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Author Topic: निष्ठा ओर श्रधा का महत्व  (Read 31514 times)

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Offline Pratap Nr.Mishra

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Re: धार्मिक के लक्षण
« Reply #60 on: March 11, 2012, 07:17:37 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथाय नमः

    धार्मिक के लक्षण

    वैदिक ब्लाक (ब्रह्मावर भास्कर पै )
    लेखक :एडमिन


    १) धर्म रक्षा के विषय में धर्म-शास्त्रकार मनु की कहावत लोक प्रसिद्ध हैं |
    “ धर्मं एव हतो हंति, धर्मो रक्षती रक्षितः |
    तस्मात् धर्मोन हन्तव्यो मानो धर्मो हतोवधीत || ”
    मतलब जो धर्म की ह्त्या करता है, धर्म ही उसकी ह्त्या कर देती है | जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म ही उसे रक्षण देती है | इसलिए हमें धर्म को नाश नहीं होने देना है, यह तात्पर्य है |

    (यहाँ ‘ धर्मं ‘ मतलब कोई भी, किसी भी प्रकार के मत-धर्मं नहीं है | जो सनातन है ( ‘Ever-Existing’), जो सर्व जीव-राशि को भला ही चाहनेवाली/करनेवाली, मानव जनांग के उद्धार कर्त्र जो आदर्श धर्मं है, वह धर्मं )

    २) धर्मानुसारी मनुष्य में १३ शील रहने हैं, ऐसे हारीत धर्मंसूत्र बताती है |

    ” ब्रह्मन्यता देव पित्र भक्तता |
    अपरोक्ष कापितानसूयता मृदुता |
    अपारुश्यम मैत्रता प्रियवादित्वम |
    कृतज्ञता शरान्यता कारुण्यं
    प्रयांतिश्चेति त्रयोदश विधं शीलं || ”

    मतलब वेद-ज्ञान, देव पित्र भक्ति, सौम्यता, अहिंसा, किसीको निंदा नहीं करना, मृदुत्व, कटु-वचन राहित्य( कटु-वचन ना बोलना), किसीका एहसान ना भूलना, शरणागत रक्षण, दया, शांत-स्वभाव यह १३ शील हैं | अधर्मियों को कठिन शिक्षा की व्यवस्था रहनी है, ऐसे मनुस्मृति के मंत्र ७ – २६ में कहा है |

    ” यत्र श्यामोलोहिताक्षः दंडश्चरति पापहा |
    प्रजास्तत्रन मुह्यन्ति नेताचेत साधुपश्यति || ”
    अर्थात, जहा पर ठीक समर्थ दंड-नीति रहती है, वहाँ पर प्रजा चैतन्यशाली होके रहते है | दंडन देने का काम ज्ञानी लोगों को करनी है |

    विदुर नीति ऐसे कहती है |
    ” आत्मा नदी भारत पुण्य तीर्था सत्योदका ध्रतिकलादयोर्मि |
    तस्यस्नातः पूयतेपुण्य कर्मपुन्योह्यात्मा नित्यमलोभ एव || ”

    मतलब आत्मा ही पवित्र तीर्थ है | सत्य ही उसका उगमस्थान है | धैर्य ही उसके तट(shore) हैं | दया ही उसके लहरें हैं | उसमें जो स्नान करें, वह पुनीत हो जाता है, ऐसा बताया है | धर्मं के अनुसार चलनेवाले ही धार्मिक कहलाते है | धर्म क्या है, इसके बारे में संक्षेप रूप से मनु-धर्मशास्त्र के मंत्र १ – १०८ ऐसा कहता है |

    ” आचारोपरम धर्मश्रुत्युक्तस्मार्तएवच |
    तस्मादअस्मिंसादायुक्तो नित्यमस्यदयत्नवान द्विजम || ”

    अर्थात, सदाचारी बनके श्रुति-स्मृति में कहे गए जैसे चलना ही परम धर्म है, ऐसा कहा है |

    ३) मनु स्मृति के मंत्र ६ – ९२ के प्रकार धार्मिक के १० लक्षण हैं | वह ऐसे हैं :

    ” धृतिक्षमादमो अस्तेयं शौचं इन्द्रिय निग्रहं |
    धीर्विद्या सत्यम अक्रोधो दशकं धर्मं लक्षणं || ”
    अर्थात धार्मिक में १० लक्षण होंने चाहिए | वह : धैर्य, क्षमा, मनो निग्रह, चोरी ना करना, शुची रहना, इन्द्रिय निग्रह, स्मरण शक्ति, विद्या, सत्य और सभ्र(संयम) |

    ४) किसी भी हालत में धर्म की त्याग नहीं करनी है, ऐसे श्री वेदव्यास ने महाभारत के श्लोक १८ – ५ में बताया है |

    ” न जातुकामान्न भयान्न लोभात धर्मंत्य ज्जेज्जीवी तस्यापिहेतो |
    नित्योधर्मो सुखदुखेत्व नित्येजीवो अनित्योहेतु रस्यत्व नित्यः || ”

    मतलब कामना, भय, लोभ और जीव-रक्षण के लिए धर्मं को कभी नहीं त्यागना है | क्यूंकि धर्म सदा नित्य है, जीव व सुख दुःख अनित्य है, इसका तात्पर्य है |



    ॐ साईं राम


    Offline Pratap Nr.Mishra

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    ॐ श्री साईं नाथायनमः

    ज्ञान ,भक्ति और कर्म जीवन की त्रिवणी

    ग्रेहस्थ गीता
    पुष्करलाल केडिया

    भगवान् श्रीकृष्ण से नारदजी ने एक बार कौतूहलवश पूछा कि उनका अनन्य भक्त कोन है ।  श्रीकृष्ण ने उन्हेंएक व्यक्ति का नाम बताया और उससे मिलने को कहा । नारदजी ने जाकर देखा कि वह एक चर्मकार है । दिनभर जूतों की मरम्मत करता है और एकाध बार ही भगवान् का नाम लेता है । नारदजी को उसमे भक्त के लक्षण नहीं दिखायी दिए । वे लौट आये । तब  श्रीकृष्ण  ने उन्हें एक तेल भरा कटोरा दिया और उसे कैलाश पर भगवान् शिव के पास पहुँचाने का आग्रह किया । नारदजी जब कटोरा पहुंचा कर आये तो श्रीकृष्ण उन्हें देखकर मुस्कराये ।

    उन्होंने पुछा - 'देवर्षि यहाँ से कैलाश तक की यात्रा में आपने कितनी बार नारायण का नाम लिया ? सच-सच बताइयेगा ।'

