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Author Topic: निष्ठा ओर श्रधा का महत्व  (Read 27444 times)

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Offline Pratap Nr.Mishra

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प्रसनता का मंत्र
« Reply #90 on: February 24, 2013, 04:37:23 AM »
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  • ॐ साईं नाथाय नमः

    प्रसनता का मंत्र

    नवभारत टाइम्स | Sep 15, 2011,

    एक सेठ के पास लाखों की संपत्ति थी और भरा-पूरा परिवार था, फिर भी उसका मन अशांत रहता था। जब उसकी परेशानी बहुत बढ़ गई तो वह एक साधु के पास गया और अपना कष्ट बताकर प्रार्थना की, 'महाराज, जैसे भी हो, मेरी अशांति दूर कीजिए।'

    साधु ने उसकी बात ध्यान से सुनी और कहा, 'तुम्हारे कष्ट का एकमात्र कारण यह है कि तुम जिंदगी को सहजता से नहीं लेते। अगर सुख या दुख को समान भाव से लेने लगोगे तो कोई कष्ट नहीं होगा।' सेठ को यह बात समझ में नहीं आई। साधु इस चीज को भांप गए। उन्होंने कुछ सोचकर कहा, 'यहां से थोड़ी दूर पर तुम्हारी तरह ही एक अमीर कारोबारी रहता है, उसके पास जाओ वह तुम्हें रास्ता बता देगा।'

    सेठ ने सोचा कि साधु उसे बहका रहे है। उसने साधु से कहा, 'स्वामीजी, मैं तो आपके पास बड़ी आशा लेकर आया हूं। आप ही मेरा उद्धार कीजिए। मैंने सोचा था कि आप मुझे कोई मंत्र वगैरह बताएंगे।' साधु ने हंसकर कहा, 'जाओ उसी कारोबारी के पास तुम्हें प्रसन्नता का मंत्र मिल जाएगा।' लाचार होकर सेठ उस कारोबारी के पास पहुंचा। पहुंचते ही वह समझ गया कि उस कारोबारी का लाखों का व्यापार है।

    सेठ एक ओर बैठ गया। इतने में एक आदमी आ गया। उसका मुंह उतरा हुआ था। वह कारोबारी से बोला, 'मालिक हमारा जहाज समुद्र में डूब गया। लाखों का नुकसान हो गया।' कारोबारी ने मुस्कराकर कहा, ' इसमें परेशान होने की क्या बात है? व्यापार में ऐसा होता ही रहता है।' इतना कहकर वह अपने साथी से बात करने लगा। थोड़ी देर में दूसरा आदमी आया और बोला, 'सरकार रूई का दाम चढ़ गया है। हमें लाखों का फायदा हो गया।' कारोबारी ने कहा, 'मुनीमजी, इसमें ज्यादा खुश होने की क्या बात है? व्यापार में तो ऐसा होता ही रहता है।' सेठ सब कुछ समझ गया। उसे प्रसन्नता का मंत्र मिल गया।

    ॐ साईं राम

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    पांच सूरदासों  की कहानी
    « Reply #91 on: February 25, 2013, 07:02:08 AM »
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  • ॐ साईं नाथाय नमः

    पांच सूरदासों  की कहानी

    एक बार पांच सूरदासों की इच्छा  हुआ कि हाथीसाला में जाकर हाथी देखे | वो पाचों वहाँ गये और हाथी का निरिक्षण करने लगे | एक ने हाथी का पेट को छुआ और कहने लगा की हाथी दीवाल जैसा होता है | दुसरे ने पैर को पकड़ा और कहने लगा कि हांथी खम्बे जैसा होता है | तीसरे ने पूछ को पकड़ा और कहने लगा हाथी सांप जैसा होता है | चौथे ने सूंड को पकड़ा और कहने लगा हाथी रस्सी जैसा होता है | पांचवे ने कान को पकड़ा और कहने लगा हाथी सूप जैसा होता है |

    सत्य क्या है ? क्या हाथी पांचों के वर्णन के ही तरह होता है या किसी एक के वर्णन की तरह या एकदम ही अलग होता है ? जिसको आँख है वो हाथी के सही स्वरुप को देख सकता है |

