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Author Topic: श्री साई ज्ञानेश्वरी - भाग 14  (Read 2865 times)

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Offline trmadhavan

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श्री सदगुरू साईनाथाय नमः |
अथ श्री साईं ज्ञानेश्वरी षष्ठम्‌ अध्याय ||
श्री साई ज्ञानेश्वरी का छठा अध्याय “ईश्वर का ऐश्वर्य' है।

श्री साई ज्ञानेश्वरी के छठे अध्याय में चौथा संवाद “कुलकर्णी श्री साई संवाद' है।
यहाँ हमें यह ज्ञात होता है कि
मनुष्य के जीवन में जब घोर विपत्ति आती है,
तो संकट की आसन्न बेला में हमारी रक्षा-सुरक्षा ईश्वर ही करते हैं।
वे भक्तों की करूण पुकार सुनते हैं
और उनके सारे संकट दूर करते हैं।

तो आइये, सर्वप्रथम हम “कलकर्णी श्री साई संवाद” का पारायण करते हैं|

घोर विपदा आती है, जीवन है संग्राम |
संकट में रक्षा करो, बाबा तेरा काम।।

कुलकर्णी को शहर जाकर अदालत में पेश होना था।
शिरडी से प्रस्थान करने से पूर्व वे श्री साई के पास आये
और दोनों हाथ जोड़कर बोले-
“हे सत्पुरूष! मेरे सामने अत्यंत कठिन प्रसंग उपस्थित हो गया है।
मैं सरकारी कर्मचारी हूँ
मुझ पर सरकारी धन गबन करने का आरोप लगा है।
मेरे ऊपर तो आफत आ गई है।
आरोप सच है या झूठ--यह आप से छिपा नहीं है।
आप त्रिकाल को जानते हैं।

मेरा विषय भी आपसे अज्ञात नहीं |
फिर भी, में बुरी तरह से शिकजे में फस चुका हूँ।
में आपसे और कुछ भी नहीं कहना चाहता,
में तो आपसे यही प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरी रक्षा कीजिए |
इतना कहकर कूलकर्णी श्री साईं के चरण पकड़कर रोने लगे।

“हे श्री साईं! कुबेर के निकट होने पर हमें द्वार-द्वार भटकने की जरूरत नहीं |
क्षीरसागर में रहने वाली मछली भला कभी गंदे नाले में जाएगी?
आप ही हमारे पिता हैं और आप ही हमारी माता हैं।
अतः आपके चरणों में यह प्रार्थना है
कि इस संकट-काल में आप मेरी सहायता करें |

कामधेनु गाय के बच्चे अमृत समान दूध छोड़कर
अन्य गाय का स्तनपान करने नहीं जाते।
कल्पवृक्ष के फल उसके नीचे बैठे लोगों को मिलते हैं,
वे टूटकर काँटों पर नहीं गिरते |
हे श्री साई! आप मुझ पर ध्यान दें
और अपनी क॒पा की छाया मुझ पर फैलाएँ |
आप अगर ध्यान नहीं देंगे तो संसार में मेरी बदनामी होगी
और मेरी बदनामी होने का मतलब है-- आपकी निन्दा।
आपका नाम मलिन न हो, अतः आप मुझपर कृपा करें।

अप्पा कुलकर्ण की करूण विनती सुनकर श्री साईं का हृदय द्रवित हो गया।
वे अप्पा से बोले-
“मेरे वचनानुसार तुम एक काम करो |
डिप्टी कलक्टर इस समय नेवासा में प्रवर नदी के किनारे हैं।
तुम वहाँ जाओ, मन में बिना कोई भय रखे उनसे अपनी सारी बात कहो |

