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Author Topic: श्री साई ज्ञानेश्वरी - भाग 16  (Read 2985 times)

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Offline trmadhavan

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|| श्री सदगुरू साईनाथाय नमः
अथ श्री साई ज्ञानेश्वरी सप्तम: अध्याय ||
'श्री साई ज्ञानेश्वरी' का सातवाँ अध्याय “श्री साई का ऐश्वर्य' है।

हे साईनाथ!
आपके दिव्य चरणों में में सादर वंदना करता हूँ।
आप महान हैं, मैं तुच्छ हूँ।
आप समस्त गुणों के सागर हैं, मैं अनेक अवगुणों से भरा हूँ।
आप मेरे दुर्गुणों एवं मेरी कमियों पर ध्यान मत देना,
उन्हें नजर--अंदाज कर देना।

हे साईनाथ!
में दीन, हीन अज्ञानी हूँ।
मैं पापियों में महापातकी हूँ ।
मैं कलक्षणों से युक्त हूँ
मैं कटिल, खल, कामी, क्रोधी, अहंकारी, लोभी हूँ ।
आप दर पर आए हुए को कभी नहीं ठुकराते |
आप मुझे भी कभी मत ठुकराना |

हे साईनाथ! आप पारस-पत्थर की तरह हैं|
आप मुझ जैसे पतित लौह को भी अपने दिव्य स्पर्श से
विकारमुक्त बनाकर सोना बना सकते हैं ।
आप गोदावरी की जल-धारा हैं|
गोदावरी का पानी छोटे ग्राम, लेंडीबाग एवं जलाशयों को पवित्र करता चलता है।
फिर भला आप मेरी उपेक्षा या तिरस्कार कैसे कर सकते हैं,
फिर आप मुझे नजर-अंदाज कैसे कर सकते हैं?

हे साईनाथ! मेरे अंदर दोष-ही-दोष हैं |
मैं अवगुणों की खान हूँ।
आप दोषों एवं विकारों को नष्ट करने में पूर्णतः समर्थ हैं|
बस! इसके लिए आपकी केवल एक कृपादृष्टि ही काफी है।
आप नाथ हैं, मैं आपका दास हूँ.
एक दास आपसे सदा कृपादृष्टि बनाए रखने की विनती करता है।

छोटा बच्चा नासमझी के कारण बार-बार गलतियाँ एवं भूलें करता है।
माँ को बच्चे की गलतियों की जानकारी प्रत्यक्ष होती रहती है
फिर भी वह अपने बच्चे पर रोष प्रकट नहीं करती,
उससे कभी गुस्सा नहीं करती |
हे साईनाथ! हम सभी आपकी संतान हैं।
हम अज्ञानवश भूलें करते रहते हैं |
आप करूणामय हृदय वाली माँ हैं।
आप हम पर कभी रोष न करना, कभी क्रोध न करना |
जाने-अनजाने में हमसे कोई गलती हुई हो, तो उसे क्षमा करना
और सदा हमें अपना क॒पा-प्रसाद प्रदान करना |

हे सदगुरू साईनाथ!
आप इस जगत में कल्पतरू के समान हैं|
आप जन-जन की भौतिक एवं आध्यात्मिक इच्छाएँ पूरी करते हैं।
संसार-सागर की तीव्र लहरों के बीच मेरी जीवन-नैया हिचकोले खा रही है।
आप एकमात्र ऐसी पतवार हैं
जो निःसंदेह नैया को सागर के उस पार ले जाने में समर्थ है।
आप मेरी जीवन-नैया को सांसारिक-सागर के उस पार ले जाएँ |
आप भव-भव के चक्र से मुझे तारें।
हे कल्पतरू! आप मेरी यह इच्छा पूरी करें|

हे साईनाथ! आप कामघेनु हैं।
आप भक्तों को हर समय दुग्ध रूपी अमृत प्रदान करने के लिए तत्पर हैं।
हे साईनाथ! आप चिंतामणि हैं|
आपको ह्ृदय में धारण कर लेने वाला भक्त सभी चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है।
हे साईनाथ! आप ज्ञान-गगन के दिव्य सूर्य हैं।
आपके ज्ञान-पुंज की एक किरण को पाते ही
भक्त के अज्ञान का अंधकार दूर हटने लगता है।
हे साईनाथ! आप सद्‌गुणों की खान हैं।
आपकी खान का एक-आध अनमोल रत्न मिलते ही
भक्‍त का नेतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान शुरू हो जाता है।
हे साईनाथ! आप सर्व-मंगलकारी हैं, सर्व-कल्याणकारी हैं,
आप साक्षात॒ स्वर्ग की सीढ़ी हैं।

