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Author Topic: निष्ठा ओर श्रधा का महत्व  (Read 27427 times)

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Offline Pratap Nr.Mishra

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  • राम भी तू रहीम भी तू तू ही ईशु नानक भी तू
Re: आप अपना पता दीजिये
« Reply #30 on: February 23, 2012, 12:18:26 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    आप अपना पता दीजिये

    गौरतलब सामाजिक नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा केंद्र
    अज्ञात लेखक

    एक व्यक्ति स्वामी विवेकानंद के प्रवचनों से बहुत प्रभावित हुआ .जब सभी लोग चले गए तो
     वह स्वामी जी के पास गया और  बोला -' लगता है  आपकी ईश्वर तक पहुँच है, क्या आप मुझे ईश्वर तक पहुंचा सकते है या उनका पता बता सकते है ?'

    इस पर विवेकानंद ने कहा -'आप अपना पता लिखकर दे दीजिये जब भी ईश्वर को फुरसत होगी तो आपके घर भेज दूंगा.'

    उसने तुरंत एक कागज पर अपने घर का पता लिख डाला और स्वामी जी को थमाते हुए बोला-'जरा जल्दी ही  भेजिएगा.'

    स्वामी जी ने उसे ध्यान  से पूरा  पढ़ा, पढने के बाद बोले- ' ये तो आप अपने ईंट-पत्थर से बने मकान का पता दे रहे है,आप  अपना पता दीजिये की आप कौन है ?कहाँ है? किस काम के लिए आपको भेजा गया है और आप क्या कर रहे है ? '
    उस व्यक्ति  को अपनी गलती का अहसास हुआ स्वामी जी के उत्त्कृष्ट दार्शनिकता को अब  वह समझ गया था . वह अब जान गया था कि मनुष्य का  असली पता, जिसे  वो कभी जानने या खोजने का प्रयास नहीं करता वो तो उसके अन्दर ही है जिसे खोज ले, पता कर ले तो ईश्वर से हर पल  मुलाकात होती रहे .       


    ॐ साईं राम


    Offline Pratap Nr.Mishra

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    Re: भगवान की मर्जी
    « Reply #31 on: February 23, 2012, 04:09:58 PM »
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  • ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    भगवान की मर्जी

    एक महात्मा सड़क किनारे जा रहे थे कि अचानक एक डाकुओं का गिरोह उन पर टूट पड़ा और उनकी खूब पिटाई की. महत्मा बेचारे बेहोश होकर गिर पड़े. कुछ समय बाद एक अमीर  सज्जन आदमी अपनी कार में वहां  से निकला तो  उसने अपनी कार रोकी और उस साधू को अपने घर ले आये.  एक ग्लास गरम दूध देते हुए उस धनी व्यक्ति ने महात्मा से पूछा ,'क्या आप बता सकते है कि रास्ते पर आपको किसने पीटा था ?'
    महात्मा बोले, 'जिसने पीटा था ,वही तो अब मुझे दूध भी पिला रहा है .'

    यह सुनकर वह धनी व्यक्ति घबरा गया, बोला, स्वामी जी ये आप क्या कह रहे है भला ऐसा मैं आपके साथ कैसे कर सकता हूँ ?'

    साधू ने जबाब दिया ,'यह भगवान है जो सब कुछ करता है डाकुओं द्वारा उसने मेरी पिटाई करवाई और तुमाहरे द्वारा दूध दिया. भगवान की मर्जी के बिना कुछ भी संभव नहीं है .



    ॐ साईं राम

    Offline Pratap Nr.Mishra

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    Re: पाप क्या होता है?
    « Reply #32 on: February 24, 2012, 12:10:40 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    पाप क्या होता है?

    महर्षि वशिष्ठ का आश्रम अध्यात्मिक चर्चा एवं सत्संग का एक पवित्र स्थान था. लोग बहुत सारी समस्याओं एवं प्रश्नों के साथ आते थे  एवं सही उत्तर पाकर लौट जाते थे. एक दिन सत्संग जारी था बहुत ही धार्मिक बिषयों पर चर्चा  हो रही थी.
    तभी एक वयक्ति ने पूछा ,- 'मुनिवर कृपया ये बताये की पाप क्या होता है ?' संयोग से उस दिन बहुत देर हो चुकी थी सूर्य अस्त हो चुके थे और रात हो गयी थी . तब महर्षि वशिष्ठ उस व्यक्ति को अपनी कुटिया से बाहर लेकर आये और पूछा,' अभी आपको क्या-क्या दिखाई दे रहा है ?'
    उस व्यक्ति ने बोला 'सिर्फ अँधेरा !'.
    मुनि ने फिर पूछा 'और भी कुछ देख पा रहे हो क्या ? '
    उस व्यक्ति का वही जबाब था कि 'कुछ नहीं!'
    मुनिवर ने तब समझाया कि ' पाप इसी अँधेरे के समान होता है,जिस प्रकार अँधेरे में सिर्फ अँधेरा  ही नजर आता है और कुछ भी नजर नहीं आता उसी प्रकार पापी को केवल पाप ही नजर आता है वह भले और बुरे में फर्क नहीं समझ पाता.
    उस व्यक्ति को अब अपना उत्तर मिल गया था.    