नेवासा एक पवित्र स्थल है।
वहाँ जगत के सूत्रधार मोहिनी रूप में साक्षात्‌ विराजमान हैं ।
संत ज्ञानेश्वर ने उनके चरणों में प्रार्थना करके उनसे आशीर्वाद पाया
और 'भावार्थ दीपिका' यानि ज्ञानेश्वरी नामक पुस्तक लिखी |
वहाँ दशावतार के रूप में परमेश्वर हैं |
भक्‍तगण उन्हें अल्लाह-इलाही कहते हैं|
वे अज्ञानी का भी उद्धार कर देते हैं।

वहाँ ईश्वर का सगुण रूप है।
तुम नेवासा के पवित्र धरातल पर जाओ, वहाँ श्रद्धा और आशा के साथ जाओ।
वहाँ जाकर डिप्टी साहब को नमस्कार करना |
कचहरी में उपस्थित होने से पहले उनसे मिलना,
उन्हें सारी बात बताना, उनके सामने प्रार्थना करना |
ईश्वर अवश्य तुम्हारी लाज रखेंगे ।”

कुलकर्णी ने श्री साई के आदेशानुसार सारा कार्य किया।
कलक्टर को लिखित में जवाब पेश किया ।
संतुष्ट होकर कलक्टर ने उन्हें निर्दोष बताया और आरोप से मुक्त कर दिया।
कुलकर्णी शिरडी आए और श्री साईं के चरणों में सर रख दिया।

श्री साई ने कुलकर्णी से कहा-
“करने और करानेवाला ईश्वर है,
वही कर्त्ता-धर्ता है, वही कारण है,
वही भक्तों पर नियंत्रण रखता है,
वही असंभव को संभव करता है।'

आए जब कठिनाइयाँ, लो साईं का नाम |
करूणामय किरपा करें, संकट का क्या काम।।

श्री साई ज्ञानेश्वरी के छठे अध्याय में पाँचवा संवाद 'पेणसे श्री साई संवाद' है।
यहाँ हमें यह ज्ञात होता है कि
ईश्वर सभी के ह्दय के भावों को जानते हैं।
किसके मन में आस्था और श्रद्धा है,
किसके मन में आस्था और श्रद्धा नहीं है,
इसका उन्हें स्पष्ट ज्ञान हो जाता है।

ईश्वर ज्ञान का आगार और भंडार है।
ईश्वर अपनी क्षमता से अभक्‍त को भी भक्‍त बना सकता है|

तो आइये, अब हम 'पेणसे श्री साई संवाद” का पारायण करते है।

जिसके दिल श्रद्धा बसी, वह बाबा को ज्ञात |
जिस दिल में श्रद्धा नहीं, वह भी उनको ज्ञात ।।

पेणसे की पत्नी ने शिरडी जाकर श्री साईं के दर्शन करने की इच्छा व्यक्त की,
तो पेणसे ने पत्नी से कहा-
“हे सुन्दरी!
मेरी एक बात ध्यान से सुन लो,
शिरडी गाँव में ऐसा कोई संत या सज्जन फकीर नहीं,
जिसके दर्शन से तुम्हें कोई लाभ हो।
हॉ! वहाँ एक मुसलमान व्यक्ति जरूर है जो महज एक भिखारी है।
वह तरह-तरह के ढोंग करता है और दुनिया के लोगों को ठगता है।
उसने वहाँ की मस्जिद में फरेब का अड्डा जमा रखा हेै।
भोले-भाले अज्ञानी लोग उसके झाँसे में आते हैं,
वे उसे सच्चा साधु मान बैठे हैं।
अतः मेरी बात मानो, उसके दर्शन के लिए बेकार का हठ मत करो ।

जिस प्रकार से नमक का ढ़ेला कहीं से भी, कभी भी, मीठा नहीं हो सकता,
उसी प्रकार से नाना प्रकार के स्वांग रचने से
कोई भिखारी खरा साधु नहीं बन सकता |
शायद तू नहीं जानती, वह एक याचक है
जो शिरडी की गलियों में भीख माँगता फिरता है,
वह घर-घर जाकर, रोटी के टुकड़े के लिए हाथ फैलाता है और अपना पेट भरता है।

