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Author Topic: श्री साई ज्ञानेश्वरी - भाग 17  (Read 1934 times)

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Offline trmadhavan

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|| श्री सदगुरू साईनाथाय नमः
अथ श्री साई ज्ञानेश्वरी अष्टम: अध्याय ||
श्री साई ज्ञानेश्वरी' का आठवाँ अध्याय “अर्चना, प्रार्थना एवं विनती' है।

व्यक्ति जब श्री साई के अनन्त ऐश्वर्य का अनुभव करता है
तो उसकी आँखें प्रेम के आँसुओं से छलक उठती हैं,
वह भक्ति-भाव के साथ श्री साईं की अर्चना में संलग्न हो जाता है।
उसके मन में समर्पण-भाव का उदय होता है
और वह अपने हृदय के सिंहासन पर
श्री साई को विराजमान कर लेता है।
वह निष्काम भाव से श्री साई की सेवा में लग जाता है।
उसके लिए श्री साई ही भगवान हो जाते हैं।

भक्त अपने आराध्य ईश्वर से प्रार्थना करता है कि
आप अज्ञान का अंधकार दूर करें, पापकर्मा को क्षीण करें,
गलतियों को क्षमा करें, शरणागत की रक्षा करें,
अपावन को पावन करें, अभकत के मन में भक्ति भरें, दुख को सुख में बदलें,
संसार-सागर की लहरों में पतवार बनकर
नेया को भव के उस पार ले जाएँ,
अपना वरद-हस्त मस्तक पर रखें
और अपनी कृपा-दृष्टि सदेव बनाए रखें ।

ईश्वर सबकी विनती सुनते हैं,
मेरी भी करूण विनती सुनेंगे,
ऐसा भक्त का दृढ़ विश्वास है।
विराट्‌ सत्ता की कृपा की एक बूँद मुझे भी मिले,
यही भक्त की विनम्र विनती है।
तो आइये, अब हम “श्री साईं ज्ञानेश्वरी' के अष्टम्‌ अध्याय
अर्चना, प्रार्थना एवं विनती” का पारायण करते हैं |

आँसू पाँव पखारते, भक्ति तिलक लगाय।
वाणी से करूँ वंदना, मंगल मंत्र सुनाय ||

प्रेम भाव के पुष्प का, मैं पहनाऊँ हार।
अर्चन-पूजन दक्षिणा, साई करो स्वीकार ।।

हे साईनाथ।!
मेरे प्रेमाशु छलक रहे हैं |
मैं अपने प्रेमाशुओं से आपके चरणों का प्रच्छालन कर रहा हूँ।
मेरे पास भक्ति का चंदन है।
में भक्ति-भाव का चंदन आपके श्री चरणों में लगा रहा हूँ।

हे साईनाथ।!
मैं शब्दों की सुशोभित कफनी आपके काव्य-रूपी तन में पहना रहा हूँ।
प्रेम-भाव के सुकोमल पुष्पों की माला आपके गले में डाल रहा हूँ।

हे साईनाथ।!
में अपने हृदय की पूर्ण निष्ठा के सिंहासन पर
आपको स्थापित एवं प्रतिष्ठित कर रहा हूँ ।
आप मेरी हृदय-स्थली पर विराजमान हों |
मेरी भक्ति का नेवेद्य स्वीकार करें |

हे साईनाथ।!
में अपने मन की दक्षिणा आपको अर्पित करता हूँ
ताकि आपके आशीर्वाद से होनेवाले कार्य के प्रति
मुझमें कर्त्तापन का भाव न आए
और कार्य की सफलता या असफलता की चिन्ता भी मुझे न सताए।

हे शांत-चित्त, धीर-वीर-गंभीर, ज्ञान के शिखर!
करूणा से परिपूर्ण सघन बादल,
दया के अगाध सागर, सत्य के साक्षात्‌ स्वरूप!
हे साईनाथ! आप माया के घने अंधकार का नाश करते हैं|

