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Author Topic: निष्ठा ओर श्रधा का महत्व  (Read 27609 times)

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Offline Pratap Nr.Mishra

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  • राम भी तू रहीम भी तू तू ही ईशु नानक भी तू

ॐ श्री साईं नाथाय नमः

संसार की व्यापकता जानने के लिए ईश्वर से साक्षात्कार जरूरी

अज्ञात लेखक

कुछ ग्रंथ ऐसे हैं, जो हमारे लिए सदियों पहले भी उपयोगी थे और आज भी प्रासंगिक हैं। ग्रंथ शब्द ही नहीं देते, परमात्मा से भी साक्षात्कार करवाते हैं। जिनको मूर्ति से नहीं मिलता, उन्हें ग्रंथ से मिल जाता है। जिन्हें ग्रंथों से नहीं मिलता, उन्हें गुरुजनों से मिल जाता है।

यह सबसे बड़ी साधना है, जहां मनुष्य अपने भीतर से ही अपने परमात्मा को प्रकट करता है। हम सब परमात्मा के अंश हैं। संसाररूपी वृक्ष को देखें तो लगता है कि यह वैसा है नहीं। इसके लिए परमात्मा से जुड़ना जरूरी है। जैसे परमात्मा व्यापक है, वैसा ही यह जगत भी है। जगत किसके लिए कितना है, यह कहना कठिन है।

एक कुएं के पास ऊपर उड़ता हुआ राजहंस आ गया। कुएं की मुंडेर के ऊपर बैठकर विचार करने लगा कि कुएं के भीतर जो मेंढक रहता है, उसके लिए तो यह बहुत छोटा है। हमारा सरोवर तो बहुत बड़ा है। मेंढक ने उछलकर पूछा कि इतना बड़ा है? हंस ने कहा - यह भी छोटा है। फिर मेंढक ने और लंबी छलांग लगाई और आधे कुएं तक पहुंचा, फिर पूछा - इतना बड़ा? राजहंस ने कहा - यह भी छोटा है।

फिर मेंढक ने पूरी शक्ति से छलांग लगाई और कुएं के दूसरे किनारे तक पहुंचा, फिर पूछा - क्या इतना बड़ा है तुम्हारा सरोवर? राजहंस ने विचार किया कि कुएं को ही संसार मानने वाले मेंढक को समझा नहीं सकूंगा। यहां से उड़ चलना ही अच्छा है। हमारे लिए भी संसार की समझ मेंढक जैसी ही बन जाती है। इसकी व्यापकता को समझने के लिए परमेश्वर से जुड़ना जरूरी है।


ॐ सांई राम।।।

Offline Pratap Nr.Mishra

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ॐ श्री साईं नाथाय नमः

चाणक्य नीति-स्वर्ग और नरक तो धरती पर ही मौजूद हैं
                 
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

भारत ही नही बल्कि पूरे विश्व में स्वर्ग नरक की अनेक तरह कल काल्पनिक धारणायें प्रचलित हैं।  ऐसा नहीं है कि स्वर्ग या नरक की स्थिति केवल मरने के बाद ही दिखाई देती है। अपने पास अगर ज्ञान हो तो इसी पृथ्वी पर स्वर्ग भोग जाता है। आजकल भौतिकवाद के चलते मनुष्यों की अनुभूतियों की शक्तियां कम हो गयी हैं। वह तुच्छ उपलब्धियों पर इतराते हैं तो थोड़ी परेशानियों में भारी तनाव उन पर छा जाता है। आजकल कहा भी जाता है कि इस संसार में कोई सुखी नहीं है। दरअसल लोग सुख का अर्थ नहीं जानते। सुख के साधनों के नाम अपने घर में ही कबाड़ जमा कर रहे हैं। संबंधों के नाम पर स्वार्थ की पूर्ति चाहते हैं। स्वार्थों के लिये संबंध बनाते और बिगाड़ते हैं। क्रोध को शक्ति, कटु वाणी को दृढ़ता और दुःख के नाम पर दूसरे के वैभव से ईर्ष्या पालकर मनुष्य स्वयं ही अपने दैहिक जीवन को नरक बना देता है। किसी को यह बात समझाना कठिन है कि वह अपने जीवन की स्थितियों के लिये स्वयं जिम्मेदार हैं। लोग भाग्यवादी इतने हैं कि अपने ही कर्म को भी उससे प्रेरित मानते है।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि

                                   अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्।
                                  नीचप्रसंङ्गा कुलहीनसेवा चिह्ननि देहे नरकास्थितानाम्।।
‘‘अत्यंत क्रोध करना अति कटु कठोर तथा कर्कश वाणी होना, निर्धनता, अपने ही बंधु बांधवों से बैर करना, नीचों की संगति तथा कुलहीन की सेवा करना यह सभी स्थितियां प्रथ्वी पर ही नरक भोगने का प्रमाण है।’’ 
 
                                  गम्यते यदि मृगेन्द्र-मंदिर लभ्यते करिकपोलमौक्तिम्।
                                  जम्बुकाऽऽलयगते च प्राप्यते वत्स-पुच्छ-चर्म-खुडनम्।।
‘‘कोई मनुष्य यदि सिंह की गुफा में पहुंच जाये तो यह संभव है कि वहां हाथी के मस्तक का मोती मिल जाये पर अगर वह गीदड़ की गुफा में जायेगा तो वहां उसे बछड़े की पूंछ तथा गधे के चमड़ का टुकड़ा ही मिलता है।’’
                   
हमें अपने जीवन को अगर आनंद से बिताना है तो अपने आचरण, विचार तथा व्यवहार पर ध्यान देना चाहिए। कायर, कलुषित व बीमार मानसिकता वाले, व्यसनी तथा लालची लोगों से संबंध रखने से कभी हित नहीं होता है। ऐसे स्थानों पर जाना जहां तनाव के अलावा कुछ नही मिलता हो वर्जित करना ही श्रेयस्कर हैै। जिनका छवि खराब है उनसे मिलना अपने लिये ही संकट बुलाना है। इस संसार में ऐसे पाखंडी लोगों की कमी नहीं है जो अपना काम निकालने के लिये दयनीय चेहरा बना लेते हैं पर समय आने पर सांप की तरह फुंफकारने लगते हैं। इसलिये उत्साही, संघर्षशील तथा अध्यात्मिक रुचि वालों की संगत करना ही जीवन के लिये लाभप्रद है। अच्छे लोगों से संगत करने पर अपने विचार भी शुद्ध होते हैं तो मन के संकल्प भी दृढ़ होते हैंे जो आनंदमय जीवन की पहली और आखिरी शर्त है।

ॐ सांई राम।।।

Offline Pratap Nr.Mishra

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ॐ श्री साईं नाथाय नमः

अथर्ववेद से संदेश-हे परमात्मा हमें सब का कल्याण करने वाली बुद्धि प्रदान कर

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

श्रीमद्भागवतगीता को लेकर हमारे देश में अनेक भ्रम प्रचलित हैं। कहा जाता है कि यह एक पवित्र किताब है और इसका सम्मान करना चाहिए पर उसमें जो तत्वज्ञान है उसका महत्व जीवन में कितना है इसका आभास केवल ज्ञानी लोगों को श्रद्धापूर्वक अध्ययन करने पर ही हो पाता है। श्रीगीता को पवित्र मानकर उसकी पूजा करना और श्रद्धापूर्वक उसका अध्ययन करना तो दो प्रथक प्रथक क्रियायें हैं। श्रीगीता में ऐसा ज्ञान है जिससे हम न केवल उसके आधार पर अपना आत्ममंथन कर सकते हैं बल्कि दूसरे व्यक्ति के व्यवहार, खान पान तथा रहन सहन के आधार पर उसमें संभावित गुणों का अनुमान भी कर सकते हैं। गीता का ज्ञान एक तरह से दर्पण होने के साथ दूरबीन का काम भी करता है। यही कारण है कि ज्ञानी लोग परमात्मा की निष्काम आराधना करते हुए अपने अंदर ऐसी पवित्र बुद्धि स्थापित होने की इच्छा पालते हैं जिससे वह ज्ञान प्राप्त कर सकें। जब एक बार ज्ञान धारण कर लिया जाता है तो फिर इस संसार के पदार्थों से केवल दैहिक संबंध ही रह जाता है। ज्ञानी लोग उनमें मन फंसाकर अपना जीवन कभी कष्टमय नहीं बनाते।
अथर्ववेद में कहा गया है कि

                                                       ये श्रद्धा धनकाम्या क्रव्वादा समासते।
                                                       ते वा अन्येषा कुम्भी पर्यादधति सर्वदा।।
‘‘जो श्रद्धाहीन और धन के लालची हैं तथा मांस खाने के लिये तत्पर रहते हैं वह हमेशा दूसरों के धन पर नजरें गढ़ाये रहते हैं।’’
                                             
                                                       भूमे मातार्नि धेहि भा भद्रया सुप्रतिष्ठतम्।
                                                       सविदाना दिवा कवे श्रियां धेहि भूत्याम्।।
‘‘हे मातृभूमि! सभी का कल्याण करने वाली बुद्धि हमें प्रदान कर। प्रतिदिन हमें सभी बातों का ज्ञान कराओ ताकि हमें संपत्ति प्राप्त हो।’’
         
इस तत्वज्ञान के माध्यम से हम दूसरे के आचरण का भी अनुमान प्राप्त कर सकते हैं। जिनका खानपान अनुचित है या जिनकी संगत खराब है वह कभी भी किसी के सहृदय नहीं हो सकते। भले ही वह स्वार्थवश मधुर वचन बोलें अथवा सुंदर रूप धारण करें पर उनके अंदर बैठी तामसी प्रवृत्तियां उनकी सच्ची साथी हो्रती हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि तत्वज्ञान में ज्ञान तथा विज्ञान के ऐसे सूत्र अंतर्निहित हैं जिनकी अगर जानकारी हो जाये तो फिर संसार आनंदमय हो जाता है।



ॐ सांई राम।।।

Offline Pratap Nr.Mishra

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Re: चाणक्य नीति
« Reply #48 on: March 04, 2012, 02:44:00 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    चाणक्य नीति

    नवभारत टाइम्स
    अंतर्दृष्टि


    - किसी भी व्यक्ति को जरूरत से ज्यादा ईमानदार नहीं होना चाहिए। सीधे तने वाले पेड़ ही सबसे काटे जाते हैं और बहुत ज्यादा ईमानदार लोगों को ही सबसे ज्यादा कष्ट उठाने पड़ते हैं।

    - अगर कोई सांप जहरीला नहीं है, तब भी उसे फुफकारना नहीं छोड़ना चाहिए। उसी तरह से कमजोर व्यक्ति को भी हर वक्त अपनी कमजोरी का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।

    - सबसे बड़ा गुरुमंत्र : कभी भी अपने रहस्यों को किसी के साथ साझा मत करो, यह प्रवृत्ति तुम्हें बर्बाद कर देगी।

    - हर मित्रता के पीछे कुछ स्वार्थ जरूर छिपा होता है। दुनिया में ऐसी कोई दोस्ती नहीं जिसके पीछे लोगों के अपने हित न छिपे हों, यह कटु सत्य है, लेकिन यही सत्य है।

    - अपने बच्चे को पहले पांच साल दुलार के साथ पालना चाहिए। अगले पांच साल उसे डांट-फटकार के साथ निगरानी में रखना चाहिए। लेकिन जब बच्चा सोलह साल का हो जाए, तो उसके साथ दोस्त की तरह व्यवहार करना चाहिए। बड़े बच्चे आपके सबसे अच्छे दोस्त होते हैं।

    - दिल में प्यार रखने वाले लोगों को दुख ही झेलने पड़ते हैं। दिल में प्यार पनपने पर बहुत सुख महसूस होता है, मगर इस सुख के साथ एक डर भी अंदर ही अंदर पनपने लगता है, खोने का डर, अधिकार कम होने का डर आदि-आदि। मगर दिल में प्यार पनपे नहीं, ऐसा तो हो नहीं सकता। तो प्यार पनपे मगर कुछ समझदारी के साथ। संक्षेप में कहें तो प्रीति में चालाकी रखने वाले ही अंतत: सुखी रहते हैं।

    - ऐसा पैसा जो बहुत तकलीफ के बाद मिले, अपना धर्म-ईमान छोड़ने पर मिले या दुश्मनों की चापलूसी से, उनकी सत्ता स्वीकारने से मिले, उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।

    - नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुंचाने वाली, उनके विश्वासों को छलनी करने वाली बातें करते हैं, दूसरों की बुराई कर खुश हो जाते हैं। मगर ऐसे लोग अपनी बड़ी-बड़ी और झूठी बातों के बुने जाल में खुद भी फंस जाते हैं। जिस तरह से रेत के टीले को अपनी बांबी समझकर सांप घुस जाता है और दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है, उसी तरह से ऐसे लोग भी अपनी बुराइयों के बोझ तले मर जाते हैं।

    - जो बीत गया, सो बीत गया। अपने हाथ से कोई गलत काम हो गया हो तो उसकी फिक्र छोड़ते हुए वर्तमान को सलीके से जीकर भविष्य को संवारना चाहिए।

    - असंभव शब्द का इस्तेमाल बुजदिल करते हैं। बहादुर और बुद्धिमान व्यक्ति अपना रास्ता खुद बनाते हैं।

    - संकट काल के लिए धन बचाएं। परिवार पर संकट आए तो धन कुर्बान कर दें। लेकिन अपनी आत्मा की हिफाजत हमें अपने परिवार और धन को भी दांव पर लगाकर करनी चाहिए।

    - भाई-बंधुओं की परख संकट के समय और अपनी स्त्री की परख धन के नष्ट हो जाने पर ही होती है।

    - कष्टों से भी बड़ा कष्ट दूसरों के घर पर रहना है।



    ॐ सांई राम।।।



    Offline Pratap Nr.Mishra

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    • राम भी तू रहीम भी तू तू ही ईशु नानक भी तू
    Re: प्राथना का सही अवसर
    « Reply #49 on: March 05, 2012, 06:26:55 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    सुख में सुमिरन सब करें ,दुःख में करें  न कोय
    जो सुख में सुमिरन करें ,फिर दुःख काये का होय ।।  
              - संत कबीर

    सुख में तो कभी याद किया नहीं और दुःख में याद करने लगे, कबीरदास कहते हैं की उस दास की प्रार्थना कौन सुने।