पेणसे की पत्नी ने श्री साईं के विषय में पति के विचार सुने
परन्तु श्री साईं के प्रति उसके मन की आस्था तिल-भर भी न डगमगाई |
उसका हृदय सदगुरू श्री साईं के प्रति पूर्ण विश्वस्त था।
उसके चित्त में श्री साईं के दर्शन की प्रबल इच्छा उमड़-घुमड़ रही थी।
“न जाने कब मुझे श्री साई के चरण-कमलों के दर्शन का सुअवसर मिले!
न जाने कब मुझे उनके पवित्र चरणों में अपना सर रखने का सौभाग्य प्राप्त हो!”
ऐसी सत्‌-इच्छा उसे बार-बार आन्दोलित कर रही थी।

भक्त की सत्‌-इच्छा भगवान शीघ्र ही पूरी करते हैं।
अचानक कछ दिनों में ही पेणसे को सरकारी काम से शिरडी जाना पड़ा।
पेणसे की पत्नी ने उनसे कहा-
“मुझे भी साथ ले चलें |
आप सरकारी काम कर लेना, मैं तबतक श्री साई के दर्शन कर लूँगी।'
पेणसे ने पत्नी का प्रस्ताव मान लिया और पत्नी को साथ ले गये।

शिरडी पहुँच कर पेणसे अपने कार्यो में व्यस्त हो गये।
उनकी सद््‌गुणी पत्नी ने मस्जिद जाकर श्री साईं के दर्शन किए।
उसने श्री साईं के श्रीचरणों में अपना मस्तक रख दिया।
उसके मन को अपार शांति मिली और हृदय आनंद से भर गया।

उसने पति से कहा- “*ममैंने श्री साई के दर्शन किए |
श्री साईं पुण्यात्मा हैं, वे सिद्ध योगी है, वे ईश्वर स्वरूप हैं।
उनमें कहीं कोई अवगुण नहीं, वे तो गुणों के भण्डार हैं |
आप उनकी निनदा न करें|
संभव हो तो आप एक बार श्री साईं के दर्शन करें|”

पत्नी के आग्रह पर पेणसे जैसे ही मस्जिद के समीप पहुँचे,
वैसे ही श्री साई भीतर से निकलकर मस्जिद के द्वार तक आए,
उन्होंने हाथ में एक पत्थर उठाया और जोर से चिल्ला कर बोले-
“अगर तुमने मस्जिद की सीढ़ी पर पाँव भी रखा तो मैं तुम्हें पत्थर से मारूँगा।
मैं एक ढ़ोंगी साधु हूँ, मेरे दर्शन करके क्‍या करना?
मैं जाति का मुसलमान हूँ, मैं नीच जाति का हूँ,
फिर मेरे दर्शन का क्या प्रयोजन?
तुम तो ब्राह्मण जाति के हो, उच्च कुल-संभूत हो,
मेरे पैर छूने से तुम भ्रष्ट हो जाओगे |”

श्री साईं के वचनों में पेणसे को अपनी ही कथ्योक्ति की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ी |
उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ |
वे मन-ही-मन सोचने लगे कि
उन्होंने अपनी पत्नी से काफी समय पहले
श्री साईं के विषय में जो दुराग्रहपूर्ण कटु वचन बोले थे,
उसकी जानकारी श्री साई को शिरडी बैठे-बैठे कैसे हो गई?
पेणसे की ही कटु-उक्ति श्री साईं पेणसे को सुना रहे थे।
श्री साई शिरडी में थे, दुनिया में कहाँ क्या हो रहा है, उसकी जानकारी उनके पास थी।
पेणसे ने मन-ही-मन कहा-
“बाबा! आप सर्वव्यापी हैं, आप सर्वज्ञ हैं।'

