Join Sai Baba Announcement List


DOWNLOAD SAMARPAN - Nov 2018





Author Topic: साईनाथ का निजकर - मेरे साईनाथ मेरे साथ हमेशा है ही - मन को तसल्ली !  (Read 3166 times)

0 Members and 1 Guest are viewing this topic.

Offline suneeta_k

  • Member
  • Posts: 25
  • Blessings 0
  • Shirdi Sai Baba
हरि ओम

ओम कृपासिंधु श्रीसाईनाथाय नम:

साईनाथ का निजकर - मेरे साईनाथ मेरे साथ हमेशा है ही - मन को तसल्ली ! 

हेमाडपंत बहुत ही विनयपूर्वक हमे बतातें हैं कि मेरे सिर पर मेरे सदगुरु श्रीसाईनाथ का निजकर था इसिलिए श्रीसाईसच्चरित यह एक महान अपौरूषेय ग्रंथ का निर्माण हो सका, इस में  मेरा खुद का कोई भी बडपन नहीं हैं । मेरे सिर पर मेरे साईबाबा ने अपना निजकर रखा , इतना ही नहीं बल्कि वो यह बात की पुष्टी भी करवातें हैं यह लिखकर -
‘साधु संत अथवा श्रीहरि। किसी श्रद्धावान का हाथ पकड़कर
अपनी कथा स्वयं ही लिखते हैं। अपना हाथ उसके सिर पर रखकर॥


श्रीसाईनाथ ने हेमाडपंतजी को भले ही ग्रंथ लिखने की अनुमति दी थी पर स्वंय यह बात भी कही थी कि-
‘मेरी कथा मैं ही कथन करूँगा। मैं ही भक्तेच्छा पूरी करूँगा।
इस कथा से अहं-वृत्ति दूर हो जायेगी। टूटकर बिखर जायेगा अंहकार मेरे चरणों में॥

‘‘बस्ता रख दो यही ठीक होगा। उसे मुझसे पूरी सहायता मिलेगी।
वह तो है केवल निमित्त-मात्र। लिखूँगा मेरी कथा मैं ही।’’

बाबा कहते हैं कि इस चरित्र से हम मानवों के अहंकार का पूर्ण रूप से नाश हो जायेगा। जब उस मनुष्य के अहंकार का पूर्ण रूप से नाश हो जाता है, तब उसका ‘मैं’ खत्म होकर वहाँ पर केवल परमात्मा का ‘मैं’ ही होता है।

साईनाथ कहते हैं-
मनुष्य की अहंवृत्ति जब नष्ट हो जाती है। तब उस मनुष्य का कर्तापन भी खत्म हो जाता है।
‘मैं’ ही तब ‘मैं’ संचार करता हूँ। मेरे ही हाथों लिखूँगा मैं।


यही साईबाबा ने कही हुई बात हेमाडपंतजी ने सिर्फ सुनी नहीं थी बल्कि  पूरी तरह महसूस भी की थी याने श्रीसाईबाबा के "सुनना" शब्द का अर्थ अपने जीवन में भी प्रवाहित किया था - साईबाबा ने कहा , मैंने सुना और वही बात पर गौर फर्माकर मैंने मेरे आचरण में भी लाने की कोशिश की । पूरे श्रीसाईसच्चरित में हेमाडपंत यही सच बात बार बार दोहराते रहतें हैं कि यह ग्रंथ स्वंय श्रीसाईबाबा ने मुझे अपनी कलम बनाकर लिखवाया है मुझसे , मेरे हाथ तो सिर्फ निमित्त मात्र लिख रहे थे किंतु साईबाबा की कथा खुद उन्होंने ही लिखी है ।

पहले तो श्रीसाईसच्चरित बहुत बार पढा था तब यह बात सही मायने में समझ में नहीं आती थी , लगता था कि साईबाबा स्वंय बता रहें हैं -
मनुष्य की अहंवृत्ति जब नष्ट हो जाती है। तब उस मनुष्य का कर्तापन भी खत्म हो जाता है।
‘मैं’ ही तब ‘मैं’ संचार करता हूँ। मेरे ही हाथों लिखूँगा मैं।

 इसका मतलब क्या है , अगर साईबाबा ने ही ग्रंथ लिखा है तो साईबाबा ने हेमाडपंतजी को अपना चरित्र लिखने की अनुमति भी दी ऐसा भी पढने में आता है , अगर साईबाबा ने ग्रंथ स्वंय ही लिखा तो हेमाडपंत अपने आप को लेखक नहीं बता सकतें । पर आज एक लेख पढकर वह उलझन आसानी से सुलझ गयी ।       
http://www.newscast-pratyaksha.com/hindi/shree-sai-satcharitra-adhyay2-part18/

मानव के सिर पर परमात्मा के निज-कर का होना इसका अर्थ क्या है?

परमात्मा का हाथ जहाँ पर है वहाँ पर वे परमात्मा संपूर्णत: होते ही हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि मेरे भगवान सदैव मेरे साथ होते ही हैं, यह भाव रखना ही परमात्मा का निज-कर कहलाता है। भले ही फ़िर वे हमें दिखाई दे अथवा न दिखाई दें, ‘वे’ वहाँ पर होते ही हैं।

यह भाव हेमाडपंत में रोम रोम में बसा हुआ था , इसिलिए अद्याय ४० में हम पढतें हैं कि साईबाबा ने सपने में सुंदर संन्यासी रूप में आकर दर्शन देकर बताया कि आज होली पूर्निमा के दिन मैं तुम्हारे घर भोजन के लिए आ रहा हूं  , तो हेमाडपंतजी ने पूअपनी बीबी न मानने पर भी उसे समझा बुझाकर खाना जादा पकाया , राह भी देखी और बाबा के तसबीर रूप में आनेको स्वंय बाबा मानकर खुशी भी मनाई थी ।     