    अपने अंधेपन के कारण ही सूरदासों ने अपनी अपनी तरह से हाथी के स्वरुप का वर्णन किया  | इसतरह से हमारी अज्ञानता (अंधापन) के कारण ही हम भी ईश्वर के सही स्वरुप को नहीं समझ पाते हैं और अंधविश्वास और रुदिवादिताओं से ग्रषित होकर केवल उसीका अनुसरण करने लगते हैं जो सूरदासों (अज्ञानियों और स्वार्थसिद्धिओं) ने हमें अपने अपने तरीके से हमें बतलाया है | हम कभी भी उनके कहे गये तथ्यों को अपने विवेक की कसौटी पे कसने की जरूरत नहीं समझते और मूलतः अपने जीवन के उदेश्यों से भटक जातें हैं | हम अज्ञानता के चलते अपने स्वयम पिता के दिए वास्तविक स्वरुप को भी नहीं समझ पाते और सूरदासों की तरह ही नाना प्रकार की भ्रान्तियो को सरे जीवन अपनाये रहते हैं |

    ईश्वर ने हमें सबसे बड़ी शक्ति ज्ञान स्वरुप में दी है जिसके माध्यम से हम उनके अनंत स्वरुप /गुणों का आनंद उठा सकतें हैं और परम शांति को प्राप्त कर सकते हैं इसी भौतिक जगत और भौतिक वस्तुओं के साथ रहते हुए भी |

    ॐ साईं राम




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    ॐ साईं नाथाय नमः

    संसार में रहते हुये भी अनासक्त रहने की कला

    राजा जनक के मन में प्रश्न उठा कि इस जगत में रहते हुये सभी कर्मों को करते हुये भी अनासक्त कैसे रहा जा सकता है ? उनके दरबार बड़े बड़े  पंडितों  , विद्वानों , अध्यात्मिक गुरुओं से भरा रहता था | राजा ने सभी से अनुरोध किया कि मेरे प्रश्न का उत्तर बतलायें पर मुझे उत्तर संक्षिप्त और सरल रूप में हो नाकि एक जटिल सम्भाषण रूप में |

    इस प्रश्न का उत्तर देने में सभी असमर्थ दिखे | उसी समय अस्टाबक्र मुनिजी का आगमन दरबार में हुआ | उनके शारीरिक संरचना को देखकर सभी दरबार में उपस्थित लोग मखौल उड़ाने लगे एवंग व्यंग कसने लगे | यह देखकर ऋषि बहुत क्रोधित हुये और कहने लगे कि हे राजन यह दरबार विद्वानों से नहीं बल्कि मूर्खों और चमारों से भरा पड़ा है | ये मेरा केवल बाहरी स्वरुप ही देख पा रहे है ,मेरे अन्दर के स्वरुप को नहीं |

    राजा जनक ने क्षमा याचना करके उनके क्रोध को शांत किया और तत्पश्चात पुछा कि मुझे बतलाइये कि कैसे इस संसार में रहते हुये एवंग सभी कर्मों को करते हुये भी मै सबसे अनासक्त रह सकूँ | ऋषि ने कहा कि राजन अभी नहीं मै
    उत्तर दूंगा पर समय आने पर अवश्य दूंगा |

    दरबार समाप्ति के पश्चात राजा जनक के मन में आया कि बहार जाके प्रकृति का आनंद उठा लूँ  इसलिए उन्होंने घोडा मँगाया |  वो घोड़े पर चढ़ने ही वाले ही थे | उनका एक पैर धरती में था और एक घोड़े पर | तभी उन्होंने देखा ऋषि उनकी तरफ आ रहे हैं | ऋषि ने पुछा राजन अभी तुम कहा हो | राजन ने कहा ऋषि मै ना तो धरती में हूँ ना ही उपर घोड़े पर | ऋषि ने कहा यही तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है | इस संसार में भी इसी तरह से रहा जा सकता है | रहते हुये भी ना रहना | राजा जनक बहुत ही प्रसन्य हुये और सारा जीवन इसी सिधांत को धारण करके सुखमय जीवन व्यतीत करने लगे |

    ॐ साईं राम
     



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    ॐ साईं नाथाय नमः

    परमपिता का कर्मों के अनरूप ही न्याय (फल प्रदान )

