जय सांई राम।।।
बुद्ध ने बताया अपना गुरु स्वयं बनने का रास्ता
भारत वर्ष में बुद्ध का विरोध क्यों हुआ? इसलिए, क्योंकि उन्होंने पौराणिक और ब्राह्माणवादी मान्यताओं को खारिज कर दिया। कूटदंत सुत्त में बुद्ध ने शासकों को शिक्षा दी कि नवयुवकों के लिए रोजगार के साधन ढूंढे जाएं, उनको रोजगार लायक शिक्षा दी जाए, छोटे व्यापारियों को आसान दरों पर पूँजी दी जाए, किसानों के लिए अच्छी और उन्नत किस्म के बीज, उर्वरक और सिंचाई के साधनों की व्यवस्था की जाए। उनकी उपज का सही मूल्य दिया जाए। इस तरह अगर गरीबी और बेरोजगारी दूर कर दी जाए तो कोई हिंसा नहीं करेगा, चोरी और बेईमानी नहीं करेगा, कानून-व्यवस्था अच्छी होगी। सबको समुचित विकास का अवसर मिलेगा तो देश समृद्ध होगा।
आप सोचिए कि उस जमाने में कोई आदमी चोरी और बेईमानी रोकने के लिए रोजगार देने की सलाह दे रहा था और पाप-पुण्य या लोक-परलोक जैसी बातें नहीं कह रहा था। बुद्ध ने धर्म और अध्यात्म को आत्मा-परमात्मा के रहस्य से निकाल कर उसे इस दुनियावी जीवन से जोड़ा, देवी-देवताओं और कर्मकांड की जगह सामाजिक जीवन के मूल्यों का महत्व समझाया। सम्राट अशोक ने बुद्ध की इन्हीं शिक्षाओं को अपने शासनकाल में लागू किया और भारत सोने की चिड़िया बन गया। उनके शासन काल को भारत का स्वर्णिम युग कहा जाता है। भारतीय समाज को यदि फिर उस ऊँचाई तक पहुँचना है तो एक बार फिर बुद्ध की शिक्षाओं को जीवन में उतारने की जरूरत है।
भगवान बुद्ध की सबसे महत्वपूर्ण देन यह है कि उन्होंने विश्व को दिखाया कि वे स्वयं भी अन्य लोगों की तरह एक गृहस्थ थे। वे कहीं से अवतरित नहीं हुए थे। उनका जन्म, विवाह और गृहस्थ जीवन सामान्य और प्राकृतिक था। उन्होंने सिखाया कि कैसे एक सामान्य व्यक्ति भी अपनी साधना, त्याग और दृढ़ निश्चय से उस ऊंचाई तक पहुँच सकता है। इसके लिए किसी वरदान या किसी दैवी शक्ति की आवश्यकता नहीं है।
शील-सदाचार के जीवन का उपदेश देते हुए 45 वर्षों तक बुद्ध गाँवों-कस्बों में जाकर लोगों को आनंदमय जीवन जीने की कला सिखाते रहे। उन्होंने हर वर्ग और उम्र के लोगों को सदाचार का जीवन जीना सिखाया, जिससे समरस समाज की स्थापना हो और सब लोग परस्पर प्रेम और सौहार्द का जीवन जीएं।
बुद्ध ने कहा : 'दो अतियों से बचना चाहिए। पहली है काम भोगों में लिप्त रहने की इच्छा, जो कमजोर बनाने वाली है। दूसरी है खुद को पीड़ा देने की प्रवृत्ति, जो दुखद और बेकार है। उन्होंने कहा, हमारा मन व शरीर हमेशा बाहरी घटनाओं से प्रतिक्रिया करते हैं। अवचेतन मन लगातार राग-द्वेष जगाता रहता है और वैसे ही संस्कार भी बनाता रहता है। ये संस्कार तीन प्रकार के बनते हैं : पहले प्रकार के संस्कार पानी पर खींची हुई लकीर के समान होते हैं। वे बनते ही मिट जाते हैं। दूसरे प्रकार के संस्कार बालू पर खींची हुई लकीर जैसे होते हैं, जिन्हें मिटने में थोड़ा समय लगता है। तीसरे किस्म के संस्कार पत्थर पर खींची हुई लकीर के समान होते हैं, जो अंतर्मन की गहराइयों तक बस जाते हैं और जिन्हें समाप्त होने में बहुत लंबा समय लगता है। अज्ञान के कारण हम इनके प्रति अनजाने में ही लगाव पैदा कर लेते हैं और मन उन्हीं में गोता लगाता रहता है।
बुद्ध ने कहा, सारे दुख हमारी इस साढे़ तीन हाथ की काया और चित्त में हो रहे हैं। सब परिवर्तनशील है, कुछ भी स्थायी नहीं है। जीवन की अनित्यता दुख का कारण है। दुख सिर्फ बीमारी, बुढ़ापा या मृत्यु से ही नहीं है, बल्कि दिन-प्रतिदिन की विफलताओं, कुंठाओं और अभाओं से भी उत्पन्न हो रहा है। उन्होंने चार आर्य सत्य और आठ आष्टांगिक मार्ग बताए, जिन पर चलकर कोई भी इंसान बुद्धत्व प्राप्त कर सकता है। बुद्धत्व का मार्ग सबके लिए खुला है। हर इंसान के भीतर बुद्धत्व का अंकुर मौजूद है। बुद्ध ने अपना गुरु स्वयं बनकर अपना मार्ग खोजा।
आज वैशाख पूर्णिमा है। आज का दिन त्रिविध पावन है, क्योंकि इसी दिन बुद्ध का लुंबिनी में जन्म, बोधगया में बुद्धत्व प्राप्ति और कुशीनगर में महार्निवाण हुआ।
ॐ सांई राम।।।