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Author Topic: ‘मेरे साईनाथ मेरे हृदय में हैं’ - सर्वोच्च प्रेमसमाधि ।  (Read 5164 times)

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Offline suneeta_k

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हरि ॐ 

ॐ. कृपासिंधु  श्रीसाईनाथाय  नमः ।

‘मेरे साईनाथ मेरे हृदय में हैं’ - सर्वोच्च प्रेमसमाधि ।

श्रीसाईनाथ की कथाओं को सुनकर हम मन  में सहज ही श्रीसाईनाथ का ध्यान करने लग जातें हैं और साई के सहज-ध्यान से ही हमारे मन में हमारे साईबाबा की कृपा  प्रवाहित होने लगती हैं। मनुष्य का सर्वोच्च ध्येय यानी उसके खुद के जीवन का समग्र विकास और उसके लिए आसान रास्ता ,सही मार्ग हमारे साईबाबा से ही हासिल हो सकता  है। साईनाथ के प्रेम से भक्त का मन साईबाबा के प्यार में इस तरह से घुल जाता है कि मानो तो उसे उसके साईनाथ की प्रेमसमाधि लग जाती है, और वह इसी सगुण ध्यान की राह से ही। समाधि यह ध्यान की परिपूर्ण विकसित अवस्था है, इसीलिए इस साई का सहज ध्यान करते-करते मन के विकास के साथ-साथ प्रेमसमाधि का भी अनुभव प्राप्त होता है। साई के प्रेम का सदैव अनुभव लेते हुए घरगृहस्थी एवं परमार्थ सुखमय बनाना और ‘मेरे साईनाथ मेरे हृदय में हैं’ इस बात की अनुभूति प्राप्त होकर बाबा की ओर से प्रवाहित होने वाला प्रेम लगातार मेरे अंदर में प्रवेश करता है। यह सर्वोच्च अनुभूति प्राप्त करना ही प्रेमसमाधि है। ऐसी समाधि प्राप्त करने वाला श्रद्धावान कोई घरबार छोड़कर बदन पर राख पोतकर किसी गुफा में जाकर आँखे बंद करके नहीं बैठ जाता है, बल्कि आनंदपूर्वक घरगृहस्थी एवं परमार्थ दोनों को ही सफल करते हुए सभी को साई-प्रेम बाँटते ही रहता है। हेमाडपंत ठीक इसी तरह साई की प्रेमसमाधि में पूरी तरह से डुब चुके थे और उसी स्थिति में उन से साईनाथ ने इस साईसच्चरित की रचना करवायी।
इस के बारे में एक लेख पढने में आया -
http://www.newscast-pratyaksha.com/hindi/shree-sai-satcharitra-adhyay2-part20/


जब हम हमारे सद्गुरु साईनाथ की कथा सुनकर उसे बारंबार याद करते रहतें हैं उतना ही हमारा साई के प्रति प्यार बढने लगता है और वह प्यार हमारा साई के चरणों पर का विश्वास और बुलंद करता है और जितना हो सकेगा उतना जादा भरोसा पका कर देता हैं । हमारा एहसास और भी जादा मजबूत हो जाता हैं कि हमारे साई हमारे साथ ही हैं इतना ही नहीं बल्कि वो तो हमारे मन में ही बसतें हैं ।


साईसच्चरित में इस साई की कथा हम  हेमाडपंत से सुनते रहें, उनमें से जो भी याद आती रहेंगी, उन्हें बारंबार याद करते रहें, मन में उन्हें सजोकर प्रेम के सूत्र से उन्हें मजबूती से गाँठ मार कर रख लें और फिर एक दूसरे को कथाएँ सुनाते रहें। यह प्रेमरूपी सोना जितना हो सके उतना लूटाता ही रहूँ, यही हेमाडपंत का भाव है। सवेरे उठने पर सर्वप्रथम श्रीसाईनाथ की जो भी कथा याद आती है उसी का हम स्मरण करते रहें, उसका चिन्तन-मनन करते रहें, दूसरों को बताएँ। हर रोज़ इसी तरह जो भी कथा सहज याद आ जाती हैं, उसे याद करते रहें, कराके हमारे जीवन का समग्र विकास करेंगी।