जिस मन में आस्था नहीं, भरते भक्ति भाव।
बंजर भूमि गुल खिले, साई दरस प्रभाव |।

इस अध्याय में छठा संवाद “श्री साई कुलकर्णी संवाद" है।
यहाँ हमें यह सकेत मिलता है कि
सांसारिक प्राणी का जन्म और मृत्यु एक ध्रुव सत्य है,
इसका समय और स्थान ईश्वर द्वारा निर्धारित विधान के अनुसार तय रहता है।
मृत्यु वह घटना है
जहाँ शरीर निस्तेज होकर पंचभूतों में समा जाता है
परन्तु आत्मा यथावत्‌ अपरिवर्तित रहती है।
जन्म के समय आत्मा पंचमूतों से निर्मित नवीन शरीर को धारण कर लेती है।

तो आइये, अब हम “श्री साई कुलकर्णी संवाद” का पारायण करते है।

आया है वह जाएगा, यह जीवन का सार।
यह तन मिलता मिट्टी में, नश्वर सब संसार।।

एक दिन श्री साईं ने अप्पा कुलकर्णी को सहज भाव से कहा-
“आज हमारे गाँव में चोर घुस गये हैं।
इसे सत्य और निश्चित समझो |
इन चोरों का अंदाज बिल्कुल ही निराला है।
ये घर से वस्तुएँ एवं सामग्री उठाकर नहीं ले जाते।
इनकी दृष्टि व्यक्ति की सबसे अनमोल सम्पत्ति पर केन्द्रित रहती है
जिसे वे हर कर ले जाते हैं|
यह अनोखा चोर किसी को दिखाई नहीं देता,
इसे कोई पकड़ नहीं सकता,
यह चोर बड़ा धूर्त है।

यह चोर सबसे पहले तुम्हारे घर में घुसेगा
और तुझपर सवार होगा।
अतः तुम इसके आक्रमण करने से पहले
ठीक प्रकार से सारा बन्दोबस्त कर लो।

उसी रात अप्पा कुलकर्णी को हैजा हो गया,
उनका शरीर अचानक ठंडा पड़ने लगा,
धड़कन भी मंद पड़ गई |
उनकी स्थिति काफी नाजुक हो गई |

श्रीमती कुलकर्णी श्री साई के पास दौड़ी-दौड़ी आई।
उसकी आँखों से झर-झर आँसू बह रहे थे।
उसने श्री साई के चरण पकड़कर रोते हुए कहा-
“बाबा! मेरे पति की हालत खराब है, वे हैजा से मर रहे हैं|
आप जल्दी से उदी का आशीर्वाद दें ताकि उनके प्राण बच सकें |
हे महाराज! मेरे सौभाग्य की नाव समुद्र में न डूबे
मुझे ऐसा आशीर्वाद दें।'

श्री साई ने श्रीमती कुलकर्णी से कहा-
“तुम दुख न करो |
संसार में जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु अवश्य होगी।
एक-न-एक दिन मृत्यु जरूर आएगी ।|
मृत्यु और जन्म तो ईश्वर की व्यवस्था के अंतर्गत है।
सभी को एक दिन यहाँ से जाना है।
एक जन्म के अन्त हो जाने के बाद
अन्य जन्म की शुरूआत होती है।
अतः तू उदास क्‍यों होती है?

तुम ज्ञान की आँखें खोलकर देखो।
यहाँ न तो किसी का जन्म होता है
और न ही किसी की मृत्यु होती है,
आत्मा न तो जन्म लेती है, न उसकी मृत्यु होती है।
तुम भी इस नियम से मुक्त नहीं हो,
यही नियम तुम्हारे साथ भी है, यही वास्तविकता है।”

जैसे परिधान पुराना हो जाता है
तो लोग उसे उतार फेंकते हैं,
यदि परिधान पसंद नहीं आता,
तो उसका त्याग कर देते है,
वैसे ही इस शरीर रूपी परिधान के जीर्ण-शीर्ण होने या नापसंद होने पर
आत्मा उसे छोड़ देती हैं ।
यह आत्मा ईश्वर का अंश है,
अक्षय, अभंग और निर्विकल्प है,
हर समय एक समान रहने वाली है।