    ॐ साईं राम
    « Last Edit: February 24, 2012, 12:12:52 AM by Pratap Nr.Mishra »

    Offline Pooja Sharma

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    Re: निष्ठा ओर श्रधा का महत्व
    « Reply #33 on: February 24, 2012, 01:08:05 AM »
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  • sai sai sai ram.....nice .....very true....

    Offline Pratap Nr.Mishra

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    • राम भी तू रहीम भी तू तू ही ईशु नानक भी तू
    Re: दु:ख से मुक्ति कैसे मिले ?
    « Reply #34 on: February 26, 2012, 12:56:33 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    दु:ख से मुक्ति कैसे मिले ?

    तरुणसागरजी महाराज

    याद रखना, पुस्तकीय ज्ञान से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता । शास्त्रीय ज्ञान से कोई विद्वान नहीं हो जाता । शास्त्रीय ज्ञान तो चुराया हुआ ज्ञान है, उधार ज्ञान है । उधार शब्दोंसे सत्य का दर्शन, आत्मा की अनुभूति कैसे हो सकती है । सत्य से साक्षात्कार जब होता है तब जीवन सदाचरण का पर्याय बन चुका होता हैं । प्राणों में संयम बस जाता है । पांडित्य पलायन कर जाता है और संयमाचरण के सागर में समाधिस्थ हो जाते हैं ।
    शास्त्रों में सत्य नहीं होता, केवल शब्द होते हैं, शब्दों का समूह होता है और वे शब्द - समूह सत्य का संकेत तो दे सकते हैं लेकिन स्वयं सत्य नहीं हो सकते । (शास्त्र) सत्य के साधन तो हो सकते हैं, स्वयं सत्य नहीं हो सकते । शब्द सत्य तक पहुंचने मे माध्यम तो बन सकते हैं, स्वयं मंजिल नहीं हो सकते । मंजिल स्वयं का अनुभव होता है, साध्य स्वयं का सत्य होता है । शब्दकोष में लिखा है-रोटी । शब्दकोष में लिखी रोटी शब्द हमारी भूख नहीं मिटा सकता । हां ! भूख बढा जरुर देगा । आप भूखे हैं लेकिन काम में इतने व्यस्त हैं कि आप भूख को भूल गए हैं । लेकिन रोटी दिख जाए या रोटी शब्द कानों में पड जाए तो स्मरण हो आता है और रोटी के लिए प्रयत्न शुरु हो जाता है । शास्त्रों में लिखा है - परमात्मा है । यह जानने मात्र से परमात्मा नहीं मिल जाता है, प्रार्थना और प्रयत्न से ही परमात्मा का दर्शन संभव हैं । हां ! यह जानने से परमात्मा के दर्शन की प्यास गहरी जरुर हो जाती है और फिर प्रयत्न शुरु हो जाता है । प्रार्थना शुरु हो जाती है । कोरी प्रार्थना व्यर्थ है, प्रार्थना के साथ-साथ प्रयत्न भी अनिवार्य है । थोथा ज्ञान व्यर्थ है । ज्ञान के साथ-साथ चरित्र भी परमावश्यक है । सद्‌ आचरण के सोपानों से गुजर कर ही परमात्मा के मंदिर में प्रवेश संभव है । शास्त्र परमात्मा दर्शन की प्यास को बढा देते हैं, इसलिए वे उपयोगी हैं । यही उनकी उपयोगिता है, उपादेयता है । परमात्मा की दिशा और स्वयं की दशा का ज्ञान शास्त्रों से मिलता है, इसलिए वे उपादेय हैं, पूज्य हैं ।
    ज्ञान की भीख नहीं मांगी जाती । वह तो भीतर से आता है और जीवन में छा जाता है । फिर वह ज्ञान छीना नहीं जा सकता, चुराया नहीं जा सकता क्योंकि वह अपना है, निजी है, नितांत निकट है । जो निकट है केवल वही सत्य हो सकता है । शास्त्र सत्य कैसे हो सकता है क्योंकि वह तो दूरस्थ है । हां, अगर शास्त्र तुम्हारी अनुभूति बन जाए तो वह सत्य हो सकता है । जिस दिन शास्त्र की अनुभूति तुम्हारी अनुभूति बन जाती है, उस दिन समझना कि तुम सत्य की दिशा में हो, सही मार्ग पर हो, मंजिल सामने अवश्य है । शास्त्र को जानने से सत्य नहीं जाना जाता । हां, कोई सत्य को जान ले तो शास्त्र जरुर जान लिया जाता है ।
    आज हमारे पास महावीर के शब्द तो हैं लेकिन महावीर का सत्य नहीं है । महावीर का आगम तो है लेकिन महावीर का आचरण नहीं है । महावीर का चित्र तो है लेकिन महावीर का चरित्र नहीं है । महावीर का उपदेश तो है लेकिन महावीर का उपयोग नहीं है ।
    क्यों नहीं है ?
    क्योंकि हम महावीर को जानते तो है लेकिन महावीर को मानने को राजी नहीं है । "महावीर को मानना' जितना सरल है, "महावीर का सामना' उतना ही कठिन है । महावीर के संबंध में जानना और महावीर को जानना, दोनों में बडा भारी अंतर है । महावीर के संबंध में लोग बहुत कुछ जानते हैं जैसे-महावीर 24 वें तीर्थकर थे, सिद्धार्थ के पुत्र थे, उनकी माता का नाम त्रिशला था, कुण्डलपुर ग्राम में जन्मे थे, राजकुमार थे, क्षत्रिय थे, पावापुर से मुक्त हुए । यह सब महावीर के संबंध में जानना हुआ जो कि एकदम आसान है । लेकिन महावीर को जानना है तो पहली बात तो यह है कि महावीर को जानना तो संभव ही नहीं हैं । महावीर को सिर्फ जिया जा सकता है ।