हे साईनाथ! आप पुण्य के निधान हैं।
आपके निकट सम्पर्क में आते ही भक्त का चित्त पवित्र होने लगता है
और वह अपने लिए पुण्य संचित करने लगता है।
हे साईनाथ! आप शांति की स्थिर व ठोस मूर्ति हैं।
आप अपने भक्तों के अशांत चित्त को शांत करते हैं
और फिर भक्त अपने हृदय में अद्भुत आनंद का अनुभव करता है।
भक्त के अशांत तप्त ह्दय पर
आप शांति के बादल बनकर बरसते हैं
और आनंद की शीतलता प्रदान करते हैं।
हे साईनाथ! आप पूर्ण-ब्रह्म हैं
और सभी के चित्त में आपका ही अंश समाया हुआ है,
सभी के हृदय में आप स्थित हैं, व्याप्त हैं।
आप विशाल सागर हैं और सभी प्राणी सागर की एक दूँद हैं।
सागर का अथाह जल-श्रोत
और सागर के जल की एक बूँद में कोई तात्विक अन्तर नहीं है।
आपका अस्तित्व असीमित है, हमारा अस्तित्व सीमित है|
आपकी विशाल सत्ता का आकार अमाप्य है, निराकार है,
हमारी तुच्छ सत्ता कागज के हाशिये पर दिखनेवाले एक बिन्दु के बराबर है।
हे साईनाथ! आप ज्ञान के सूर्य हैं,
आप ज्ञान की किरणें मुक्त-हस्त बाँटते हैं।
हम सभी अज्ञानी हैं,
आप के ज्ञान की प्रखर किरणों को सहजता से पाकर भी
हम अपने हृदय के अंधकार को पूर्णतः दूर नहीं कर पाते ।

हे साईनाथ! आप ईश्वर के अवतार हैं|
आप समस्त ज्ञान-विज्ञान के भंडार हैं|
आपका ज्ञान स्वान्त: सुखाय' नहीं, 'सर्वजन हिताय' है।
आपने सामान्य लोगों की तरह मनुष्य का रूप ग्रहण किया है
परन्तु आप नरोत्तम हैं, पुरूषोत्तम हैं ।
हे साईनाथ! आप क्षमा और शांति के निवास-धाम हें।
आपकी सन्निधि में आने पर आप पापी, दोषी, अपराधी एवं पामर को भी क्षमा करते हैं
और उसे सही मार्ग पर लगा देते हैं।
आपकी सन्निधि में आने पर अशांत एवं बेचैन मन भी
शांति प्राप्त कर तृप्त होता है
और उसे चैन और सुकून मिल जाता है।

हे साईनाथ! आप भक्‍त-जनों के परम विश्राम-धाम हैं,
साथ ही अभकक्‍तों को भी खींच कर अपने विश्राम-धाम तक ले आते हैं|
हे साईनाथ! आप मुझ पामर और मूढ़ पर भी
अपनी क॒पा का वरद-हस्त रखें
एवं मेरे जैसे करोड़ों जनों को
अपने कपा-प्रसाद का अंश देकर समन्मार्ग प्रदान करें |

हे साईनाथ!
आपने वर्तमान समय में, इस कलियुग में अवतार लिया है।
अतः इस युग में आपके स्वरूप को समझ पाना जन-जन के लिए कठिन है।
आप नाम, जाति, वर्ग, वर्ण आदि सीमाओं से ऊपर हैं।
आज तक कोई आपके जन्म एवं सांसारिक परिचय को नहीं जान पाया।
ऐसा कोई परिचय होता, तभी तो कोई जान पाता।
आप अजन्मा हैं, निश्चित ही आप ईश्वर-स्वरूप हैं |