    एकबार दो व्यक्ति साथ साथ सुनसान रास्ते पर जा रहे थे | उनमे से एक बहुत ही लालची प्रवृति का था और दूसरा बहुत ही इमानदार  | रास्ते में चलते चलते उन्हें एक पैसों का पर्स पड़ा हुआ मिला | लालची व्यक्ति ने झटसे उसे उठा लिया और खोलके देखने लगा | पर्स में हजार रुपये थे | लालची व्यक्ति ने दुसरे व्यक्ति से कहा कि वैसे तो मेरी इच्छा पुरे पैसे रखने की है पर क्योकि तुम साथ में हो तो तुम्हे भी  आधा देने की सोच रहा हूँ | इमानदार व्यक्ति ने कहा मुझे पैसे नहीं चाहिये बल्कि जिसका यह पर्स है उसको वापस लौटा देते हैं | पता नहीं उसको इन पैसों की कितनी अवसकता होगी ,बहुत खुस होगा और दुआयें देगा | लालची व्यक्ति ने कहा कि भगवान ने  उसके भाग्य में इसको खोना ही लिखा था और हमलोगों के भाग्य में इसको पाना इसलिए अगर तुम नहीं लेना चाहते तो मै इसको भगवान का प्रसाद समझके पूरा ही रख लूँगा |ऐसा कहकर लालची व्यक्ति ने पैसे स्वयं के पास रख लिये और दोनों पुनः साथ -साथ चलने लगे | अभी कुछ दूर ही गए थे कि इमानदार व्यक्ति के पैर में एक कांटा चुभ जाता है वो वहां से खून निकलने लगता है | यह देखकर लालची व्यक्ति कहने लगता है कि देखो तुम्हारी ईमानदारी का दंड भगवान ने तुम्हे दिया है और मुझे देखो पैसे |

    उपर से नारद मुनि यह सब देख रहे थे और वो विचलित होकर भगवान से कहने लगे कि भगवान देखिये क्या उल्टा पलटा हो रहा है | जो ईमानदार है उसको तो दुःख मिल रहा है और जो लालची और बेईमान है उसको सुख | भगवन चित्रगुप्त सही तरह से लोगों के कर्मों का हिसाब-किताब नहीं रख रहें है जिसकी वजह से ही सब उल्टा पलटा हो रहा है |

    भगवान मुस्कुराये और चित्रगुप्त को बुलवाया और कहा कि इन दोनों व्यक्तिओं के कर्मों का बहीखाता दिखलाओ मुझे | जब भगवान ने देखा तो पुनः मुस्कुराने लगे और नारदजी से कहने लगे कि चित्रगुप्त ने सही हिसाब-किताब रखा है |जो लालची व्यक्ति है वो पूर्वजन्म में बहुत ही ईमानदार और दयालु व्यक्ति था एवंग उसने बहुत शुभकर्म किये थे ,जिसकी वजह से उसको इस जीवन में करोड़ों की सम्पदा मिलनी थी पर इस जन्म में उसके दुष्कर्मों की वजह से उसको केवल हजार रुपये ही मिले | वही ईमानदार व्यक्ति पूर्वजन्म में बहुत बड़ा धोकेबाज और लालची व्यक्ति था और बहुत से दुष्कर्म किये थे जिसके फलस्वरूप इस जन्म में उसकी चोट से आकाल मृत्यु लिखी थी पर इस जन्म के शुभकर्मों की वजह से केवल उसको एक कांटे की ही चोट सहनी पड़ी |

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    आसक्ति में भी अनासक्ति का भाव

    एक समय एक सन्यासी संध्या के पहर राजा जनक के पास आये और कहने लगे कि हे राजन ! आप इस भव्य राजमहल में अपने परिवार एवंग दास-दासियों के साथ रहते हुये  इतने भोग-विलास का जीवन यापन करते हो और तदुपरांत कहते हो कि आप सब चीज़ों से अनासक्त रहते हो | यह असंभव है क्योकि सबकुछ पूर्ण त्यागने के पश्चात भी मन से मै पूर्ण अनासक्त नहीं रह पता और आप तो सबकुछ ग्रेहण करने के पश्चात भी स्वयं को अनासक्त कहते हो |