    ॐ साईं राम

    Offline Pratap Nr.Mishra

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    • राम भी तू रहीम भी तू तू ही ईशु नानक भी तू
    Re: थोथा
    « Reply #35 on: February 26, 2012, 01:57:50 AM »
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  • Quote from: Ramesh Ramnani on April 17, 2007, 09:24:56 PM

    जय सांई राम

    थोथा
     
    जो अगर कोई सोचता हो कि उसने बहुत सारी पोथियाँ पढ़ रखी हैं, और बहुत सारे मुल्क देखे है,  और आलिमों-फकीरों की सोहबत में बहुत सारी हिकमत सीख चुके हैं तो उन्हे सबसे पहले अपने ही दिल के भीतर झाँकना होगा और देखना होगा कि क्या वहाँ शांति है। अगर जो तुम्हें इस बात का गुमान हो कि तुम बहुत पहुँचे हुए ज्ञानी हो तो फिर अपने ही मन की ओर देखो कि क्या कभी दूसरों का सुख देख कर उसमें ईर्ष्या पैदा होती है। कभी दूसरों के जूतों के पास बैठ कर तुम्हें अपमान का बोध होता है या दूसरों की नाजायज हरकत देख कर ही सही, क्या तुम्हें गुस्सा आता है? तो फिर ऐसे ज्ञान और सिद्धि का क्या फायदा, क्योंकि बिल्कुल ठीक ऐसा ही उस शख्स के साथ भी होता है जिसने न कोई तालीम पाई, जो न कहीं घूमने निकला और जिसे न किसी ने धर्म की राह दिखाई। ऐसा ज्ञान थोथा है और सिर्फ हमारे-तुम्हारे अहंकार को बढ़ाने वाला है। 

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।

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    • राम भी तू रहीम भी तू तू ही ईशु नानक भी तू

    ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    "राम" में "रावण" ढूँढना और "रावण" में "राम" ढूँढना

    विनय पाण्डेय

    बेऔलाद बेचारा मन ही मन दुःख पाता है ! यही हाल था राजा और रानी का ! चाहने को संतान राजा ने क्या क्या ना किया पूजन किया , मंदिर बनवाये ,मज़ार पूजी ,बलि चढ़ाई और किया अनुष्ठान ....
    किन्तु कुछ नहीं मिला ....वरदान !
    फिर एक दिन .....एक पंडित आया और दिया राजा को दुर्लभ ज्ञान :- चाहिए अगर तुमको संतान तो बनवाओ चित्र चार ! लगवाओ उसको महल पर !

    चित्र किसके ? राजा दशरथ , माता कौशल्या ,बालक राम और रावण का !
    पहले तीन चित्र तो हर कोई बना दे पर रावण का चित्र बनाने को नहीं हुआ कोई तैयार ! राज रानी बड़े दुखी ........!
     
    आखिर एक चित्रकार ने कहा मैं बनाऊंगा चारो चित्र ! पर तब जब होगा मेरा मन !
    राजा-रानी राजी !
    चित्रकार ने तीन चित्र तो बना दिए पर नहीं मिला उसे रावण जैसा कोई किरदार !
    एक दिन हो बेजार राजा ने हुक्म सुनाया :- नहीं बनाएगा अगर तू चित्र तो काट दूंगा तेरे बेटे का गला !

    हम निसंतान मरेंगे पर नहीं रहने देंगे तेरी भी कोई संतान !
     
    आखिर चित्रकार ने खोजा एक दुष्ट ! वो था बड़ा क्रूर , जालिम , हत्यारा ! चित्रकार ने दिया लालच और ले आया अपने घर !
    उसे बिठा कर बनाने लगा रावण का चित्र !
    जैसे जैसे चित्र हुआ तैयार वो हत्यारा रोने लगा जार जार......!
    चित्रकार हैरान पूछा क्यों रो रहे हो भाई ?
    क्या इसलिए कि मैंने तुमको रावण मान कर चित्र बनाया ?
    वह हत्यारा बोला :- नहीं ....नहीं महोदय चित्रकार !
     