हे साईनाथ! आप ईश्वर ही हैं ।
भिन्‍न-भिन्‍न रूपों में, भिन्‍न-भिन्‍न युगों में
ईश्वर का जब धरती पर अवतार होता है
तो दुनिया के लोग उन्हें अपनी मानसिक चेतना के अनुसार
कोई--न-कोई नाम अवश्य ही देते हैं
ताकि आनेवाले समय में किसी संज्ञावाचक शब्द के द्वारा उन्हें जाना जा सके।
लोगों ने आपके लिए जो नाम उपयुक्त समझा,
उसे ही उन्होंने ग्रहण कर लिया
और आपका वही नाम निश्चित हो गया ।
इस कलियुग में ईश्वर के अवतार के रूप में
आपको सदगुरू श्री साईं के नाम से जाना-पहचाना जाता है।

हे साईनाथ! आपकी स्थिति ब्रह्मा की स्थिति के समान है।
आप अवश्य ही ब्रह्मा हैं, आदीश्वर हैं |
आप जाति, गोत्र, वर्ण, वर्ग की सीमा में नहीं, आप निःसीम हें, अनंत हैं|
आप गुरूओं में सर्वश्रेष्ठ हैं, सदगुरू हैं,
ज्ञान की पूर्ण प्रतिमा हैं, साक्षात्‌ गुरूमूर्ति हैं ।
निश्चित ही, आप ब्रह्मांड के रचयिता हैं,
सम्पूर्ण जगत के आदि कारण हैं।

हे साईनाथ! इस धरा-धाम पर आपके अवतार का एक विशेष उद्देश्य है।
अवतार अनाचार मिटाता है, भेद-भाव दूर करता है।
आपके अवतरण के समय भारत की धरती पर
जात-पाँत का जहर पूरी तरह से घुला हुआ था।
हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरे के विपरीत खड़े थे,
दोनों एक-दूसरे के विरोधी थे।
आपके अवतरण से जातीय एकता, भाईचारा और धार्मिक सौहार्द का सफल प्रयास हुआ।
आप मस्जिद में रहे, साथ ही आपने वहाँ पवित्र अखण्ड ज्योति प्रज्ज्वलित की |
आपने समाज को लीला दिखाई
और आपकी लीलाओं ने सामाजिक सुधार, धार्मिक सौहार्द
एवं जातीय एकता का तलस्पश्शी एवं वृहद्‌ कार्य किया।

हे साईनाथ! आप जाति-गोत्र से रहित थे, परब्रह्म थे,
तभी आपने जातीय एकता एवं आपसी भाईचारा स्थापित करने का सत्कार्य किया।
आप साक्षात्‌ ईश्वरीय अवतार हैं,
क्योंकि आपके कार्य इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं|
कोई ताकिक तक॑-वितर्क करता है तो करे,
मगर आपके सम्मुख सारे तकं-वितर्क बेकार हो जाते हैं।
साँच को आँच क्‍या?
जो साक्षात्‌ ईशावतार है,
उसे कोई कैसे झुठला सकता है, उसे कोई कैसे इन्कार कर सकता है?

हे साईनाथ! तर्क-वितर्क के अनेक घोड़े खाली मैदान में दौड़ते रहते हैं
किन्तु कोचवान के सामने वे ठिठक जाते हैं|
आपके सामने सारे तर्क-वितर्क शिथिल पड़ जाते हैं, काफ्र हो जाते हैं।
शब्दों में ही इतनी शक्ति नहीं कि आपके सामने वे टिक सकें,
फिर तक-वितर्क के शब्द-जाल भला कैसे टिक सकते हैं?

हे साईनाथ! में लक्ष्यपूर्वक आपकी स्तुति करना चाहता हूँ।
मेरे शब्द आपकी स्तुति में छोटे पड़ रहे हैं, असमर्थ हो रहे हैं।
फिर भी, मैं मौन धारण करके चुप नहीं बैठ सकता |
आप शब्दों के आगार हैं, भंडार हैं, महाकोष हैं |
आप मुझे शब्दों का आशीर्वाद दें, आप मुझमें शब्दों का संचार करें,
आप मेरे शब्दगत अभाव पर ध्यान देते हुए मुझमें भावों की धारा प्रवाहित करें|