इसे वजह से साई समर्थ विज्ञान प्रबोधिनी यह संस्था हर साल दो बार साईचरित के उपर “पंचशील परीक्षा” का आयोजन करती है ।
अधिक जानकारी मिलेगी - http://saisatcharitrapanchasheel-exams.blogspot.in/

पंचशील परीक्षा के लिए अध्ययन करते समय हमें इसी तरह हर रोज एक-एक कथा को याद करते रहना चाहिए, मनन-चिंतन करते रहना चाहिए, इससे ही हमारी नी पढ़ाई सहज रूप में होगी एवं इससे ही बाबा को जो मुझे देना है, उसे मैं स्वीकार कर सकूँगा। वैसे तो हम सीधी-सादी पोथी को भी हाथ लगाने में आलस करते हैं, तो कथा का अध्ययन करना तो दूर की बात है और इसीलिए सदगुरु  श्रीअनिरुद्ध जोशी ने पंचशील परीक्षा की योजना बनाई है। हेमाडपंत के कहेनुसार प्रेमपूर्वक इन कथाओं का अध्ययन करके हम अपनी प्रगति यक़ीनन ही कर सकते हैं।

हेमाडपंत कहते हैं कि श्रीसाईसच्चरित की विरचना करते समय कौन सी कथा कहाँ पर लेनी है, कथाओं का क्रम कैसा होना चाहिए आदि बातें मेरे द्वारा निश्‍चित नहीं की गई हैं, बल्कि बाबा जैसी प्रेरणा देंगे, वैसी कथाएँ अपने-आप ही लिखती चली गईं। साई की सहज प्रेरणा के द्वारा ही इस साईसच्चरित ग्रन्थ की रचना हुई है और यही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात है। मानवी अहंकार का ज़रा सा भी स्पर्श इस रचना को नहीं हुआ है। यह पूर्णत: श्रीसाई ने साईइच्छा से ही जैसी उन्हें चाहिए उसी प्रकार उसकी रचना की है और इसीलिए साईसच्चरित यह ग्रंथ ‘अपौरुषेय’ है। अपौरुषेय रचना अर्थात किसी मनुष्य के द्वारा न रची गई, साक्षात ईश्‍वर द्वारा निर्मित इस प्रकार की रचना। इसीलिए साईसच्चरित यह सर्वथा पवित्र, निर्दोष एवं संपूर्ण ही है। मानव कितना भी श्रेष्ठ क्यों न हो फिर भी उसके द्वारा की जानेवाली रचना में पूर्णत्व आ ही नहीं सकता है। कुछ न कुछ न्यूनता उसमें होती ही है। भगवान की इच्छा से भगवान द्वारा रची गई रचना मात्र सर्वथा सुसंपूर्ण ही होती है, उसमें कही भी जरा सी भी कमी नहीं होती। श्रीसाईनाथ ने ही स्वयं इस साईसच्चरित की निर्मिती, करने के कारण यह ग्रंथ सत्य, प्रेम, आनंद एवं पावित्र्य को पूर्ण रूप में धारण करने वाली परमेश्‍वरी रचना ही है। इसमें कोई संदेह नहीं। यहाँ पर यदि हेमाडपंत लिख रहे हैं ङ्गिर भी वह सर्वथा साईमय हो जाने के कारण उनमें ‘मैं’ का किंचित्-मात्र भी अंश नहीं है और इसीलिए साई को जैसा चाहिए वैसा यह ग्रंथ लिखे जाने में कोई भी अवरोध नहीं था। हेमाडपंत ने स्वयं का ‘मैं’ बाबा के चरणों पर समर्पित कर दिया था और इसलिए यह साईसच्चरित श्रीसाई की ही कृति है, इस बात को वे पूरे विश्‍वास के साथ कहते हैं।