    नारदजी बोले -'आपने तेल का कटोरा क्या पकड़ा दिया, मेरा सारा ध्यान उसी पर लगा रहा । नारायण का नाम लेने लगता तो तेल छलक जाता और कैलाश पहुँचने पर कटोरे में एक बूंद भी न बचता ।'

    श्रीकृष्ण  ने कहा - 'कर्म करते हुए कभी -कभी ईश्वर का स्मरण कर लेना, उसमे सच्ची आस्था रखना और ज्ञान की दृष्टि से अपने कर्तव्यों का ठीक -ठीक पालन करना ही सर्वश्रेष्ठ बनने के लिए आवश्यक है ।'

    हमारे कर्ममय जीवन में ज्ञान,भक्ति और कर्म तीनो में सामंजस्य स्थापित होना चाहिए । इन तीनो की एकात्मकता ही सफलता और समस्त सिद्धियों का मूल है ।

    ॐ साईं राम







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    ॐ श्री साईं नाथायनमः

    भक्ति, ज्ञान और कर्म के समन्वय का रूप :

    एक स्थान पर मंदिर बन रहा था । सैकड़ो श्रमिक कारीगर उसमे लगे हुए थे । एक दिन एक राहगीर उधर से गुजर रहा था और वहीँ ठहरके मंदिर का निर्माण कार्य देखने लगा । उसने एक श्रमिक से पुछा - 'यहाँ तुम क्या करते हो भाई ? ' श्रमिक बोला- 'देखते नहीं पत्थर तोड़ रहा हूँ ?'

    राहगीर ने यही प्रश्न उसके साथी से पुछा । वह बोला- 'पेट पालने के लिए पत्थर तोड़ रहा हूँ ।'

    राहगीर ने यही प्रश्न जा तीसरे श्रमिक से पुछा तो उसने कहा- 'मंदिर का निर्माण कर रहा हूँ ।'

    एक ही काम करने वाले तीन व्यक्तियों ने एक प्रश्न के तीन अलग-अलग उत्तर दिए । पहले श्रमिक के उत्तर में सिर्फ कर्म का भाव था, दुसरे में ज्ञान का और तीसरे में ज्ञान,भक्ति और कर्म तीनो का ।

    ॐ साईं राम












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    Re: जैसी भावना वैसी सिद्धि
    « Reply #63 on: March 11, 2012, 02:39:00 PM »
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  • ॐ श्री साईं नाथायनमः

    जैसी भावना वैसी सिद्धि

    भगवान सर्वव्यापक और शाश्वत हैं। वे सबको मिल सकते हैं। आप जिस रूप में भगवान को पाना चाहते हैं उस रूप में आपको मिलते हैं। श्रीकृष्ण गीता में भी वचन देते हैं किः

    ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।

    'हे अर्जुन ! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ।'
    (गीताः 4.11)

    आप कुशलता से परिश्रम करते हैं, पुरुषार्थ करते हैं तो भगवान पदार्थों के रूप में मिलेंगे। आलसी और प्रमादी रहते हैं तो भगवान रोग और तमोगुण के रूप में मिलेंगे। दुराचारी रहते हैं तो भगवान नरक में मिलेंगे। सदाचारी और संयमी रहते हैं तो भगवान स्वर्ग के रूप में मिलेंगे। सूर्योदय के पहले स्नानदि से शुद्ध होकर प्रणव का जाप करते हैं तो भगवान आनन्द के रूप में मिलते हैं। सूर्योदय के बाद भी सोते रहते हैं तो भगवान आलस्य के रूप में मिलेंगे। भगवान की बनाई अनेक लीलाओं को, इष्टदेव को, आत्मवेत्ता सदगुरु को प्यार की निगाहों से देखते हैं, श्रद्धा-भाव से, अहोभाव से दिल को भरते हैं तो भगवान प्रेम के रूप में मिलेंगे। वेदान्त का विचार करते हैं, आत्म-चिन्तन करते हैं तो भगवान तत्त्व के रूप में मिलेंगे। घृणा और शिकायत के रूप में देखते हैं तो भगवान शत्रु के रूप में मिलेंगे। धन्यवाद की दृष्टि रखते हैं तो भगवान मित्र के रूप में मिलते है। अपने चित्त में सन्देह है, फरियाद है, चोर डाकू के विचार हैं तो भगवान उसी रूप में मिलते हैं। अपनी दृष्टि में सर्व ब्रह्म की भावना है, सर्वत्र ब्रह्म ही ब्रह्म दृष्टि आता है तो दूसरों की नजरों में जो क्रूर हैं, हत्यारे हैं, डाकू हैं, वे तुम्हारे लिए क्रूर हत्यारे नहीं रहेंगे।

    आप निर्णय करो कि भगवान को किस रूप में देखना चाहते हैं। जब सब भगवान हैं, सर्वत्र भगवान हैं तो आपको जो मिलेगा वह भगवान ही है। समग्र रूप उसी के हैं। यह स्वीकार कर लो तो सब रूपों में भगवान मिल जायेंगे। आनन्द ही आनन्द चाहो, प्रेम ही प्रेम चाहो तो भगवान उसी रूप में मिलेंगे।

    किसी को लगेगा कि जब सर्वत्र भगवान हैं तो पाप-पुण्य क्यों? फिर पाप करने में हर्ज क्या है?

    हाँ, कोई हर्ज नहीं। डटकर पाप करो। फिर भगवान नरक के रूप में प्राप्त होंगे।

    'सब ब्रह्म है तो जो आवे सो खाओ, जो आवे सो पियो, जो मिले सो भोगो, चाहे सो करो क्या हर्ज है?'