शब्द एक माध्यम है,
शब्द ही गीत बनते हैं,
गीत से ही आपकी स्तुति हो सकती है,
गीत और स्तुति में रचे गए छन्‍्द ही साहित्य का रूप ले सकते हैं
जिसका व्यावहारिक जीवन में, जन-जन के कल्याण में विशेष महत्व है।
अतः आप मुझपर शब्दों की कपा-वृष्टि करें |

हे साईनाथ! आप मुझे शब्दों का अवदान दें ।
शब्दों से ही आपके चरित्र एवं स्वरूप का वर्णन संभव है।
मैं इस कार्य को निरन्तर करते रहने में ही धन्‍यता का अनुभव करूंगा,
ऐसा करके ही आपके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर सकूँगा।
अतः आप मुझे अपना क॒पा-प्रसाद प्रदान करें |

संतों में अनोखी योग्यता होती है।
संत देवताओं से भी अधिक श्रेष्ठ होते हैं।
'यह में हूँ 'वह वो है” आदि का भेद-भाव संत अपने मन में नहीं रखते |
भकक्‍त और अभकक्‍त में वे कोई भेद-भाव नहीं बरतते |
वे किसी से बैर-विरोध नहीं रखते |
उनके मन में सभी के लिए समभाव होता है।
देवता रूष्ट एवं कृपित हो सकते हैं,
संत कभी रूठते नहीं, कभी क्रद्ध होते नहीं ।
हे साईनाथ! आप एक समर्थ संत हैं।

संत सूर्य के समान होते हैं।
संत की क॒पा सूर्य के प्रकाश के समान होती है।
जैसे सूर्य सभी के लिए है, वैसे ही संत सभी के लिए हैं।
जैसे सूर्य अंधकार को हरता है,
वैसे ही संत कलुष एवं मनोविकारों को हरते हैं।
संत चंद्रमा के समान होते हैं|
संत की कृपा चन्द्रमा की चाँदनी के समान होती है।
जैसे चन्द्रमा तपी धरती को शीतलता देता है,
वैसे ही संत तप्त एवं अशान्त मन को शांत करते हैं।
हे साईनाथ! आप सूर्य भी हैं और चन्द्रमा भी |

संत कस्तूरी के समान होते हैं।
उनकी कृपा कस्तूरी के परिमल के समान होती है।
जिस प्रकार परिमल की सुवास
जन-जन को अपनी ओर आकर्षित करती है,
उसी प्रकार संत की कृपा
भक्त को अपनी ओर खींचती है, प्रेरित करती है।
संत इक्षु-फल के समान होते हैं।
उनकी कृपा इक्षु-रस के समान होती है।
जिस प्रकार इक्षु-रस अपनी मिठास एवं शीतलता से
जन-जन की प्यास बुझाकर उन्हें तृप्ति देता है,
उसी प्रकार संत ज्ञान और भक्ति की कृपा प्रदान कर
जन-जन के हृदय को तृप्त, शीतल और शांत करते हैं|

संत हमेशा सज्जन एवं दुर्जन में
कोई भेद-भाव नहीं बरतते,
उनके लिए कोई मित्र या शत्रु नहीं होता।
वे अच्छे-बुरे, भक्त-अभकत सभी के प्रति करूणा-भाव रखते हैं|
वे पापी, मूढ़, अपराधी, दुराचारी आदि के लिए अधिक चिंतित रहते हैं।
वे अपने विशेष प्रयत्नों से उन्हें सही राह दिखाते हैं,
भले ही, इसके लिए उन्हें उनपर अधिक प्रेम ही बरसाना क्‍यों न पड़े |

मिट्टी से सने गंदे कपड़े
गोदावरी के जल में साफ किए जाते हैं ।
जब कपड़े साफ-सुथरे हो जाते हैं,
तो मंजूषा में करीने से रखे जाने की पात्रता ग्रहण कर लेते हैं|
गोदावरी के तट पर,
गोदावरी की जलधारा पाकर,
स्वच्छ-निर्मल होने के बाद
कपड़ों को पुनः गोदावरी क॑ जल की आवश्यकता नहीं पड़ती |

वह वस्त्र, जो एक बार गोदावरी के तट पर आ जाता है,
गोदावरी के जल में अवगाहन कर लेता है,
धूल-मिट्टी घुलने-धुलने पर निर्मल हो जाता है,
फिर वह मंजूषा में स्थान पाने की अहतता प्राप्त कर लेता है।