    राजा जनक मुस्कुराये और कहने लगे कि हे महात्मा आप थोड़ी देर यहाँ इंतजार करिये तबतक मै दरबार के कुछ विशेष कार्यों को निपटाकर आता हूँ तब आपसे पुनः इस विषय में चर्चा करूँगा | अगर आप चाहें तो तबतक मेरे नये  महल जो अभी निर्माणाधीन है,जिसकी कलाकृति और नक्काशी अद्भुत है उसका निरिक्षण कर आनंद उठा सकतें हैं | सन्यासी ने कहा ठीक है राजन अति उत्तम विचार है | राजा जनक ने कहा पर महात्मा क्योकि निर्माणाधीन अवस्था में होने के कारण कारीगरों की सभी वस्तुयें यहाँ-वहाँ बिखरी हुई हैं और दरवाजे एवंग खिड़कियाँ नहीं लगने के कारण हवा का तेज बहुत  है | अभी वहाँ रौशनी की भी व्यवस्था नहीं है | क्योकि सूरज अस्त हो गया है तो रोशनी के आभाव से  अँधेरे में आपको चोट लगने की पूरी संभावना है | आप यहाँ से एक प्रज्जोलित दिया साथ में ले जाये तो आप दिये के  प्रकाश में कला-कृतियों का भरपूर आनंद उठा सकेंगे | ऐसा कह राजा जनक दरबार की ओर प्रस्थान कर गये | सन्यासी ने भी एक जलते हुये दीप को लेकर नये महल को देखने हेतु प्रस्थान किया |

    राजा जनक दरबार के कार्यों से निर्वित होने के पश्चात स्वागत कक्ष में पहुंचे जहाँ सन्यासी पहले से ही पहुंचे हुये थे | राजा ने पुछा महात्माजी कैसा लगा मेरा नया महल.वहाँ की अद्भुत कला-कृतियाँ | महात्माजी बोले राजन मैंने वहाँ कोई कला-कृति नहीं देखी | राजा जनक ने पुछा महात्माजी क्यों ? महात्माजी कहने लगे कि हे राजन मै देखता कैसे जब मेरा सम्पूर्ण ध्यान इस दिये पर ही था कि कहीं हवा के झोके में बुझ ना जाये | मेरा शारीर तो नये महल में अवश्य था पर मन तो केवल दिये पर ही टिका हुआ था |

    राजा जनक ने मुस्कुराता हुये सन्यासी से कहा , यही तो वो मन्त्र है आसक्ति में रहते हुये अनासक्ति का भाव रखना | मेरा मन सदैव उस परमपिता के ध्यान में ही रहता और यह शारीर इस भौतिक जगत में |

    सन्यासी बहुत प्रसन्न हुये और इस मन्त्र को अपना सबकुछ बना लिया |

    ॐ साईं राम




     


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    गीता का बुद्धि तत्त्व और बुद्धि योग - प्रो. बसन्त जोशी


    बुद्धि योग अत्यन्त श्रेष्ठ है। बुद्धि योग का तात्पर्य है निरन्तर बुद्धि से आत्म स्थित रहना। इसे ही परमात्मा से जुड़े रहना कहते हैं। बुद्धि योग का आश्रय लेकर ही समस्त कर्म करना है।

    बुद्धि से जो आत्मा में स्थित है उसके लिए पाप और पुण्य निरर्थक हो जाते हैं, क्योंकि वह अकर्ता हो जाता है। यही समता योग है। इस बुद्धि योग द्वारा ही कर्म बन्धन से छूटा जा सकता है। बुद्धि ही ऐसा माध्यम है जिससे अनासक्त होकर शरीर से कर्म किये जा सकते।

    ज्ञानवान ही बुद्धि द्वारा कर्म फल को त्याग करने में सक्षम होते हैं। अनासक्त होते ही चित्त की उद्विग्नता समाप्त हो जाती है और मन शान्त हो जाता है। इसलिए बुद्धियोगी जन्म बन्धन सेमुक्त होकर निर्विकार परम पद को प्राप्त करते हैं।

    बुद्धि द्वारा ही मनुष्य को यह ज्ञात हो पता है कि मोह ही संसार है और बुद्धि से ही मोह के त्यागने का रास्ता अथवा साधन भी प्राप्त होता है.

    वेद और उपनिषद के भिन्न भिन्न सिद्धान्तों से उपलब्ध बुद्धि द्वारा समाधि में स्थित होने पर मनुष्य समता योग को प्राप्त होता है अर्थात संसार में प्रचलित किसी एक अथवा बहुत विधियों का सहारा लेकर निरन्तर साधना करते हुए जब बुद्धि समाधि में अचल और स्थिर हो जाती है तभी आत्मा से योग सिद्ध  होता है.