    हमारे अन्दर प्रार्थना सदैव सुखी परिस्थितियों में ही उत्पन्न होती है, सुख के समय तो हमें इश्वर की याद ही नहीं आती। समस्या यह है की दुःख का स्वभाव परमात्मा के स्वभाव से बिलकुल मेल नहीं खाता  क्योंकि दुःख तो उससे ठीक विपरीत दशा है, फिर दुःख में इश्वर को इसलिए याद किया जाता है ताकि दुःख हट जाए यानी वह परमात्मा की याद नहीं है, सुख की याद है, सुख की आकांशा है। जब हम दुःख में इश्वर को पुकारते हैं तब उसे नहीं सुख को पुकारते हैं इसलिए जब सुख मिल जाता है तो इश्वर विस्मृत हो जाता है क्योंकि अब उसकी क्या जरूरत रही। सुख की आकांशा से प्रार्थना का कोई सम्बन्ध नहीं होता बल्कि सुख में की गयी प्रार्थना में ही परमात्मा की आकांशा होती है  और जब हम उसी के लिए प्रार्थना करते हैं तभी प्रार्थना सुनी जाती है, अन्यथा नहीं। कवि रहीम ने कहा है- 'बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न चून '। परमात्मा के द्वार पर जो बिना मांगे खडा हो जाता है उसे सब मिल जाता है, मोती बरस जाते हैं और जो भिखारी की तरह खडा होता है उसे कुछ नहीं मिलता। कहने का तात्पर्य यह है की प्रार्थना में मांग नहीं होना चाहिए क्योंकि मांग रहित धन्यवाद रूपी प्रार्थना ही इश्वर तक पहुँचती है।  दुखी व्यक्ति बिना मांगे प्रार्थना कर नहीं सकता और फिर दुखी अवस्था में हम सिकुड़ जाते हैं और परमात्मा है विस्तार, जो फैला हुआ है सब ओर इसलिए दुखी व्यक्ति और परमात्मा के बीच कोई तालमेल नहीं बैठता। हिन्दू संस्कृति में परमात्मा के लिए 'ब्रह्म' शब्द को चुना गया है  जिसका अर्थ होता है विस्तीर्ण; जो फैलता ही चला जाता है। सिर्फ सुखी अवस्था ही ऐसी होती है जिसमें हम थोड़ा फैलते हैं यानी बहुत ही छोटे अर्थों में हम परमात्मा जैसे हो जाते हैं। यही यह अवसर है जब प्रार्थना की जा सकती है या की जानी चाहिए क्योंकि इस संसार में सुख झलक है परमात्मा की और जब उसकी झलक मिले तभी पुकारना उचित है क्योंकि वह कहीं आसपास ही है। जब भी इस झलक से हम भरें यानी सुख और आनंद का अनुभव हो वही अवसर प्रार्थना करने का सही अवसर होता है।


    ॐ सांई राम।।।

    Offline Pratap Nr.Mishra

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    • राम भी तू रहीम भी तू तू ही ईशु नानक भी तू
    Re: ईश्वर, जीव और प्रकृति
    « Reply #50 on: March 05, 2012, 08:22:12 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    ईश्वर, जीव और प्रकृति

    ओमप्रकाश आर्य

    इस जगत में तीन पदार्थ अनादि है और वे है ईश्वर, जीव और जगत का कारण प्रकृति। उपनिषद के अनुसार प्रकृति, जीव और परमात्मा, तीनों अज अर्थात् जिनका कभी विनाश नहीं होता, बल्कि ये तीन जगत के कारण है। जीवों को उस ब्रह्म की उपासना करनी चाहिए जिस ब्रह्म से जगत की उत्पत्ति, स्थिति और जीवन होता है, जिसके बनाने और धारण करने से यह जगत विद्यमान हुआ है। ऋग्वेद के एक मंत्र 'द्वा सुपर्णा समुजा सखाया..' के अनुसार यह संसार एक विशाल वृक्ष के समान है जिस पर खट्ठे और मीठे फल लगे हुए है। इस प्रकृति रूपी वृक्ष पर दो प्रकार के पक्षी बैठे हुए है। इन पक्षियों में एक प्रकार के पक्षी वृक्ष के खट्ठे-मीठे फलों को खा रहे है और दूसरे पक्षी केवल साक्षी रूप में देख रहे है। फलों को खाने वाले पक्षी जीव है जो अपने अच्छे-बुरे कर्मो के फलों को खाता-भोक्ता हैं और दूसरा न भोक्ता-खाता ब्रह्म है जो जीवों को उनके कर्मो के अनुसार फलों की व्यवस्था करता है।

    संसार के कार्य-व्यवहार में भी हम देखते है कि तीन के बिना काम नहीं चलता। जैसे किसी दुकान चलाने के लिए दुकानदार, ग्राहक और सामान, तीनों की आवश्यकता होती है। इनमें से किसी एक के भी अभाव में दुकान नहीं चल सकती। इसी प्रकार दयालु परमेश्वर ने जीवों के कल्याण के लिए ही प्रकृति के मूल तत्वों से इस जगत की रचना की है। ईश्वर जैसे अजर, अमर, अविनाशी और अजन्मा है, वैसे ही जीव भी अजर, अमर, अविनाशी और अजन्मा है। ईश्वर एक है, जीव अनेक है। ईश्वर सृष्टि की उत्पत्ति, पालन, प्रलय कर्ता और जीवों को फल देकर न्याय करता है। ईश्वर सत् चित् आनंद है, जीव सत् व चित् है और प्रकृति केवल सत् है। ईश्वर और प्रकृति के बीच में जीव की स्थिति है। सत् जो प्रकृति का गुण है, वह तो जीव के पास भी है, परंतु जीव के पास आनंद का अभाव है जो उसे आनंद के भंडार परमात्मा से ही प्राप्त हो सकता है, परंतु जीव उसे प्रकृति में ढूंढ़ता है जो वहां है ही नहीं। आनंद की प्राप्ति के लिए जीव को ईश्वर की उपासना करनी होगी। ईश्वर, जीव और प्रकृति-इन तीनों के अनादि होने की यह अवधारणा ही वेदों का त्रैतवाद है।


    ॐ सांई राम।।।

    Offline Saialwayshere

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    Re:प्राथना का सही अवसर
    « Reply #51 on: March 05, 2012, 09:28:52 AM »
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  • Om Sai Ram Pratap ji

    Aapke gyanwardhak lekho ke liye dhanyawad , sabse pahle aapse mafi mangti hu kyoki mujhe Hindi main type kaise karu ,nahi aata 

    Abhi maine—“Prathna ka sahi awsar” ---pada

    Mujhe nahi pata ki ye wichar aapke swam ke wichar hai ya fir aapne kahi se unko liya hai.

    Per aapke “lekh” ne mujhe kuch sochne per majboor kiya, saath hi kuch sawaal mere mann main utpanna hue.

    सुख के समय तो हमें इश्वर की याद ही नहीं आती।

    Pratap ji main iss  wichar se main sahmat nahi hu ki ham sirf dukh main hi “Iswar” ko yaad karte hai , hum main se kai log aise hoge jo  regular prayer karte hai ,matlab wo sukh ho ya dukh ho , wo “Iswar” ko jarur yaad karte hai .

    “Dukh” main ham sabhi jante hai ki hum “Iswar” ko yaad kyo karte hai , aur unse kya chate hai …hum sabhi unse apne dukh door karne ki prathna karte hai .

    Ab sawal ye uthta hai ki jab hum “Sukh” main prathna karte hai tab hum “Iswar”se  kya mangte hai …

    Kya hum “Sukh” main “Mokchya” mangte hai ????  (  hum main se na jaane kitne log hai jinhe mokchya  ka sahi 

    matlab bhi nahi pata hoga, fir wo uski akancha kaise kar sakte hai )

    Fir “Sukh” main ham kya mangte hai ???

    Kya hum “Bhagwan mere sukh ko aise hi banaye rakhna”..nahi mangte ?

    Kya aapko nahi lagta ki prathna hamesha, kuch chahne ya mangne se  judi hui hoti hai .

    Sach toh ye hai ki …Mangna insani prawatti hai , isse hum apne se alag nahi kar sakte hai ..iske roop kuch bhi ( dhan , paisa ,pyar , padayi, noukri, mukti, mokchya  ityadi )  ho sakte hai , per yadi dekha jaye toh hum iswar se har waqt mangte hi rahte hai.

    कवि रहीम ने कहा है- 'बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न चून
     
    Maine bhi hindi main ek kahawat suni hai ki “Bina mange(roye)  Maa bhi apne bachhe ko doodh nahi pilati”------ab aap hi batayiye ki main kis baat ko sach manu .
     
     Pratap ji  jara sochiye jab hamari mangne  ki ikccha hi khatam ho jaye,  aur hum apne aap main hi sampurn ho jaye ,aur iss sansaar rupi bandhano se uper uthh jaye , toh kya ye mokchya ki isthiti nahi hai ?? fir iske baad prathna ki awasyakta hi kya rah jaati hai ???

    Pratap ji aapki tulna main me alpgyani hu ,aur jaisa ki kaha jata hai “Adjal gagri chalkat jaye”  bas aap issi baat ko dhyan main rakhte hue ,yadi maine kuch jyada bol diya ho toh mujhe maaf kare. Aur maine kuch galat bola ho toh mujhe jarur batayiye .

    Om Sai Ram
    Chetna







    Offline Pratap Nr.Mishra

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    Om Sai Ram Pratap ji

    Aapke gyanwardhak lekho ke liye dhanyawad , sabse pahle aapse mafi mangti hu kyoki mujhe Hindi main type kaise karu ,nahi aata  

    Abhi maine—“Prathna ka sahi awsar” ---pada

    Mujhe nahi pata ki ye wichar aapke swam ke wichar hai ya fir aapne kahi se unko liya hai.

    Per aapke “lekh” ne mujhe kuch sochne per majboor kiya, saath hi kuch sawaal mere mann main utpanna hue.

    सुख के समय तो हमें इश्वर की याद ही नहीं आती।

    Pratap ji main iss  wichar se main sahmat nahi hu ki ham sirf dukh main hi “Iswar” ko yaad karte hai , hum main se kai log aise hoge jo  regular prayer karte hai ,matlab wo sukh ho ya dukh ho , wo “Iswar” ko jarur yaad karte hai .

    “Dukh” main ham sabhi jante hai ki hum “Iswar” ko yaad kyo karte hai , aur unse kya chate hai …hum sabhi unse apne dukh door karne ki prathna karte hai .

    Ab sawal ye uthta hai ki jab hum “Sukh” main prathna karte hai tab hum “Iswar”se  kya mangte hai …

    Kya hum “Sukh” main “Mokchya” mangte hai ????  (  hum main se na jaane kitne log hai jinhe mokchya  ka sahi  

    matlab bhi nahi pata hoga, fir wo uski akancha kaise kar sakte hai )

    Fir “Sukh” main ham kya mangte hai ???

    Kya hum “Bhagwan mere sukh ko aise hi banaye rakhna”..nahi mangte ?

    Kya aapko nahi lagta ki prathna hamesha, kuch chahne ya mangne se  judi hui hoti hai .

    Sach toh ye hai ki …Mangna insani prawatti hai , isse hum apne se alag nahi kar sakte hai ..iske roop kuch bhi ( dhan , paisa ,pyar , padayi, noukri, mukti, mokchya  ityadi )  ho sakte hai , per yadi dekha jaye toh hum iswar se har waqt mangte hi rahte hai.

    कवि रहीम ने कहा है- 'बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न चून
      
    Maine bhi hindi main ek kahawat suni hai ki “Bina mange(roye)  Maa bhi apne bachhe ko doodh nahi pilati”------ab aap hi batayiye ki main kis baat ko sach manu .
     
     Pratap ji  jara sochiye jab hamari mangne  ki ikccha hi khatam ho jaye,  aur hum apne aap main hi sampurn ho jaye ,aur iss sansaar rupi bandhano se uper uthh jaye , toh kya ye mokchya ki isthiti nahi hai ?? fir iske baad prathna ki awasyakta hi kya rah jaati hai ???

    Pratap ji aapki tulna main me alpgyani hu ,aur jaisa ki kaha jata hai “Adjal gagri chalkat jaye”  bas aap issi baat ko dhyan main rakhte hue ,yadi maine kuch jyada bol diya ho toh mujhe maaf kare. Aur maine kuch galat bola ho toh mujhe jarur batayiye .