    मैं तो हूँ ही क्रूर ! पर जानते हो आज से सत्रह साल पहले जब मैं बच्चा था तब तुमने ही मुझे बिठाकर राम का चित्र बनाया था !
    तब मैं "राम" था और आज "रावण" हूँ !
     
    विचार :- आदमी वो जो कहानी से कुछ सीख ले ! "राम" में "रावण" ढूँढना और "रावण" में "राम" ढूँढना आपका काम है !
     



    ॐ सांई राम।।।

    « Last Edit: February 26, 2012, 02:12:44 AM by Pratap Nr.Mishra »

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    • राम भी तू रहीम भी तू तू ही ईशु नानक भी तू
    Re: जीभ जैसा कोमल
    « Reply #37 on: February 26, 2012, 04:23:15 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    जीभ जैसा कोमल

    चीन के प्रसिद्व दार्शनिक चेगंचुंग बहुत बीमार थें । उनके बचने की आशा नही थी । उस आखरी  समय में उनके शिष्य  माओत्से ने  उनसे  कहा - 'मुझे कुछ ज्ञान देने की कृपा करे।
    चेंगचुंग ने अपना मुंह खोला और कहा - 'क्या मेरे दांत हैं?'
    माओत्से ने जबाब दिया, 'नही !'  ? तब दार्शनिक ने पूछा और क्या मेरे मुह में  जीभ है?।
    माओत्से ने जबाब दिया ,हाँ !
    चेंग्चुंग  ने शिष्य को समझाया दांत गिर गए पर जीभ मौजूद हैं, क्या तुम इसका मतलब जानते हो ?
    शिष्या ने कहा , नही!
    दांत कठोर हैं, और जीभ कोमल हैं , इसका अर्थ समझाते हुए कहा जो इंसान  अपने जीवन में जीभ जैसा कोमल और नम्र रहता हैं वह सदा सुखी और सफल होता हैं ।

    ॐ सांई राम।।।

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    • राम भी तू रहीम भी तू तू ही ईशु नानक भी तू
    Re: Baba's words and ideas
    « Reply #38 on: February 26, 2012, 06:23:36 AM »
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  • OM SAI NATHAY NAMAH


    Baba's words and ideas

    Sended  by a sai lover/friend

    Nana: Baba, I am fed up with this saMsAra. It is only nissAra (thast without content). Please help me cut the bonds which bind me to it. What appears as pleasant in the beginning ends in misery. Fate tosses us hither and thither. I don’t see an iota of happiness in this saMsAra.

    Baba: Nana, you are prattling like a mad man. What you say is only partially true. You have misunderstood the truth. The saMsAra will exist as long as the body exists. No one can escape from it. How can you? Even I am under its clutches. The saMsAra is varied and different. It is the work of Desire and Anger. All the vagaries of the mind and the body constitute saMsAra. By running away and hiding yourself in a forest you cannot escape it. What you are now has been brought on you by yourself. You are only experiencing the fruits of your actions done by you in your previous lives. It is by that cause the effect of the appearance of this body has taken place. This is called deha-prArabdha. The soul gets a body just to experience the consequences of actions of its own previous lives. Without experiencing the consequences of prArabdha karma one cannot leave this world. Why do people look different? Why, in fact, do various living beings look different? It is all because of the karma of previous lives. A rich man’s dog rolls in joy on a cushioned sofa. A poor man’s dog rots at the street corner. The difference is because ofprArabdha.

    Nana: Since pleasure and pain do any way alternate in this samsAra, one feels like hating it and renouncing it. Is it not good to renounce?

    Baba: Pleasure and pain are both mAyA. What appears as pleasant is not really a pleasure. People in the clutches of samsAra take the appearance of plesure as real pleasure and are drawn towards it. As a result of prArabdha karma one fellow gets tasty, dainty and rich food while another felllow has onoly stale bread to eat. The former thinks that he has no wants and the latter thinks he is a failure. Think well. Whatever you may eat, the result is the same. Appeasement of one’s hunger. One fellow covers his body with costly cloth with zari and all. Another does the same with a torn old rag. Both serve the same purpose. Pleasure and pain depend on the attitude of your mind. This is the effect of mAyA. Do not give place in your mind to thoughts of pleasure and pain.

    mAyA manifests itself as the six enemies of Man.: Lust, Anger, Greed, Delusion, Pride and Envy. They make non-real things appear as real. A poor man, seeing the rich man wearing a gold ornament, wishes to have one like that for himself. This is greed. The others are similar to this. Conquer all six of these foes of Man. No desire will then rise in the mind. Otherwise you will become a slave of these six rogues. Use your discretion and kill them. You will not be affected by pleasure and pain caused by mAyA.