मनुष्य वस्त्र है।
मनुष्य के छः विकार वस्त्र का मैल है।
गोदावरी का तट निष्ठा है।
गोदावरी की धारा सदगुरू की कपा है। मंजूषा मोक्ष है|
षड्विकारों से मनुष्य कितना ही मैला क्‍यों न हो जाए,
उसके मन में सद्गुरू के प्रति निष्ठा पैदा होते ही
उसे सद्‌गुरू की कृपा की पावन धारा मिलनी शुरू हो जाती है।
पावन धारा उसके सारे विकारों को धोकर उसे पवित्र-पावन कर देती है
और उसे मोक्ष के द्वार की मंजूषा तक पहुँचा देती है।

हे साईनाथ।!
आपके पद-दर्शन करना गोदावरी में स्नान करने के समान है।
एक बार पद-दर्शन करते ही व्यक्ति के मनोविकार घुलने लगते हैं,
शुद्धिकरण होने लगता है।
आप व्यक्ति के मन को पूर्णतः शुद्ध कर
पवित्र-पावन बनाने में समर्थ हैं।

हे साईनाथ! हम सभी सांसारिक प्राणी हैं।
सांसारिक जीवन-यापन के क्रम में
अनेक प्रकार के मनोविकार हमें ग्रस्त करते हैं,
उनकी मोटी परत हमारे मन पर चढ़ जाती है।
हम सभी प्राणी मनोविकारों के मैल से गंदे हैं, अपवित्र हैं।
अतः हम गोदावरी के तट पर आने लायक हैं,
आप अपनी जलघारा से हमारे पापों और दोषों को धोएँ एवं हमें पूर्णतः: पवित्र करें |
हम आपके पद-दर्शन करने के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं,
आपके पद-दर्शन करके हम गोदावरी में स्नान करना चाहते हैं।

गोदावरी का जल विपुल है,
शुद्धिकरण की उसमें पूर्ण क्षमता है।
मैं अपने मनोविकारों के मैल इसमें स्नान करके धोना चाहता हूँ।
परन्तु मेरे मनोविकारों के मैल की गठरी ठसा-ठस भरी हुई है,
यह बहुत ही भारी है।
कहीं ऐसा न हो कि गोदावरी का जल
मैल की भारी गठरी को पूर्णतः धो पाने में समर्थ न हो।
अगर ऐसा हुआ, तो गोदावरी के पवित्र जल की महिमा घट जाएगी।

लेकिन इसमें गोदावरी के पवित्र जल का क्या दोष?
सारा दोष तो मेरी भारी गठरी का है।
फिर भी, इतना विश्वास अवश्य है कि
मेरे मनोविकारों की गठरी चाहे कितनी ही भारी क्‍यों न हो,
वह गोदावरी के जल में अवश्य ही घुलेगी और पूर्णतः निर्मल होगी,
क्योंकि गोदावरी का पवित्र जल स्वयं सद्गुरू श्री साईनाथ हैं ।

हे साईनाथ! आप विशाल सघन वृक्ष की शीतल छाया हैं|
हम रास्ते चलते पथिक हैं ।
दिन की प्रचंड धूप एवं दुपहरी का भीषण ताप हमें झुलसा रहा है।
सांसारिक जीवन के पथ पर हम चल रहे हैं
परन्तु दैहिक, दैविक एवं भौतिक आदि तीनों महाप्रखर ताप
हम पर भरपूर आक्रमण कर रहे हैं |

सघन वृक्ष की छाया शीतलता देती है।
गर्मी से झुलसता हुआ व्यक्ति ताप से बचने के लिए उसके नीचे बैठता है।
हे साईनाथ। त्रिविध तापों की ज्वाला हमें दग्ध कर रही है।
इससे उबरने क॑ लिए हम आपकी शीतल छाया की शरण में आए हें।
आप हमें अपनी कृपा की शीतल छॉह प्रदान करें
और त्रिविध तापों की घोर विपदाओं से बचाएँ |
संसार में आपकी करूणा की ख्याति विख्यात है,
आप अपनी करूणा की शीतल छाया हम पर भी फेलाएँ |