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    ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    चेतनाजी  जय साईं राम  

    सर्वप्रथम मै आपको तहे दिल से धन्यवाद करना चाहूँगा क्योकि फोरम जो एक उचित माध्यम है अध्यात्मिक ज्ञान के आदान -प्रदान का ,उसके  उचित मार्ग को आपने दर्शाया है । आपने आपने विचारो को रखके कोई भूल नहीं की न ही आपको इसके लिए क्षमापार्थी होने की अवसकता है । इस अध्यात्मिक सागर में विचारो की कई लहरें उठती है पर क्या संभव है कि सभी सामान्य होगी ? मेरे विचार या आपके विचार सामान्य नहीं भी हो सकते पर मूलभूत से दोनो के विचार एक ही जगह से पैदा हो रहे हैं । हो सकता है की आज ये छोटी -छोटी विचारो कि लहरें कल किसी बड़ी लहर के संपर्क में आके उसी में विलीन होकर बड़ी हो जाये । विचारो के आदान-प्रदान और उसके शोध से ही मूल विचारो का उदय होता है ऐसा मेरा मानना है ।  

    पहले बात तो मै आपको बता दूँ कि मै कोई ज्ञानी या  महान पंडित नहीं हूँ । एक साधारण सा व्यक्ति हूँ जो अति जिज्ञासु प्रवृति होने के कारण सदा कुछ ज्ञान अर्जित करने  की कोशिस में लगा रहता है वो चाहे किसी भी रूप में किसी से भी और कही भी प्राप्त हो । हाँ ये अवश्य है कि मै उस ज्ञान को पाने के लिए ललाईत हूँ जो हमें वास्तविक जीवन के मूल्य को दर्शाता है । आपने जैसा कहा कि "अद्ध जल गगरी छलकत जाये " ऐसा आपको प्रतीत होता है स्वयमपे ,पर मेरी गगरी में तो अभी एक आध बूंद ही संचित हुई है जिसका छलकना नामुमकिन ही नहीं असंभव भी है । आपने कुछ अनर्थक नहीं कहा है और न ही अनुचित । हर व्यक्ति एक ही विषय की सत्यता को विभिन्य -विभिन्य दृष्टिकोण से देखता है ,इसका मतलब कदाचित नहीं कि वो गलत हैं ।

    आपका दृष्टिकोण सर्वथा उचित है पर आपने मेरा  दृष्टिकोण जानना चाहा है जिसे मै संक्षिप्त रूप से व्यक्त करने का प्रयास करूँगा ।

    पहले तो मै ये कहना चाहूँगा कि कुछ से सम्पूर्णता का बोध नहीं होता । सामान्य रूप से जो अधिकतर देखने में आता है वही ही साधारणता मान्य कहलाता है । पारा धातु होने के उपरांत भी तरल अवस्था में होता है पर ये अपवाद की श्रेणी में आता है । मै खुद का बचपन से लेकर अभी तक का आंकलन  करता हूँ तो यही पता हूँ की मैंने प्रभु को पूर्वोतर तभी याद किया जब मै दुःख में रहता हूँ । जब भी प्राथना की दुखो से निर्वित होने के लिए , मुक्त होने के लिए । मेरी प्राथना स्वार्थ से हर समय अन्तर्निहित रहती है ।आपने सम्मुख देखता हूँ तो अधिकता में इसी मनोवृति का ही बहुल्य देखने को मिलता है । संभव है कि मेरी दृष्टि में सत्यता को देखने की क्षमता न हो ।

    दुःख का होना भी प्रभु का प्रसाद स्वरुप ही समझना चाहिए है  और कह सकते है ईश्वर का बुलावा ही होता है । सुख के समय जो ईस्वर के प्रति विस्मृति  हो जाती है वो दुःख में ही वापस दिखती है ।

    सुख में हम ईस्वर से क्या मांगते हैं ? सत्य तो ये है कि किताबी ज्ञान के तौर पे मै कुछ भी कहने में  सक्षम हूँ पर वास्तिविकता में मैंने अभी तक इसका अनुभव नहीं किया । अगर मै भविष्य में आपने सुखकाल  में प्राथना करूँगा तो शायद मेरी प्राथना इस प्रकार से होगी । हे परमपिता परमेश्वर मुझे पापकर्मो से सदेव बचाए रखना और सही कर्तव्यों को पालन करने की शक्ति एवंग मार्गदर्शन  प्रदान करना । मेरी  अज्ञानता को दूर कर मुझे आत्मिक सुख/वास्तविक सुख  प्राप्त करने का ज्ञान प्रदान करना  । शुभ और अशुभ परिस्थितिओं में भी आपके श्री चरणों में दृढ़ता बनी रहे इतनी कृपा सदेव बनाये रखना  । मुझे इतनी समर्थता प्रदान करे जिससे इस जीवन में मै भी कुछ सेवार्थ के कर्म करने में सक्षम हो सकूँ । जो भी मेरे पास है और प्राप्त होगा  सब आपका ही दिया है और मै तो केवल एक माध्यम मात्र उसका वितरण करता हूँ और करता रहूँगा  हूँ । मुझे सत्य का बोध कराके  इस भौतिक संसार से मुक्ति का मार्ग दिखलाये । प्रभु मेरी कुप्रवृतियो का नाश कर सात्विक गुणों का संचार करें । मेरी मन की चंचलता को समाप्त कर शुद्ध भक्ति का बीज ह्रदय में अंकुरित करें । जीवन के विसम परिस्थितिओं में जूझने की ,सहने की शक्ति प्रदान करे जिससे आत्मबल एवंग शारीरिकबल कमजोर न पड़े । वो दृढ़ता प्रदान करें जिससे विवेक और मन सामान्य रख सकें । आपकी लीलाओ का गुणगान,विचारो एवंग वचनों को फैला संकू इतनी कृपा करना ।

     ईश्वर प्राथना का मतलब मेरे विचार से परात्मा से जीवात्मा का संपर्क साधना । प्राथना से ईश्वर से अपनी अभिन्नता का बोध का आभास करना  । ईश्वर के प्रति एक दृढ विस्वास और आशा का श्रोत स्वीकारना । अपनी  इच्छाओ को परमेश्वर तक पहुँचाने का मार्ग । प्राथना से अपनी भक्ति को और दृढ बनाना । अपनी कामनाओ (आध्यात्मिक /भौतिक ) की प्राप्ति के लिए याचना करना ।

    आपकी बात सही है कि मनुष्य कि प्रकृति है कि कुछ न कुछ मांगना या चाहत रखना पर ये आपका कहना कि इसको आपने से अलग नहीं किया जा सकता तो ये सत्य नहीं है । जबतक हम केवल मांगते रहेंगे तो इसका मतलब ये ही है कि हम विषय वासनाओ में लिप्त है और जबतक विषय वासनाओ में लिप्त रहेंगे तो इस मोह के बंधन से कैसे मुक्त हो सकेंगे और जब मोहसे मुक्त नहीं हो सकेंगे तो फिर मोक्ष की अभिलाषा कैसे कर सकते हैं । इस मोह के जाल को तोड़ पाना कोई आसान काम नहीं है पर ज्ञान की तलवार से एवंग ईश्वरकृपा  से लगातार प्रयास से सफलता मिल सकती है ।


    "बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न चून" एवंग "बच्चे के बिना रोये माँ भी दूध नहीं पिलाती" ,इस पर मै केवल इतना ही कहना चाहूँगा कि "कही का ईट कही का रोड़ा ,भानुमती ने कुनबा जोड़ा " :) :)

    एक महान संत की वाणी  और एक साधारण तौर से कहे गए मुहावरे की तुलना कर पाना मेरी क्षमता के परे की बात है इसलिए मै आपको इस विषय पर कोई अपना विचार नहीं दे सकता या आप कह सकती हैं मै पूर्णता अक्क्षम हूँ  ।

    जिस मोक्ष की आपने बात कही है वो केवल कुछ त्यागने से ही नहीं प्राप्त होता है ऐसा शास्त्रों में लिखा है । इसके साथ -साथ अनेक चीजों का ज्ञान होना भी बहुत अवश्यक होता है । इसपर संक्षिप्त रूप से कुछ विचार रखना मेरे द्वारा संभव नहीं है क्योकि खुद  इस विषय पर बड़े बड़े ऋषिमुनियों के विचारो में ही साम्यता नहीं है  इसलिए किसी अन्य समय इसका विवेचन करना ही उचित होगा ।

    इस फोरम में कोई भी अल्प ज्ञानी या महा ज्ञानी नहीं है । हम सभी साईं प्रेमी हैं और सही मार्ग को प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं । जिसको भी बाबा की कृपा से जो भी अंसिक रूप से ज्ञान या कह सकती है जानकारियां  उपलब्ध हैं, सबसे आदान -प्रदान करने का मात्र प्रयास ही कर रहा है । इसलिए कोई न तो इस मंच में बड़ा है न छोटा है सब इस मंदिर में सामान है ।

    अंत में आपको पुनः धन्यवाद करना चाहूँगा जो आपने उचित प्रश्नों को उजागर कर मुझे भी चिंतन करने के लिए एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया । आपके प्रश्नों का उत्तर देने की जल्दबाजी में हो सकता है कि मै पूर्णता सफल नहीं रहा इसके लिए मै भी आपकी तरह ही आपसे क्षमापार्थी हूँ ।

    ॐ साईं राम

    « Last Edit: March 06, 2012, 01:04:51 AM by Pratap Nr.Mishra »

    Offline Pratap Nr.Mishra

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    ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    ज्ञान हमारा ध्यान अंदर की तरफ कर देता है

    धर्मज्ञान
    आर . डी . अग्रवाल


    हम   कौन   हैं  ?  हमें   मनुष्य   का   ही   शरीर   क्यों   मिला   है  ?  भगवान   क्या   है  ?  हम   इस   संसार   में   क्यों   आए   हैं  ?  ये   कुछ   ऐसे  प्रश्न   हैं  ,  जो   भाषा  ,  देश  ,  रंग   और   अंग   का   भेदभाव   नहीं   करते।   सारी   दुनिया   के   लोग   इन   सवालों   से   जूझते   हैं।   

    एक खरगोश जंगल में जा रहा था। चौकन्नी आंखों से इधर - उधर देखता हुआ , नाक ऊपर उठा कर सूंघता हुआ कि कहीं कोई खतरा तो नहीं है। लेकिन अचानक सामने एक शेर आ गया। शेर को भूख लगी थी। खरगोश ने सोचा कि अब तो गए ! अगर बचना है तो जल्दी कोई उपाय सोचो। तो उसने शेर की तरफ देखा और पूछा , क्या चाहिए तुमको ? शेर को झटका लगा कि इतना छोटा सा खरगोश उससे पूछ रहा है कि क्या चाहिए तुमको ?

    शेर ने दहाड़ते हुए कहा , मुझे भूख लगी है , तुमको खाऊंगा। तो खरगोश बोला , तुम मुझे नहीं खा सकते। मुझे इस जंगल के देवता ने भेजा है। मैं कोई ऐसा - वैसा खरगोश नहीं हूं। मुझे तो यहां राज करने के लिए भेजा गया है। मैं तेरा राजा हूं , तू मुझे कैसे खाएगा ?

    सुनकर शेर को धक्का लगा , यह पिद्दी सा जानवर कह रहा है कि उसका राजा है। लेकिन क्या पता , कहीं जंगल के देवता ने सचमुच ही इसे बना दिया हो। तो शेर ने थोड़ी देर सोच कर कहा , पहले साबित करना पड़ेगा कि तू यहां का राजा है।

    खरगोश ने कहा , कोई चिंता की बात नहीं। तुम मेरे पीछे - पीछे आओ और मैं तुम्हारे आगे - आगे चलता हूं। खुद देख लेना कि जंगल के सारे जानवर मेरी कितनी इज्जत करते हैं , मुझ से कितना डरते हैं। शेर तैयार हो गया।

    आगे - आगे खरगोश चला , और उसके पीछे - पीछे इतना बड़ा शेर। जंगल के जानवर पहले खरगोश को देखते , पर जैसे ही उनकी नजर शेर पर पड़ती , डर कर भाग जाते। कुछ यह देख कर सहम गए कि छोटे से खरगोश के पीछे इतना बड़ा शेर इस कदर सहम कर क्यों चल रहा है। जरूर खरगोश में कोई विशेष ताकत है। पर शेर को लगा कि सभी जानवर सिर्फ इस खरगोश के ही डर से भाग रहे हैं। तो शेर ने कहा , क्षमा करना , मुझे मालूम नहीं था। तो उस दिन खरगोश की जान बच गई।

    शेर अपने आपको नहीं जानता था कि वह कौन है ? उसकी ताकत कितनी है ? खरगोश ने जो भी उसको सिखा दिया , उसी को सच मान लिया। कभी यह सोचा ही नहीं कि ये जानवर खरगोश को देखकर नहीं , मुझे देख कर डर रहे हैं।

    कहानी का सार यह है कि हमारे  आगे भी अज्ञानता रूपी खरगोश भाग रहा है , और हम समझ रहे हो कि हमारे आस पास , हमारे जीवन में जो कुछ घटित हो रहा है , वह उसी के प्रताप से हो रहा है। खरगोश है धन कमाने की इच्छा , नाम पाने की इच्छा। उसके हिसाब से हम जीवन के सुख - दुख का हिसाब करने लगे। अपनी ताकत का इम्तिहान देने के लिए हम उस खरगोश के पीछे - पीछे चलने लगे। उसके हिसाब से घटनाओं की व्याख्या करने लगे। हम भूल गए कि इस जीवन का उद्देश्य क्या है ?

    नर तन भव वारिध कहुं बेरो।

    सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो॥

    यानी मनुष्य का यह शरीर ( नर तन ) इस भव सागर को पार करने का बेड़ा ( नौका ) है और इस सांस का , इस हवा का आना - जाना ही मेरी कृपा है - ये कह रहे हैं भगवान। ज्ञान होने से यह बात समझ में आ जाती है कि यह जो शरीर मेरे पास है , इसमें जो सांस चल रही है , इसकी जो सामर्थ्य है - वह प्रभु की ही कृपा है। ज्ञान न हो मनुष्य उसे अपनी ताकत समझ बैठता है।

    ज्ञान हमारा ध्यान बाहर से अंदर की तरफ कर देता है , ताकि हम समझ सकें कि हम कौन हैं ? यदि हम मनुष्य हैं , तो दूसरा कौन है ? यदि वह भी मनुष्य है , तो हमारे और उसके बीच भेद कैसा ?


    ॐ साईं राम

    Offline Saialwayshere

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    Re: प्राथना का सही अवसर
    « Reply #54 on: March 06, 2012, 09:14:59 AM »
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  • Om Sai ram Pratap ji

    Main bhi aapki tarah hi bachpan se jigyasu pravatti ki rahi hu , main uss baat ko swikaar kabhi nahi karti, jis baat ko

    swikaar karne ko mera mann nahi kahta , bhale hi wo baat kisi sant ya mahatma ne hi kyo na kahi ho
     
    सुख में सुमिरन सब करें ,दुःख में करें  न कोय
    जो सुख में सुमिरन करें ,फिर दुःख काये का होय ।।         

    Aap mujhe ye batayiye ki jo log sukh main sumiran karte hai toh kya unke uper kabhi dukh nahi aate ??

    Mujhe bhi auro ka  pata nahi ,per main sukh main apne aapko bhagwan se jyada juda hua mahsoos karti hu , mera mann yadi prathna karne ka hota hai, toh wo jyadatar sukh main hi hota hai …jabki iske wiprit dukh main  prathna aur bhagwan ke prati wirakkti ki bhawna utpanna hoti hai .

    <<<<आपकी बात सही है कि मनुष्य कि प्रकृति है कि कुछ न कुछ मांगना या चाहत रखना पर ये आपका कहना कि इसको आपने से अलग नहीं किया जा सकता तो ये सत्य नहीं है ।>>>>

    <<<अगर मै भविष्य में आपने सुखकाल  में प्राथना करूँगा तो शायद मेरी प्राथना इस प्रकार से होगी । हे परमपिता परमेश्वर मुझे पापकर्मो से सदेव बचाए रखना और सही कर्तव्यों को पालन करने की शक्ति एवंग मार्गदर्शन  प्रदान करना । मेरी  अज्ञानता को दूर कर मुझे आत्मिक सुख/वास्तविक सुख  प्राप्त करने का ज्ञान प्रदान करना  । शुभ और अशुभ परिस्थितिओं में भी आपके श्री चरणों में दृढ़ता बनी रहे इतनी कृपा सदेव बनाये रखना  । मुझे इतनी समर्थता प्रदान करे जिससे इस जीवन में मै भी कुछ सेवार्थ के कर्म करने में सक्षम हो सकूँ । जो भी मेरे पास है और प्राप्त होगा>>>
     
    Pratapji Aapne swam hi apni baat ka uttar diya hai ,bachaye rakhna , banaye rakhna ya pradaan karna..

