ॐ श्री साईंनाथाय नमः
मैं सिखाने नहीं, जगाने आया हूँ :
तरुणसागरजी महाराज
गीत लिखोगे तो जीवन तीर्थ बन जायेगा, गाली लिखोगे तो जीवन तमाशा बन जायेगा, और अभी जीवन के कागज पर गाली लिखे जा रहे हो, यही कारण है कि जीवन तमाशा बना जा रहा है । जीवन को तमाशा नहीं, तीर्थ बनाना है ।
उन्होंने आगे कहा कि महावीर का मार्ग परम वीतरागता का है । राग का नही, वीतराग का है ।
गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा - प्रभो, मुझे कैवल्य की प्राप्ती क्यों नही हो रही ?
महावीर ने कहा - गौतम, तुम्हारे मन में एक छोटा-सा राग है ।
गौतम को भगवान का उत्तर सुनकर कुछ विस्मय, कुछ आश्चर्य हुआ । उन्होंने पुन: पूछा-भंते ! रो ? आप स्पष्ट करें, मैं समझा नहीं ।
महावीर बोले - गौतम ! सांसारिक राग तो तुम्हारे मन में ही है, लेकिन मेरे प्रति जो राग है, उसी राग ने तुम्हारे कैवल्य को रोक रखा है ।
महावीर गौतम से कहते है कि तू मुझे छोड दे । घर-द्वार, पत्नी-बच्चों, मित्रों को छोड दिया तो अब मुझे क्यों पकड रखा है, मुझे भी छोड और अपने से अपने को जोड, और पा जा कैवल्य और समाधि । देखिये जैन धर्म में कितनी सुन्दर व्यवस्था है । पहले महावीर को पाने के लिए सब कुछ छोडना पडता है, फिर कैवल्य को पाने के लिए महावीर को भी छोडना पडता है ।
क्रान्तिकारी संत श्री ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा कि ट्रेन में चढना भी पडता है ओर उतरना भी पडता है । कहीं से बैठना पडता है, फिर किसी जगर उतरना पडता है । दुनिया में दो तरह के लोग रहते हैं, एक वे, जो कहते हैं कि जब ट्रेन से उतरना ही पडेगा तो चढे ही क्यों ? फिजूल है चढना और दूसरे वे, जो कहते है कि जब ट्रेन में चढ ही गये हैं तो उतरे क्यों, फिजूल है उतरना । लेकिन महावीर कहते हैं कि दोनों ही भूल में है, दोनों ही मंजिल से वंचित रह जायेंगे । मंजिल तो केवल उसे मिलती है, जो चढना भी जानता है और उतरना भी जानता है, जो पकडना भी जानता है और छोडना भी जानता है । तो प्राथमिक अवस्था में तो महावीर को पकडना पडेगा, व्यवहार-नय को पकडना पडेगा, लेकिन मोक्ष मिलने लगे तो महावीर को भी छोड देना और निश्चय में प्रवेश करने लगो तो व्यवहार को भी छोड देना और सच तो यह है कि जब निश्चय की प्राप्ती होती है तो व्यवहार छोडना नहीं पडता, व्यवहार स्वत: छूट जाता है । जैसे कि आप घर से सडक पर चलकर धर्मशाला आये, और जैसे ही धर्मशाला में पांव रखा, सडक अपने आप छूट गई, किसी ने यह थोडे ही कहा होगा कि हे सडक ! अब मैं तुझे छोडता हूँ ।
मुनिश्री तरुणसागर महाराज ने आगे कहा कि आत्मलीनता ही मोक्ष है । मोक्ष और मरघट में फर्क बताते हुए मुनिश्री ने कहा कि मरघट तो बाहर की घटना है, मोक्ष अन्तरंग की घटना है । जो मृण्मय में जीते हैं, मरघट से आगे नहीं निकल पाते और जो चिन्मय में जीते हैं, वे मरघट से बहुत आगे, मोक्ष तक पहुँच जाते हैं । मोक्ष तुम्हारी नियति ही नहीं, तुम्हारा जन्म-सिद्ध अधिकार भी है । मरघट पर जिनकी यात्रा समाप्त हो जाती है, समझो उन्होंने जीवन-कागज पर केवल गालियां लिखी हैं, तभी तो दुनिया उन्हें गाली देती है । और मोक्ष पर जिनकी यात्रा समाप्त होती है, समझो उन्होंने जीवन-कागज पर गीत लिखे हैं, तभी तो दुनिया उनके गीत गाती है । जीवन की अंतिम मंजिल मरघट नहीं, मोक्ष है । अभी तुम जो हो वह तुम्हारी नियति नहीं, तुम्हारा निर्णय है । तुम्हारी नियति तो मोक्ष है ।
ॐ सांई राम।।।