    यह बुद्धि उस समय स्थिर होती हैं जिस समय मनुष्य बुद्धि द्वारा मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है, उस समय वह आत्मासे आत्मा में संतुष्ट रहता है और स्थित प्रज्ञ कहा जाता है।

    बुद्धि के स्थिर हो जाने पर  मनुष्य का मन दुखः में उद्विग्नता को प्राप्त नहीं होता और सुखों से उसे कोई प्रीति नहीं होती है, दोनो अवस्थाओं में वह निस्पृह रहता है, उसका राग, क्रोध, भय समाप्त हो जाता है,वह अनासक्त हो जाता है और वह  इस संसार में उदासीन होकर रहता है, वह सभी वस्तुओं में वह स्नेह रहित होता है, शुभ और अशुभ की प्राप्ति होने पर उसे न हर्ष होता है न वह द्वेष रखता है.

    जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को सब ओर से समेट कर अन्दर कर लेता है वैसे ही जब मनुष्य बुद्धि के द्वारा इन्द्रियों को सब विषयों से समेट लेता है तब स्थित प्रज्ञ कहा जाता है।

    जिस मनुष्य की बुद्धि स्थिर नहीं है वह किसी भी इन्द्रिय को रोककर उसके विषय को हठ पूर्वक ग्रहण नहीं करने से विषय निवृत्त हो सकता है परन्तु उस विषय में आसक्ति निवृत्त नहीं होती है. स्थिर बुद्धि मनुष्य इन्द्रियों से कार्य करते हुए भी विषयों को ग्रहण नहीं करता है उस पुरुष के विषय भी सीमित रूप से ही निवृत्त हो पाते हैं परन्तु स्थित प्रज्ञ पुरुष के परम आत्मा में स्थित होने पर ही आसक्ति पूर्ण रूप से निवृत्त होती है।क्योंकि पुरुष में आसक्ति इतनी प्रबल है कि यह आसक्ति नाश न होने के कारण, चंचल स्वभाव वाली इन्द्रियां, रात दिन प्रयत्न करने वाले बुद्धिमान साधक के मन को अपने प्रभाव से बल पूर्वक हर लेती है अर्थात यत्नशील बुद्धिमान पुरुष भी इन्द्रियों के वेग के सामने लाचार हो जाता है।अतः जो मनुष्य सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके आत्मतत्व की साधना में स्थित रहता है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।

    विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की बुद्धि उन विषयों में आसक्त हो जाती है। यदि किसी एक इन्द्रिय विषय का थोड़ा भी चिन्तन हो तो निरन्तर अभ्यासी पुरुष भी उस विषय की ओर बहने लगता है। सकामी पुरुषों की अनेक इच्छायें और उनकी आसक्ति से उत्पन्न संवेग का अनुमान लगाया जा सकता है। आसक्ति से बुद्धि में काम उत्पन्न होता है, कामना पूर्ति में यदि बाधा होती है तो क्रोध उत्पन्न होता है. क्रोध से सम्मोह पैदा होता है अर्थात बुद्धि सम्मोहित होकर अविचार उत्पन्न कर देती है। सम्मोह से स्मृति नष्ट हो जाती है। स्मृति नष्ट होने से बुद्धि का नाश हो जाता है और जिसकी बुद्धि का नाश हो जाय वह अपनी स्वरुप स्थिति को कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता और जिस स्थिति को उसने प्राप्त भी किया है उससे गिर जाता है।

    बुद्धि के द्वारा जिस पुरुष का मन उसके वश में आ चुका है तथा बुद्धि से सभी इन्द्रियां जिसने  वश में कर ली हैं, उसे न किसी से राग होता है न किसी से द्वेष अर्थात जिसकी आसक्ति का नाश समूल रुप से हो गया है ऐसा पुरुष संसार के समस्त विषयों को राजा जनक के समान विदेह होकर भोगता हुआ भी आत्मानन्द को प्राप्त होता है। उसका अन्तःकरण निरन्तर प्रसन्न रहता है।उसका चित्त निर्मल हो जाता है, अन्तःकरण स्वतः प्रफुल्लित रहता है ,सभी दुःख नष्ट हो जाते हैं और उस प्रसन्न चित योगी की बुद्धि शीघ्र  ही आत्म स्थित हो जाती है और आत्म स्वरूप में भलीभांति स्थिर हो जाती है।