वह वृक्ष व्यर्थ है,
जिस वृक्ष में छाया नहीं है।
वह वृक्ष व्यर्थ है,
जो भीषण गर्मी में तपते पथिक को राहत नहीं देता।
वह वृक्ष व्यर्थ है,
जो शरणागत आए व्यक्ति की ताप से रक्षा नहीं कर सकता |
भले ही उसे हम वृक्ष कहें,
परन्तु वह छायातरू कभी नहीं कहला सकता |
हे साईनाथ! आप तो छायातरू हैं ।
आपकी क॒पा एवं करूणा ही शीतल छाया है।
अतः आप प्रखर त्रिविध तापों से हमें बचाएँ, हमारी रक्षा करें|

हे साईनाथ! वेद भी जिसका वर्णन करते-करते थक गए,
अंत में उन्हें 'नेति-नेति' कहना पड़ा,
अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए उन्हें यह स्वीकार करना पड़ा
कि ईश्वर का गुणानुवाद इतना ही नहीं है, अभी और भी है
और उसे पूर्णतः व्यक्त कर पाना संभव नहीं है,
वही ईश्वर आप हैं।
आप चलते-फिरते ब्रह्मा हैं, आपके सदृश्य और कोई दूसरा ब्रह्मा नहीं है।

आपने सगुण स्वरूप धारण कर इस धरा-धाम पर अवतार लिया है।
अक्सर सनन्‍्त-महात्मा ईश्वर के रूप-स्वरूप एवं कार्यों का वर्णन किया करते हैं,
आपके रूप-स्वरूप एवं कार्यों के वर्णन में वे भी थक जाते हैं,
संपूर्ण वर्णन वे भी नहीं कर पाते
और अपनी असमर्थता के कारण लज्जा एवं संकोच महसूस करते हैं।

हे साईनाथ! आप सदगुरू हैं, संत-शिरोमणि हैं,
आपके महत्व का वर्णन कर पाना शब्दों की सामर्थ्य-शक्ति से परे हे।
आप नदी की पवित्र धारा हैं
जो जगत के जीवन को निरंतर निर्मल कर रही है।
आप ईश्वर के साक्षात प्रतिनिधि हैं।
आप ईश्वर की अनुभूति और उनका साक्षात्कार कराने में पूर्णतः: समर्थ हैं।
यही कारण है कि आप सच्चिदानंद स्वरूप हैं |

शिरडी को अपना स्थायी विश्राम-धाम बनानेवाले!
हे सदगुरू साईनाथ!
में इससे अधिक आपके संबंध में और क्या कहूँ
में तो केवल इतना ही कह सकता हूँ
कि आप ही हमारी माता हैं और आप ही हमारे पिता हैं।

हे साईनाथ! आपकी लीलाएँ अनन्त हैं, वर्णनातीत हैं ।
इनका कोई ओर-छोर नहीं, इनका कोई आर-पार नहीं ।
जिह्वा भी वर्णन करते-करते थक जाती है।
अतः इन्हें लिखते समय में आपकी लीलाओं के साथ न्याय केसे कर पाऊँगा,
इन्हें पूर्ण रूप से कैसे लिख पाऊंगा।
आपकी लीलाओं का जो विशाल ऐश्वर्य है,
उसे वाणी और शब्दों में अभिव्यक्त कर पाना असंभव है।

दीन-हीन, पाप-ताप से ग्रस्त,
असमर्थ-असहाय लोगों के उद्धार के लिए
आपने शिरडी में अवतार लिया।
आपने मिट्टी के दीपकों में पानी डाला
और उन्हें प्रज्ज्वलित किया |
हे साईनाथ!
यह आपका ईश्वरीय ऐश्वर्य है
जिसके कारण मिट्टी के दीप आपके हाथों से
जल ग्रहण करके भी प्रज्ज्वलित हो गये,
फिर भला दीन-हीन, पाप-ताप से ग्रस्त,
असमर्थ-असहाय लोगों का उद्धार क्‍यों नहीं हो सकता |
अवश्य ही होगा, निश्चित रूप से होगा ।