यह उपर बताये गए लेख में लेखक महोदय ने बहुत सरल बात कही है कि -
परमात्मा का  निज-कर वैसे तो हर एक जीव के सिर पर होता ही है, लेकिन श्रद्धाहीन मानव को परमात्मा के उस निज-कर का एहसास नहीं होता है; वहीं यह एहसास जिस मनुष्य को हो जाता है, उसका जीवन धन्य हो जाता है।

हर एक मनुष्य के सिर पर इस परमात्मा का निजकर सदैव होता ही है यह बात हमें विश्वास दिलाता हैं कि परमात्मा कहो या भगवान होता हैं और वह मेरे साथ ही होता हैं ।

लेकिन इस बात का हम गलत इस्तेमाल करें और अपने काम से मुंह मोड ले या अपना काम छोडकर भगवान के सहारे हाथ पर हाथ धरे बिना काम के बैंठे रहूं , तो यह बात बिलकुल गलत हैं ।     
लेखक महाशय इस बात को हमें आम जिंदगी के किस्से सुनाकर समझातें हैं -
अगर कोई इंसान गलती से या जान बूझकर काम करने से अपने आप को छिपा रहा हैं और कह रहा है कि जब साक्षात् परमात्मा ने मेरे सिर पर निजकर रखा ही है तो फ़िर मेरा क्या काम? यदि परमात्मा का निजकर मेरा हर एक उचित कार्य करने वाला है तो फ़िर मुझे मेहनत क्यों करनी है?

हम इंसान अगर गलत बात को अपनाकर यह कहें कि मैं स्कूल में न जाकर घर पर ही बैठूँगा तो मेरा पेपर स्कूल में लिख लिया जायेगा (मेरा भगवान लिखेगा या लिखवाये गा )अथवा मैं बिलकुल भी पढ़ाई किए बिना ही जाऊँगा और तब भी मैं अपना पेपर व्यवस्थित रूप में लिखूँगा? मेरे थाली को छुए बगैर ही खाना अपने आप ही मेरे मुँह में जायेगा? तो ये बातें होने से रह गयी ।

लेखक महोदय स्पष्टता से बतातें हैं कि ऐसा कदापि नहीं होगा। क्योंकि सदैव कार्यरत रहनेवाले भगवान को मानवों की ओर से केवल उस मानव के द्वारा किये जाने वाले प्रयासों की एवं परिश्रम की अपेक्षा रहती है और किसी भी उचित कार्य के लिए परिश्रम करना यही पुरुषार्थ है।

जिस पल मेरा परिश्रम शुरू होता है, तब यह निज-कर कार्यशील (अ‍ॅक्टीव ) हो जाता है। जब मैं अपना परिश्रम रोक देता हूँ उसी क्षण वह निज-कर साक्षी बन जाता है। जब पुन: मेरा परिश्रम शुरू होता है उस क्षण अ‍ॅक्टीव हो चुका यह निज-कर फ़िर मुझे हर एक कार्य में उचित मार्गदर्शन देकर मेरा हर एक कार्य सुफ़ल एवं संपूर्ण बनाता है। और फ़िर जब मैं स्वयं अभ्यास करता हूँ, व्यवस्थित रूप में स्कूल जाता हूँ, तब मुझे मेरी पढ़ाई में मदद करने से लेकर, परीक्षा के समय मेरा पेपर पूरा करवाकर मुझे उत्तीर्ण करने की जिम्मेदारी यह निज-कर ही उठाता है। मैं जब उचित मार्ग पर चलकर परिश्रम करके पैसा कमाता हूँ, तब मुझे यही निज-कर कभी भी भूखा नहीं रखता।

चोलकरजी की कथा हमें दिखलाती है कि साईबाबा को मन्नत मांगने के बावजूद वो  साईबाबा देख लेगा , वो ही मुझे परीक्षा में पास करवायेगा ऐसी गलतफहमी में फंस नहीं जाते । वो अपनी पढाई करतें हैं , परीक्षा भी दे देतें हैं और फिर साईबाबा की कृपा से वो परीक्षा में पास  भी हो जातें हैं । यहां पर चोलकरजी के सिर पर साईबाबा का निजकर था ही और उन्हेम उस बात का एहसास भी था ।

वहीं दूसरी कथा रघुनाथराव और सावित्रीबाई तेंडूलकर का लडका बाबू वैद्यकीय पाठशाला में पढता है फिर परीक्षा देने से मना कर देता है । उसके पिता- माता साईबाबा साईबाबा के भक्त है और सावित्रीबाई अपनी इस परेशानी को लेकर  साईबाबा के पास आतीं हैं ।  साईबाबा उसके बच्चे को अपनी बातों से विश्वास दिलातें हैं कि मैं हू तुम्हारे साथ, जोतिषी के बातों पर यकीन मत करना । पर परीक्षा देने तो (तुम्हे )जाना ही होगा ।  बाबू विश्वास रखकर पहली परीक्षा दे देता है और फिर विश्वास गंवाकर फिर घर बैठ जाता है । फिर साईनाथ उसे परिचित व्यक्ती द्वारा संदेश देकर फिर से परीक्षा में जाने को प्रेरीत करतें हैं ।
   
इन दो कथाओं से हमें यह बात समझ में आती हैं कि मेरे भगवान सदैव मेरे साथ होते ही हैं, यह भाव रखना ही परमात्मा का निज-कर कहलाता है। भले ही फ़िर वे हमें दिखाई दे अथवा न दिखाई दें, ‘वे’ वहाँ पर होते ही हैं।
 
ओम साईराम

धन्यवाद
सुनीता करंडे


 


Facebook Comments