    जो मनुष्य इन्द्रियों का दास है अर्थात जो कामनाओं का दास है और जिसका मन उसके वश में नहीं है अर्थात नित नई कामनाएं करता है, उस मनुष्य की बुद्धि निश्चयात्मक नहीं होती वह भटकती रहती है। एक बुद्धि न होने से अयुक्त मनुष्य के अन्तः करण में आत्म भावना भी नहीं होती। आत्म भाव का अभाव होने से मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती । कबीर कहते हैं
    ‘शान्ति भई जब गोविन्द जान्या’ और जिसे शान्ति नहीं है, वहाँ आनन्द कैसे हो सकता है।

    विषयों में विचरती हुयी इन्द्रियों के साथ अथवा किसी एक इन्द्री के साथ मन रहता है, वह एक इन्द्री पुरुष की बुद्धि का हरण उसी प्रकार कर लेती है जैसे पानी में नाव का वायु हरण कर लेती है अर्थात साधक पथ भ्रष्ट हो जाता है। नाव विपरीत दिशा की ओर वायु वेग से बहने लगती है, उसी प्रकार साधक की बुद्धि विपरीत हो जाती है।

    अतः इन्द्रियों को वश में करना सबसे ज्यादा आवश्यक है। इन्द्रियों को वश में करने के लिए महर्षि पातंजलि ने अष्टांगयोग बताया है। जिस साधक की इन्द्रियां सब प्रकार से वश में हैं उसकी बुद्धि स्थिर है, उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।

    जब संसार के समस्त प्राणी सोते हैं तब स्थितप्रज्ञ योगी आत्म ज्ञान में जागता है। सुसुप्ति में भी वह योगी आत्म रस में निरन्तर मगन रहता है। जब इस संसार के समस्त प्राणी जागते हैं अर्थात विषय व इद्रियों के वश में हुए संसार के कर्म करते हैं, स्थितप्रज्ञ मुनि के लिए वह समय रात्रि के समान है अर्थात वह संसार से अनासक्त हुआ कर्मों में विचरता है।

    नदी नालों का समस्त पानी समुद्र में समा जाता है फिर भी समुद्र अचल रहता है, उसमें बाढ़ नहीं आती, वह जस का तस बना रहता है। इसी प्रकार स्थित प्रज्ञ पुरुष में भी संसार के समस्त कर्म, समस्त भोग समा जाते हैं, वह परम शान्ति, परम आनन्द को प्राप्त होता है। जो व्यक्ति भोगों को चाहने वाला है उसे शान्ति नहीं प्राप्त होती है क्योंकि कामना में विघ्न पड़ने से उसका चित्त उद्विग्न रहता है

    आत्म स्थित ही ब्राह्मी स्थिति है। जब बुद्धि और आत्मा एक हो जाती है तब यह ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती है। जो भी योगी इस ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त हो जाता है, उसे सांसारिक और परमार्थिक मोह व्याप्त नहीं होते और अन्त में आत्म स्थित हुआ वह पुरुष आत्मा को ही प्राप्त होता है। इसे ही ब्रह्म निर्वाण कहते हैं।

    ॐ साईं राम

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    ॐ साईं नाथाय नमः

    विवेक के द्वारा ही अध्यात्म बढ़ता है

    यदि हम सोचें की आज से दस साल पहले क्या हमारे साथ समस्या अथवा चिंता नहीं थी ? जरुर थी लेकिन क्या वो आज है ? निश्चित ही नहीं है | परन्तु क्या आज समस्या अथवा चिंता दुसरे रूप में नहीं है ? निश्चित ही है |

    क्या आज से दस साल बाद ये समस्या ये चिंता हमारे पास नहीं रहेंगी ? निश्चित ही नहीं रहेंगी |

    लेकिन हम अपनी मानसिक उर्जा को इसी में लगाये रखते हैं और जीवन तत्त्व को अर्थात तत्व ज्ञान को प्राप्त ही नहीं कर पाते | फिर तत्वज्ञ बने रहना अथवा दूसरों को तत्व ज्ञान की तरफ उन्मुख करना तो दूर की बात है |

    हम इस बात को जानके भी अनजान बने रहते हैं और बस निरंतर इसी तरह से एक के बाद एक नयी चिंताओं में उलझे रहते हैं या स्वयं को उलझाये रहते हैं | हम ये जान ही नहीं पाते की हमारा जीवन हमें क्यूँ मिला है ?

