वाला को
    धीरे धीरे बढा कर
    जैसे मैने छू ही लिया
    द्वारकामाई की छत को जा कर

    अन्तरयामी साईं ने क्षण भर मे
    मेरी इच्छा को था जान लिया
    और अद्भुत लीला दिखला कर
    उस इच्छा को था मान दिया

    बाबा ने अपने सटके से चोट की
    द्वारकामाई की दीवार पर
    मेरी लपटें शाँत होने लगी
    सटके की हर मार पर

    साठ बरस में ना जाने
    कितनी ही बार
    बाबा की लीलाओं का
    पाया था मैनें साक्षात्कार

    एक अग्निहोत्र की तरह बाबा ने
    मुझे जीवन भर प्रज्जवलित रक्खा था
    और मेरी ही राख से उपजी 'ऊदि' का
    भक्तों ने कृपा प्रसाद चक्खा था

    बाबा से किसी भक्त ने
    पूछा था एक बार
    सदैव धूनि जलाए रखने का
    क्या है आधार?

    तब साईं नाथ ने
    श्री मुख से जो फरमाया था
    उसने भक्त जनों मे
    मेरा महत्व बढाया था

    बाबा ने कहा था-
    धूनि की पावन अग्नि
    कर्मों और विकारों को जलाती है
    और जीवन में जो भी है,क्षणभंगुर है
    यह एहसास कराती है

    अग्नि वस्तु और कुवस्तु में
    भेद नहीं जताती है
    जो भी उसके सँपर्क में आए
    उसे सम ताप ही पहुँचाती है

    समस्त वेद पुराण भी
    धूनि की महिमा गाते हैं
    देवता भी अपना नैवेद्य
    अग्नि के द्वारा ही पाते हैं

    धूनि की अग्नि में भस्म हो
    जो कुछ भी बच जाता है
    उसी का तो हर साईं भक्त
    महा प्रसाद पाता है

    फिर गर्म साँस को
    हवा में छोड कर
    अपनी पावन लपटों से मानों
    हाथों को जोड कर

    धूनि माँ ने साईं नाथ को
    प्रणाम किया
    और मुझे आशिष देते हुए
    अपनी वाणी को विश्राम दिया

    मैंनें भी मँत्र मुग्धा हो
    धूनि माँ की महिमा को जाना
    साईॅ उनके माध्यम से जो कहना चाहते थे
    उस सच को पहचाना

    लोबान डालते हुए मैनें
    धुनि माँ को प्रणाम किया
    जीवन की एकमात्र सच्चाई
    'ऊदि' का प्रसाद लिया

    धूनि माँ से प्रेरित हो कर
    मैने भी अपने ह्रदय में
    साईं नाम की धूनि जलाई है
    कोशिश करती हूँ उसमें
    अपने विकारों की आहूति दूँ,
    यही शिक्षा तो मैनें धूनि माँ से पाई है

    जय साईं राम

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    अनगिनत सवाल
    « Reply #194 on: March 30, 2010, 09:02:22 AM »
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  • ॐ साईं राम


    कई बार सोचती हूँ साईं
    आपकी भक्ति के पथ पर
    मेरी स्थिति कैसी है,
    मेरा क्या स्थान है?
    भक्ति का स्तर कैसा है?
    क्या कोई आत्मज्ञान है?

    आपने मुझे किस प्रकार
    स्वीकार किया है?
    अधम, साधारण या उत्तम
    किस श्रेणी में स्थान दिया है?

    क्या आपने मुझे
    तात्या की तरह अपनाया है?
    या फिर म्हालसापति की तरह
    मैनें आपके दरबार में स्थान पाया है?

    क्या मुझे शामा की तरह
    आपसे रूठने का अधिकार है?
    क्या खुशालचँद की तरह
    आपको इस भक्त से भी विशेष प्यार है?

    क्या लक्ष्मीबाई शिंदे की तरह
    आप मेरा नेवैद्य भी करते हैं स्वीकार?
    क्या राधाकृष्णामाई की तरह,महाप्रसाद पाने का
    मुझे भी है अधिकार?

    क्या भीमाजी पाटिल की तरह
    मेरे गत कर्मों को आपने नष्ट कर दिया है?
    क्या मेघा की तरह
    मेरी पूजा को भी आपने स्वीकार किया है?

    क्या सपटणेकर की तरह मेरे
    दुविधाग्रस्त संशय से आप परेशान हैं?
    क्या हाजी सिद्दीकी की तरह
    मेरे अहँ को देख कर आप हैरान हैं?

    मद्रासी भजनी मँडली के मुखिया की तरह
    मेरी सकाम भक्ति, क्या आपको कष्ट पहुँचाती है?
    इतने ढेर सवालों से बोझिल डगमग भक्ति
    क्या मेरे नाथ को भाती है?

    इन सब प्रश्नों का उत्तर देने को साईं
    एक बार तो आपको सामने आना ही होगा
    अपनी कृपा वृष्टि से देवा
    भक्तिन को नहलाना ही होगा

    जिस दिन आप हे नाथ
    इन प्यासे नैनों के सन्मुख आओगे,
    अपने सुमधुर आशिष से
    मेरी आत्मा को सहलाओगे

    उस दिन स्वामी मिट जाऐंगे
    भ्रम, सँशय और सवाल
    जग की ठगिनी माया के
    सभी कटेंगे जाल

    उस दिन हर सँदेह,
    हर प्रश्न बेमानी हो जाएगा
    शुभ दर्शन से मोहित ये मन
    चिर विश्राँति को पाएगा

    जय साईं राम

     


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