    तो भगवान सर्वत्र हैं। वे रोग के रूप में प्रकट होंगे। संयम से रहोगे तो भगवान स्वास्थ्य के रूप में प्रकट होंगे।

    भगवान हमारे समक्ष अपने समग्र रूप में प्रकट हो जायें ऐसी इच्छा हो तो अपने 'मैं' को खोजो। 'मैं' खो जाएगा फिर लगेगा कि भगवान समग्र रूपों में हैं और भी भगवत्तत्व था।

    महायोगी श्री अरविन्द गीता के महान् उपासक थे। वे गीता के सत्यों को अपने जीवनरूपी साँचे में ढालने को पूर्णरूपेण कृतसंकल्प थे। वेदों और उपनिषदों का सार गीता है जिसे पढ़कर उन्होंने तीन प्रतिज्ञाएँ की थीं। राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर भारत माता को अँग्रेजों की गुलामी की जंजीरों से मुक्त करना एवं आत्मसाक्षात्कार करना।

    अलिपुर बम-कांड में उनकी धरपकड़ हुई और कारावास में डाल दिये गये। वहाँ पर भी उनकी योग साधना सतत चालू थी। रात-रात भर परमात्मा के ध्यान में मग्न रहते थे। श्री अरविन्द के बचाव पक्ष के बैरीस्टर श्री चित्तरंजनदास थे जिन्होंने फीस में एक पाई भी न ली थी (बाद में वे देशबन्धु दास के नाम से प्रसिद्ध हुए)। सरकार की ओर से सैंकड़ों प्रमाण और साक्षी खड़े किये गये थे जिनका खंडन करने के लिए उन्हें दिन रात श्रम करना पड़ता था। सालभर मुकद्दमा चला। एक दिन अंग्रेज न्यायाधीश के पास कड़े पुलिस बंदोबस्त तले श्री अरविंद को जेल में से अदालत लाया गया। देशभक्ति से चकचूर जनता ने न्यायालय को खचाखच भर दिया था। सरकारी वकीलों के समक्ष बेरीस्टर चित्तरंजनदास उपस्थित हुए। उस समय विद्युत-पंखे नहीं थे। विशाल चँवर से न्यायाधीश पर पवन डाला जा रहा था। चँवर डुलाने के लिए कैदियों का उपयोग किया जाता था।

    सरकार कृतसंकल्प थी कि श्री अरविन्द को मुजरिम साबित कर फाँसी पर लटका दे और श्री अरविन्द शांतभाव से श्रीकृष्ण का चिन्तन किये जा रहे थे। उस समय उन्हें जो अनुभूति हुई वह अत्यंत रसीली एवं अदभुत थी। भगवान के समग्र स्वरूप का गीता वचन प्रत्यक्ष हुआ। श्री अरविन्दजी के ही शब्दों में इस प्रकार हैः

    "मैंने न्यायाधीश की ओर देखा तो मुझे उनमें श्रीकृष्ण ही मुस्कराते दीखे। मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने वकीलों की ओर देखा तो मुझे वकील दिखाई ही नहीं दिये, सब श्रीकृष्ण का रूप दिखाई दिये। वहाँ उपस्थित कैदियों की ओर निहारा तो सब कृष्णरूप धारण कर बैठे हुए दिखे। जगह-जगह मुझे श्रीकृष्ण का हूबहू दर्शन हुआ। श्रीकृष्ण मेरे सामने देखकर बोलेः 'तू बराबर देख। मैं सर्वव्यापी हूँ, फिर डर किस बात का?' उनके दिव्य दर्शन से, अभयदान प्रदान करती हुई उनकी वाणी से मैं संपूर्ण निर्भय हो गया। चिन्ता मात्र पलायन हो गई।" वर्षभर अदालत में मुकद्दमा चला। केस के अन्त में गोरे न्यायाधीश ने चुकादा दियाः 'निर्दोष'। लोगों के आनंद का पार न रहा। उन्होंने श्री अरविन्द को कन्धे पर बिठाकर आनंदोत्सव मनाते हुए प्रचण्ड जयघोष कियाः
    "जय श्रीकृष्ण, जय श्री अरविन्द।"

    समय की धारा में वह प्रसंग भी सरक गया, स्वप्न की नाई।

    उमा कहौं मैं अनुभव अपना।
    सत्य हरिभजन, जगत सब सपना।।

    यह सपने जैसे संसार में सब समय की धारा में स्वप्नवत् हो जाता है। अतः जगत सब स्वप्न है। 'मैं आत्मरूप से सबका आधार सच्चिदानंद स्वरूप हूँ... सोऽहम्.... शिवोऽहम्.....' ऐसा चिन्तन करोगे तो भगवान ब्रह्म के रूप में प्रकट हो जाएँगे।

    भोगी और विलासी को रोग होते हैं। विकारी जीवन में पश्चाताप, भय और चिन्ता होती है। भय, चिन्ता होवे तभी 'भगवान भय और चिन्ता के रूप में प्रकट हुए हैं' – ऐसा करके भय और चिन्ता से बाहर निकल जाओ। भगवदबुद्धि से भय को देखोगे तो भय दुःख नहीं देगा। भगवदबुद्धि से रोग और शत्रु को देखोगे तो रोग और शत्रु दुःख नहीं देंगे। भगवदबुद्धि से सुख और स्वर्ग को देखोगे तो वह सुख और स्वर्ग विषयासक्ति नहीं कराएँगे। कितने सुन्दर समाचार हैं!

    आप भगवान को किसी रूप में प्रकट करना नहीं चाहते लेकिन भगवान जैसे हैं वैसा जमाना चाहते हैं, जैसे हैं वैसे ही देखना चाहते हैं।
    जैसे हैं वैसे देखना चाहते हैं तो वे सब कुछ हैं। उनको सब कुछ जान लो, देख लो। नरक भी वे ही हैं, स्वर्ग भी वे ही हैं। रोग भी वे ही हैं और जो स्वास्थ्य भी वे ही हैं। धन्यवाद भी वे ही हैं, शिकायत भी वे ही हैं।

    'हमको भगवान पूरे दिखने चाहिए।'

    पूरा देखनेवाला कौन है, उसको पूरा खोजो। जो पूरा देखने वाले को पूरा खोज लेता है उसके अपने भीतर भगवान पूरे प्रकट हो जाते हैं।
    खोजने में परिश्रम पड़े तो वे सब कुछ हैं ही ऐसा संतों का अनुभव मान लो न ! अपने को पूरा खोजोगे तो क्या होगा?

    हेरत हेरत गयो कबीरो हेराई।

    खोजते-खोजते खोजनेवाला खो जायेगा। 'मैं..... मैं....' करने वाला मिथ्या हो जायेगा। शेष ब्रह्म ही ब्रह्म रह जायेगा। नमक की पुतली गई समुद्र की थाह लेने। पुतली तो खो गई, हो गई सागर। ऐसे ही देह और अहंकार खो गया और रह गया केवल ब्रह्म। मिटी बूँद हो गई सागर। बूँद भी पानी है, सागर भी पानी है।
    श्रीमद् आद्य शंकराचार्य ने करोड़ों ग्रन्थों का सार बताते हुए कहाः

    श्लोकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः।
    ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव ना परः।।
    अर्ध श्लोक कर कहता हूँ कोटि ग्रन्थ को सार।
    ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या जीव ब्रह्म निरधार।।

