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Main Section => Sai Baba Spiritual Discussion Room => Topic started by: suneeta_k on May 05, 2017, 10:53:06 AM

Title: मेरे सदगुरु श्रीसाईनाथ के निजकर याने श्रीसाईसच्चरित का निर्माण - हेमाडपंतजी का
Post by: suneeta_k on May 05, 2017, 10:53:06 AM
हरि ॐ.
मेरे सदगुरु श्रीसाईनाथ  के निजकर याने  श्रीसाईसच्चरित का निर्माण - हेमाडपंतजी का  एहसास !

ॐ कृपासिंधु श्रीसाईनाथाय़ नम: ।

श्रीसाईसच्चरित यह एक महान अपौरूषेय ग्रंथ है । अपौरूषेय ग्रंथ याने परमेश्वर के आविष्कार से जो ज्ञान अपने आप सहजता से प्राप्त हो जाता है और उस ज्ञान से जो ग्रंथ निर्माण होता है ऐसा ग्रंथ ! चारो वेद , श्रीमद्भगवद्गीता , भागवत , ज्ञानेश्वरी , श्रीसाईसच्चरित ये सारे अपौरूषेय ग्रंथ है ।
हेमाडपंत पूर्णत: विनयशील थे और ‘इस संपूर्ण चरित्र के कर्ता एवं करवाने वाले मेरे सद्गुरु श्रीसाईनाथ ही हैं’ इस बात का पूरा-पूरा एहसास उन्हें था। इसिलिए हेमाडपंत  बार बार यह बात दोहरातें हुए नहीं थकतें हैं कि श्रीसाईसच्चरित यह मैंने नहीं लिखा बल्कि मेरे सदगुरु श्रीसाईनाथ ने ही लिखवाया  है मुझसे , मेरे साईबाबा का निजकर मेरे सिर पर था इसिलिए यह ग्रंथ लिखा गया ।

हेमाडपंतजी  के मन में कभी भी यह बात नहीं आयी कि य्ह ग्रंथ मैं खुद लिख रहा हूं ।सत्य एवं वास्तव की स्मृति हेमाडपंत के मन में कितनी जागृत है, यह बात श्रीसाईसच्चरित के एक लेख को पढकर समझने में आसानी हो जाती है -
http://www.newscast-pratyaksha.com/hindi/shree-sai-satcharitra-adhyay2-part17/ (http://www.newscast-pratyaksha.com/hindi/shree-sai-satcharitra-adhyay2-part17/)


अध्याय २ में हेमाडपंत लिखतें हैं -
‘साधु संत अथवा श्रीहरि। किसी श्रद्धावान का हाथ पकड़कर ।
अपनी कथा स्वयं ही लिखते हैं। अपना हाथ उसके सिर पर रखकर॥

इस ओवी के बारे में उपर निर्देशित लेख में लेखक महोदय बतातें हैं कि ‘निजकर सिर पर रखकर’ (अपना हाथ उसके सिर पर रखकर) इस बात का अनुभव हेमाडपंत को अच्छी तरह स हो चुका था। जब तक उस साईनाथ का हाथ मेरे सिर पर है, तब तक मेरी लेखनी चलती रहेगी। केवल लेखनी ही नहीं बल्कि मेरा हाथ, मन एवं बुद्धि इन्हें भी वे ही चलानेवाले हैं; इसीलिए ‘सद्गुरु साईनाथ का मेरे सिर पर रहनेवाला हाथ’ यही इस चरित्र-लेखन की सच्चाई है।

यहां पर लेखक हमें संत ज्ञानेश्‍वरजी की कथा सुनाकर दिखलातें हैं कि  परमात्मा का निज-कर (अपना हाथ) कैसे होता है?
संत ज्ञानेश्‍वरजी का उपहास करना चाहनेवाले कुछ लोगों ने ज्ञानेश्‍वर को उन्हीं के नाम का भैंसा दिखलाकर ‘इसका नाम भी ज्ञाना है, तो क्या यह भैंसा वेदमंत्रों का उच्चारण कर सकेगा?’ इस प्रकार का प्रश्‍न किया।
ज्ञानेश्‍वरजी ने अपनी कृति से ही उन्हें उत्तर दिया। जिस पल उस भैंसे के सिर पर ज्ञानेश्‍वरजी ने अपना हाथ रख दिया, उसी क्षण वह भैंसा वेदों की ऋचाओं का पाठ करने लगा। परन्तु यह तब तक ही होता रहा जब तक उस भैंसे के सिर पर संत ज्ञानेश्‍वर का हाथ था। जिस क्षण उन्होंने उस भैंसे के सिर पर से अपना हाथ उठा लिया, उसी क्षण उस भैंसे का बोलना बंद हो गया।