    Kya ye “Iswar” se apne liye kuch chahna/mangna nahi hai ??yadi aap kisi aur ke liye bhi mangte hai toh kya ye aapke liye hi mangna nahi hua ? kyoki kisi aur ka sukh dekh kar aapki apni atma ko santi mil rahi hai ….tab kya ye indirectly aapke apne liye nahi hua??

    Yadi hum dukh main dukh door karne ki prathna karte hai , toh sukh main sab kuch achha banaye rakhne ki prathna karte hai ,ye alag baat hai ki kuch log mokchya aur kuch log sansarik wastuo ki prapti ki chah rakhte hai .

    Per chah sabhi ke mann main hoti hai.

    Bahut bade bade saint mahatmao ne sadiyo  Himalaya per ja kar tapasya ki , kis liye ??

    Kya unhe koi chah nahi thi  ??  Bhagwan ke prasanna hone per kisi ne Mokchya manga, kisi ne putra , kisi ne rajya……

    Per manga sabhi ne. 

    Main apni baat fir se kahungi ki chahna insanni prawatti hai , isse aap apne se alag nahi kar sakte, per isse hum control kar sakte hai.

    Jab ham sirf aur sirf apne liye chahte hai tab ye swarth hota hai , per jab ham kisi aur ka sukh chahte hai tab ye perswarth hota hai.

    Jab ham apne liye prathna karte hai tab saath hi kisi aur ke liye bhi prathna karni chahiye , issi tarah hum sirf apne liye chahne ki prawatti se  uper uth sakte hai.

    Jab hame dusro ko dene main sukh ka anubhaw hone lagega, tab apne aap hi hamare mann main sirf apne liye hi kuch chahne ki bhawna kam hoti jayegi. 

    एक महान संत कि वाणी  और एक साधारण तौर से कहे गए मुहावरे की तुलना कर पाना मेरी क्षमता के परे की बात है

    Kai baar sadharan dikhne wali baat bhi sadhran nahi hoti , usme bahut gahra arth chipa hua hota hai.

    Yadi aisa na hota to Baba kyo Shree Dashganu ji ko "Upnisad" ka arth samjhane Kaka saheb ki nirdhan unpad noukrani ke pass bhejte ? jo kaam bade bade vidyavan na kar sake wo kaam ek sadaran si noukrani ne kar diya.

     जिस मोक्ष की आपने बात कही है वो केवल कुछ त्यागने से ही नहीं प्राप्त होता है ऐसा शास्त्रों में लिखा है ।

     Mokchya kya hai ? janm aur martyu ke sansarik chakra se mukti  hi mokchya hai ,aur ye tabhi sambhava hai jab ham per kisi sansarik jeev ka koi karj(rin/debt)  na ho,  aur na hi hamara kisi aur per.

    Hum iss sansaar main baar baar janm lete hai kyoki hamare uper kai prakar ka rin hota hai , kisi ka hum per aur hamara kisi aur per .

    Jab ham iss rin (debt) ke bandhan se uper  uth jayenge tab hame iss naswar sansaar main janm lene ki awasyakta hi nahi hogi  .


    ईश्वर प्राथना का मतलब मेरे विचार से परात्मा से जीवात्मा का संपर्क साधना

    Aapki iss baat se main sahmat hu , ki prathna ka matlab parmatma aur jivatma ka sampak hai .

    Aur yadi hamari dil aur atma saaf hai , toh sukh ho ya dukh ho , jab bhi hum usse sachhe dil se pukarenge wo hamari jarur sunega .

    Om sai ram
    Chetna






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    • राम भी तू रहीम भी तू तू ही ईशु नानक भी तू
    Re: पुरुषार्थ
    « Reply #55 on: March 07, 2012, 11:35:23 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    पुरुषार्थ

    वन का मृग घास, तृण और पत्तों को रसीला जानकर खाता है। विवेकी मनुष्य को उस मृग की भांति स्त्री, पुत्र, बान्धव, धनादि में मग्न नहीं होना चाहिए। इनसे विरक्त होकर, दाँत भीँचकर संसारसमुद्र से पार होने का पुरुषार्थ करना चाहिए। जैसे केसरी सिंह बल करके पिंजरे में से निकल जाता है वैसे ही संसार की कैद से निकल जाने का नाम पुरुषार्थ है। नश्वर चीजें बढ़ाकर, अहं को बढ़ाकर, चीख-चीखकर मर जाने का नाम पुरुषार्थ नहीं है।

    एक भक्त था सब देवी देवताओं का मानता था और आशा करता थाः "मुझे कोई मुसीबत पड़ेगी तब देवी देवता मेरी सहायता करेंगे।" शरीर से हट्टाकट्टा, मजबूत था। बैलगाड़ी चलाने का धन्ध करता था।

    एक दिन उसकी बैलगाड़ी कीचड़ में फँस गई। वह भगतड़ा बैलगाड़ी पर बैठा-बैठा एक-एक देव को पुकारता था कि- 'हे देव! मुझे मदद करो। मेरी नैया पार करो। मैं दीन हीन हूँ। मैं निर्बल हूँ। मेरा जगत में कोई नहीं। मैं इतने वर्षों में तुम्हारी सेवा करता हूँ... फूल चढ़ाता हूँ... स्तुति भजन गाता हूँ। इसलिए गाता था कि ऐसे मौके पर तुम मेरी सहाय करो।"

    इस प्रकार भक्त एक-एक देव को गिड़गिड़ाता रहा। अन्धेरा उतर रहा था। निर्जन और सन्नाटे के स्थान में कोई चारा न देखकर आखिर उसने हनुमान जी को बुलाया। बुलाता रहा.... बुलाता रहा....। बुलाते-बुलाते अनजाने में चित्त शान्त हुआ। संकल्प सिद्ध हुआ। हनुमान जी प्रकट हुए। हनुमान जी को देखकर बड़ा खुश हुआ।

    "और सब देवों को बुलाया लेकिन किसी ने सहायता नहीं की। आप ही मेरे इष्टदेव हैं। अब मैं आपकी ही पूजा करूँगा।"

    हनुमान जी ने पूछाः "क्यों बुलाया है?"

    भक्त ने कहाः "हे प्रभु ! मेरी बैलगाड़ी कीचड़ में फँसी है। आप निकलवा दो।"

    पुरुषार्थमूर्ति हनुमान जी ने कहाः "हे दुर्बुद्धि ! तेरे अन्दर अथाह सामर्थ्य है, अथाह बल है। नीचे उतर। जरा पुरुषार्थ कर। दुर्बल विचारों से अपनी शक्तियों का नाश करने वाले दुर्बुद्धि ! हिम्मत कर नहीं तो फिर गदा मारूँगा।"

    निदान, वह हट्टाकट्टा तो था ही। लगाया जोर पहिए को। गाड़ी कीचड़ से निकालकर बाहर कर दी।

    हनुमान जी ने कहाः "यह बैलगाड़ी तो क्या, तू पुरुषार्थ करे तो जन्मों-जन्मों से फँसी हुई तेरी बुद्धिरूपी बैलगाड़ी संसार के कीचड़ से निकालकर परम तत्त्व का साक्षात्कार भी कर सकता है, परम तत्त्व में स्थिर भी हो सकता है।

    ॐ साईं राम



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    Re: भक्त प्रह्लाद
    « Reply #56 on: March 10, 2012, 11:49:40 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    भक्त प्रह्लाद

    साधना में सफलता

    श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन

    हरी ॐ संस्था

    प्रह्लाद के पिता ने प्रह्लाद को भजन करने से रोका था। लेकिन प्रह्लाद की प्रीति-भक्त भगवान में दृढ़ हो चुकी थी। प्रारम्भ से ही उसने सत्संग सुना था। जब वह माँ कयाधू के गर्भ में था तब कयाधू नारदजी के आश्रम में रही थी। माँ तो सत्संग सुनते झपकियाँ ले लेती थी लेकिन गर्भस्थ शिशु के मानस पर सत्संग के संस्कार ठीक से अंकित होते थे।

    प्रह्लाद ग्यारह वर्ष का हुआ तो उसके पिता हिरण्यकशिपु ने उसको सिपाहियों के साथ गश्त करने के रखा। एक रात को प्रह्लाद ने देखा कि दूर कहीं आग की ज्वालाएँ निकल रही हैं, धुआँ उठ रहा है। नजदीक जाकर देखा तो कुम्हार के मटके पकाने के निभाड़े में आग लगाई थी। कुम्हार वहाँ खड़ा हाथ जोड़ कर प्रार्थना कर रहा थाः

    "हे प्रभो ! अब मेरे हाथ की बात नहीं रही और तू चाहे तो तेरे लिए कुछ कठिन नहीं। हे भगवान ! तू दया कर। मैं तो नादान हूँ लेकिन तू उदार है। हे कृपासिन्धो ! तू मेरी भूल सुधार दे। मैं जैसा तैसा हूँ लेकिन तेरा हूँ। तू रहम कर। तेरी दया से सब कुछ हो सकता है। तू उन निर्दोष बच्चों को बचा ले नाथ !"

    कुम्हार बार-बार प्रणाम कर रहा है। आँखों में आँसू सरक रहे हैं। वही प्रार्थना के शब्द दुहराये जा रहा है और निभाड़े की आग जोर पकड़ रही है। प्रह्लाद उसके पास गया और पूछाः

    प्रश्नः क्या बाता है? क्या बोल रहा है?

    कु. "कुमार ! हमने मटके बनाये और आग में पकाने के लिए जमाकर रखे थे। उन कच्चे मटकों में बिल्ली ने बच्चे दे रखे थे। हमने सोचा था कि आग लगाने के पहले उन्हें निकाल लेंगे। लेकिन भूल गये। निभाड़े के बीच में बच्चे रह गये और आग लग चुकी है। अब याद आया कि अरे ! नन्हें-मुन्ने मासूम बच्चे जल-भुनकर मर जायेंगे। अब हमारे हाथ की बात नहीं रही। चारों और आग लपटें ले रही है। प्रभु अगर चाहें तो हमारी गलती सुधार सकता है। बच्चों को बचा सकता है।"

    प्रश्नः "यह क्या पागलपन की बात है? ऐसी आग के बीच बच्चे बच सकते हैं?"

    कु.- "हाँ युवराज ! परमात्मा सब कुछ कर सकता है। वह कर्तुं अकर्तुं अन्यथा कर्तुं समर्थः है। वही तो छोटे-से बीज में से विशाल वृक्ष बना देता है। पानी की बूँद में से राजा-महाराजा खड़ा कर देता है। वही पानी की बूँद मनुष्य बनकर रोती है, अच्छा-बुरा, अपना-पराया बनाती है। जीवनभर मेरा-तेरा करती है और आखिर में मुट्ठीभर राख का ढेर छोड़कर भाग जाती है। यह क्या ईश्वर की लीला का परिचय नहीं है? समुद्र में बड़वानल जलती है वह पानी से बुझती नहीं और पेट में जठराग्नि रहती है वह शरीर को जलाती नहीं। गाय रूखा-सूखा घास खाती है और सफेद मीठा दूध पीता है तो जहर बनाता है। माँ रोटी खाती है तो दूध बनाती है। बच्चा बड़ा हो जाता है तो दूध अपने आप बन्द हो जाता है। परमात्मा की लीला अपरंपार है। वह बिल्ली के बच्चों को भी बचा सकता है।"

    प्र.- "बिल्ली के बच्चे कैसे बचते हैं यह मुझे देखना है। मटके पक जायें और तुम निभाड़ा जब खोलो तब मुझे बुलाना।"

    कु.- "हाँ महाराज ! आप सुबह में आना। आप आयेंगे बाद में मैं निभाड़ा खोलूँगा।"

    सुबह में प्रह्लाद पहुँच गया। कुम्हार ने थोड़ा सा अन्तर्मुख होकर भगवान का स्मरण करते हुए चारों ओर से गरम-गरम मटके हटाये तो बीच के चार मटके कच्चे रह गये थे। उनको हिलाया तो बिल्ली के बच्चे 'म्याऊँ म्याऊँ' करते छलांग मारकर बाहर निकल आये।
    प्रह्लाद के चित्त में सत्संग के संस्कार सुषुप्त पड़े थे वे जग आये, भगवान की स्मृति हो आयी और लगा कि सार वही है। संसार से वैराग्य हो गया और भजन में मन लग गया।

    प्रह्लाद भगवान के रास्ते चल पड़ा तो घोर विरोध हुआ। एक असुर बालक विष्णुजी की भक्ति करें, देवों के शत्रु हिरण्यकशिपु यह कैसे सह सकता है? फिर भी प्रह्लाद दृढ़ता से भजन करता रहा। पिता ने उसे डाँटा, फटकारा, जल्लादों से डराया, पर्वतों से गिरवाया, सागर में डुबवाया लेकिन प्रह्लाद की श्रद्धा नहीं टूटी।

    पहले तो ईश्वर में सच्ची श्रद्धा होना कठिन है। श्रद्धा को जाय लेकिन टिकना कठिन है। श्रद्धा टिक भी जाये फिर भी तत्त्वज्ञान होना कठिन है।

    हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को मारने के लिए कई प्रयास किये। प्रह्लाद ने सोचाः 'जिस हरि ने बिल्ली के बच्चों को बचाया तो क्या मैं उसका बच्चा नहीं हूँ? वह मुझे भी बचाएगा।' प्रह्लाद भगवान के शरण हो गया। पिता ने पर्वतों से गिरवाया तो मरा नहीं, सागर में फिंकवाया तो डूबा नहीं। आखिर लोहे के स्तंभ को तपवाकर पिता बोलाः

    "तू कहता है कि मेरा भगवान सर्वत्र है, सर्व समर्थ है। अगर ऐसा है तो वह इस स्तंभ में भी है, तो तू उसका आलिंगन कर। वह सर्व समर्थ है तो यहाँ भी प्रकट हो सकता है।"

    प्रह्लाद ने तीव्र भावना करके लोहे के तपे हुए स्तंभ को आलिंगन किया तो वहाँ भगवान का नृसिंहावतार प्रकट हुआ।

    जब भोगों का बाहुल्य हो जाता है, जब दुष्टों के जोर जुल्म बढ़ जाते हैं तब भगवान के चाहे कहीं से किसी भी रूप में प्रकट होने को समर्थ हैं।

    नृसिंह के रूप में भगवान प्रकट हुए। हिरण्यकशिपु का वध करके स्वधाम पहुँचाया, प्रह्लाद को राज्य दिया और भगवान अन्तर्ध्यान हो गये।

    प्रह्लाद ने भगवान के दर्शन तो किए लेकिन भगवत्तत्व का साक्षात्कार अभी नहीं हुआ। भगवान का तात्त्विक स्वरूप जानना कठिन है।

    कुछ समय बीता। असुरों के आचार्य ने प्रह्लाद को भरमाया। बोलेः "प्रह्लाद ! विष्णु ने तुम्हारे पिता को मार डाला। तुमने उनकी शरण माँगी थी, रक्षण की प्रार्थना की थी लेकिन ऐसा कहा था कि मेरे पिता को मार डालो?" "नहीं, मैंने पिता को मारने को तो नहीं कहा था।" "तुमने कहा नहीं फिर क्यों मारा? तुम पर विष्णु की प्रीति थी तो पिता की बुद्धि सुधार देते। उनकी हत्या क्यों की?"

