जय सांई राम।।।
YES! My dear Brother Joshi, every one goes through this phase in life. Don't feel ashamed or any guilt in it. Its all natural. Don't try to suppress it. I will suggest you to keep on doing what you are doing. Let you satiate your lust to the fullest till you know its futility. Don't take anybody's words. If you are serious you will definitely know its futility and a day will come on its own when it will open your wisdom. Meditate on BABA and HE will come to your rescue. Again I am telling you don't feel ashamed or feel any guilt in it. I must say and appreciate that you are very bold person that you have openly confessed it in this forum. Very few people can do this. I can tell you this very confession will prove to be greatest asset and help you in controlling this habit.
मेरे भाई मै ज्यादा तो नही बस इतना ज़रूर कंहूगा कि आप बहुत हिम्मत वाले है कि आप इस फोरम में अपनी कमज़ोरी को कह रहे है। इस बात से यह पता चलता है कि आपको चरित्र का बोध है क्योंकि वह बोध ही आपको बता रहा है कि चरित्र में कोई खटकने वाली बात है, कोई चीज़ खटक रही है। नही तो आपको बोध होता कैसे? क्योंकि बीमारी का बोध होता है; स्वास्थ का बोध नही होता। जैसे मैने उपर कहा है एक बार फिर कंहूगा कि आप बिलकुल सही मार्ग पर है बाबा आपको ज़रूर राह दिखायेगे। समय का सदुपयोग करना सीखो और जीवन को एक कला। रोज़ सुबह बाबा की श्रध्दा का दीप जिसमे सबूरी की बाती हो जलाओ ऐसा करते करते बाबा के आर्शीवाद से आपका जीवन बाबामयी होने लगेगा और आपके पास इन सब फालतू की बातों का समय ही नही होगा।
"O Shirdi Sai Nath, Give him the guidance to know when to hold on and when to let go and the Grace to make right decision with dignity"
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
जय सांई राम।।।
एक प्रवचन कल सुना। उसका सार था- आत्म-दमन। प्रचलित रूढि़ यही है। सोचा जाता है कि सबसे प्रेम करना है, पर अपने से घृणा करनी है। स्वयं अपने से शत्रुता करनी है, तब कहीं आत्म-जय होती है। पर यह विचार जितना प्रचलित है, उतना ही गलत भी है। इस मार्ग से व्यक्तित्व द्वैत से टूट जाता है और आत्म-हिंसा की शुरुआत हो जाती है। और हिंसा सब कुरूप कर देती है।
मनुष्य को वासनाएं इस तरह से दमन नहीं करनी हैं, न की जा सकती हैं। यह हिंसा का मार्ग धर्म-मार्ग नहीं है। इसके परिणाम में ही शरीर को सताने के कितने विकसित रूप हो गये हैं। उनमें दिखती है तपश्चर्या, पर वस्तुत: हिंसा का रस, दमन और प्रतिरोध का सुख- यह तप नहीं है, आत्मवंचना है।
मनुष्य को अपने से लड़ना नहीं, अपने को जानना है। पर जानना, अपने को प्रेम करने से शुरू होता है। अपने को सम्यक रूपेण प्रेम करना है। न तो वासनाओं के पीछे अंधा हो कर दौड़ने वाला अपने से प्रेम करता है और न वासनाओं से अंधा हो कर लड़ने वाला अपने से प्रेम करता है। वे दोनों अंधे हैं और पहले अंधेपन की प्रतिक्रिया में दूसरे अंधेपन का जन्म हो जाता है। एक वासनाओं में अपने को नष्ट करता है, एक उनसे लड़कर अपने को नष्ट कर लेता है। वे दोनों अपने प्रति घृणा से भरे हैं। ज्ञान का प्रारंभ अपने को प्रेम करने से होता है।
मैं जो भी हूं, उसे स्वीकार करना है, उसे प्रेम करना है। और इस स्वीकृति और इस प्रेम में ही वह प्रकाश उपलब्ध होता है, जिससे सहज सब-कुछ परिवर्तित हो जाता है- एक संगीत का और एक शांति का और एक आनंद का- जिनके समग्रीभूत प्रभाव का नाम आध्यात्मिक जीवन है।
"O Shirdi Sai Nath, Give him the guidance to know when to hold on and when to let go and the Grace to make right decision with dignity"
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।