सांई राम।।।
सुख कहां है?--कुछ विचार
मन में आ रहे अनेक विचारों को व्यक्त करने के प्रयास में पता नहीं कितना मैं अर्थपूर्ण सही लिख पा रहा हूँ आप सब भी अपने अपने विचार रखें।
सुबह उठ कर खिडकी से बाहर का दृश्य मन में एक नयी स्फ़ूर्ति भर देता है। हरे पेड और झिलमिलाते पत्तों के बीच से झांकती सुनहरी किरण। ऐसी नैसर्गिक अद्भुत छवि मन के किसी कोने में जा कर हमेशा के लिये कैद हो जाती है। क्यों मन होता है खुश सुबह की लालिमा को महसूस कर और कहीं शाम की लालिमा देख उस सौन्दर्य में भी दुख के पुट का अभास सा होता है? उगने और डूबने में फ़र्क होता है मगर क्यों होती हैं दोनो ही दृश्यों में समानता? जीवन के हर मंच पर ऐसे विरोधाभास लिये हुये समान दृश्य क्यों प्रकट होते रहते हैं? क्या नहीं है मृत्यु भी कहीं जन्म के समान ही? दार्शनिक शेक्स्पीयर ने जीवन की व्याख्या करते हुये बुढ़ापे को शैशव के साथ जोड दिया है। इसी सुबह से शाम और जन्म से मृत्यु के बीच खेल खेले जाते हैं, चमत्कार गढ़े जाते हैं और लीलायें रची जाती हैं। आधे भरे तश्तरी को आधा खाली भी कहा जाता है और जिया जाता है जीवन सुख की खोज में। उस आधी खाली तश्तरी को भरने की कोशिश में सारा जीवन बीत जाता है। सुख का मोती ढूंढने की कोशिश में हर सीप को खोल कर देखते हैं हम। वो सीप हमें नहीं मिलता है। क्यों? कहां चूक जाते हैं हम? सच ज़्यादा गूढ नहीं, अगर ये समझ लें कि खुशी हम में ही बंद है, हमारा सच्चा साथी तो हमारा मन है, हम खुद हैं, तो खुशी हमारे पास ही होगी हमेशा।
बाबा कहां ऐसे ही सहायता करता है? बिना उसको समझे, जाने, माने। बिना उसको दोस्त बनाये कंहा संभव कि हम अपने आप से मित्रता करें। उसके लिये तो हमे वो हमारे 'हम' से मिलाता है जिससे कारण हम ही होते हैं जो अपने को सहारा देते हैं और कठिन समय को पार करते हैं, हम खुद। दर्द मनुष्य को पवित्र करता है। नहीं मानता मैं। पवित्र नहीं शक्ति देता है। समझाता है कि अपने में डूब जाओ, ये सुख कहीं और नहीं तुम में है, ये दर्द, ये दुख सिर्फ़ तुम्हारी अंदर की शक्ति को बढाने के लिये है। हम क्यों करते हैं पूजा? क्यों बार बार बाबा से मांगते हैं अपनी मुराद? इन्सान अपनी इच्छाओं के वश मे जो होता है। इच्छायें रखना पाप नहीं, इच्छाओं को पूरा करना भी गलत नहीं, मनुष्य जाति में जन्म ले कर इच्छायें रखना तो स्वाभाविक है और सन्यासी भला कौन हुआ है? मगर इच्छाओं का पूरा न होना भी एक सत्य हो सकता है। तब घुटने टेक, गिड़गिडा़ना कितना ठीक है? कमज़ोर बन कर मांगने से अगर इच्छायें पूरी हो जाती हों तो कर्म का क्या? कर्म कर के भी फ़ल मिलेगा ये कोई ज़रूरी नहीं। मगर भाग कर छुपना, गिड़गिड़ाना, प्रार्थना में हल मांगना क्या कमज़ोरी नहीं? क्या करे कोई तब? जीये, खुल के जीये, कौन जानता है कि सच आत्मा मरती है या नहीं? शायद अमर हो मगर कहां इस ज़िन्दगी की बातें याद रखेगा कोई अगले जन्म तक। खुल के जीयें, इच्छायें पूरी न हों तो दुख भी जीयें। जीवन तो एक रेखाचित्र है। जब उतार आया है तो चढाव भी आयेगा और आज चढाव है तो कल उतार भी हो सकता है। तभी तो ये जीवन है। मगर क्यों अच्छे आदमी भी दुख सहते हैं और बुरे आदमी खुश रहते हैं? और अच्छा कौन है और बुरा कौन? क्या परिभाषा है अच्छे और बुरे की? आज इतना ही...बाद में कभी फिर...
ॐ सांई राम।।।