    ॐ साईं राम

                          लेख आगे जारी रखा जायेगा   :)




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    ॐ साईं नाथाय नमः

    प्रथम भाग की निरंतरता  

    हम ये मन ही नहीं पाते की जीवन में नित्य कुछ भी नहीं खासकर हमारे उद्धेश्य से सम्बंधित (धन,मान,संपत्ति) |ये सबकुछ हमारे साथ नहीं रह पायेंगे या हमसब इन सारी चीज़ों के साथ नहीं रह पायेंगे | यहाँ तक की हम इस प्रश्न का अर्थ ही नहीं समझ पाते | व्यक्ति स्वयं को और संसार को एक जैसा ही समझता है और अपनी इसी गलत बुद्धिमानी के चलते निरंतर दुखित होता है | हम देखते है कई बड़े बुजुर्ग हमारे घर के ही या आसपास के हमारे सामने ही चले गए हमने क्या किया चार दिन रोये और फिर बाकि जो जीवन में संसार में हमारा बचा हुआ हमें लगा उसको दोनों हाथ से कसके पकड़ लिया की नहीं अब बाकि कुछ नहीं जाने देंगे लेकिन समय आया और फिर अनित्य (शारीर, संसार ) हमारे सामने चला गया लेकिन फिर हम वोही करते हैं |

    आखिर हम अपना विवेक जगा क्यूँ नहीं पाते ?

    यदि हमारा विवेक थोडा सा जाग्रत हो जाता है तो हम उसपर कायम क्यूँ नहीं रह पाते ?

    यदि कोई भूले से हमें ज्ञान दे देता है तो भी क्यूँ हम उसपर भी संदेह करने लगते हैं ?

    ॐ साईं राम                  


                         लेख आगे जारी रखा जायेगा  :)  






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    ॐ साईं नाथाय नमः

    दुसरे भाग की निरंतरता

    बहुधा हम अपने आप को दिलासा देते हैं की से सब बहुत मुश्किल है अथवा तो ये तो भगवान् की माया है । हम कोई साधू महात्मा नहीं जो दिनभर भगवान् का नाम जपते रहें और इस तरह संसार को छोड़े रहें व माया से बचे रहें । नहीं ऐसीबात नहीं है, ऐसी बात कदापि नहीं है क्योकि यह सच नहीं है ।

    व्यक्ति अपना सामान्य जीवन जीते हुए भी इश्वर प्राप्ति कर सकता है । तो फिर सच क्या है ? सच यह है की हममे अज्ञान इतनी अन्दर तक पैठा है जिसका हम अंदाजा तक नहीं लगा सकते ।

    यदि हम गंभीरता से सोचे तो हममे से अधिकतर ये पायेंगे की वाकई हम एक दिखावे की जिंदगी से ज्यादा नहीं जी रहे जहाँ  औरों  के मुताबिक उन्हें अच्छा लगे हमें उस मुताबिक जीना पड़ता है ।

    यदि गंभीरता से सोचेंगे तो पायेंगे की राग-द्वेष में बंधकर कितना ज्यादा हमने अपने आपको अर्थात अपनी जिंदगी को दुसरे के हांथों सौप रखा है  अर्थात हम अपना जीवन अपने हिसाब से अथवा अपने जीवन के हिसाब से नहीं जीते बल्कि लोगों के साथ ( प्रेम,दोस्ती,रिश्तेदारी ) में अथवा द्वेष ( शत्रुता, प्रतिद्वंदिता,साजिस, नफरत,भेदभाव ) के हिसाब से जीते हैं । यदि हम सच्चाई से अपने आप से पूछे और ये हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है क्योकि अज्ञान इसी तरह से जाता है और एकबार अज्ञान शुन्यता में पहुंचता है की ज्ञान स्वयं व्याप्त होने लगता है तो आपने आप से पूछे की क्या हम अपनी आत्मा को भी अनसुना नहीं करते ? क्या हम अपने शास्त्रों,वेदों में पूरी निष्ठां रखतें हैं । क्या ये सच नहीं है की हम भगवान में ही पूरी निष्ठां नहीं रखते तभी धार्मिक ग्रंथों का अध्यन नहीं करते धार्मिक चिंतन नहीं करते ।