    Let me tell you how you should go about in this samsAra. A wise person will be content with whatever he has, knowing full well that it is his prArabdha. If you have riches, be humble. A tree with more fruits in it will bend. But do not bend before all. One should certainly be firm and stern with wicked people. But with sAdhus and the devout, you should show humility and modesty.

    Spend your wealth in charity and dharma. But do not be extravagant. This body is certainly impermanent but so long as it is there, wealth is necessary to a certain extent. Even bile is necessary for the health of the body. But do not become greedy as money is the be-all and end-all of life. Be charitable. But do not do wasteful expenditure.

    Observe happily all the goings-on in the world. Do not forget God. Remember always: ‘This samsAra is not mine, it is God’s.’ Show your sympathy with the poor and the down-trodden. Do not hurt them by showing hate or disgust. Keep a constant mental analysis of the question: ‘Who am I?’

    Nana: Baba, Who is God? How will He look? Where is He? How can we see Him?

    Baba: Those who toil in samsAra neither understand what is right and wrong nor do they comprehen the nature of God. Pure thoughts are absent in them. Constantly being immersed in the ocean of samsAra they do not have faith in devotion or in the scriptures. They don’t reach God. They go towards hell.

    On the other hand those who are eager to rise higher towards salvation, discard this state of bondage and begin to enquire wiuth discretion and intelligence. They are always itching to see God. They develop bhakti towards Him and observe the laws of the scriptures. They adopt nAma-japa and dhyAna and become a sAdhaka (an aspirant to reach God). They continuously move with the devout. When they reach a mature stage in their japa and dhyAna they become saintly. In that stage God and Man are alike. Praise and blame are one and the same for them. Desires have left them. The thought of ‘I’ and ‘Mine’ are not any more there. They begin to see that their own AtmA and God are the same. They realize ‘I am brahman".

    Observe how each one of them has reached God. You will yourself then understand that God permeates all animate and inanimate objects in the world.

    God is everywhere. There is no place where He is not. What prevents us from seeing Him is the power of mAyA. I, you, this world, all are part of ISvara. Therefore no one should hate another. Never forget that the Lord is everywhere. That will generate Love in you. When love overflows, everything is obtained.


    OM SAI RAM


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    Re: आओ ज्ञान के दीप जलाएं
    « Reply #39 on: February 28, 2012, 05:12:24 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    आओ ज्ञान के दीप जलाएं

    लेखक : श्रीमान गोपाल तिवारी

    दीपावाली पर हर वड्र्ढ हम अपने घर की सफाई करते हैं। दीप जलाते है।  लक्ष्मी-गणेष की पूजा द्वारा धन की देवी लक्ष्मी की कामना करते है। पर क्या इससे हमारे जीवन से अधेंरा मिट जाता है? क्या हमारे घर में सुख- समृद्धि आ जाती है? नहीं न । तो इसका अर्थ है कि हमारी पूजा में कुछ कमी रह गई है। क्योंकि ऐसा नहीं कि जो हम साफ-सफाई पूजा -पाठ करते है उसका कोई महत्व नहीं है। इसका महत्व है लेकिन इस दौरान हमारा सारा ध्यान बाहरी साफ- सफाई पर केन्द्रित रहता है। अन्दर की सफाई को हम भूल जाते है। अन्दर का देवता कहीं उपेक्षित रह जाता है। उसकी पूजा को हम भूल जाते है। उसे हम नहीं पहचान पाते। उसकी सामथ्र्य को हम नहीं जान पाते। हम यह नहीं पता है कि बाहर के सारे देवता इसी अन्दर के देवता से हीं षक्ति पाते है। हम यह नहीं समझ पाते कि यहीं आत्मदेव उन मूत्र्तियों में प्रतिबिम्बित होता है।  जो हमारे पास है खजाना है उसको हम नहीं जानते है। और धन दौलत की खोज में हम दर-दर की ठोकर खाते है। नाना प्रकार उपाय करते हैं। लेकिन फिर भी खाली के खाली रहते है।  अभाव का भाव हमारे अन्दर घर कर जाता है। अभाव का भाव अभाव को जन्म देता है। आओ अपने संकल्प के बल को पहचाने। उसकी महिमा को जाने। संकल्प सर्व समर्थवान है। संकल्प ईष्वर का हीं रूप है। इसी संकल्प का बाहरी सुख-सुविधा दासी है। आओ इस बार की दीवाली में हम ज्ञान के दीप जला दें। यानी अपने आत्मदेव को पहचान लें। फिर हमारे जीवन के कष्ट अपने आप मिटने लगेगें। हममे सकरात्मकता अपने आप आ जाएगी। फिर हमें ग्लास आधा खाली नहीं आधा भरा हुआ दिखाई देगा। फिर हम निर्धन नहीं धनवान दिखाई देंगे। इस प्रकार जो समृद्धि आयेगी वह सबके हित में होगी।


    ॐ सांई राम।।।

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    Re: दानशीलता
    « Reply #40 on: February 28, 2012, 08:36:42 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    दानशीलता

