DwarkaMai - Sai Baba Forum

Main Section => Sai Baba Spiritual Discussion Room => Topic started by: sai ji ka narad muni on March 01, 2017, 09:47:44 AM

Title: नितांत क्षणभंगुर
Post by: sai ji ka narad muni on March 01, 2017, 09:47:44 AM
ॐ साईं राम
जय श्री हरी

एक क्षणभंगुरता का विचार ही हैं जो वैराग्य और विवेक का तत्काल दान देता हैं

वो जो कभी पैदा हुआ हैं जिसका निर्माण हुआ हैं वो अपने समय पर नष्ट भी हो जायेगा , वो जो कभी जन्म नही वह सदा रहेगा।
हम अभी तो इस दुनिया में हैं ही यही विचार आसक्ति को बढ़ावा देते हैं संसार बढ़ाता हैं
सब कुछ क्षणभंगुर हैं यह निष्ठां अनेको प्रकार के प्रपंच से बचाती हैं।


Title: Re: नितांत क्षणभंगुर
Post by: suneeta_k on March 06, 2017, 08:57:48 AM
हरि ॐ

ॐ साई राम .
श्रीसाईसच्चरित में हेमाडपंत जी ने क्षणभंगुर नश्वर मनुष्य देह के बारेमें अध्याय ८ में ओवी में लिखा है -
ऐसा अमंगल आणि नश्वर । नरदेह जरी क्षणभंगुर । तरी मंगलधाम परमेश्वर । हातीं येणार एणेंचि ।। २४ ।।
ऐशिया क्षणभंगुर नरदेहीं । पुण्यश्लोक कथावार्ताही । गेला काळचि पडे संग्रहीं । तद्विरहित तो व्यर्थ । । २७ ।।

(मराठी श्रीसाईसच्चरित मैं पढती हूं , इसलिए मराठी ओवी लिखी है )

इससे ये प्रतित होता है कि इंसान का देह भले ही नश्वर ( नाश पानेवाला) और क्षणभंगुर है किंतु भगवान , परमेश्वर जो नित है , मंगलधाम हैं , उन्हें पाने के लिए इसी नरदेह का सहारा लेना पडता है । इसिलिए जभी हम परम पावन भगवान के पुण्य श्लोकों को या कथा वार्तोओं को हम सुनतें हैं उतना ही समय हम अपने लिए अच्छा संग्रह करतें हैं ।

आपने नितांत और क्षणभंगुर इकठ्ठा किस तरह से लिखा, कृपया बताईये । परमेश्वर नित और नितांत सुंदर है और इंसान क्षणभंगुर नरदेह धारण करता है।
मेरे खयाल से नितांत और क्षणभंगुर ये दोनो एक दूसरे के विरोधी तत्व है ।

धन्यवाद
ओम साईराम
Title: Re: नितांत क्षणभंगुर
Post by: sai ji ka narad muni on March 09, 2017, 11:00:57 AM
हरी ॐ
साईं राम

प्रभु का सौन्दर्य नित नूतन हैं यह सत्य हैं।प्रभु में नित नूतन निराला ही आनन्द हैं यह भी सत्य हैं।।
नित और नितांत का अर्थ आप क्या समझती हैं यह मुझे ज्ञात नही।
परन्तु आपको नितांत और क्षणभंगुरता विरोधी तत्व क्यू लगते हैं यह आवश्य बताये .व्याकरण की दृष्टि से मेरी बुद्धि में इनमे विशेष्य और विशेषण का फर्क हैं केवल। तत्व की दृष्टि से नितांत उपयुक्त शब्द हैं । नितांत के बजाय उसे कितना क्षण भंगुर कहें ये भी बताएं।
ज्ञानेश्वर महाराज विश्व की क्षणभंगुरता पर कहते हैं
:- ( ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्‌ ॥  श्लोक पर महाराज की टीका :-* )