    जिसको मूल हम जीवात्मा बोलते हैं वह ब्रह्म अलग से नहीं है। जिसे हम तरंग बोलते हैं वह सागर से अलग नहीं। जिसे घटाकाश बोलते हैं वह महाकाश से अलग नहीं। जिसको हम जेवर बोलते हैं वह सोने से अलग नहीं। जिसे हम दो गज जमीन बोलते हैं वह पूरी पृथ्वी से अलग नहीं। दीवाल बाँध कर सीमा खड़ी कर सकते हो लेकिन अलग नहीं कर सकते हो लेकिन जमीन अलग नहीं कर सकते। 'हमारी जमीन..... तुम्हारी जमीन' ये मन की रेखाएँ खड़ी कर सकते हो लेकिन जमीन अलग नहीं कर सकते। ऐसे ही 'हमारा शरीर.... तुम्हारा शरीर....' अलग मान सकते हो लेकिन दोनों की जो वास्तविक 'मैं' है उसे अलग नहीं कर सकते। घड़ों का अलगाव हो सकता है लेकिन घड़ों के आकाश का अलगाव नहीं हो सकता। चित्त के अलगाव हो सकते हैं लेकिन चित्त जिसके आधार से फुरते हैं उल चिदाकाश का अलगाव नहीं हो सकता। 'वह चिदाकाश आत्मा मैं हूँ'.... ऐसा ज्ञान कराने का भगीरथ कार्य वेदान्त का है। 'वास्तव मे तुम आत्मा हो, विश्वात्मा हो, परब्रह्म परमात्मा हो। मरने और जन्मने वाले पुतले नहीं हो' – ऐसा वेदान्त दर्शन फरमाता है। ॐ.... ॐ.....ॐ....
    ऐसा ज्ञान पचाने वाला सिद्ध पुरुष शूली पर चढ़ते हुए भी निर्भीक होता है, रोते हुए भी नहीं रोता, हँसते हुए भी नहीं हँसता।
    सन्तुष्टोऽपि न सन्तुष्टः खिन्नोऽपि न च खिद्यते।

    तस्याश्चर्यदशां तां तां तादृशा एव जानते।।

    'ज्ञानी पुरुष लोक दृष्टि से संतोषवान होते हुए भी संतुष्ट नहीं है और खेद को पाये हुए भी खेद को नहीं प्राप्त होता है। उसकी उस-उस आश्चर्य दशा को वैसे ही ज्ञानी जानते हैं।'
    (अष्टावक्र गीताः 56)

    तन सुकाय पिंजर कियो धरे रैन दिन ध्यान।
    तुलसी मिटै न वासना बिना विचारे ज्ञान।।

    करोड़ों वर्ष की समाधि करो लेकिन आत्मज्ञान तो कुछ निराला ही है। ध्यान भजन करना चाहिए, समाधि करनी चाहिए लेकिन समाधिवालों को भी फिर इस आत्मज्ञान में आना चाहिए। सेवा अवश्य करना चाहिए और फिर वेदान्त में आना चाहिए। नहीं तो, सेवा का सूक्ष्म अहंकार आयेगा। कर्तृत्व की गाँठ बँध जाएगी तो स्वर्ग में घसीटे जाओगे। स्वर्ग का सुख भोगने के बाद फिर पतन होगा।

    वेदान्त का जिज्ञासु समझता है कि कर्मों का फल शाश्वत नहीं होता। पुण्य का फल भी शाश्वत नहीं और पाप का फल भी शाश्वत नहीं। पुण्य सुख देकर नष्ट हो जाएगा और पाप दुःख देकर नष्ट हो जाएगा। सुख और दुःख मन को मिलेगा। मन के सुख-दुःख को जो जानता है उसको पाकर पार हो जाओ। यही है वेदान्त। कितना सरल।

    जिसको अपना बिछुड़ा हुआ प्यारा स्वजन मिल जाये, उसको कितना आनन्द होता है ! मेले में बिछुड़े बच्चे को माँ मिल जाये पत्नी को बिछुड़ा हुआ पति मिल जाये, मित्र को बिछुड़ा हुआ मित्र मिल जाये तो कितना आनन्द होता है !

    जब अपना स्वजन कहीं मिल जाय तो इतना आनन्द होता है तो जिसको वेदान्त का ज्ञान हो जाता है उसको तो सर्वत्र अपना प्रिय प्रेमास्पद, अपना आपा मिलता है..... उसको कितना आनन्द मिलता होगा। ॐ....ॐ.....ॐ...
    ॐ आनन्द ! ॐ आनन्द !! ॐ आनन्द !!!


    ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

    Offline Pratap Nr.Mishra

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    Re: भेंट या दान देना
    « Reply #64 on: April 07, 2012, 05:40:04 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथायनमः

    भेंट या दान देना

    स्रोत :http://cbnindia.org/hi/giving-5/

    यह निश्चित है कि हम सब जानते हैं और हमने भाग भी लिया है कि किसी गरीब स्कूल के लिए या फिर किसी गरीब कलीसिया या कालोनी के विकास के लिए आर्थिक भेंट या दान दें। हो सकता है आपने भोजन दान का शिर लगाया हो, या हो सकता है कि जीवन के किसी मोड़ पर आपने दूसरी ज़रूरी चीज़ों को उपलब्ध कराया हो जैसे कम्बल, या फिर दवाएँ आदि। बाइबल में एक धटना का वर्णन है जो मरकुस के 12 के 41 से 43 पद में लिखा है। हमें वहाँ पर एक गरीब विधवा की भेंट का वर्णन है। यीशु वहाँ पर भेंट के डिब्बे के पास बैठा देख रहा था कि लोग कैसे भेंट दे रहे थे। तभी एक प्रभु मे एक गरीब विधवा को भेंट देते देखा जिसने अपना सब कुछ परमेश्वर के लिए बलिदान रूपी भेंट को पेटी में डाल दिया था और वह केवल दो दमड़ी थी। यीशु  बहुत से धनी लोगों को दान पेटी में अपनी भेंट डालते देखा था। और तब उसने उस बूढ़ी विधवा की भेट को भी देखा था। तब यीशु ने अपने मित्रों की ओर देख कर कहा था, “इस गरीब विधवा ने उन सब धनी लोगों से अधिक भेंट दी है। कारण यह है कि धनी लोगों ने तो अपनी बढ़ती में से कुछ भाग डाला है, लेकिन इस गरीब विधवा ने तो अपनी घटी में से अपना सब कुछ दे दिया है।”