हे सिद्ध पुरूष!
आप जाति-गोत्र की सीमा से परे हैं,
आप अप्रत्याशित कृपा करनेवाले हैं,
आप करूणा के अक्षय भंडार हैं,
हे शिरडीवाले साईनाथ।
मेरी रक्षा-सुरक्षा करें, मुझे अपनी शरण में लें।

हे ज्ञान के प्रखर सूर्य श्री साई। हे ज्ञान प्रदाता!
सभी प्रकार का मंगल करनेवाले, भक्तों के मानस के राजहंस!
आप शरण में आए हुए लोगों की रक्षा करते हैं।

आप सृष्टिकर्त्ता हैं, सृष्टि सृजन करने वाले ब्रह्मा हैं।
आप सृष्टिपालक हैं, लक्ष्मीपति विष्णु हैं।
आप त्रिलोक का लय करनेवाले हैं, रूद्र हैं।
ऐसा निश्चित ही है, यही ध्रुव है।

हे साईनाथ!
ऐसी कोई जगह नहीं, जहाँ आप नहीं |
धरती पर ऐसा कोई स्थान नहीं, जहाँ आपका वास नहीं।
हे साईनाथ! आप सर्वव्यपी हैं, सर्वज्ञ हैं।
आप हर प्राणी के अंतर्मन में स्थित हैं|

सभी अपराधों को माफ करनेवाले!
क्षमा माँगने पर तत्काल क्षमा प्रदान करनेवाले!
संशय के कारण भक्ति न करनेवाले लोगों के संशय भी
आप यथाशीत्र दूर कर देते हैं ।

हे साईनाथ!
आप कामधेनु हैं और मैं आपका वत्स हूँ।
आप सोलहों कलाओं से विभूषित पूर्णचंद्र हैं
और में पूर्णचंद्र की एक छोटी-सी किरण हूँ।
आपके पावन चरण स्वर्ग से अवतरित होनेवाली गंगा नदी के समान पवित्र हैं।
में आपका दास हूँ
मै आदर के साथ आपके चरणों में सविनय नमन करता हूँ।

हे साईनाथ!
आप अपनी कृपा का वरद-हस्त मेरे मस्तक पर रखें ।
मेरे दुख, कष्ट और चिंता का निवारण करें।
में तो आपके चरणों का एक अदना-सा दास हूँ।
आपके समर्थ हाथों में जगत का कल्याण है।
आप जन-जन पर कृपा करें
और उनके सांसारिक दुखों को दूर कर उन्हें मुक्त करें ।

हे साईनाथ!
आप कामधेनु गाय हैं, मैं आपका बछड़ा हूँ।
आप मेरी माँ हैं, मैं आपका बच्चा हूँ ।
में अबोध, अज्ञानी एवं चंचल हूँ।
मुझसे गलतियाँ होना संभव है।
आप मुझे अपना बच्चा समझ कर क्षमा प्रदान करें|
मेरे अवगुण एवं नटखटपन को नजर--अंदाज करें,
उसे चित्त में न लाएँ और मेरे प्रति उदारता बनाएँ रखें |

हे साईनाथ!
आप मलयागिरि पर्वत का चंदन-वृक्ष हैं ।
आप अपनी सुवास से
संपूर्ण वन को सुवासित कर देते हैं।
मैं कंटीली बेल हूँ।
मेरे निकट सम्पर्क में आते ही
कोई भी प्राणी आहत और पीड़ाग्रस्त हो जाता है।
मैं महापापी हूँ. मेरा मन अपवित्र है।
आप गोदावरी का पवित्र जल हैं ।
आपकी जलवधारा का स्पर्श ही
प्राणी को पवित्र बना देता है।

हे साईनाथ!
आपके दर्शन-मात्र से दुर्बद्धि समूल नष्ट हो जाती है।
मेरे साथ यदि ऐसा न हुआ
और मैं ज्यों-का-त्यों ही बना रहा
तो में आपको चंदन-वृक्ष कैसे कह पाऊंगा।