तुम मुझसे उदी न माँगो।
फटे वस्त्र पर पेबन्द लगाने का प्रयास न करो ।
उदी की आड़ से उसे मत रोको,
उसे अपने गन्तव्य स्थान पर जाने दो |
मेरी आँखों के सामने, अभी-अभी वह अपने वस्त्र बदल रहा है।
नया वस्त्र उसके सामने है, वह उसे धारण करने की तैयारी कर रहा हे।
तू उसकी राह में बीच में न आ, उसके लिए बाधा न बन ।
अप्पा को सदगति मिलने वाली है,
आगे चलकर वह मोक्ष को प्राप्त करेगा |
तुम्हारी आँखों के सामने जो सत्य निश्चित रूप से घटित होना है, उसे घटित होने दे।
व्यर्थ की व्यथा न कर, अनावश्यक आँसू न बहा |”

श्री साई ने श्रीमती कुलकर्णी को घर लौट जाने को कहा।
उसकी आँखों के सामने, कुछ ही क्षण में अप्पा के प्राण निकल गये।

फट जाते प्राचीन पट, तन के बिखरे तार।
पट परिवर्तन आत्मा, करती है हर बार।।

दो दिन का मेहमान है, आते-जाते प्राण |
मरती नहीं है आत्मा, इसे अनश्वर जान।।

इस अध्याय में सातवाँ संवाद “श्री साई कोंड्या सुतार संवाद है।
यहाँ हमें ज्ञात होता है कि
प्रकृति के पंचभूत तत्व कभी-कभी विकाराल स्वरूप धारण कर लेते हैं,
ये संसार में त्राहि-त्राहि मचा देते हैं।
प्रकृति के पंचभूत तत्वों पर केवल ईश्वर का अधिकार होता है,
अतः ईश्वर ही पंचभूत की विकरालता पर अंकुश लगाते हैं।
पंचभूत का विकाराल रूप कब और कहाँ उत्पन्न होगा,
इसे तो सिर्फ ईश्वर ही जानते हैं।
ईश्वर सर्वज्ञ हैं, जगन्नाथ हैं, सभी जगह व्याप्त हैं।
संसार की सारी संपदा एवं वैभव
ईश्वर का ही अवदान है, उसी की संरचना है।
ईश्वर की कपा से कुछ काल के लिए
हमें भी संपदा प्राप्त हो सकती है।
ईश्वर उसे जब चाहे, वापस ले सकता है।

तो आइये, अब हम “श्री साईं कोंड्या सुतार संवाद” का पारायण करते है।

क्षिति, जल, वायु, अगन, गगन, बनते जब विकराल |
त्राहि मचती ध्वंश की, छा जाता है काल।।

एक बार श्री साई ने अचानक कोंड्या सुतार को कहा-
“तू जल्दी से भागकर अपने खलिहान जा।
वहाँ भीषण आग लगी है।
तुम्हारी फसल के बीच वाले ढेर के समीप भी आग पहुँच गई है।
जा! अपनी फसल को बचा!
लगी हुई आग को बुझा!”

श्री साई की बात सुनते ही कोंड्या सुतार अपने खेत-खलिहान की तरफ भागा।
वहाँ उसने चारों तरफ देखा, लोगों से पूछा ।
उसे आग कहीं भी नहीं दिखाई पड़ी |

कोंड्या लौटकर श्री साई के पास आया और बोला-
“बाबा! आपने मुझे बेकार ही वहाँ भेजा, अकारण ही मुझे कष्ट उठाना पड़ा।
यह तेज गर्मी, यह दोपहर की धूप!
तपी हुई धरती पर नंगे पॉँव भागने से मेरे पाँव में छाले भी पड़ गये ।”