    यीशु ने धनी लोगों की भेट की उस गरीब विधवा की भेंट से तुलना की थी जिससे वे धनी लोगों की ताड़ना कर सके। उन्होंने अपने धन में से जो दिया था उसके देने से उनके जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था उन्होंने तो अपनी भरपूरी में से दिया था। लेकिन उस विधवा ने जो दिया था वही उसके जीवन का सहारा था। उसने तो अपना सब कुछ परमेश्वर को भेंट कर दिया था। उस समय के मुंशी लोगों का काम था कि वे विधवाओं की देख भाल करें और लोग ठहराएँ जो उनकी आर्थिक परिस्थितियों का ध्यान रखें। परन्तु उस समय वे केवल विधवाओं को लूट रहे थे। उन को धोखा देकर उनकी विरासत पर कब्ज़ा कर रहे थे। बजाए उस विधवा की सहायता करने के उन लोगों ने उसके हाथ में केवल दो दमड़ी ही छोड़ीं थीं।  याद रहे परमेश्वर ऐसे धनी लोगों को दण्ड देगा जो गरीब विधवाओं को सताते हैं।

    इस बात पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है कि धनी लोग तो अपना मान रखने के लिए बड़ी भेंट चढ़ा रहे थे परन्तु उस विधवा ने तो बड़ी ही नम्रता से हलीम बन कर अपनी छोटी से भेंट परमेश्वर को दी थी। परमेश्वर ने उसे बड़ा मान दिया था वह परमेश्वर की नज़रों में बहुत ऊँची थी। निश्चय ही इस भेंट के लिए परमेश्वर ने उसे बहुतायत से आशीष दी होगी ऐसा मेरा विश्वास है। क्योंकि वचन मत्ती के 6 के 33 पद में साफ-साफ कहता है, “पहले परमेश्वर के राज्य की खोज करो तो बाकी सारी चीज़े तुम्हारे जीवन में जोड़ दी जाएँगी।” आईए हम इस रीति से न दें कि लोगों के सामने मान पाएँ वरण ऐसे दें कि गरीबों पर दया दिखाएँ और उनके साथ वह असीमित प्रेम बाँटें जो परमेश्वर ने हमें दिया है। यीशु मसीह ने तो अपना जीवन ही दे दिया था कि हम अपने पापों की क्षमा पा सकें। जितनों ने उस पर विश्वास किया उनके लिए वह सबसे बड़ा दाता बन गया। उसने अपना सब कुछ दे दिया था और आज जो विश्वास से उसे पुकारते हैं उन को देता है। आज भी जब हम उसकी अनन्त आशीषें पाते हैं आईए हम देने के आनन्द को भी समझ लें। आईए हम इस रूप से सकारात्मक बन जाएँ कि अपने जीवन को देने के आनन्द से भर लें।


    ॐ साईं राम

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    Re: To be Arjun with a teacher like Dronacharya or to be Eklavya
    « Reply #65 on: April 08, 2012, 04:57:11 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथायनमः

    To be Arjun with a teacher like Dronacharya or to be Eklavya

    Courtsey: Eklavya Education Foundation

    If you are asked whether it is better to be Arjun with a teacher like Dronacharya or to be Eklavya without a teacher, it is very likely that you will choose to be Arjun, possibly this is a right choice but for a moment consider looking at it from another point of view.
    Imagine a situation where Arjun is taking aim at the target, shoots, misses the target of bull’s eye by-2inch on the left side. Arjun goes to his teacher Drona who looks at the situation, asks Arjun to hit it again, the same thing happens again. Drona tells Arjun that he is putting more weight on left foot and asks him to shift, now misses again the bull’s eye and his on the right side by-1-nich, again takes aim after rebalancing his weight, shoots, and hits the target!
    Now consider the same situation for Eklavya. He misses the target by-2 inch on the left side. He has nobody to turn to, on Guru  to ask and get “ready-made” solutions. He is worried, he thinks, he shoots again and keeps trying, At night he cannot sleep, and tosses and turns on his hard bad. Next day some more practice but similar  results. Next night again no sleep. Possibly on the third day (like a flash of lightning) he discovers the role played by the way he balances the weight on each foot. He tries now to lean on his right foot and sooner or later shoots and hits the target!
    The question arises: which situation is preferable? While Arjun was getting ready-made answers he could not develop his own ability of struggling and solving the problems which came to him. So every time the problems come, he needs to look up to someone to guide him. He does this at the battlefield also (which in a way, in retrospect, is good because mankind got a fantastic thing called the Gita because of this.

    on the other hand. Eklavya had taught himself archery, had a feeling of  achievement far, far, fuller and deeper than that of Arjun’s and had also learnt the ability of squarely facing the problems which came to him in life by analyzing them, struggling through them and finally winning!
    So, is it better to be Arjun with a teacher like Dronacharya or Eklavya who has to find his own answers without a teacher?

    ॐ साईं राम



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    ॐ श्री साईं नाथायनमः

    जीवन में मनोदशा का महत्व

    व्यक्ति अपनी मानसिक स्थिति से ही संचालित होता है । मनोदशा अच्छी होने पर व्यक्ति आशावादी एवं उत्साह से जीता है अन्यथा वह उदासीनता के अंधेरे में घिर जाता है । उदासीनता अन्ततः व्यक्ति को निराश एवं हताश करती है ।अपनी मनोदशा अच्छी रखने के लिए उजले पक्ष को देखना पडता है । मनोदशा अच्छी होने पर व्यक्ति स्वंय को पसन्द करता है । स्वंय को पसन्द करने वाला दुसरों का भी सम्मान करता है । जो स्वंय से ही टूट जाता है वह औरो को भी निराश ही करता है । मनोदशा अच्छी नही होने पर मनोरोग बढते है ।
    मनोरोग केंसर से भी अधिक घातक है जबकि समाज मनोरोगों को रोग ही नही मानता है । मनारोग शारीरिक व्याधि से अधिक घातक है । मनस्थिति ठीक नही रहने पर व्यक्ति कोई न कोई नशे का आदि हो जाता है । चाहे वो सिगरेट, गुटखा, पान या शराब का सेवन हो ।
    मनोरोगी को जीवन में कुछ भी अच्छा नही लगता है । अवसादग्रस्त व्यक्ति कई बार आत्महत्या तक कर लेता है । मन के हारे हार है मन के जीते जीत । मन को प्रसन्न रखना व मन से प्रसन्न रखना जीने के जरूरी आॅक्सिजन है ।
    दुनिया के अधिकांश लोग शरीर से नही मन के रोगी है । मन के रोगी स्वंय को ठीक नही कर सकते अतः उनसे आदर्शवादी या सकारात्मक सोच के उपदेशों से वो ठीक नही हो सकते । मनोरोग के कई स्तर होते है । चिडचिडा होने से लेकर आत्महत्या करने तक का अलग-अलग स्तर होता है । मनोरोगी को समाज रोगी के रूप मे स्वीकार नही करता जिससे मनोरोग ओैर बढता जाता है ।


    ॐ साईं राम

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    Re: मन की तीन विशेषताएँ
    « Reply #67 on: April 08, 2012, 05:19:15 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथायनमः

    मन की तीन विशेषताएँ

    जनक सम्राट होकर ऋषिवत कैसे जीते थे?