    विष्णु भगवान में प्रह्लाद की दृढ़ श्रद्धा तो थी लेकिन श्रद्धा को हिलानेवाले लोग मिल जाते हैं तो श्रद्धा 'छू....' हो जाती है। ऐसी श्रद्धा हिलाने वाले कई लोग साधक के जीवन में आते रहते हैं। ऐसी श्रद्धा हिलाने वाले कई लोग साधक के जीवन में आते रहते हैं। साधना में, गुरुमन्त्र में, ईश्वर में, सदगुरु में, सत्संग में श्रद्धा हिलानेवाला कोई न कोई तो मिल ही जायेगा। बाहर से कोई नहीं मिलेगा तो हमारा मन ही तर्क-वितर्क करके विरोध करेगा, श्रद्धा को हिलायेगा। इसीलिए श्रद्धा सदा टिकनी कठिन है।

    असुरगुरु शुक्राचार्य ने प्रह्लाद की श्रद्धा को हिला दिया। शुक्राचार्य तत्त्वज्ञानी नहीं हैं, संजीवनी विद्या जानते हैं। असुरों पर उनका पूरा प्रभाव है। लेकिन ब्रह्मज्ञान के सिवाय का प्रभाव किस काम का? वह प्रभाव तो चौरासी लाख योनियों की यातनाओं के प्रति ही खींच ले जायगा।
    शुक्राचार्य प्रह्लाद को कहते हैं- विष्णु ने तुम्हारे बाप को मार डाला फिर भी तुम उनको पूजते हो? कैसे मूर्ख हो ! इतनी अन्धश्रद्धा?

    किसी श्रद्धालु को कोई बोले कि 'ऐसी तुम्हारी अन्धश्रद्धा !' तो वह बचाव तो करेगा कि मेरी अन्धश्रद्धा नहीं है, सच्ची श्रद्धा है लेकिन विरोधी का कथन उसकी श्रद्धा को झकझोर देगा। शब्द देर-सबेर चित्त पर असर करते ही हैं इसीलिए 'गुरुगीता' में भगवान शंकर ने रक्षा का कवच फरमाया किः

    गुरुनिन्दाकरं दृष्टवा धावयेदथ वासयेत्।
    स्थानं वा तत्परित्याज्यं जिह्वाच्छेदाक्षमो यदि।।

    'गुरु की निन्दा करने वाले देखकर यदि उसकी जिह्वा काट डालने में समर्थ न हो तो उसे अपने स्थान से भगा देना चाहिए। यदि वह ठहरे तो स्वयं उस स्थान का त्याग कर देना चाहिए।'

    शुक्राचार्य ने प्रह्लाद में भगवान विष्णु के प्रति वैरभाव के संस्कार भर दिये। प्रह्लाद आ गया उनके प्रभाव में। कहने लगाः "आप कहो तो विष्णु से बदला लूँ।"

    भगवान विष्णु का विरोध करता हुआ प्रह्लाद सेना को सुसज्जा कर के आदि नारायण का आवाहन कर रहा हैः "आ जाओ। तुम्हारी खबर लेंगे।"

    भगवान भक्त का अहंकार और पतन नहीं सह सकते। दयालु श्रीहरि ने बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण किया। हाथ में लकड़ी, झुकी कमर, कृश काय, श्वेत वस्त्रादि से युक्त ब्राह्मण के रूप में प्रह्ललाद के राजदरबार में जाने लगे। द्वार पर पहुँचे तो दरबान ने कहाः
    "हे ब्राह्मण ! प्रह्लाद युद्ध की तैयारी में हैं। युद्ध के समय साधु-ब्राह्मण का दर्शन ठीक नहीं माना जाता।"
    ब्राह्मण वेशधारी प्रभु ने कहाः "मैंने सुना है कि प्रह्लाद साधु ब्राह्मण का खूब आदर करते हैं और तू मुझे जाने से रोक रहा है?"

    दरबान के कहाः "प्रह्लाद पहले जैसे नहीं हैं। अब सावधान हो गये हैं। शुक्राचार्य ने उनको समझा दिया है। अब तो भगवान विष्णु से बदला लेने की तैयारी में हैं। साधु-ब्राह्मण का आदर करने वाले प्रह्लाद वे नहीं रहे। हे ब्राह्मण ! तुम चले जाओ।"
    "भाई ! कुछ भी हो, मैं अब प्रह्लाद से मिलकर ही जाऊँगा। तू नहीं जाने देगा तो मैं यहीं प्राण त्याग दूँगा। तुमको ब्रह्महत्या लगेगी।"

    इस प्रकार द्वारपाल को समझा-बुझाकर भगवान प्रह्लाद के समक्ष पहुँचे। अभिवादन करते हुए ब्राह्मण वेशधारी प्रभु ने कहाः

    "प्रह्लाद ! तेरा कल्याण हो। सुना है अपने पितृहन्ता विष्णु से तुम बदला लेना चाहते हो। तुम मेरा बदला भी लेना। मुझ बूढ़े ब्राह्मण का भी सर्वनाश हो गया।" ब्राह्मण वेशधारी भगवान ने विष्णु विरोधी कुछ बातें कहीं। प्रह्लाद ने उनको नजदीक बिठाया। बातों का सिलसिला चला।
    ब्राह्मण ने पूछाः "तुम विष्णु से बदला लेना चाहते हो? विष्णु कहाँ रहते हैं?"

    प्र.- "वे तो सर्वत्र हैं। सर्व हृदयों में बैठे हैं।"

    ब्रा.- "हे मूर्ख प्रह्लाद ! जो सर्वत्र है, सर्व हृदयों में है, उसका विनाश तू कैसे करेगा? मालूम होता है, जैसा मैं मूर्ख हूँ, वैसा ही तू मन्दमति है। शुक्र के बहकावे में आकर दुष्ट निश्चयी हुआ है। मैं यह छड़ी गाड़ता हूँ जमीन में, उसको तू निकालकर दिखा तो मानूँगा कि तू विष्णु से युद्ध कर सकता है।"
    ब्राह्मण वेशधारी भगवान ने जमीन में अपनी छड़ी गाड़ दी। प्रह्लाद उठा सिंहासन से। खींचा छड़ी को एक हाथ से, फिर दोनों हाथ से। पूरा बल लगाया। छड़ी खींचने में झुकना पड़ा। बल लगा। प्राणापान की गति सम हुई। राज्यमद कुछ कम हुआ। प्रह्लाद की बुद्धि में प्रकाश हुआ कि यह ब्राह्मण वेशधारी कोई साधारण व्यक्ति नहीं हो सकता है। भक्ति के पुराने संस्कार थे ही। ऊपर से कुसंस्कार जो पड़े थे वे हटते ही प्रह्लाद उस ब्राह्मण वेशधारी को नम्रतापूर्वक आदर भरे वचनों से कहने लगाः

    "हे विप्रवर ! आप कौन हैं?"

    भगवान बोलेः "जो अपने को नहीं जानता वह मेरे को भी ठीक से नहीं जानता। जो अपने को और मेरे को नहीं जानता वह माया के संस्कारों में सूखे तिनके की नाई हिलता-डुलता रहता है। हे प्रह्लाद ! तू सन्मति को त्याग कुमति के आधीन हुआ है। तबसे तू अशान्त और दुःखी हुआ है। कुनिश्चय करने वाला व्यक्ति हमेशा दुःख का भागी होता है।"

    करूणानिधान के कृपापूर्ण वचन सुनकर प्रह्लाद समझ गया कि ये तो मेरे श्रीहरि हैं। चरणों पर गिर पड़ा। क्षमा माँगने लगा। तब भक्तवत्सल भगवान प्रह्लाद को कहने लगेः

    "क्षमा तो तू कर। मेरे को मारने के लिए इतनी सेना तैयार की है ! तू क्षमा कर मेरे को!"

    कहाँ तो पिता की इतनी शासना-पर्वत से गिराना, पानी में फेंकना आदि ! ये शासना करने पर भी प्रह्लाद विष्णु की भक्ति में लगे रहे। शुक्राचार्य ने अपना होकर धीरे-धीरे कुसंस्कार भर दिये तो वही प्रह्लाद विष्णुजी युद्ध करने को तत्पर हुआ।

    जब तक सर्व व्यापक श्रीहरित्व का साक्षात्कार नहीं होता, अन्तःकरण से सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता, परिच्छिन्नता नहीं मिटती तब तक जीव की श्रद्धा और स्थिति चढ़ती उतरती रहती है।

    वैकुंठ में भगवान के पार्षद जय-विजय प्रतिदिन श्रीहरि का दर्शन करते हैं लेकिन हरितत्त्व का साक्षात्कार न होने क कारण उनको भी तीन जन्म लेने पड़े। प्रह्लाद को श्रीहरि के श्रीविग्रह का दर्शन हुआ, हरि सर्वत्र है ऐसा वृत्तिज्ञान तो था लेकिन वृत्तिज्ञान सुसंग कुसंग से बदल जाता है। पूर्ण बोध अबदल है।

    प्रह्लाद जैसों की भी श्रद्धा कुसंग के कारण हिल सकती है तो हे साधक ! ऐसे वातावरण से, ऐसे व्यक्तियों से, ऐसे संस्कारों से बचना जो  साधना के मार्ग से, ईश्वर के रास्ते से फिसलाते हैं।

    ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

    Offline Pratap Nr.Mishra

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    • राम भी तू रहीम भी तू तू ही ईशु नानक भी तू
    Re: कर्म और ज्ञान
    « Reply #57 on: March 10, 2012, 12:48:25 PM »
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  • ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    कर्म और ज्ञान