श्री साई ने कोंड्या से कहा-
“मेरे वचन कभी भी असत्य नहीं होते।
जरा पीछे की तरफ देखो! वह देखो। ऊपर उठता हुआ घुँआ।
सूखी फसल के कई ढ़ेर पास-पास में लगे हुए हैं।
बीच वाले ढ़ेर में आग लगी है।
गाँव में जाकर लोगों को जानकारी दो,
वे जल्दी से भागकर खलिहान की तरफ जाएँ |”

गर्मी की ऋतु, चिलचिलाती धूप, तेज हवा,
पेड़ से चरमराकर टूटती डालियाँ, हवा में उड़ते छप्पर, तेज अंधड,
अग्नि की ऊंची उठती लपटें, भयंकर स्थिति!
कोंड्या एवं शिरडीवासी घबरा गये,
वे श्री साईं के पास रक्षा-सुरक्षा हेतु विनती करने आए।

कोंड्या एवं शिरडीवासी श्री साईं से बोले-
“हे बाबा! हे कपा-सागर!
हमारे खलिहानों में आग लग गई है।
सब कुछ भष्मीभूत हो जाएगा तो हमारा क्‍या हाल होगा?
महाराज! हमारी रक्षा-सुरक्षा कीजिए |

हम कृषक हैं, हमारे प्राण खलिहानों में बसते हैं,
खेती ही हमारा जीवन है,
अगर हमारी फसल जल गई तो
हमें पेट की भूख मिटाने के लिए अन्न का एक दाना भी नहीं मिलेगा |
हमारे छोटे-छोटे बच्चे भूख के मारे अन्न-अन्न चिल्लाएँगे,
वे अन्न के बिना भूखे मर जाएँगे।
हमारे पशु एवं जानवर भी सूखे-हरे चारे के बिना काल-कवलित हो जाएँगे |
इन सभी प्राणियों की जीवन-रक्षा करें, श्री साईं!

आग की विषम स्थिति है बाबा!
आप तत्काल कोई पक्का उपाय करें |
आप सब कुछ कर सकते हैं क्‍योंकि आप साक्षात श्रीहरि हैं,
आग लगने से पूर्व ही आपने आग का संकेत दे दिया था, आप त्रिकातलज्ञ हैं।

कोंड्या और शिरडीवासियों की करूण विनती सुनकर साई को दया आ गई |
वे तत्काल खलिहान पहुँचे |
उन्होंने टमरेल से चुल्लू में पानी लेकर अग्नि पर छींटे डाले |
पानी के छींटे लगते ही आग धीरे-धीरे कम पड़ने लगी।
श्री साई बोले- “यह बीच वाला अनाज का ढेर जल जाएगा।
अन्य किसी भी ढेर पर आग का असर नहीं होगा।
बीच वाला ढेर अग्नि का हिस्सा है,
अग्नि अपना हिस्सा लेकर ही रहेगी ।
इसे कोई भी नहीं बुझा सकेगा |”

श्री साई ने जैसा कहा, वैसा ही हुआ। भीषण आग बुझ गई |
फसल का केवल एक ढेर जला, लोगों के जीवन की रक्षा-सुरक्षा हुई।
पंचभूत पर श्री साईं का नियंत्रण था।
श्री साई के इस प्रयास से सभी खुशहाल हो गये।

शाम को मस्जिद में कोंड्या, शिरडीवासी,
नाना, भागचंद आदि उपस्थित हुए।
श्री साई ने कहा-
“इस भागचंद को देखो।
आज इसकी फसल का ढेर जलकर राख हो गया ।
यह इसके लिए दुखी है।
सदा यह बात याद रखो कि
लाभ-हानि, जन्म-मरण सभी ईश्वर के अधीन है।
इस बात को सभी जानते हैं
परन्तु फिर भी ये कितने मूर्ख हैं
कि नुकसान को बर्दाश्त नहीं करते |
ये लाभ में प्रसन्न होते हैं, हानि में रोते हैं।
ये जिसे 'मेरा-मेरा' कहते हैं, क्या वह उनका है?
वे कैसे उसे अपना मानते हैं?