    कथासागर
    लेखक :  रजनीकांत शुक्ल

    भगवान कृष्ण द्वारा कर्ण की उदारता की बार-बार चर्चा से नाराज अर्जुन ने उनसे कहा कि धर्मराज युधिष्ठिर भी तो उतने ही उदार हैं , वे उनकी प्रशंसा क्यों नहीं करते ? कृष्ण ने कहा- ' अच्छा होगा कि तुम दोनों में फर्क अपनी आंख से देख लो। ' दोनों साधु का वेश बना धर्मराज के घर पहुंचे। कृष्ण ने धर्मराज से चंदन की दो मन सूखी लकड़ी मांगी। पर बाहर बारिश हो रही थी , सूखी लकड़ी कहां मिलती। कुछ देर तो धर्मराज जंगल में सूखी लकड़ी खोजते रहे , पर उन्हें सफलता नहीं मिली। अंतत: उन्होंने साधु के सम्मुख हाथ जोड़ उसे दूसरे दिन आने को कहा। दोनों कर्ण के द्वार पहुंचे। कर्ण ने उन्हें इंतजार करने को कहा और कुल्हाड़ी से कुछ ही देर में उन्होंने अपने भवन के चंदन के बने द्वार , खिड़कियां सभी तोड़ डाले। कृष्ण ने पूछा- ' तुमने अपने घर की इतनी मूल्यवान लकड़ी क्यों नष्ट कर दी ?' कर्ण ने हाथ जोड़कर जवाब दिया- ' इस बारिश में सूखी लकड़ी ढूंढने में बहुत समय लगता। ये वस्तुएं तो दोबारा भी बन जाएंगी , परंतु मेरे द्वार पर आया अतिथि खाली हाथ लौट जाता तो मैं इस अपराधबोध से जीवन भर मुक्त नहीं हो पाता। ' साधु के वेश में खड़े अर्जुन भौचक थे।


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    Re: कर्मों का फल
    « Reply #41 on: February 29, 2012, 12:21:39 AM »
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  • ॐ श्री साईंनाथाय नमः

    कर्मों का फल

    धर्म डेस्क  उज्जैन

    बात प्राचीन महाभारत काल की है। महाभारत के युद्ध में जो कुरुक्षेत्र के मैंदान में हुआ, जिसमें अठारह अक्षौहणी सेना मारी गई, इस युद्ध के समापन और सभी मृतकों को तिलांज्जलि देने के बाद पांडवों सहित श्री कृष्ण पितामह भीष्म से आशीर्वाद लेकर हस्तिनापुर को वापिस हुए तब श्रीकृष्ण को रोक कर पितामाह ने श्रीकृष्ण से पूछ ही लिया, "मधुसूदन, मेरे कौन से कर्म का फल है  जो मैं सरसैया पर पड़ा हुआ हूँ?'' यह बात सुनकर मधुसूदन मुस्कराये और पितामह भीष्म से पूछा, 'पितामह आपको कुछ पूर्व जन्मों का ज्ञान है?'' इस पर पितामह ने कहा, 'हाँ''। श्रीकृष्ण मुझे अपने सौ पूर्व जन्मों का ज्ञान है कि मैंने किसी व्यक्ति का कभी अहित नहीं किया? इस पर श्रीकृष्ण मुस्कराये और बोले पितामह आपने ठीक कहा कि आपने कभी किसी को कष्ट नहीं दिया, लेकिन एक सौ एक वें पूर्वजन्म में आज की तरह तुमने तब भी राजवंश में जन्म लिया था और अपने पुण्य कर्मों से बार-बार राजवंश में जन्म लेते रहे, लेकिन उस जन्म में जब तुम युवराज थे, तब एक बार आप शिकार खेलकर जंगल से निकल रहे थे, तभी आपके घोड़े के अग्रभाग पर एक करकैंटा एक वृक्ष से नीचे गिरा। आपने अपने बाण से उठाकर उसे पीठ के पीछे फेंक दिया, उस समय वह बेरिया के पेड़ पर जा कर गिरा और बेरिया के कांटे उसकी पीठ में धंस गयेऋ क्योंकि पीठ के बल ही जाकर गिरा था? करकेंटा जितना निकलने की कोशिश करता उतना ही कांटे उसकी पीठ में चुभ जाते और इस प्रकार करकेंटा अठारह दिन जीवित रहा और यही ईश्वर से प्रार्थना करता रहा, 'हे युवराज! जिस तरह से मैं तड़प-तड़प कर मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूँ, ठीक इसी प्रकार तुम भी होना।'' तो, हे पितामह भीष्म! तुम्हारे पुण्य कर्मों की वजह से आज तक तुम पर करकेंटा का श्राप लागू नहीं हो पाया। लेकिन हस्तिनापुर की राज सभा में द्रोपदी का चीर-हरण होता रहा और आप मूक दर्शक बनकर देखते रहे। जबकि आप सक्षम थे उस अबला पर अत्याचार रोकने में, लेकिन आपने दुर्योधन और दुःशासन को नहीं रोका। इसी कारण पितामह आपके सारे पुण्यकर्म क्षीण हो गये और करकेंटा का 'श्राप' आप पर लागू हो गया। अतः पितामह प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्मों का फल कभी न कभी तो भोगना ही पड़ेगा। प्रकृति सर्वोपरि है, इसका न्याय सर्वोपरि और प्रिय है। इसलिए पृथ्वी पर निवास करने वाले प्रत्येक प्राणी व जीव जन्तु को भी भोगना पड़ता है और कर्मों के ही अनुसार ही जन्म होता है।