इसमें मेरा कुछ भी नहीं। साईनाथ की ही प्रेरणा है यह।
वे जैसे भी कहते हैं । वैसे ही मैं करता हूँ।
‘मैं कह रहा हूँ’ यह कहना भी होगा अहंकार। साई स्वयं ही सूत्रधार।
वे ही हैं वाचा के प्रवर्तनकर्ता। तब लिखनेवाला मैं कौन॥

साईसच्चरित में हम दामू अण्णा कासार नाम के साई भक्त की कथा पढतें हैं कि उनका बंम्बई में रहनेवाला दोस्त उन्हें कपास रूई का कारोबार करने के लिए बुलाता है और आगे चलकर होनेवाले मुनाफे के बारे में भी बता देता है । अभी दामू अण्णा ठहरें साईभक्त तो वह बाबा की आज्ञा लेतें है । साई को तो तीन काल का ज्ञान होने के कारण पता होता है तो वे दामू अण्णा को ब्यापार करने से रोक देतें हैं । शुरु में तो दामू अण्णा को बहुत बुरा लगता है , वो बाबा को मनाने की लाख कोशिश भी करता है ,किंतु बाबा उसके मनाने पर भी नहीं मानतें । दामू अण्णा समझ जाते है और बाबा कि बात मान लेतें हैं । आगे चलकर पता लगता है कि उस दोस्त का बहुत नुकसान हुआ और वो पूरी तरह से बरबाद हो गया था ।

यह कथा हमें सिखाती है कि हमारे साथ हमारा साई होने में ही हमारी भलाई है।उपर दिए गए लेख में लेखकजी ने यह बात बहुत ही आसान तरीके से समझाई है ।

हमारे अपने जीवन प्रवास में भी जब हम अपने इस ‘मैं’ को छोड़कर , दामू अण्णा की तरह ,बाबा के शरण कें पूर्णरूप में जाकर साईनाथ को ही अपने जीवन का कर्ता बना लेते हैं, तो इसके पश्‍चात् अपने-आप ही साईप्रेरणा हमारे जीवन में प्रवाहित होती है तथा किस स्तर पर कौन सा निर्णय लेना चाहिए इस बात का मार्गदर्शन इस प्रेरणाद्वारा साईनाथ ही हमें करते हैं। हम सामान्य मनुष्य हैं जीवन के प्रवास में एक के पिछे एक, एक-एक पाड़ाव पर रुकते हुए हमारा जीवन प्रवास चलते रहता है। एक पड़ाव तक पहुँचने के पश्‍चात् आगले पड़ाव के लिए किस मार्ग का अवलंबन करना है, किस दिशा को चुनना है, निश्‍चित तौर पर हमें करना क्या है इस बात का निर्णय हमें वहाँ पर लेना होता है। भविष्यकाल के गर्भ में क्या छिपा हुआ है इस बात का पता हमें नहीं चलता है, इसके साथ ही उपलब्ध अनेक विकल्पों में से कौनसा विकल्प हमें चुनना है इसके प्रति हम गड़बड़ा जाते हैं। हम पूरे आत्मविश्‍वास के साथ उचित निर्णय नहीं कर पाते हैं। कभी-कभी योग्य लगने के कारण चुना गया मार्ग गलत दिशा में ले जाता है, हमारी दिशा भटक जाती है इससे अगले पड़ाव तक हम नहीं पहुँच पाते हैं। हमारी जीवन नैय्या इस भवसागर में इसी तरह भटक जाती है जैसे दामू कासार के दोस्तकी ।

दामू अण्णा  कासार की तरह साईनाथ के शरण कें पूर्णरूप में जाकर साईनाथ को ही अपने जीवन का कर्ता बना लेना चाहिए ।
उचित समय पर उचित निर्णय लेना यह जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। और कई बार इस निर्णय के चूक जाने से हमारा जीवन चिंताजनक बन जाता है।इसीलिए यह ‘साईप्रेरणा’ जीवन में प्रवाहित होना ज़रूरी है।

ओम साईराम ।

 


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