अनाज का जला हुआ ढेर भागचन्द का नहीं था।
उसके ऊपर लिपटा हुआ सूखा छिलका पशुओं का चारा था।
उसकी उत्पत्ति जमीन में डाले हुए बीज से हुईं थी।
भूमि ने अपने गर्भ में उस बीज को धारण किया था।
ऋतु और अवसर आने पर मेघ ने उसे पानी दिया।
सूर्य की अमृत-किरणों ने उसे जीवन, विकास और आकार दिया।
इस प्रकार से फसल के तीन मालिक हुए--प्रथ्वी, सूर्य और बादल |
इन तीनों ने मिलकर फसल तैयार की ।
फिर कैसे यह भागचन्द कहता है कि मेरी फसल, मेरी फसल?

अग्नि ने फसल का भक्षण कर अपना हिस्सा ले लिया
क्योंकि सूर्य ने अपना प्रभुत्व दिखाया |
पृथ्वी ने भी मेहनत की थी परन्तु उसे कुछ न मिला,
उसे तो उल्टे ही अग्नि का ताप सहना पड़ा।
मेघ ने भी मेहनत की थी परन्तु वह स्वाभिमानी है,
उसे कुछ मिला तो या न मिला तो,
उसकी उसे परवाह नहीं |
वह तो अपने अन्दर छिपी विद्युत-लता में ही रमण करता रहता है।

बादल चुपचाप बैठा-बैठा नभ से देखता रहता है।
धरती रत्नगर्भा से अनाज पैदा कर
उसे अपने धरातल पर रखे रहती है।
सूर्य अनाज को अपना कहकर,
अपना अग्निमय प्रचंड रूप दिखाकर ले जाता है।

इस संसार में जितनी भी वस्तुएँ हैं,
वह पंचभूत द्वारा उत्पन्न की हुई है।
अतः वे ही उसके असली एवं वास्तविक मालिक हैं|
न तो वे वस्तुएँ हमारी हैं
और न हम वास्तव में उसके असली मालिक हैं|

हे भागचन्द!
जो वस्तु तुम्हारी थी ही नहीं,
उसे तू 'मेरा-मेरा' कहकर बेकार का झूठा स्वांग क्‍यों करता है
और उसके लिए अपने मन को दुखी क्‍यों करता है?
तू मेरे पास आकर रोता है,
तू अनावश्यक आँसू बहाकर मुझे कातर क्‍यों करता है?

ईश्वर एक हाथ से तुम्हें देता है
और थोड़ी देर के बाद दूसरे हाथ से तुमसे वापस ले लेता है।
वह अपनी वस्तु देकर ही तो वापस लेता है।
ईश्वर से प्राप्त वस्तु को अपना क्‍यों कहते हो, अपना क्‍यों समझते हो,
उसपर प्रभुत्त और अधिकार क्‍यों जताते हो?
उसको पाकर खुश क्‍यों होते हो
और ईश्वर के वापस ले लेने पर दुखी क्‍यों होते हो?
क्या तुम्हें इसकी जानकारी नहीं, क्या तुम अज्ञानी हो?
अज्ञान के कारण ही तुम्हारे मन-प्राण सुख-दुख से प्रभावित होते हैं ।

पंचभूत पर ईश का, होता है अधिकार |
वही बचाता नाश से, करता वही उद्धार ||

इस अध्याय में आठवाँ संवाद “श्री साई हरिपंत संवाद' है।
यहाँ हमें यह ज्ञात होता है कि
ईश्वर असंभव को भी संभव बना सकता है,
अनहोनी को भी होनी में बदल सकता है,
सूखे वृक्ष में भी हरी कोंपल उगा सकता है
और पतझड़ में भी बसंत का सा समां सृजित कर सकता है।
यह अखिल ब्रह्मांड ईश्वर की ही इच्छा-शक्ति पर निर्भर है।