    विगत दस दिनों की मौन यात्रा में मन से मुलाकात हुई जिसकी प्रकृति व स्वभाव अनुभव किया जिससे जीवन में कितने उपद्रव होते है उनका बोध स्पष्ट हुआ। मन को समझ कर उसको शान्त किया जा सकता है व उसी से जीवन में आनन्द व शान्ति प्राप्त होते है।
    मन को शान्त होने, आनन्द पाने, ईश्वर पाने या होने में मन सम्बन्घी ज्ञान की भूमिका है। वरन् यह इतना समर्थ है कि हमारा उपयोग कर लेता है। इससे आनन्द-शान्ति न लें तो यह जीवन में निरन्तर दौड़ता रहता है। अशान्त इसी को नहीं समझने के कारण होते है। यह विचारों के साथ तादात्म्य कर स्वयं बहुत कुछ बन जाता है। अहं यही बनता है। सारे उपद्रव करने में, शरीर को बचाने में, भटकाने में यह उस्ताद है। नित्य व स्थायी को भूला देता है। यश-प्रतिष्ठा, धन, स्त्री के प्रति मोह पैदा करता है। धर्म में आई सारी विकृतिया इसीकी बदौलत है। यह बस हमें उपर ही उपर भ्रमित किये रहता है। यह प्रत्येक चीज को देर-सबेर समस्या बना लेता हैं। यह कही तृप्त नहीं होता है। प्राप्त को बेकार व अप्राप्य को सदैव श्रेष्ठ बता कर उधर दौड़ाता रहता है। यह रूप बदलने, चाल बदलन में बड़ा माहिर हैै। यह अपनी बात व कथन पर अडि़ग नहीं रहता है।
    मन की विशेषताओं को जान लेने पर हम इसको पहचान लेते है। अपने क्रिया-कलापों में, विचारों में यह कैसे घूसा बैठा है। इसकी पहचान कर इसके प्रति तटस्थ हो जाए तो यह स्वतः मर जाता है। मौन व साक्षी होकर ही इसको मिटाया जा सकता है। वरन् प्रत्येक उपाय में यह सूक्ष्म रूप से घुस जाता है। तभी तो संयम, नियम, संकल्पों की धज्जी यह रोज उड़ाता है। संयम को प्रतिष्ठा बना देता है। करुणा में अहं बन कर घूस जाता है। बुद्धपुरुषों की वाणी को यह सम्प्रदाय बना देता है। प्रत्येक को यह अपनी आँख से देखता है। यह अपने हिसाब से समझता व अर्थ निकालता है। तभी तो कहा जाता है कि मन के मैत न चालिए। लेकिन यह इतना कुशल है कि उस पर फेंके गए प्रत्येक पत्थर को अपना रंग दे देता है। तभी तो जीवन की चाबी इसने हथिया ली है। विचार आया नहीं, भाव आया नहीं, तर्क आया नहीं की गई भैंस पानी में, मन हमें शिकार बना लेता है।


    ॐ साईं राम
    « Last Edit: April 08, 2012, 05:20:53 AM by Pratap Nr.Mishra »

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    Re: मन की पहली विशेषता
    « Reply #68 on: April 08, 2012, 05:25:03 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथायनमः

    मन की पहली विशेषता

    मन की पहली विशेषता विचार करना है। हम अपनी जीवन यात्रा में हर चीज का सामना विचार से करते हैं। वैसे विचार बाह्य जगत में/सांसारिक उन्नति में जरुरी है। उसका अपना जीवन में महत्त्व है। उससे मैं इन्कार नहीं करता हूँ। लेकिन आन्तरिक जगत में, निराकार के जगत में विचार समस्याएँ पैदा करता है। भौतिक क्षेत्र में तो फिर भी विचार सहायक हो जाते है लेकिन भाव जगत में, निराकार के क्षेत्र में, चेतना के सम्बन्ध में विचार आधारित निर्णय भटकाने वाले होते है। हमें विचार को छोड़ किसी अन्य साधन/दृष्टि का पता नहीं है।
    विचार की अपनी सीमाएं होती है जिसे हम भूल जाते है। विचार वस्तु को खण्डित कर देखता है। वह समग्र को एक साथ देख नहीं पाता है। अतः कई बार वस्तुओं के पक्ष को देख कर उन्हें दो में बांट देता है-प्रेम-घृणा, लाभ-हानि, हार-जीत, मेरा-तेरा, यह-वह आदि। इस तरह देखने से ये सब समस्याएं हो जाते है। क्योंकि प्रेम-घृणा एक ही भाव के दो रूप है, दो किनारे है। प्रेम और घृणा दों चीजें नहीं है। दोनों के परमाणु एक ही है। कभी पूरा प्रेम नहीं होता, न ही पूरी तरह हम घृणा करते है। जब हम प्रेम करते है तो साथ घृणा भी जन्मती है, जिसे विचार तत्समय देख नहीं पाता। मानें कि यह एक से सौ तक की मात्रा है। यही विचार की सबसे बड़ी सीमा है, कमजोरी है। तभी तो जिससे प्रेम होता है उसी से हमारी लड़ाई भी होती है।
    वैसे ही जीत-हार भी दो नहीं होते है। हर जीत में कुछ हार होती है। इसी तरह हर हार में कुछ जीत भी छिपा होती है जिसे विचार देख नहीं पाते है। पाना-खोना भी पूर्ण नहीं होते है। हर खोने में कुछ पाना होता है। पाने में कुछ खोना छिपा रहता है। अतः विभाजित कर देखने के कारण समझ कमजोर हो जाती है, अधुरी रह जाती है। इस कारण हम सही निर्णय नहीं कर पाते है।
    विचार वस्तु को खण्डित कर देखता है अर्थात् वस्तु एवं भाव का एक ही पक्ष देखता है अर्थात् समग्र को देख नहीं पाता हैै। ऐसे में हम अधुरे ज्ञान से निर्णय कर आगे बढ़ते है जो बाद में वहीं फैसले गलत लगते है। तभी जो कभी मित्र लगता है वहीं कभी वही दुश्मन दिखता हैै। आज तक जो अपना है वह कल पराया दिखता है। जबकि विचार की सीमा को ध्यान में रखे तो पछताना कम हो सकता है। बुद्धि तो उधार विचारों को ही समझने की भ्रान्ति में पड़ जाती है। बुद्धि की संवेदना सतही होती है। सागर के अन्दर का अन्तस्तल उपरी लहरों को पता नहीं होता है।