    श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन

    हरी ॐ संस्था


    एक लंगड़ा आदमी बैठा था बद्रीनाथ के रास्ते पर। कहे जा रहा थाः "लोग बद्रीनाथ की यात्रा को जा रहे हैं। हमारे पास पैर होते तो हम भी भगवान के दर्शन करते।" पास में साथी बैठा था। वह सूरदास था। सुन रहा था उसकी बात। वह भी कहने लगाः "यार ! मैं भी चाहता था कि ईश्वर के दर्शन करूँ लेकिन मेरे पास आँखों की ज्योति नहीं है। कम से कम ईश्वर के धाम में तो जाने की रूचि है।"
    एक महात्मा ने कहाः "एक की आँखें और दूसरे के पैर, दोनों का सहयोग हो जायेगा तो तुम लोग बद्रीनाथ पहुँच जाओगे।"
    ऐसे ही जीवन के तत्त्व का जो ज्ञान है वह आँख है। वह ज्ञान अगर कर्म में नहीं आता तो वह लंगड़ा रह जाता है। कर्म करने की शक्ति जीवन में है लेकिन ज्ञान के बिना है तो ऐसी अन्धी शक्तियों का दुरुपयोग हो जाता है। जीवन बरबाद हो जाता है। यही कारण कि जिनके जीवन में जप-तप-ज्ञान-ध्यान और सदगुरुओं का सान्निध्य नहीं है ऐसे व्यक्तियों की क्रियाशक्ति राग, द्वेष और अभिमान को जन्म देकर हिंसा आदि का प्रादुर्भाव कर देती है। कर्म करने की शक्ति भ्रष्टाचार के तरफ, दूसरों का शोषण करने के तरफ, अहंकार को बढ़ाने के तरफ नष्ट हो जाती है।
    क्रियाशक्ति और ज्ञानशक्ति का समन्वय होना अत्यंत आवश्यक है। आज तक ऐसा कोई मनुष्य, प्राणी पैदा ही नहीं हुआ जो बिना क्रिया के, बिना कर्म के रह सके। कर्म करना ही है तो ज्ञान संयुक्त कर्म करें। शास्त्र में तो यहाँ तक कहा है कि ज्ञानी महापुरुष, जगत की नश्वरता जानने वाले महापुरुष भी सत्कर्म करते हैं। क्योंकि उनको देखकर दूसरे करेंगे। बिना कर्म के नहीं रह सकेंगे तो अच्छे कर्म करें। अगर कर्म करने की शक्ति है तो ज्ञान, भक्ति और योग के द्वारा उसे ऐसा सुसज्जित कर दें कि ज्ञान संयुक्त कर्म जीवनदाता तक पहुँचा दे।
    कर्मों से कर्मों को काटा जाता है। उन कर्मों में ज्ञान की सुवास होगी तो कर्मों को काटेंगे और अहंकार की गन्ध होगी तो कर्म बन्धन की जाल बुनेंगे। इसीलिए कर्मों के जगत में ज्ञान का समन्वय होना चाहिए।
    ज्ञान में सुख भी है और समझ भी। जैसे मेरे मुँह में रसगुल्ला रख दिया जाये और मैं प्रगाढ़ निद्रा में हूँ तो मिठास नहीं आयेगी। जब जागूँ तब वृत्ति जिह्वा से जुड़ेगी तो रसगुल्ले की मिठास का ज्ञान होते ही सुख आयेगा। बिना ज्ञान के सुख नहीं। ज्ञान में समझ भी है, सुख भी है। तमाम प्रकार के सुख, शक्ति एवं ज्ञान जहाँ से प्रकट होते हैं वह उदगम स्थान आत्मा है। उस आत्मदेव का साक्षात्कार करना ही आत्मज्ञान है। उस ज्ञान के बिना मनुष्य चाहे कितनी सारी क्रियाएँ कर ले लेकिन क्रियाओं का फल उसकी परेशानियों का कारण बन जाता है। वही क्रियाएँ अगर ज्ञान संयुक्त होती हैं तो उनका फल अकर्तृत्व पद की प्राप्ति कराता है। उपनिषदों का ज्ञान, वेदान्त का ज्ञान एक ऐसी कला है, कर्मों में ऐसी योग्यता ले आता है कि आदमी का जीवन नश्वर जगत में होते हुए भी शाश्वत के अनुभव संयुक्त हो जाता है। मरनेवाले देह में रहते हुए अमर आत्मा का दीदार होने लगता है। मिटने वाले सम्बन्धों में अमिट का सम्बन्ध हो जाता है। गुरुभाइयों का सम्बन्ध मिटनेवाला है, गुरु का सम्बन्ध भी मिटने वाला है लेकिन वह सम्बन्ध अमिट की प्राप्ति करा देता है, अगर ज्ञान है तो। ज्ञान नहीं है तो मिटने वाले सम्बन्धों में ऐसा मोह पैदा होता है कि चौरासी-चौरासी लाख जन्मों तक आदमी भटकता रहता है।
    यस्य ज्ञानमयं तपः। ज्ञान के संयुक्त तप हो। ज्ञानसहित क्रिया हो। श्रीकृष्ण के जीवन में देखो तो कितनी सारी क्रियाएँ हैं लेकिन ज्ञान संयुक्त क्रियाएँ हैं। जनक के जीवन में क्रियाएँ हैं लेकिन ज्ञान संयुक्त हैं। राम जी के जीवन में कर्म हैं लेकिन ज्ञान संयुक्त हैं।
    प्रातःकाल उठ रघुनाथा।
    मात पिता गुरु नावई माथा।।
    यह ज्ञान की महिमा है।
    गुरु ते पहले जगपति जागे.....
    गुरु विश्वामित्र जागें उसके पहले रामजी जग जाते थे। ज्ञानदाता गुरुओं का आदर करते थे।
    जीवन में ज्ञान की आवश्यकता है।
    यति गोरखनाथ पसार हो रहे थे तो किसी किसान ने कहाः "बाबाजी ! दोपहर हुई है। अभी-अभी घर से खाना आयेगा। आप भोजन पाना, थोड़ी देर विश्राम करना और शाम को जहाँ आपकी मौज हो, विचरण करना।"
    किसान की आँखों ने तो एक साधु देखा लेकिन भीतर एक समझ थी कि थोड़ी सेवा कर लूँ। उसने गोरखनाथजी को रिझाकर रोक लिया। भोजन कराया। फिर गोरखनाथजी ने आराम किया। शाम को जब रमते भये तब किसान ने प्रणाम करते कहाः
    "महाराज ! खेती करते-करते ढोरों जैसा जीवन बिता रहे हैं। कभी आप जैसे संत पधारते हैं। कुछ न कुछ मुझे थोड़ा-सा उपदेश दे जाइये।"
    गोरखनाथ ने देखा कि है तो पात्र। पैर से शिखा तक निहारा। बोलेः
    "और उपदेश क्या दूँ? जो मन में आवे वह मत करना।"
    ये वचन गोरखनाथ को गुरु मच्छन्दरनाथ ने कहे थे। वे ही वचन गोरखनाथ ने किसान को कहे और जोगी रमते भये।
    संध्या हुई। किसान ने हल कन्धे पर रखकर पाँव उठाये। घर की ओर चला। याद आया गुरुजी का वचनः 'मन में आये वह मत करना।' महाराज ! वह रुक गया ! ऐसा रुका कि उसका मन भी रुक गया ! जो भी मन में आता वह नहीं करता। मन से पार हो गया। चौरासी सिद्धों मं वह एक सिद्ध हो गया – हालीपाँव। मतलब, हल उठाया पाँव रखा और गुरुवचन में टिक गया। नाम पड़ गया हालीपाँव सिद्ध।
    कहाँ तो साधारण किसान और कहाँ हालीपाँव सिद्ध !
    शबरी ने गुरु के वचन सिर पर रखे और राम जी द्वार पर पधारे। किसान ने गोरखनाथ के वचन अडिगता से माने। मन हो गया अडिग। किसान में से हालीपाँव सिद्ध।
    कर्म तो उसके पास थे लेकिन कर्मों को जब ज्ञान-निष्ठा का दीया मिल गया तो वह सिद्ध हो गया।
    संत सुन्दरदास हो गये। अच्छे, उच्च कोटि के संत थे। उनसे किसी ने पूछाः
    "स्वामीजी ! भगवान की भक्ति में मन कैसे लगे?"
    वे बोलेः "भगवान के दर्शन करने से भगवान में सन्देह हो सकता है लेकिन भगवान की कथा सुनने से भगवान में श्रद्धा बढ़ती है। भगवान की कथा की अपेक्षा भगवान के प्यारे भक्त हो गये हैं, संत हो गये है उनका जीवन-चरित्र पढ़ने सुनने से भगवान की भक्ति बढ़ती है। भगवान की कथा की अपेक्षा भगवान के प्यारों की कथा से भक्ति का प्राकट्य शीघ्र हो जाता है।"
    नारेश्वर में रंग अवधूत जी महाराज हो गये। अच्छे संत थे। उनसे किसी ने पूछाः
    "आप तो बाबाजी ! ज्ञातज्ञेय हो गये हैं। अभी आपको क्या रुचता है?"
    वे बोलेः "संतो के जीवन चरित्र पढ़ने में मेरी अभी भी रुचि रहती है। नर्मदा के किनारे परिक्रमा करते कोई संत आ जायें तो भोजन पकाकर उन्हें खिलाऊँ ऐसे भाव आ जाते हैं। मुझे बड़ा आनंद आता है।"
    संत का मतलब यह हि कि जिनके द्वारा अपने जन्मों का अंत करने का ज्ञान मिल जाय, क्रियाओं का अंत करने का ज्ञान मिल जाय।
    अकेला ज्ञान लंगड़ा हो जायेगा, शुष्क हो जायेगा। अकेली क्रिया अन्धी हो जायेगी। हम लोग क्रियाएँ जीवनभर किए जा रहे हैं और अन्त में देखो तो परिणाम कुछ नहीं, हताशा..... निराशा।
    प्रेम में से ज्ञान निकाल दो तो वह काम हो जायगा। ज्ञान में से प्रेम में निकाल दो तो वह शुष्क हो जायेगा। ज्ञान में से योग निकाल दो तो वह सामर्थ्यहीन हो जायेगा। योग में से ज्ञान और प्रेम निकाल दो तो वह जड़ हो जायगा।
    इसलिए भाई मेरे ! प्रेम में योग और ज्ञान मिला दो तो प्रेम पूर्ण हो जायगा, पूर्ण पुरुषोत्तम का साक्षात्कार करा देगा। ज्ञान में प्रेम और योग मिला दे तो ज्ञान ईश्वर से अभिन्न कर देगा। योग में ज्ञान और प्रेम मिला दो तो सर्व समर्थ स्वरूप अपने आपा का अनुभव हो जायगा।
    मतलब, प्रेमा भक्ति कर के अपने परिच्छिन्न अहं को मिटा दो, योग कर के अपनी दुर्बलता मिटा दो और ज्ञान पा कर अपना अज्ञान मिटा दो। ज्ञान ऐसा हो कि देहाध्यास गल जाय।
    क्रिया के साथ ज्ञान हो और ज्ञान के साथ कर्म हो। दोनों का समन्वय हो। ज्ञान में सुख भी होता है और समझ भी होती है। ब्रह्मचर्य रखना अच्छा है। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक विकास होता है और लम्बे समय तक चित्त की प्रसन्नता बनी रहती है। यह समझ तो है लेकिन जब सुख की लोलुपता आ जाती है तो ब्रह्मचर्य से गिरकर आदमी विकारी सुख क्षणभर के लिए लेता है और फिर पछताता है। पापी आदमी को विकारी सुख में रुचि होती है। आपको ज्ञान के साथ सुख की भी जरुरत है।
    माना है कि झूठ बोलना ठीक नहीं है, किसी का अहित करना फायदे में नहीं है। सत्य बोलना चाहिए। हम सत्य बोलते हैं लेकिन जब दुःख पड़ता है तब सत्य को छोड़कर असत्य बोले देते हैं। क्यो? सुख के लिए। झूठ किसलिए बोलते हैं? सुख के लिय। ब्रह्मचर्य खंडित क्यों करते हैं? तुच्छ सुख के लिए।
    माँग तुम्हारी सुख की है।
    गंगाजी गंगोत्री से चली। लहराती गुनगुनाती गंगा सागर को मिलने भाग रही है। गंगा जहाँ से प्रकट हुई है वहीं जा रही है। ऐसे ही तुम्हारा वास्तविक स्वरूप प्राप्त करने के लिए ही तुम्हारे जीवन की आकांक्षा है। तुम आनन्दकन्द, सच्चिदानन्द परमात्मा से प्रकट हुए हो, स्फुरित हुए हो। तुम जिसे 'मैं... मैं.... मैं.....' बोल रहे हो वह 'मैं' आनन्द-स्वरूप परमात्मा से स्फुरित हुई है। वह मैं आनन्द-स्वरूप परमात्मा तक पहुँचने के लिए ही सारी क्रियाएँ कर रही है। जैसे गंगाजी चली तो सागर तक पहुँचने के लिए ही सारी चेष्टा करती है। लेकिन हमने स्वार्थपरायण होकर उसके बहाव को रोककर तालाब बना दिया, उसको थाम दिया तो वह पानी गंगासागर तक नहीं पहुँचता। ऐसे ही सुख की प्राप्ति की इच्छा है और हमारी सुबह से शाम तक की दौड़ सुख तक पहुँचने की है लेकिन जहाँ बिना ज्ञान के, बिना समझ के, स्वार्थी, ऐन्द्रिक सुख की चेष्टा करते हैं तो गंगाजल को रास्ते में खड्डों में बाँध देते हैं। ऐसे ही हमारी चित्त की धारा को अज्ञानवश मान्यता में हम उंडेल देते हैं तो हमारा जीवन रास्ते में रुक जाता है। हालाँकि हमारा प्रयत्न तो सुख के लिए हैं लेकिन हमारा आत्मा सुख स्वरूप है, इस प्रकार का ज्ञान न होने के कारण हम बीच में भटक जाते हैं और जीवन पूरा हो जाता है। अर्थात् जीव अपना असली ब्रह्मस्वरूप नहीं समझ पाता।
    हम जो-जो नियम शास्त्रों से सुनते है, स्वीकार करते हैं वे नियम तब खण्डित करतेहैं जब हमें भय हो जाता है अथवा सुख की लोलुपता हमें घेर लेती है। हम नीचे आ जाते हैं। तब क्या करना चाहिए?
    सुख की लोलुपता और दुःख के भय को मिटाना हो तो ज्ञान की जरूरत पड़ेगी। वह ज्ञान तत्त्वज्ञान हो अथवा तत्त्वज्ञान का सुख पाने की तरकीब रूप योगयुक्तियाँ हो। योगयुक्तियाँ और तत्त्वज्ञान से जब भीतर का सुख मिलने लगेगा तो निर्भयता आने लगेगी। फिर हमारी समझ के खिलाफ हम फिसलेंगे नहीं।
    संत सुंदरदासजी महाराज उच्च कोटि के साक्षात्कारी पुरुष थे। नवाब ने उनके चरणों में सिर रखा किः "बाबाजी ! जिस आनन्द में आप आनन्दित होते हो, जिस परमात्मा को पाकर आप तृप्त हुए हो, जिस ईश्वर के साक्षात्कार से आप आत्मारामी हुए हो वह हमें भी उपलब्ध करा दो।"
    सुना है कि जब सात जन्मों के पुण्य जोर करते हैं तब आत्म-साक्षात्कारी संत महापुरुष के दर्शन करने की इच्छा होती है। दूसरे सात जन्म के पुण्य जब सहयोग करते हैं तब उनके द्वार तक ही पहुँच पायेंगे। तीसरे सात जन्म के पुण्य उनमें नहीं मिलेंगे तो हम उनके द्वार से बिना दर्शन ही लौट जायेंगे। या तो बाबा जी कहीं बाहर चले गये होंगे फिर पहुँचेंगे अथवा बाबाजी आनेवाले होंगे उससे पहले रवाना हो जायेंगे, बाद में बाबाजी लौटेंगे। जब तक पूरे इक्कीस जन्मों के पुण्य जोर नहीं मारेंगे तब तक आत्म-साक्षात्कारी महापुरुषों के दर्शन नहीं होंगे, उनके वचनों में विश्वास नहीं होगा।
    स्वल्पपुण्यवतां सजन् विश्वासो नैव जायते।
    अल्प पुण्यवालों को तो आत्मवेत्ता संत पुरुषों के दर्शन और वचन में विश्वास ही नहीं हो सकता है। तुलसीदासजी कहते हैं-
    बिन पुण्यपुंज मिले नहीं संता।
    नवाब कहता हैः "महाराज ! मुझे आपका दर्शन करने का सौभाग्य मिला है अब चाहता हूँ कि आप जिस आत्मरस से, जिस आत्मज्ञान से कृतकार्य हुए हैं वह आत्मा कैसा है उसका अनुभव मुझे कराइये।"
    सुन्दरदासजी ने स्वच्छ जल से भरा हुआ काँसे का एक कटोरा मँगवाया। उसमें थोड़ी भस्म मिलाई। फिर कहाः
    "नवाब ! इस जल में अपना मुख देखो।"
    "भगवन् ! इसमें नहीं दिख पायगा। यह तो कीचड़ जैसा हो गया।"
    "अच्छा।" फिर स्वच्छ जल का दूसरा कटोरा मँगवाया और उसको थोड़ा धक्का देकर पानी हिला दिया और कहाः
    "अब इसमें अपना मुँह देखो।"
    "स्वामीजी ! अब मुँह तो दिख रहा है लेकिन विचित्र-सा दिख रहा है, खण्ड-खण्ड होकर दिख रहा है। साफ नहीं दिखता।"
    पानी को स्थिर होने दिया फिर कहाः "अब इसमें देखो।"
    "महाराज ! अब ठीक दिख रहा है।" महाराजजी ने पानी डाल दिया और चुप होकर बैठे गये। नवाब ने फिर प्रार्थना की किः "महाराज ! हम लोग आत्मा का अनुभव कैसे करें? कैसे उस परमात्मा को पाएँ? कैसे हमें आनन्द-स्वरूप की अनुभूति हो? कृपा करके बताइये।"
    सुन्दरदासजी ने कहाः "मार्ग मैंने 'प्रेक्टीकल बता दिया। केवल सैद्धान्तिक ही नहीं, व्यावहारिक सुझाव दे दिया।"
    "महाराज ! हम समझे नहीं। जरा विस्तार से कहिए नाथ।"
    तब संतश्री ने कहाः "पहले राखवाले पानी में मुँह देखने को कहा, नहीं देख पाये क्योंकि पानी मैला था। ऐसे ही चित्त जब मैला होता है, विषय-वासनायुक्त चेष्टाएँ होती हैं, ज्ञान बिना की क्रियाएँ होती हैं उससे चित्त मलिन हो जाता है। मलिन चित्त में तुम्हारे आत्मा-परमात्मा का मुखड़ा नहीं दिख सकता। चित्त शुद्ध होने लगता है तो समझ बढ़ती है। आदमी में आध्यात्मिक योग्यता पनपने लगती है।"
    कोई आदमी अच्छे पद पर है। वह चाहे तो लाखों-करोड़ों रुपये इकट्ठे कर सकता है लेकिन उसे भ्रष्टाचार अच्छा नहीं लगता। तो समझो, भगवान की उस पर कृपा है। लोग चाहे कुछ भी सोच लें, मूर्ख लोग चाहे कुछ भी कह दें कि साहब भोले भाले हैं, लेकिन वास्तव में साहब समझदार हैं।
    भ्रष्टाचार करने का मौका है फिर भी नहीं किया, कपट करके धनवान होने का मौका है फिर भी कपट नहीं किया तो हमारे दिलरूपी कटोरे में जो राख है वह चली जायगी, मल चला जायगा। पानी स्वच्छ हो जायगा। अन्तःकरण शुद्ध हो जायगा।
    अन्तःकरण स्वच्छ तो हो जायगा लेकिन अब भी उसमें अपना मुखड़ा नहीं दिखेगा। आत्म-साक्षात्कार नहीं होगा। क्यो?  क्योंकि चित्त शुद्ध तो हुआ है लेकिन आत्म-साक्षात्कार के लिए केवल चित्त शुद्ध होना ही पर्याप्त नहीं है। हम अच्छा व्यवहार करते हैं, सात्त्विक हैं, किसी का शोषण नहीं करते हैं, भ्रष्टाचार नहीं करते, बचपन से संतों के पास जाते हैं यह ईश्वर की बहुत कृपा है, धन्यवाद है, लेकिन साक्षात्कार के लिए एक कदम और आगे रखना होगा भैया !
    चित्त शुद्ध है इसलिए बैठते ही भगवान की भक्ति स्मरण हो आती है, धन्यवाद है। लेकिन भगवत्तत्व का बोध तब तक नहीं होगा, आत्म-साक्षात्कार तब तक नहीं होगा जब तक चित्त की अविद्या निवृत्त न हो।
    चित्त के तीन दोष हैं- चित्त का मैलापन, चित्त की चंचलता और चित्त को अपने चैतन्य का अभान। मल, विक्षेप और आवरण।
    समझ से युक्त क्रियाएँ करने से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध व्यवहार से चित्त शुद्ध होता है। प्रतिदिन ध्यान का अभ्यास करने से भी चित्त शुद्ध होता है।
    शुद्ध चित्त को ध्यान से एकाग्र किया जाता है। एकाग्र चित्त में अगर तत्त्वज्ञान के विचार ठीक ढंग से बैठ गये तो साक्षात्कार हो जाये।
    महाराजा भर्तृहरि अपना विशाल साम्राज्य छोड़कर जोगी बन गये। सहज स्वभाव विचरण करते-करते किसी गाँव से गुजरे तो दुकान पर हलवाई हलवा बना रहा था। हलवे की खुश्बू ने उनके चित्त को आकर्षित कर लिया। सम्राट होकर तो खूब भोग भोगे थे। पुराने संस्कार जग आये। हलवा खाने की इच्छा हो गई। हलवाई को कहाः
    "भाई ! हलवा दे दे।"
    "पैसे हैं तुम्हारे पास?" जोगी को घूरते हुए हलवाई बोला।
    "पैसे तो नहीं है।"
    "बिना पैसे हलवा कैसे मिलेगा? पैसे लाओ।"
    "पैसे कहाँ मिलेंगे?" भर्तृहरि ने पूछा।
    हलवाई बोलाः "गाँव की दक्षिण दिशा में दुष्काल राहत कार्य चल रहा है, तालाब खुद रहा है। वहाँ जाओ। मजदूरी करो। शाम को पैसे मिल जाएँगे।"
    एक समय का सम्राट वहाँ गया। कुदाली-फावड़ा चलाया। मिट्टी के टोकरे उठाए। दिनभर मजदूरी की। शाम को पैसे मिले और आ गये हलवाई की दुकान पर। हलवा लिया और पूछते-पूछते गाँव की उत्तर दिशा में तालाब की ओर चले।
    भर्तृहरि अपने मन को कहने लगेः "अरे मनीराम ! तूने राज्य छोड़ा, परिवार छोड़ा, घरबार छोड़ा, सम्राट पद छोड़ा और हलवे में अटक गया? हलवा नहीं मिला इसलिए दिन भर गुलामी करवाई?
    बदमाश ! जरा सी लूली के लाड़ लड़ाने के लिए इतना परेशान किया?"
    मन को अगर थोड़ी सी छूट देंगे तो वह और ज्यादा छूट ले लेगा। पास में भैंस का गोबर पड़ा था। भर्तृहरि ने वह उठाया और तालाब के किनारे पहुँचे। एक हाथ से हलवे का कौर उठाकर मुँह तक लाते और फिर तालाब में डाल देते जो मछलियाँ खा जाती। दूसरे हाथ से गोबर का कौर उठाते और मुँह में ठूँसते, अपने आपको कहतेः 'ले, खा यह हलवा।' ऐसे करते-करते करीब पूरा हलवा पानी में चला गया। गोबर का काफी हिस्सा चला गया पेट में। हलवे का आखिरी ग्रास हाथ में बचा तब मन मूर्तिमंत होकर प्रकट हो गया और बोलाः
    "हे नाथ ! अब तो कृपा कीजिए। इतना तो जरा-सा खाने दीजिए !"
    लेकिन निष्ठा इतनी परिपक्व थी, दृढ़ता थी कि वे अपने निश्चय में अचल थे। मन को कहाः
    "तूने पूरे दिनभर मुझे धूप में नचाया, मजदूरी करवाई और अभी हलवा खाना है? सदियों से तूने मुझे गुलाम बनाया है और अब भी मैं तेरे कहने में चलूँ?"
    भर्तृहरि ने वह आखिरी कौर भी तालाब में फेंक दिया। मन ने देखा कि मैं किसी वीर के हाथ लगा हूँ।
    एक बार मन आपके आगे हार जाता है तो आपमें सौ गुनी ताकत आ जाती है। आप मन के आगे हार जाते हो तो मन को सौ गुनी ताकत आ जाती है आपक नचाने के लिए।
    जितना ध्यान और ज्ञान का अभ्यास बढ़ेगा, उनका हम पर प्रभाव रहेगा उतना हम मन पर विजय पायेंगे। जितना ज्ञान और ध्यान से वंचित रहकर क्रियाएँ करेंगे उतना ही मन पर हम पर विजेता हो जायेगा।
    एक सेठ को मुनीम ने कहाः "सेठजी ! सात सौ में मेरे परिवार का पूरा नहीं होता। मुझे महीने का पंद्रह सौ चाहिए।"
    सेठ ने कहाः "जा चला जा.... गेट आउट।"
    मुनीम ने कहाः "कोई हरकत नहीं। मैं तो गेट आउट हो जाऊँगा लेकिन आप सदा के लिए गेट आउट हो जायेंगे।"
    "क्या बात है?"
    "मुझे पता है। आपने मुझसे जो बहियाँ लिखवाई हैं और इन्कमटैक्स के फार्म भरवाये हैं... तुमने मुझसे जो गलत काम करवाये हैं, अलग हिसाब रखवाये हैं उसकी सब जानकारी मेरे पास है। अगर आप पन्द्रह सौ तनख्वाह नहीं देते तो कोई हरकत नहीं। मैं चला जाऊँगा इन्कमटैक्स ऑफिसरों के पाश"
    सेठजी ने कहाः "तुम भले सौलह सौ ले लो लेकिन रहो यहाँ।"
    मुनीम जानता था सेठ की कमजोरी। ऐसे ही हमारे जीवन में अगर ज्ञान और ध्यान नहीं है तो मन हमारी कमजोरियाँ जानता है। हाँ, सेठ को अगर इन्कमटैक्स कमिश्नर के साथ सीधा व गहरा सम्बन्ध होता, तो वह सेठ मुनीम को लात मार देता। ऐसे ही सब मिनिस्टरों के भी मिनिस्टर परमात्मा के साथ सीधा सम्बन्ध हो जाय तो मनरूपी मुनीम का ज्यादा प्रभाव न रहे। जब तक परमात्मा के साथ सम्बन्ध न हुआ हो तब तक तो मन को रिझाते रहो।, उससे दबे-दबे रहो।
    अपनी योग्यता को ऐसी विकसित कर लो कि मनरूपी मुनीम जब जैसा चाहे वैसा हमें न नचाए लेकिन हम जैसा चाहें वैसा मुनीम करने लगे।
    हम अपने मनरूपी मुनीम के आगे सदा से हारते आए हैं। इसने हम पर ऐसा प्रभाव डाल दिया कि हमें जैसा कहता है वैसा हम करते हैं। क्योंकि प्रारम्भ में ज्ञान था नहीं।
    ध्यान और ज्ञान का प्रभाव नहीं है तो हम दुर्बल हो जाते हैं,  हमारा गुलाम मन-मुनीम बलवान हो जाता है। दिखते तो हैं बड़े-बड़े सेठ, बड़े-बड़े साहब, बड़े-बड़े अधिकारी लेकिन गहराई में गोता मार कर देखें तो हम गुलाम के सिवाय और कुछ नहीं हैं। क्योंकि मनरूपी गुलाम के कहने में चल रहे हैं।
    मन की गुलामी जितने अंश में मौजूद है उतने अंश में दुःख मौजूद है, पराधीनता मौजूद है, परतन्त्रता मौजूद है। यह गुलामी कैसे दूर हो?
    गुलामी दूर होती है समझ से और सामर्थ्य से। ज्ञान समझ देता है और ध्यान सामर्थ्य देता है।


    ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
    « Last Edit: March 10, 2012, 12:50:04 PM by Pratap Nr.Mishra »

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    Re: साधना की नींवः श्रद्धा
    « Reply #58 on: March 11, 2012, 03:18:27 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    साधना की नींवः श्रद्धा

    संसार से वैराग्य होना दुर्लभ है। वैराग्य हुआ तो कर्मकाण्ड से मन उठना दुर्लभ है। कर्मकाण्ड से मन उठ गया तो उपासना में मन लगना दुर्लभ है। मन उपासना में लग गया तो तत्त्वज्ञानी गुरु मिलना दुर्लभ है। तत्त्वज्ञानी गुरु मिल भी गये तो उनमें श्रद्धा होना और सदा के लिए टिकना दुर्लभ है। गुरु में श्रद्धा हो गई तो भी तत्त्वज्ञान में प्रीति होना दुर्लभ है। तत्त्वज्ञान में प्रीति हो जाये लेकिन उसमें स्थिति करना दुर्लभ है। एक बार स्थिति हो गई तो जीवन में दुःखी होना और फिर से माता के गर्भ में उल्टा होकर लटकना और चौरासी के चक्कर में भटकना सदा के लिए समाप्त हो जाता है।

    तत्त्वज्ञान के द्वारा ब्रह्माकार वृत्ति बनाकर आवरण भंग करके जीवनमुक्त पद में पहुँचना ही परम पुरुषार्थ है। इस पुरुषार्थ-भवन का प्रथम सोपान है श्रद्धा।
    तामसी श्रद्धावाला साधक कदम-कदम पर फरियाद करता है। ऐसे साधक में समर्पण नहीं होता। हाँ, समर्पण की भ्रांति हो सकती है। वह विरोध करेगा। राजसी श्रद्धावाला साधक हिलता रहता है, भाग जाता है, किनारे लग जाता है। सात्विक श्रद्धावाला साधक निराला होता है। परमात्मा और गुरु की ओर से चाहे जैसे कसौटी हो, वह धन्यवाद से, अहोभाव से भरकर उनके हर विधान को मंगलमय समझकर हृदय से स्वीकृति देता है।

    प्रायः राजसी और तामसी श्रद्धावाले लोग अधिक होते हैं। तामसी श्रद्धावाला कदम-कदम पर इन्कार करेगा, विरोध करेगा, अपना अहं नहीं छोड़ेगा।  वह अपने श्रद्धेय के साथ, अपने इष्ट के साथ, सदगुरु के साथ विचारों से टकरायगा। राजसी श्रद्धावाला जरा-सी परीक्षा हुई, थोड़ी सी कुछ डाँट पड़ी तो वह किनारे हो जायगा, भाग जाएगा। सात्त्विक श्रद्धावाला किसी भी परिस्थिति में डिगेगा नहीं, प्रतिक्रिया नहीं करेगा।

    साधक में सात्त्विक श्रद्धा जग गई तो उसका मन तत्त्व-चिन्तन में, आत्म-विचार में लग जाता है। अन्यथा तो तत्त्वेत्ता सदगुरु मिलने के बाद भी तत्त्वज्ञान में मन लगना कठिन है। किसी को आत्म-साक्षात्कारी गुरु मिल जायें और उनमें श्रद्धा भी हो जाये तो यह जरूरी नहीं की सब लोग आत्मज्ञान के तरफ चल ही पड़ेंगे। राजसी-तामसी श्रद्धावाले लोग आत्मज्ञान के तरफ नहीं चल सकते। वे तो अपनी इच्छा के अनुसार तत्त्वज्ञानी सदगुरु से लाभ लेना चाहेंगे। इच्छा-निवृत्ति की ओर से प्रवृत्त नहीं हो सकते। जो वास्तविक लाभ तत्त्वज्ञानी सदगुरु उन्हें देना चाहते हैं उससे वे वंचित रह जाते हैं।