तो आइये, अब हम “श्री साई हरिपत संवाद” का पारायण करते हैं--

अनहोनी कुछ भी नहीं, साई हाथ त्रिशूल |
पतझड़ का मौसम मगर, खिले बसंती फूल।।

हरिपन्त ने श्री साईं के दर्शन किए।
श्री साई बोले-
“हरि! तू भाग्यशाली है रे! तेरी तकदीर बड़ी है रे!
भगवान शिव की तुझ पर बड़ी कृपा है।
वे अवश्य ही तुम्हें पुत्ररत्न प्रदान करेंगे |
तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी ।
तू दूसरी शादी कर ले रे!”

हरिपन्त एक हिरण्यकेशी ब्राह्मण थे ।
वे वशिष्ठ गोत्र के ज्ञानी-ध्यानी चिराग थे।
पुणे की पुण्यमयी धरती पर उनका निवास-स्थान था।
वे अग्निहोत्र बनने का व्रत लेना चाहते थे
परन्तु इस व्रत को स्वीकार करने में एक कठिनाई थी।
उनकी पत्नी का देहांत हो चुका था।
पत्नी के अभाव में वे अग्निहोत्र व्रत कैसे ले पाते?
उनके घर में संपत्ति तो अपार थी, परन्तु उन्हें संतान नहीं थी।

वे श्री साईं से बोले-
“मन में बागवानी की आस तो है परन्तु बाग कैसे लगेगा?
न तो अभी तक कुँआ खोदा है, न जल की धारा है|
अत: पौधों की आशा करना व्यर्थ है।
अब कुआ खोद कर तो में संसार में हास्य का पात्र बन जाऊंगा ।

अब तो मेरी उम्र भी पचास वर्षों की हो गई है।
बुढ़ापे में संतान की इच्छा पूर्ण हो--- ऐसा भाग्यशाली मैं कहाँ?”

श्री साई बोले-
“अपने मन में कोई शंका न लाओ।
भोले-भाले लोगों का भंडार भरनेवाले भोलेनाथ,
अपने हाथ के त्रिशूल से असंभव को बेध देने वाले शूलपाणि,
जीवन में कर्पूर की सुरभि भर देनेवाले शिवशंकर तुम पर मेहरबान हैं|
वे तुम्हारे ऋणी हैं,
वे तुम्हारी इच्छा के अनुसार तुम्हें आशीर्वाद प्रदान करेंगे ।

हरिपंत बोले-
“हे श्री साई! ऐसा ही मत ज्योतिषियों का था।
अब आपके आशीर्वाद की मुहर लग जाने से वह अवश्य पूर्ण होगा।

श्री साई की कृपा से हरिपंत का विवाह हुआ।
संसार के बाग में पत्नी-पुरूष आम्रवृक्ष बने,
श्री साई की कपा की वासंतिक बयार के झोंके से
वृक्ष में नव-पल्‍लव फूटे और फूल-फल लगे।
श्री साई ने ठीक ही कहा था कि अपने मन में कोई शंका न कर।|

दाने में फसल की शक्ति हो तो
उसे श्री साई की कृपा के मेघ के अलावा और क्या चाहिए!
आशीर्वाद की बयार का एक झोंका लग जाए
तो फिर भुट्टे में दाने क्‍यों न पड़ें।
कृपानिधान श्री साई की असीम कृपा हरिपंत पर हुई |

ठूँठ वृक्ष की डाल में, नूतन लगते पात।
साई क॑ आशीष से, बदले हर हालात ।।

// श्री सदृयुरुसाईनाथार्पणयरतु / शुभम॒ थवतु //
इति श्री साई ज्ञानेश्वरी प्रष्ठयो अध्याय: //

अगला भाग - श्री साई का ऐश्वर्य।
©श्री राकेश जुनेजा की अनुमति से पोस्ट किया है।

 


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