    ॐ साईं राम


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    Re: मन की दूसरी विशेषता
    « Reply #69 on: April 08, 2012, 05:31:39 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथायनमः

    मन की दूसरी विशेषता

    मन की दूसरी विशेषता यह है कि वह सदा दूसरों की तरफ देखता है। वह स्वयं की तरफ नहीं देखता है। मन कभी भी अपना दोष नहीं देखता है। प्रारम्भ से ही उसकी नजर दूसरों पर रहती है। इस कारण सम्यक विश्लेषण हो नहीं पाता है। कभी भी वस्तुस्थिति का सही पक्ष प्रकट नहीं होता है। उसके छिपे रहने से सारी गड़बड़ हो जाती है। हमारा मन दूसरे पर ही मंडराता रहता है। दूसरों को सुखी मान कर चलता है। दूसरों को देखने के कारण वह तुलना करता रहता है। फिर उससे तुलना कर नरक गढ़ लेता है। हम तुलना कर हर चीज को समस्या बना लेते है। इस कारण वस्तु को समग्रता में समझ नहीं पाते है।
    मन कभी भी अपने पास नहीं आता है। स्वयं के पहलू को ध्यान में नहीं रखता है। पर को देख कर ही निर्णय करता है जो कि अधुरे होते है। वह दूसरे को देखने का सरल रास्ता चुनता है। साथ ही दूसरों का सुख देखता है एवं अपना दुःख ही देखता है। इस कारण सदैव दूसरे को सुखी मानता है व स्वयं को दुःखी मानता है। इसलिए वह कभी पूरी तरह वास्तविकता को देख नहीं पाता है। उसकी सोच हमेशा पूर्वाग्रह पर आधारित होती है।
     
    दुसरो को देखने के कारण सारे दुःख  है जबकि जीवन स्वयं के पास है।


    ॐ साईं राम

           

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    Re: मन की तीसरी विशेषता
    « Reply #70 on: April 08, 2012, 05:37:57 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथायनमः

    मन की तीसरी विशेषता

    मन की तीसरी विशेषता तर्क को महत्त्व देना है। वह तर्क से ही समझाता व समझता है। तर्क द्वारा समग्र को नहीं समझा जा सकता है। क्योंकि तर्क भी वस्तुओं को खण्डित करता है। तर्क मन की ही ईजाद है। उसके द्वारा उसके पार सोच नहीं पाते है। तर्क शास्त्र ऐसा ज्ञान है ‘‘जो है’’ उसको नहीं सिद्ध करें एंव ‘‘जो नहीं है’’ उसको प्रमाणित कर दे। अर्थात् यह वायवीय है। बातुनी है, उपरी-उपरीे है। इसको जीवन में समझने का आधार नहीं बनाया जा सकता। जैसे की प्लेट में रखे दो अमरुदों को तर्क तीन सिद्ध कर सकता है। एक पहला जो है, व दूसरा दो नम्बर का अमरुद। अब एक एवं दो जोड़ो-यह तीन होता है। जबकि प्लेट में दो अमरुद ही है। तर्क द्वारा तीन अमरुद सिद्ध किये जा सकते है लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं होता है।
    लेकिन मन के अधिन व्यक्ति को यह बात तो गले नहीं उतरती है। हमारी आदत तर्क प्रधान हो गई है। जबकि तर्क भी एक साधन है समझने-समझाने का। वह भी सब कुछ नहीं है। जिसके कारण जीवन को गहरे सत्यों को हम समझ नहीं पाते है। तर्क ही ज्ञान की कसौटी नहीं है। तर्क से सत्य को पकड़ा नहीं जा सकता। लेकिन तर्कातीत को ख्याल में लेने में मात्र तर्क सहायह है। जैसे तबला बजाने वाला बजाने के पूर्व हथोड़े से तबला ठोंकता है, वह संगीत नहीं है। वह संगीत की पूर्व तैयारी है। इस कारण जीवन में अन्धेरा छिटकता नहीं है।
    मन का स्वभाव ही ऐसा है। फिर इसके कहने पर चल कर हम दुःखी होते है व कर्म भाग्य आदि को दोष देते रहते है। अरे! मन रूपी में नाव में ही छेद है तो भवसागर कैसे पार लगेगा। इस नांव में तो एक नहीं तीन-तीन बड़े छेद है। मन की इस स्वभाव, विशेषता व इसकी कुशलता को ध्यान में रख कर निर्णय लें।


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    Re: Same Motivator and Different Motivation
    « Reply #71 on: April 09, 2012, 04:58:56 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथायनमः

    Same Motivator and Different Motivation

    Motivation depends upon how you interpret a event, a person or a thing.

    There were two brothers. One of them became a successful businessman and the other became
    a drug addict. A person asked “How it happened?” The successful brother said, “I got motivation
    from my father, who was a drunkard and drug addict. So I learnt from him that I don’t have to spoil
    my life like him”.While another brother said “I learnt to drink and take drugs from my father. He was
    a drunkard. I passed my childhood with him. As I saw him, so I learnt from him.”

    From the same source of motivation, different persons learn different things. Why does it happen?
    Because, it depends upon us. It is important what you learn and from whom you learn is not very
    much important.