    क्या हमें ये मालूम है की जिस तरह कपडा गन्दा हो जाने के बाद साफ़ करने पर ही साफ़ होता है उसी तरह हमारी आत्मा को भी साफ़ करने की आवश्यकता है । आत्मा की  सफाई शुद्ध भक्ति ,शुद्ध ज्ञान एवंग शुद्ध बैराग से ही सम्भव है । जितना ज्यादा हम अपने मन, बुद्धि को अहमियत देंगे अर्थात संसार को अहमियत देंगे उतनी ही हमारी आत्मा प्रकाशमय होने से रुकेगी व परिमाणमतः हम उतना ही अज्ञान में चलते जायेंगे ।

    ॐ साईं राम


           लेख आगे जारी रखा जायेगा  :)  

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    ॐ साईं नाथाय नमः

    तीसरे भाग की निरंतरता

    क्या जितना हम स्वयं को अविश्वास पैदा करने में लागतें हैं उतना क्या विस्वास को बनाये रखने में लगाते है ? यदि नहीं लगाते हैं तो क्या हम जानते है की ऐसा हमारी आत्मा के कम बलवान होने के कारण ही होता है ? क्या हमें मालूम है की जितना ज्यादा हम अपने आत्म स्वरुप को महत्व देंगे उतना ही हमारी आत्मा शक्तिशाली होती है ?

    जितना हम अपने मन के वश में होते हैं हमारी आत्म शक्ति छीन ही होती है और जितना हमारा मन हमारे नियंत्रण में होता है हमारी आत्म शक्ति उतना जागृत रहती है |

    अतः हमें सबसे पहले ये जानना और मानना आवश्यक है की भगवान् की अनुभूति के लिए हमारे सांसारिक और अध्यात्मिक सिद्धांत एक होने चाहिए और उसके लिए सबसे जरूरी है वो है  संसार में हमारी आसक्ति का कम होना अर्थात हमें संसार का ज्ञान होना |
    दूसरा ज्ञान का महत्व |
    तीसरा हमारे अन्दर श्रद्धा होनी चाहिए |
    और चौथी और महत्पूर्ण बात की व्यक्ति का मन उसके नियंत्रण में होना चाहिए नाकि व्यक्ति अपने मन के और उससे उत्पन्न होने वाली विभिन्न प्रकार की इच्छाओं के वश में हो |

    हम स्वयं परमात्मा परमेश्वर के शब्दों को भी देखे तो भगवतगीता में उन्होंने विभिन्न स्थानों में यही कहा है :

    ॐ साईं राम

           


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    Offline Pratap Nr.Mishra

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    • राम भी तू रहीम भी तू तू ही ईशु नानक भी तू


    ॐ साईं नाथाय नमः

    चौथे भाग का निरंतरता

    १. संसार में हमारी आसक्ति का कम होना अर्थात हमें संसार का ज्ञान होना

    ये ही संस्पर्सजा भोगा दुःखयोयन ऐव ते |
    आद्यन्तवन्तः कैन्तेय न तेषु रमते बुधः ||

    भावार्थ : जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यदयपि विषयी पुरुषों को सुखरूप भासते है ,तो भी दुःख के ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात अनित्य है | इसलिए हे अर्जुन बुद्धिमान विवेकी उनमे नहीं रमता |

    २.ज्ञान का महत्व

    यथैधांसि समिद्धोs ग्निर्भ स्मसा त्कुरुतेsर्जुन |
    ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा  ||

    भावार्थ : क्योकि हे अर्जुन जैसे प्रज्वलित अग्नि ईधनों को भस्ममय कर देता है ;वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को 
    भस्ममय कर देते है || ४/३७ ||

    न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
    तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥

    भावार्थ : इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निः संदेह कुछ भी नहीं है | उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तः करण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है ||४/३८ ॥

    ३. श्रद्धा

    श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संय तेन्द्रियः |
    ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ||

    भावार्थ :  जितेन्द्रिय,साधनपरायण, श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ||४/३९ ||

    अज्ञश्च श्रद्ध धानश्च संशयात्मा विनश्यति  |
    नायं लोकोsस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ||

    भावार्थ : विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है | ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है , न परलोक है और न सुख ही है ||४/४० ||

    ॐ साईं राम


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