    ॐ सांई राम।।।

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    ॐ श्री साईंनाथाय नमः

    मैं सिखाने नहीं, जगाने आया हूँ :

    तरुणसागरजी महाराज

    गीत लिखोगे तो जीवन तीर्थ बन जायेगा, गाली लिखोगे तो जीवन तमाशा बन जायेगा, और अभी जीवन के कागज पर गाली लिखे जा रहे हो, यही कारण है कि जीवन तमाशा बना जा रहा है । जीवन को तमाशा नहीं, तीर्थ बनाना है ।

    उन्होंने आगे कहा कि महावीर का मार्ग परम वीतरागता का है । राग का नही, वीतराग का है ।

    गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा - प्रभो, मुझे कैवल्य की प्राप्ती क्यों नही हो रही ?

    महावीर ने कहा - गौतम, तुम्हारे मन में एक छोटा-सा राग है ।

    गौतम को भगवान का उत्तर सुनकर कुछ विस्मय, कुछ आश्चर्य हुआ । उन्होंने पुन: पूछा-भंते ! रो ? आप स्पष्ट करें, मैं समझा नहीं ।

    महावीर बोले - गौतम ! सांसारिक राग तो तुम्हारे मन में ही है, लेकिन मेरे प्रति जो राग है, उसी राग ने तुम्हारे कैवल्य को रोक रखा है ।

    महावीर गौतम से कहते है कि तू मुझे छोड दे । घर-द्वार, पत्नी-बच्चों, मित्रों को छोड दिया तो अब मुझे क्यों पकड रखा है, मुझे भी छोड और अपने से अपने को जोड, और पा जा कैवल्य और समाधि । देखिये जैन धर्म में कितनी सुन्दर व्यवस्था है । पहले महावीर को पाने के लिए सब कुछ छोडना पडता है, फिर कैवल्य को पाने के लिए महावीर को भी छोडना पडता है ।

    क्रान्तिकारी संत श्री ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा कि ट्रेन में चढना भी पडता है ओर उतरना भी पडता है । कहीं से बैठना पडता है, फिर किसी जगर उतरना पडता है । दुनिया में दो तरह के लोग रहते हैं, एक वे, जो कहते हैं कि जब ट्रेन से उतरना ही पडेगा तो चढे ही क्यों ? फिजूल है चढना और दूसरे वे, जो कहते है कि जब ट्रेन में चढ ही गये हैं तो उतरे क्यों, फिजूल है उतरना । लेकिन महावीर कहते हैं कि दोनों ही भूल में है, दोनों ही मंजिल से वंचित रह जायेंगे । मंजिल तो केवल उसे मिलती है, जो चढना भी जानता है और उतरना भी जानता है, जो पकडना भी जानता है और छोडना भी जानता है । तो प्राथमिक अवस्था में तो महावीर को पकडना पडेगा, व्यवहार-नय को पकडना पडेगा, लेकिन मोक्ष मिलने लगे तो महावीर को भी छोड देना और निश्चय में प्रवेश करने लगो तो व्यवहार को भी छोड देना और सच तो यह है कि जब निश्चय की प्राप्ती होती है तो व्यवहार छोडना नहीं पडता, व्यवहार स्वत: छूट जाता है । जैसे कि आप घर से सडक पर चलकर धर्मशाला आये, और जैसे ही धर्मशाला में पांव रखा, सडक अपने आप छूट गई, किसी ने यह थोडे ही कहा होगा कि हे सडक ! अब मैं तुझे छोडता हूँ ।

    मुनिश्री तरुणसागर महाराज ने आगे कहा कि आत्मलीनता ही मोक्ष है । मोक्ष और मरघट में फर्क बताते हुए मुनिश्री ने कहा कि मरघट तो बाहर की घटना है, मोक्ष अन्तरंग की घटना है । जो मृण्मय में जीते हैं, मरघट से आगे नहीं निकल पाते और जो चिन्मय में जीते हैं, वे मरघट से बहुत आगे, मोक्ष तक पहुँच जाते हैं । मोक्ष तुम्हारी नियति ही नहीं, तुम्हारा जन्म-सिद्ध अधिकार भी है । मरघट पर जिनकी यात्रा समाप्त हो जाती है, समझो उन्होंने जीवन-कागज पर केवल गालियां लिखी हैं, तभी तो दुनिया उन्हें गाली देती है । और मोक्ष पर जिनकी यात्रा समाप्त होती है, समझो उन्होंने जीवन-कागज पर गीत लिखे हैं, तभी तो दुनिया उनके गीत गाती है । जीवन की अंतिम मंजिल मरघट नहीं, मोक्ष है । अभी तुम जो हो वह तुम्हारी नियति नहीं, तुम्हारा निर्णय है । तुम्हारी नियति तो मोक्ष है ।