सवा हाथ लम्बे और एक बालिश्त चौड़े लकड़ी क॑ तख्ते को
छत की कड़ियों में पतली चिन्दी के सहारे लटकाकर
उसपर आपने शयन किया ।
ऐसा तो केवल योगसिद्ध ही कर सकता हे |
हे साईनाथ।!
आप योगी हैं,
ऋद्धि-सिद्धि के स्वामी हैं,
आप अपने को कभी भी निर्भार कर सकते हैं,
तख्त पर शयन इसका प्रमाण है,
यह आपका ईश्वरीय ऐश्वर्य है।
आपके भक्तों ने आपका यह ऐश्वर्य प्रत्यक्ष देखा है।

आपने बांझ स्त्रियों को संतान देकर उनकी गोद भरी।
आपने अनेक असाध्य रोगियों के रोग एवं कष्ट समूल नष्ट किए |
आपके हाथ में सारे पाप-ताप हरने की एक खास जड़ी है,
वह हे उदी |
हे साईनाथ! ईश्वर की कृपादृष्टि से ही उद्धार हो जाता है।
आपका यह ईश्वरीय ऐश्वर्य है कि
आपके हाथों की उदी से जन-जन का उद्धार होता है,
दुख भी सुख में बदल जाता है
क्योंकि उदी पर आपकी पूर्ण कपादृष्टि है।

जन-जन के संकट आप दूर करते हैं।
आप के लिए असंभव कुछ भी नहीं ।
कई बार तो आप दूसरों के संकटों को अपने ऊपर ले लेते हैं।

आप गजपति हैं।
लाखों चींटियों का भार भी आपके लिए कोई भार नहीं।
हे साईनाथ! ईश्वर सारे प्राणियों का दायित्व-निर्वाह करता है,
इतना बड़ा कार्य भी उस सर्वशक्तिमान के लिए आसान एवं सहज हे |
आपका यह ईश्वरीय ऐश्वर्य है कि
आप लाखों-करोड़ों लोगों की करूण पुकार सुनते हैं
और तत्काल उनके कल्याण के लिए सक्रिय हो जाते हैं।
आपके लिए इतना विशाल कार्य भी सरल एवं सहज हे।

आपके शरणागत होते ही आप दीनों पर दया करते हैें।
आपके द्वार पर आनेवाला कभी खाली हाथ नहीं जाता ।
मैं आपके चरणों में समर्पित हो गया हूँ।
आप मुझे कभी न ठुकराएँ,
अपने दर से कभी खाली हाथ न लौटाएँ |
ईश्वर का यह ऐश्वर्य है कि
वह हर प्राणी को कुछ-न-कुछ,
कमो-बेश देता ही है।
हे साईनाथ! आपका यह ऐश्वर्य है कि
आप सभी की सत्‌-इच्छा पूरी करते हैं,
सबकी झोली भरते हैं,
आप लोगों को मुक्त-हस्त
अपने खजाने में से कुछ-न-कुछ अवश्य देते हैं।

आप राजाओं के राजा हैं यानि राजाधिराज हैं|
आप कूबेरों के कृबेर हैं,
दोनों हाथों से खजाना लुटाने पर भी
आपका महाकोष कभी खाली नहीं होता,
ज्यों-का-त्यों भरा ही रहता है।
आप वैद्यों के वैद्य हैं, वैद्यराज हैं,
तीनों प्रकार के तापों को आप दूर कर देते हैं।

हे साईनाथ! यह तो ईश्वर का ऐश्वर्य है कि
वह सर्वशक्तिमान, असीम, त्राता और मुक्तिदाता होता है।
आपमें भी यह ऐश्वर्य है।
अत: आप जैसा श्रेष्ठ और कोई नहीं हो सकता |
आप सर्वश्रेष्ठ हैं।

साईं कोष कबेर के, किरपा के भंडार |
साई प्रभुता के प्रभु, साई लखदातार।।
जैसा वैभव ईश का, वैसे साईनाथ।
आया खाली हाथ जो, गया न खाली हाथ ||

// श्री सदयुरुसाईनाथार्षणमस्तु / शुथम्‌ भवतु ॥/
इति श्री सार्ई ज्ञानेश्वरी सप्तयगो अध्याय: //

अगला भाग - अर्चना, प्रार्थना एवं विनती
© श्री राकेश जुनेजा कि अनुमति से पोस्ट किया है।

 


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