    सात्त्विक श्रद्धावाले साधक को ही तत्त्वज्ञान का अधिकारी माना गया है और केवल यही तत्त्वज्ञान होने पर्यन्त सदगुरु में अचल श्रद्धा रख सकता है। वह प्रतिकूलता से भागता नहीं और प्रलोभनों में फँसता नहीं। संदीपक ने ऐसी श्रद्धा रखी थी। सदगुरु ने कड़ी कसौटियाँ की, उसे दूर करना चाहा लेकिन वह गुरुसेवा से विमुख नहीं हुआ। गुरु ने कोढ़ी का रूप धारण किया, सेवा के दौरान कई बार संदीपक को पीटते थे फिर भी कोई शिकायत नहीं। कोढ़ी शरीर से निकलने वाला गन्दा खून, पीव, मवाद, बदबू आदि के बावजूद भी गुरुदेव के शरीर की सेवा-सुश्रुषा से संदीपक कभी ऊबता नहीं था। भगवान विष्णु और भगवान शंकर आये, उसे वरदान देना चाहा लेकिन अनन्य निष्ठावाले संदीपक ने वरदान नहीं लिया।

    विवेकानन्द होकर विश्वविख्यात बनने वाले नरेन्द्र को जब सात्विक श्रद्धा रहती तब रामकृष्णदेव के प्रति अहोभाव बना रहता है। जब राजसी श्रद्धा होती तब वे भी हिल जाते। उनके जीवन में छः बार ऐसे प्रसंग आये थे।

    पहले तो आत्मज्ञानी सदगुरु मिलना अति दुर्लभ है। वे मिल भी जायें तो उनके प्रति हमारी सात्त्विक श्रद्धा निरन्तर बनी रहना कठिन है। हमारी श्रद्धा रजो-तमोगुण से प्रभावित होती रहती है। इसलिए साधक कभी हिल जाता है और कभी विरोध भी करने लगता है। अतः जीवन में सत्त्वगुण बढ़ाना चाहिए।
    आहार की शुद्धि से, चिन्तन की शुद्धि से सत्त्वगुण की रक्षा की जाती है। अशुद्ध आहार, अशुद्ध विचारे वाले व्यक्तियों के संग से बचना चाहिए।

    अपने जीवन के प्रति लापरवाही रखने से श्रद्धा का घटना, बढ़ना, टूटना-फूटना होता रहता है। फलतः साधक को साध्य तक पहुँचने में वर्षों लग जाते हैं। जीवन पूरा हो जाता है फिर भी आत्मसाक्षात्कार नहीं होता। साधक अगर पूरी सावधानी के साथ छः महीना ठीक प्रकार से साधना करे तो संसार और संसार की वस्तुएँ आकर्षित होने लगती हैं। सूक्ष्म जगत की कुंजियाँ हाथ लग जाती हैं। निरन्तर सात्विक श्रद्धायुक्त साधना से साधक बहुत ऊपर उठ जाता है। रजो-तमोगुण से बचकर,

    सत्त्वगुण के प्राधान्य से साधक तत्त्वज्ञानी सदगुरु के ज्ञान में प्रवेश पा लेता है। फिर तत्त्वज्ञान का अभ्यास करने में परिश्रम नहीं पड़ता। अभ्यास सत्त्वगुण बढ़ाने के लिए, श्रद्धा को सात्विक श्रद्धा स्थिर हो गई तो तत्त्वविचार अपने आप उत्पन्न होता है। ऐसी स्थिति प्राप्त करने के लिए साधक को साधना में तत्पर रहना चाहिए, सात्त्विक श्रद्धा की सुरक्षा में सतर्क रहना चाहिए। इष्ट में, भगवान में, सदगुरु में सात्त्विक श्रद्धा बनी रहे।

    तत्त्वज्ञान तो कइयों को मिल जाता है लेकिन वे तत्त्वज्ञान में स्थिति नहीं करते। स्थिति करना चाहते हैं तो ब्रह्माकारवृत्ति उत्पन्न करने की खबर नहीं रखते। बढ़िया उपासना किए बिना भी किसी को सदगुरु की कृपा से जल्दी तत्त्वज्ञान हो जाये तो भी विक्षेप रहेगा। मनोराज हो जाने की संभावना है। उच्च कोटि के साधक आत्म-साक्षात्कार के बाद भी ब्रह्माभ्यास में सावधानी से लगे रहते हैं। साक्षात्कार के बाद ब्रह्मानन्द में लगे रहना यह साक्षात्कार की शोभा है। जिन महापुरुषों को परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है, वे भी ध्यान-भजन, शुद्धि-सात्त्विकता का ख्याल रखते हैं। हम लोग अगर लापरवाही कर दें तो अपने पुण्य और साधना के प्रभाव का नाश ही करते हैं।

    जीवन में जितना उत्साह होगा, साधना में जितनी सतर्कता होगी, संयम में जितनी तत्परता होगी, जीवनदाता का मूल्य जितना अधिक समझेंगे उतनी हमारी आंतरयात्रा उच्च कोटि की होगी। ब्रह्माकारवृत्ति उत्पन्न होना भी ईश्वर की परम कृपा है। सात्त्विक श्रद्धा होगी, ईमानदारी से अपना अहं परमात्मा में समर्पित हो सकेगा तभी यह कार्य संपन्न हो सकता है। तुलसीदासजी कहते हैं-
    ये फल साधन ते न होई......।

    ब्रह्मज्ञानरूपी फल साधन से प्रकट न होगा। साधन करते-करते सात्त्विक श्रद्धा तैयार होती है। सात्त्विक श्रद्धा ही अपने इष्ट में, तत्त्व में अपने आपको अर्पित करने को तैयार हो जाती है। जैसे लोहा अग्नि की प्रशंसा तो करे, अग्नि को नमस्कार तो करे लेकिन जब तक वह अग्नि में प्रवेश नहीं करता, अपने आपको अग्नि में समर्पित नहीं कर देता तब तक अग्निमय नहीं हो सकता। लोहा अग्नि में प्रविष्ट हो जाता है तो स्वयं अग्नि बन जाता है। उसकी रग-रग में अग्नि व्याप्त हो जाती है। ऐसे ही साधक जब तक ब्रह्मस्वरूप में अपने आपको अर्पित नहीं करता तब तक भले ब्रह्म परमात्मा के गुणानुवाद करता रहे, ब्रह्मवेत्ता सदगुरु क गीत गाता रहे, इससे लाभ तो होगा, लेकिन ब्रह्मस्वरूप, गुरुमय, भगवदमय ईश्वर नहीं बन पाता। जब अपने आपको ईश्वर में, ब्रह्म में, सदगुरु में अर्पित कर देता है तो पूर्ण ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।

    'ईश्वर' और 'गुरु' ये शब्द ही हैं लेकिन तत्त्व एक ही है।

    ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्ति भेदे विभागिनोः।

    आकृतियाँ दो दिखती हैं लेकिन वास्तव में तत्त्व एक ही है। गुरु के हृदय में जो चैतन्य प्रकट हुआ है वह ईश्वर में चमक रहा है। ईश्वर भी यदि भक्त का कल्याण करना चाहें तो सदगुरु के रूप में आकर परम तत्त्व का उपदेश देंगे। ईश्वर संसार का आशीर्वाद ऐसे ही देंगे लेकिन भक्त को परम कल्याण रूप आत्म-साक्षात्कार करना होगा तो ईश्वर को भी आचार्य की गद्दी पर आना पड़ेगा। जैसे श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया श्रीरामजी ने हनुमानजी को उपेदेश दिया।
    साधक ध्यान-भजन-साधना करते हैं। भजन की तीव्रता से भाव मजबूत हो जाता है। भाव के बल से भाव के अनुसार संसार में चमत्कार भी कर लेते हैं लेकिन भाव साधना की पराकाष्ठा नहीं है, क्योंकि भाव बदलते रहते हैं। साधना की पराकाष्ठा है ब्रह्माकारवृत्ति उत्पन्न करके आत्मसाक्षात्कार करना।

    साधन-भजन-ध्यान में उत्साह, जगत में नश्वरबुद्धि और उच्चतम लक्ष्य की हमेशा स्मृति, ये तीन बातें साधक को महान् बना देती हैं। ऊँचे लक्ष्य का पता नहीं तो विकास कैसे होगा? ब्रह्माकारवृत्ति उत्पन्न करके आवरण भंग करना, आत्म-साक्षात्कार करके जीवनमुक्त होना, यह लक्ष्य यदि जीवन में नहीं होगा तो साधना की
    छोटी-मोटी पद्धतियों में, छोटे-मोटे साधना के चुटकुले में रुका रह जायेगा। कोल्हू के बैल की तरह वहीं घूमते-घूमते जीवन पूरा कर देगा।

    अगर सावधानी से छः महीने तक ठीक ढंग से उपासना करे, तत्त्वज्ञानी सदगुरु के ज्ञान को विचारे तो उससे अदभुत लाभ होने लगता है। लाबयान ऊँचाई के सामर्थ्य का अनुभव करने लगता है। संसार का आकर्षण टूटने लगता है। उसके चित्त में विश्रान्ति आने लगती है। संसार के पदार्थ उससे आकर्षित होने लगते हैं। फिर उसे रोजी-रोटी के लिए, सगे-सम्बन्धी, परिवार-समाज को रिझाने के लिए नाक रगड़ना नहीं पड़ता। वे लोग ऐसे ही रीझने को तैयार रहेंगे। केवल छः महीने की सावधानी पूर्वक साधना..... सारी जिन्दगी की मजदूरी से जो नहीं पाया वह छः महीने में पा लेगा। लेकिन सच्चे साधक के लिए तो वह भी तुच्छ हो जाता है। उसका लक्ष्य है ऊँचे से ऊँचा साध्य पा लेना, आत्म-साक्षात्कार कर लेना।


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    ॐ श्री साईं नाथाय नमः


    आत्मानुभूति की सीढि़यां

    स्वामी विवेकानंद :अमेरिका में दिए गए भाषण का अंश
    जागरण धार्मिक मंच


    ज्ञान योग का अधिकारी बनने के लिए मनुष्य को पहले शम और दम पर नियंत्रण सीखना चाहिए। इंद्रियों को उनके केंद्र में स्थित करना और उन्हें बहिर्मुखन होने देने का नाम है शम और दम। क्या है इंद्रिय शब्द का अर्थ? दरअसल, हमारी और आपकी आंखें दर्शनेन्द्रिय नहीं हैं। ये केवल देखने का साधन मात्र हैं। यदि आपके पास दर्शनेन्द्रिय मौजूद नहीं है, तो बाहरी आंखें होने पर भी आपको दिखाई नहीं देगा। दूसरी ओर, बाहरी आंखें और दर्शनेन्द्रिय होने के बावजूद यदि आपका मन कार्य में नहीं लग रहा है, तो ऐसी दशा में भी आपको कुछ नहीं दिखाई देगा। इसलिए किसी वस्तु के ज्ञान के लिए तीन चीजें आवश्यक हैं :
    साधनभूतबहिरिन्द्रय,जैसे-आंख, कान, नाक आदि
    दर्शनक्षमअंतरिन्द्रय
    मन
    यदि किसी व्यक्ति के पास इन तीनों में से एक भी विद्यमान नहीं है, तो उसे वस्तु का ज्ञान नहीं हो पाएगा। इस प्रकार, मन की क्रिया बाह्य और अंतर इन दो साधनों द्वारा होती है। जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु को देखता है, तो उसका मन बहिर्मुखहोकर उस वस्तु की ओर झुक जाता है। दूसरी ओर, जब वह आंखें बंद कर सोचने लगता है, तो मन फिर बाहर की ओर नहीं जाता। वह भीतर-ही-भीतर काम करता रहता है। दोनों ही स्थितियों में इंद्रियों की क्रिया जारी रहती है। दूसरी ओर, जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को देखता है और फिर उससे बात करता है, तो उसकी इंद्रियां और उनके बाहरी साधन दोनों ही काम करते रहते हैं। जब वह अपनी आंखें बंद कर सोचने लगता है, तो केवल उसकी इंद्रियां ही काम करती हैं, उनके बाहरी साधन नहीं। इंद्रियों की क्रिया के बिना मनुष्य विचार ही नहीं कर पाएगा। कोई भी व्यक्ति यह अनुभव कर सकता है कि बिना किसी अवलंब के सहारे विचार नहीं किया जा सकता है। नेत्रहीन मनुष्य भी जब विचार करता है, तो किसी प्रकार की आकृति की सहायता लेता है। अक्सर आंख और कान-ये दोनों इंद्रियां बहुत कार्यशील होती हैं। यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि इंद्रिय शब्द से मतलब है-हमारे मस्तिष्क में रहने वाला ज्ञानकेंद्र।आंख और कान देखने और सुनने के साधन मात्र हैं। उनकी इंद्रियां भीतर ही रहती हैं। यदि किसी कारण से ये इंद्रियां नष्ट हो जाएं, तो आंख और कान रहने पर भी न तो हमें कुछ दिखाई देगा और न ही कुछ सुनाई देगा। इसलिए मन को काबू में करने से पहले इन इंद्रियों को काबू में लाना चाहिए। मन को भीतर-बाहर भटकने से रोकना और इंद्रियों को अपने केंद्रों में लगाए रखने का नाम ही शम और दम है। मन को बहिर्मुखहोने से रोकना शम कहलाता है और इंद्रियों के बाहरी साधनों के निग्रह का नाम है दम।

    इसके बाद आती है उपरति। भोग्य विषयों का चिंतन न करने को उपरति कहते हैं। हमने क्या देखा या क्या सुना? हम क्या देखने-सुनने वाले हैं? कौन सी वस्तु हमने खाई या खा रहे हैं अथवा खाएंगे? इस तरह के चिंतन में ही हमारा बहुत समय व्यय हो जाता है। जो कुछ हम देखते-सुनते रहते हैं, उसके बारे में सोचने में हमारे समय का अधिकांश भाग व्यतीत हो जाता है। यदि आप वेदांती बनना चाहते हैं, तो आपको यह आदत छोड देनी चाहिए।


    ॐ साईं राम

     


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