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    Re: चाणक्य नीति
    « Reply #43 on: March 03, 2012, 06:00:13 AM »
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    चाणक्य नीति

    जीवन मंत्र

    सुख और दुख यह जीवन की अवस्थाएं बताई गई हैं। सभी लोगों के जीवन में सुख और दुख आते-जाते रहते हैं। कोई नहीं चाहता कि उनके जीवन में कभी दुख आए या गरीबी से कभी भी उनका सामना हो। इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

    दरिद नाशन दान, शील दुर्गतिहिं नाशियत।

    बुद्धि नाश अज्ञान, भय नाशत है भावना।।

    दान से दरिद्रता या गरीबी का नाश होता है। शील या व्यवहार दुखों को दूर करता है। बुद्धि अज्ञानता को नष्ट कर देती है। हमारे विचार सभी प्रकार के भय से मुक्ति दिलाते हैं।

    आचार्य चाणक्य के अनुसार यदि कोई इंसान उसकी कमाई से कुछ हिस्सा दान करता रहे तो उसे कभी भी गरीबी का सामना नहीं करना पड़ेगा। व्यक्ति जो भी कमाता है, जो भी धन प्राप्त करता है उसमें कुछ भाग हमेशा ही जरूरतमंद लोगों की मदद में लगाना चाहिए, धार्मिक कार्य करना चाहिए। ऐसा करने पर हमारे पुण्य कर्मों की वृद्धि होती है जिससे महालक्ष्मी की कृपा सदैव हम पर बनी रहती है। इंसान के जीवन में काफी दुखों के कारण से उसके बुरे स्वभाव से संबंधित ही होते हैं। अत: अच्छे गुण और नम्र व्यवहार रखने से सभी लोगों से सुख प्राप्त होता है और दुख या कष्ट हमसे दूर ही रहते हैं। जो लोग नियमित रूप से भगवान की भक्ति में लगे रहते हैं, धर्म ग्रंथ पढ़ते हैं, उनसे ज्ञान प्राप्त करते हैं वे ज्ञानी हो जाते हैं। उन लोगों की अज्ञानता नष्ट हो जाती है। साथ ही इन कार्यों से हमारे विचार भी शुद्ध होते हैं और जीवन-मृत्यु, सुख-दुख के सभी भय दूर हो जाते हैं।



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    ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    जीवन में प्रशंसा और हौसलाअफजाई का महत्व है।

    डॉ संजीव त्यागी (मनोविज्ञानी )

    जीवन में प्रशंसा और हौसलाअफजाई का महत्व है। प्रशंसा यही दर्शाती है कि यदि जीवन में प्रशंसा होती रहे तो जीवन और अधिक उत्साह और उमंग के साथ जिया जा सकता है। जिंदगी से यदि प्रशंसा को गायब कर दिया जाए तो हर प्रतिभा कुंठित हो जाएगी। ऐसे में यदि किसी ने अच्छा काम किया है तो उसे शाबास कहना न भूलें। जीवन में प्रशंसा हमेशा आगे बढ़ने का हौसला देती है। यदि खुले दिल से कोई प्रशंसा की जाए तो व्यक्ति पहले से बेहतर करने की कोशिश करता है। प्रशंसा बच्चों, व्यक्ति में उत्साह और स्फूर्ति को बढ़ावा देती है। जीवित रहने के लिए सिर्फ रोटी नहीं, बल्कि प्रशंसा और सहानुभूति भी जरूरी है।  किसी व्यक्ति या बच्चे को यदि उसके बेहतर कार्य करने के लिए प्रोत्साहन देते हैं तो उसकी कार्य क्षमता में वृद्धि होती है। प्रशंसा सकारात्मक प्रेरणा का कार्य करती है।

    न करें स्वार्थी और झूठी प्रशंसा |कई बार लोग दूसरे से अपना कार्य निकलवाने के लिए व्यक्ति विशेष की झूठी प्रशंसा कर देते हैं, जो की सही नहीं होता।

    छोटी उपलब्धियों को भी सराहे | आमतौर पर लोग बड़ी सफलता पर ही पीठ थपथपाते हैं, जबकि प्रतिदिन किए जाने वाले छोटे छोटे कार्य ही बड़ी सफलता की ओर ले जाते हैं। इसलिए छोटी उपलब्धियों पर भी प्रशंसा करना नहीं भूलना चाहिए।

    .प्रशंसा करने में देरी और कंजूसी न करें। .हर रोज किसी एक को कांप्लीमेंट दें। .एक ही प्रशंसा को बार-बार न दोहराएं। .कंप्लीमेंट देने में अहं को बीच में न लाएं।


    ॐ सांई राम।।।


     


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