तैसीचि ययाची स्थिती । नासत जाय क्षणक्षणाप्रती । म्हणौनि ययातें म्हणती । अश्वत्थु हा ॥ ११४ ॥ आणि अश्वत्थु येणें नांवें । पिंपळु म्हणती स्वभावें । परी तो अभिप्राय नव्हे । श्रीहरीचा ॥ ११५ ॥ एऱ्हवीं पिंपळु म्हणतां विखीं । मियां गति देखिली असे निकी । परी तें असो काय लौकिकीं । हेतु काज ॥ ११६ ॥ म्हणौनि हा प्रस्तुतु । अलौकिकु परियेसा ग्रंथु । तरी क्षणिकत्वेंचि अश्वत्थु । बोलिजे हा ॥ ११७ ॥ आणीकुही येकु थोरु । यया अव्ययत्वाचा डगरु । आथी परी तो भीतरु । ऐसा आहे ॥ ११८ ॥ जैसा मेघांचेनि तोंडें । सिंधु एके आंगें काढे । आणि नदी येरीकडे । भरितीच असती ॥ ११९ ॥ तेथ वोहटे ना चढे । ऐसा परिपूर्णुचि आवडे । परी ते फुली जंव नुघडे । मेघानदींची ॥ १२० ॥ ऐसें या रुखाचें होणें जाणें । न तर्के होतेनि वहिलेपणें । म्हणौनि ययातें लोकु म्हणे । अव्ययु हा ॥ १२१ ॥ एऱ्हवीं दानशीळु पुरुषु । वेंचकपणेंचि संचकु । तैसा व्ययेंचि हा रुखु । अव्ययो गमे ॥ १२२ ॥ जातां वेगें बहुवसें । न वचे कां भूमीं रुतलें असे । रथाचें चक्र दिसे। जियापरी ॥ १२३ ॥ तैसें काळातिक्रमें जे वाळे । ते भूतशाखा जेथ गळे। तेथ कोडीवरी उमाळे । उठती आणिक ॥ १२४ ॥ परी येकी केधवां गेली। शाखाकोडी केधवां जाली । हें नेणवे जेवीं उमललीं । आषाढाभ्रें ॥ १२५ ॥ महाकल्पाच्या शेवटीं । उदेलिया उमळती सृष्टी । तैसेंचि आणिखीचें दांग उठी । सासिन्नलें ॥ १२६ ॥ संहारवातें प्रचंडें । पडती प्रळयांतींचीं सालडें । तंव कल्पादीचीं जुंबाडें । पाल्हेजती ॥ १२७ ॥ रिगे मन्वंतर मनूपुढें । वंशावरी वंशांचे मांडे । जैसी इक्षुवृद्धी कांडेंनकांडें । जिंके जेवीं ॥ १२८ ॥ कलियुगांतीं कोरडीं । चहुं युगांची सालें सांडी । तंव कृतयुगाची पेली देव्हडी । पडे पुढती ॥ १२९ ॥ वर्ततें वर्ष जाये । तें पुढिला मुळहारी होये । जैसा दिवसु जात कीं येत आहे । हें चोजवेना ॥ १३० ॥ जैशा वारियाच्या झुळकां । सांदा ठाउवा नव्हे देखा । तैसिया उठती पडती शाखा । नेणों किती ॥ १३१ ॥ एकी देहाची डिरी तुटे । तंव देहांकुरीं बहुवी फुटे । ऐसेनि भवतरु हा वाटे । अव्ययो ऐसा ॥ १३२ ॥ जैसें वाहतें पाणी जाय वेगें । तैसेंचि आणिक मिळे मागें । येथ असंतचि असिजे जगें । मानिजे संत ॥ १३३ ॥ कां लागोनि डोळां उघडे । तंव कोडीवरी घडे मोडे । नेणतया तरंगु आवडे । नित्यु ऐसा ॥ १३४ ॥ वायसा एकें बुबुळें दोहींकडे । डोळा चाळीतां अपाडें । दोन्ही आथी ऐसा पडे । भ्रमु जेवीं जगा ॥ १३५ ॥ पैं भिंगोरी निधिये पडली । ते गमे भूमीसी जैसी जडली । ऐसा वेगातिशयो भुली । हेतु होय ॥ १३६ ॥ हें बहु असो झडती । आंधारें भोवंडितां कोलती । ते दिसे जैसी आयती । चक्राकार ॥ १३७ ॥ हा संसारवृक्षु तैसा । मोडतु मांडतु सहसा । न देखोनि लोकु पिसा । अव्ययो मानी ॥ १३८ ॥ परि ययाचा वेगु देखे । जो हा क्षणिक ऐसा वोळखे । जाणे कोडिवेळां निमिखें । होत जात ॥ १३९ ॥ नाहीं अज्ञानावांचूनि मूळ । ययाचें असिलेंपण टवाळ । ऐसें झाड सिनसाळ । देखिलें जेणें ॥ १४० ॥ तयातें गा पंडुसुता । मी सर्वज्ञुही म्हणें जाणता । पैं वाग्ब्रह्म सिद्धांता । वंद्यु तोची ॥ १४१ ॥ योगजाताचें जोडलें । तया एकासीचि उपेगा गेलें । किंबहुना जियालें । ज्ञानही त्याचेनी ॥ १४२ ॥ हें असो बहु बोलणें । वानिजैल तो कवणें । जो भवरुखु जाणें । उखि ऐसा ॥ १४३ ॥
IN ENGLISH:-
....As a result, the world
tree appears to be everlasting. As the water of the river current flows away very fast, it is
followed by another, so that the river appears to have a continuous flow, so this universe,
though impermanent, appears to be permanent. Numerous ripples appear and disappear in
the sea in a twinkling of the eye, and so they appear to be permanent. The crow with only
one common eye-ball, moves it from one eye to the other so fast, that it gives an erroneous
impression that it has two eyes (131-135). When the top rotates very fast, its rapid motion
gives the false impression that it is stationary and stuck to the ground. Why go far, if the
firebrand is moved very fast round and round in darkness, it appears circular in shape. In
the same way, the decomposition and growth of this world-tree takes place so fast, simul-
taneously, that the ordinary people do not perceive it and call it everlasting. But he, who realises,
that this world-tree is momentary, that it grows and withers continuously in a moment and
is false being rooted in ignorance (136-140), such a man, O Arjuna, is all knowing, the knower
of Vedanta doctrine and is the object of my adoration. He alone, attains the fruit of Yoga and
enlivens knowledge.

ॐ साईं राम
जय साईं राम