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    Re: शांति का सुख
    « Reply #72 on: April 09, 2012, 11:54:25 AM »
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  • ॐ श्री साईं नाथायनमः

    शांति का सुख

    स्रोत : कथा सागर नवभारत टाइम्स

    भगवान विष्णु के सामने भीड़ लगी थी। अपने आसन पर विराजमान प्रभु सभी प्राणियों को त्रैलोक्य की संपदा बांट रहे थे। उन्होंने संकल्प किया था कि आज किसी को खाली हाथ न जाने देंगे। धन - धान्य , संतान , वैभव - विलास , यश , वह सब कुछ खुले हाथों से दे रहे थे। बैकुंठ का कोष खाली होते देख लक्ष्मी से रहा नहीं गया और वह दौड़कर विष्णु का हाथ थामकर बोलीं , ' हे प्रभु। यह आप क्या कर रहे हैं। यदि आप मुक्त भाव से यों ही संपदा लुटाते रहे तो बैकुंठ में कुछ भी नहीं बचेगा। ऐसे में तो हमारा सुख - चैन सब छिन जाएगा। '

    लक्ष्मी की बात पर विष्णु मंद - मंद मुस्कराने लगे और बोले , ' देवी , इसके लिए चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। धन - संपदा लुटाने से हमारा सुख पहले की तरह ही बना रहेगा। '

    लक्ष्मी हैरानी से बोलीं , ' कैसे प्रभु ? सब कुछ तो आपने लुटा दिया। '

    विष्णु बोले , ' हां , सब कुछ लुटाने पर भी एक अमूल्य निधि ऐसी है जो हमारे पास सुरक्षित है और उसे यहां उपस्थित नर , किन्नर , गंधर्व , विद्याधर एवं असुर में से किसी ने भी नहीं मांगा है। वह निधि ऐसी है कि उससे धन - संपदा स्वयं खड़ी हो जाती है और यदि वह नहीं है तो धन - संपदा , वैभव का कोई मोल नहीं रह जाता।

    लक्ष्मी फिर बोलीं , ' प्रभु , पहेलियां न बुझाइए। बताइए वह है क्या ?'

    विष्णु बोले , ' वह निधि है - शांति। शांति के बिना धन - संपदा , वैभव - विलास का कोई अर्थ नहीं है। '

    विष्णु की बात सुनकर लक्ष्मी संतुष्ट हो गईं और बोलीं , ' हां प्रभु , आप सही कह रहे हैं। अब मैं निश्चिंत हूं। '


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    Re: ईश्वर की खोज
    « Reply #73 on: April 09, 2012, 12:06:41 PM »
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  • ॐ श्री साईं नाथायनमः

    ईश्वर की खोज

    स्रोत : कथा सागर नवभारत टाइम्स

    एक बार रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों के साथ नौका विहार के लिए निकले। नाव थोड़ा ही आगे बढ़ी थी कि एक शिष्य ने कहा, 'गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि जब-जब पृथ्वी पर पाप का बोझ असहनीय हो जाता है तब-तब वे धर्म के उत्थान तथा पाप के नाश के लिए अवतार लेते हैं। आज पृथ्वी पर पाप की पराकाष्ठा है पर भगवान कभी दर्शन नहीं देते।

    मैंने कई बार प्रयत्न किए पर उनके दर्शन नहीं हुए। अरे भगवान हों, तब तो दर्शन दें!' रामकृष्ण ने तभी दूसरे शिष्यों से कहा कि वे प्रश्नकर्ता को नदी में धकेल दें। शिष्यगण पहले तो चौंके पर उन्होंने अपने गुरु के आदेश के पालन किया। वह शिष्य नदी में गिर गया। वह तैरना नहीं जानता था। वह किसी तरह हाथ पैर-मारने लगा। भारी प्रयत्नों के बाद वह नाव के करीब आने में सफल रहा। तब रामकृष्ण ने शिष्यों से कहा कि वे उस शिष्य को नाव पर चढ़ने में मदद करें। वह शिष्य नाव पर आ गया। कुछ तो क्रोध के कारण और कुछ थकान के कारण वह बुरी तरह हांफ रहा था।

    जब वह सामान्य हुआ तो रामकृष्ण ने हंसकर कहा, 'पुत्र, क्रोध न करो। मैं तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे रहा था। तुमने अपने को बचाने के लिए भरसक प्रयत्न किए तभी तुम बच सके। क्या तुमने कभी ईश्वर को पाने के लिए इस तरह जान लड़ाकर प्रयास किया? पहले ढंग से प्रयास करो फिर उसके होने न होने के बारे में निष्कर्ष निकालो।' शिष्य को उसका उत्तर मिल गया। उसने रामकृष्ण से क्षमा मांगी।

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    Re: सच्चा गुरु
    « Reply #74 on: April 09, 2012, 12:19:44 PM »
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  • ॐ श्री साईं नाथायनमः

    सच्चा गुरु

    स्रोत : कथा सागर नवभारत टाइम्स

    एक व्यक्ति श्रेष्ठ गुरु की तलाश में था। एक दिन उसने अपनी यह समस्या अपने मित्र को बताई। मित्र ने कहा, 'यह कौन सी बड़ी बात है। इसकी पहचान मैं करा दूंगा। तुम्हें जिस व्यक्ति को गुरु बनाना हो उसके पास मुझे ले चलो। मैं उसकी परीक्षा लेकर बता दूंगा कि वह गुरु बनने योग्य है या नहीं।'

    मित्र ने इसके लिए एक नायाब तरीका अपनाया। वह जिस किसी के पास जाता, अपने साथ पिंजरे में एक कौवा ले जाता। मित्र महात्मा से पूछता, 'महाराज, यह पिंजरे में कबूतर ही है न?' इस बात को सुनकर कुछ लोग हंस पड़ते और उसका उपहास करने लग जाते। कई नाराज हो जाते और कहते, 'तुम जैसे मूर्खों से तो बात करना ही बेकार है।' कई साधु-संन्यासियों से मिलने के बाद आखिर दोनों मित्र एक महात्मा के पास पहुंचे। उसने फिर पहले की तरह ही कहा, 'महात्मा जी, यह कबूतर ही है न।'

    इस पर महात्मा जी तनिक भी क्रोधित नहीं हुए। वह शांत भाव से बोले, 'नहीं बेटे, यह कबूतर नहीं कौवा है।' मित्र पूर्ववत उसे कबूतर साबित करने पर तुल गया। लेकिन तब भी उन्होंने अपना धैर्य नहीं खोया। फिर उन्होंने उसे प्यार से समझाया, कौवे और कबूतर के लक्षण बताए और कहा, 'देखो कि पिंजरे में बंद पक्षी के लक्षण किससे मिलते हैं। अब तुम ही तय करो कि यह क्या है?

    अगर फिर भी समझ में नहीं आए तो चलो मैं तुम्हें जंगल में ले चलता हूं और विभिन्न पक्षियों की पहचान करवाता हूं।' दूसरे मित्र ने पहले मित्र को कोने में ले जाकर कहा, 'यही तुम्हारे गुरु हो सकते हैं। जो व्यक्ति दूसरों को सिखाने में रुचि ले और इस क्रम में अपना धैर्य न खोये, वही सच्चा गुरु हो सकता है। इन्होंने मेरा उपहास नहीं किया, न ही मुझ पर क्रोधित हुए क्योंकि इनके भीतर अपार धैर्य तो है ही, किसी व्यक्ति की गलती को सुधारने की सदिच्छा भी है।'

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