जय सांई राम।।।
मनुष्य होना भाग्य है तो मां होना सौभाग्य
हमारे पुराणों में ऐसा बताया गया है कि देवतागण मनुष्य का जन्म पाने के लिए तरसते थे। तभी, कभी राम तो कभी कृष्ण, कभी बुद्ध तो कभी बाबा का रूप लेकर वे इस धरती पर आए। मनुष्य होने से संभावनाओं के द्वार खुलते हैं। मनुष्य होना कई अवसरों को जन्म देता है। परन्तु जो हमें मनुष्य का रूप या जीवन या कोई भी रूप या जीवन देती है, वह है माँ- जिसके माध्यम से मनुष्य को मनुष्य होने का अवसर मिलता है। जिसके माध्यम से मनुष्य होने का भाग्य मिलता है। इसीलिए माँ होना सौभाग्य है। यही कारण है कि आशीर्वाद में सौभाग्यशाली होने का आशीर्वाद स्त्रियों को ही मिलता है, पुरुषों को नहीं। पुरुष सौभाग्य की अर्थात माँ होने की विशालता तक पहुँच ही नहीं सकता। जिस पीड़ा से गुजर कर स्त्री, माँ बनती है वह क्षमता और दम पुरुष में नहीं। कहते हैं, इंसान दो बार जन्म लेता है। एक बार माँ की कोख से और दूसरी बार अंतर्प्रज्ञा से- अर्थात आत्मिक बोध से। परंतु माँ तीन बार जन्म लेती है। प्रजनन के दौरान केवल शिशु का जन्म नहीं होता, स्वयं माँ का भी पुनर्जन्म होता है।
माँ होना एक उपलब्धि है। माँ होने के बाद स्त्री, स्त्री-पुरु ष के भेद से ऊपर उठ जाती है। एक शरीर की भौतिक सीमा से बाहर निकल आती है। उसके लिए उसका बच्चा उसके शरीर का हिस्सा होता है। उसका हृदय वात्सल्य, दया, करुणा, ममता आदि से भर जाता है। उसका स्वयं का जीवन गौड़ हो जाता है। उसके सारे सुख, सारी खुशियां बच्चों से जुड़ जाती हैं। पुरुष पिता होने के बाद भी पुरुष रहता है, लेकिन स्त्री माँ होने के बाद सिर्फ स्त्री नहीं रह जाती- वह पालनहार हो जाती है। उसका विस्तार हो जाता है।
माँ है तो मकान घर बनता है। घर में रीति- रिवाज तीज-त्योहार सांस लेते हैं। देखा जाए तो माँ घर की धुरी है, जिस पर सभी कुछ टिका होता है। माँ की भूमिका में रिश्ते बनते, पलते और संवरते हैं। माँ सबको जोड़ना जानती है, ममता और प्रेम से सबको एक परिवार में सींचना जानती है। माँ है तो एक भीड़ परिवार बन जाती है। माँ न हो तो उस भीड़ को झुण्ड बनने में देर नहीं लगती।
माँ स्वयं में एक पूर्ण संस्था है, जहाँ बच्चा न केवल स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है, बल्कि जीने का सलीका भी सीखता है। एक उम्र के बाद बच्चा भले ही माँ से दूर हो जाए, लेकिन माँ के लिए वह कभी दूर नहीं होता। मां उस कुम्हार की तरह है जो दोनों हाथों से बर्तनों को संवारती है। यदि उसे एक हाथ पीटता है, तो दूसरा बचाता भी है। उसकी पिटाई में भी बर्तनों को सु-आकार देने की कोशिश छिपी होती है। माँ स्वयं की परवाह किए बिना खुद को मिट्टी में सानकर बच्चे को सुंदर साफ संस्कार युक्त जीवन देने में लगी रहती है।
पिता के लिए घर-परिवार, रिश्ते-नाते, बच्चों का पालन-पोषण, यह सब कर्तव्य जैसा है, जिम्मेदारियों जैसा है। चाहे वह मन से ये कर्तव्य निभाए या बेमन से। वह करता है, क्योंकि उसे करना है। मां कुछ करती नहीं, उससे वह सब कुछ होता जाता है। करने और होने में अंतर है। अगर वह करे, तो वह आया हुई, मां न हुई।
मां अपने भाव के कारण मां होती है। मां समपिर्त है और समर्पण में ही उसे आनंद और संतुष्टि मिलती है। मां गुणों की खान है। ममता-करुणा आदि भावों को वह कहीं से सीखती नहीं, ये तो उसके ममत्व के साथ ही संलग्न होते हैं। जैसे फूल के साथ खुशबू। जैसे दूध के साथ उसकी सफेदी। इस दुनिया में क्रूर से क्रूर समझे जाने वाले लोगों ने भी माँ की ममता की दिव्यता को महसूस किया है। नादिर शाह कहता था, मुझे माँ और फूल में कोई फर्क नहीं नजर आता।
( 13 मई, इंटरनैशनल मदर्स डे पर सभी माँओं को सभी संतानों की ओर से हार्दिक शुभकामनायें)
ॐ सांई राम।।।