यही है उस परमात्मा का निजकर और यह कथा निश्‍चित ही हेमाडपंत को अच्छी तरह से याद थी। इसीलिए साईनाथ ने उनके सिर पर रखे हुए अपने निज-कर का यानी साई के हाथ का हेमाडपंत को सदैव स्मरण रहा।

हेमाडपंत कभी भी अंहकार से या गर्व से श्रीसाईसच्चरित ग्रंथ मैंने  लिखा ऐसे कहते हुए हमें पूरे श्रीसाईसच्चरित में , पूरे के पूरे ५२ अध्यायों में एक बार भी नजर नहीं आता , बल्कि वो हर बार इसी बात को बताते हैं कि मेरे साईनाथ ने मेरा हाथ पकडकर , मुझे अपनी कलम बनाकर यह ग्रंथ लिखवाया है ।
साईनाथ ही स्वंय लिखनेवाले भी है , और लिखवा लेनेवाले भी है यह हेमाडपंत की भावना है और उसे वह अध्याय ३ में बयान करतें हैं -
कैसा बजेगा पावा या पेटी इस की चिंता मैं नहीं करता , बल्कि यह चिंता मेरे साईनाथ करतें हैं ।

अध्याय ३२ में हेमाडपंत लिखतें हैं -
हेमाड साईंसी शरण । अपूर्व हें कथानिरुपण । साईच स्वयें करी जैं आपण । माझें मीपण फिकें तैं ।। १६९।।
तोच या कथेचा निवेदिता । तोच वाचिता तोच परिसता । तोच लिहिता आणि लिहविता । अर्थबोधकताही तोच ।।१७० ।।
साईच स्वये नटे ही कथा । तोच इये कथेची रुचिरता । तोच होई श्रोता वक्ता । स्वांनदभोक्ताही तोच ।। १७१ ।।

अध्याय ४० में हेमाडपंत लिखतें हैं -
तोचि कीं साई अनुमोदिता । तोच तो माझा बुध्दिदाता । तोच मूळ चेतना चेतविता । तयाची कथा तोच करी ।। १३।।
कीं हा हेमाड निजमतीं । रचितो हा विकल्प न धरा चित्तीं । म्हणोनि श्रोतयां करितो विनंती । गुणदोष माथीं मारूं नका ।।१४ ।।
गुण तरी ते साईचे । दोष दिसलिया तरीते त्याचे । मी तो बाहुलें साईखड्याचें । आधारीं नाचें सूत्राच्या ।। १५।।
सूत्रधाराहातीं सूत्र । त्याला वाटेल तें तें चित्र । रंगीबेरंगी अथवा विचित्र । नाचवील चरित्रसमन्वित ।। १६ ।।

स्पष्ट्ता से हेमाडपंत इसी बात को उजागर करतें हैं कि साईनाथ ने ही मुझे अनुमोदन दिया ग्रंथ लिखने के लिए, साईनाथ ही मेरे बुध्दी में मैं क्या लिखूं इस बात को दाता बनाकर प्रदान करतें हैं , वो ही मुझ में ग्रंथ लिखने की चेतना जागृत करवातें हैं , श्रीसाईनाथ जी खुद ही अपनी कथा आप बता रहें हैं , इसिलिए हेमाडपंत अपनी मती से  , अपनी बुध्दि से लिख रहें हैं ऐसा विकल्प अपने मन में तनिक भी आने मत दिजिए । मैं तो सिर्फ मेरे श्रीसाईनाथ के हाथों की कठपुतली हू , वो मुझे जैसे नचाने चाहतें हैं वैसे ही मैं नाचता हूं , उनके सूत्रों के अनुसार ।

और यही है उस सत्य एवं वास्तव को देखने की हेमाडपंत की दृष्टि। परमात्मा का निजकर सिर पर पड़ते ही जब भैंसा भी बोलने लगता है, तो वहाँ मनुष्य का बोल सकना यह स्वाभाविक बात है, इसका हेमाडपंत को सदैव स्मरण था और इसीलिए बाबा ने हेमाडपंत से स्वयं का चरित्र लिखवाया।

ॐ साईराम .

धन्यवाद.