हे साईनाथ!
कस्तूरी का निकट सम्पक पाकर
धूल भी सुवासित हो जाती है,
अनमोल बन जाती है।
माला के फूलों की खुशबू पाकर
माला का धागा भी सुरभित हो जाता है।

हे साईनाथ!
तुच्छ से महान बनने की यही रीति है।
जो-जो तुच्छ एवं अपावन लोग हैं,
उन्हें आप पवित्र पावन कर देते हैं।
आपके संपर्क में आते ही तुच्छ की दुर्बद्धि तिरोहित होने लगती है
और उसमें महानता के गुण उभरने लगते हैं।

भगवान शिव का निकट सम्पर्क पाकर
श्मशान घाट की भष्म का महत्व बढ़ गया और वह भभूत बन गया ।
शिव का साहचर्य पाकर
मृगचर्म भी उनका लंगोट बन गया।
शिव के साथ रहते-रहते
बैल भी नंदी की महिमा से अभिमंडित हो गया ।
महान हस्ती के सम्पर्क में रहकर तुच्छ वस्तुएँ भी महत्वपूर्ण बन गई |

मैं तुच्छ एवं हीन हूँ, दुराचारी एवं पापी हूँ।
मुझे कोई चिन्ता नहीं,
क्योंकि में आपके चरणों की शरण में आ गया हूँ आपके संरक्षण में हूँ।
हे साईनाथ!
क्या आप मेरे बारे में कछ नहीं सोचेंगे,
क्या आप मेरी विनती को अनसुना कर देंगे,
क्या आप मुझे पापों से मुक्त नहीं करेंगे?

मेरा अंतरमन कहता है कि
आप तुच्छ एवं हीन पर अवश्य ही क॒पा करेंगे
और उसे उच्च स्थान का अधिकारी बनाएँगे।
इसके लिए मैं आपसे याचना करता हूँ।

हे साईनाथ!
मेरा मन जिन वस्तुओं से संतुष्ट होता है
और जिनसे सुख का अनुभव करता है,
उन समस्त भौतिक एवं आध्यात्मिक वस्तुओं की पूर्ति आप अवश्य करेंगे,
मुझे उपलब्ध कराएँगे,
ऐसा मन में दृढ़ विश्वास है,
इसमें रंच-मात्र भी संदेह नहीं |

हे साईनाथ!
आप सिद्धों और योगियों के सम्राट हैं,
आपका ऐश्वर्य विराट है।
आपकी एक दृष्टि पाते ही,
आपके चरणों का दर्शन करते ही,
सारे अवगुण और विकार दूर हो जाते हैं।
आप मुझ पर क॒पादृष्टि करें |
आपकी क॒पादृष्टि के बाद भी
यदि मुझमें कोई दुर्गुण या दोष शेष बच गया,
तो वह आपकी कमी मानी जाएगी।
उसकी जिम्मेदारी आपकी होगी।
अतः आप मुझ पर विशेष ध्यान दें,
आप मुझ पर अशेष क॒पा करें |

हे साईनाथ |
में इससे अधिक और क्‍या कहूँ,
इससे ज्यादा क्‍या विनती करूँ?
आप ही मेरे आधार हैं ।
आपके चरण में ही मेरी शरण है।
माँ की गोद में बच्चा हो तो फिर उसे किस बात का डर?
आपका सानिध्य बना रहे,
तो चिन्ता-फिक्र एवं डर-भय का प्रश्न ही नहीं ।

मात-पिता तुम बंधु सखा, तुम हो सबके साथ |
ज्ञान भरो, अज्ञान हरो, मन-मंदिर में नाथ |।

सन्‍्मति का अवदान दो, मुझको साई राम |
अर्ज करूँ, विनती करूँ, झुक-झुक करूँ प्रणाम ||

// श्री सदयुरुसाईनाथार्षणमस्तु / शुथम्‌ भवतु ॥/
ज्ति श्री साई ज्ञानेश्वरी अष्टयो अध्याय: //

अगला और अन्तिम भाग -  'फलश्रुति'
© श्री राकेश जुनेजा कि अनुमति से पोस्ट किया है।

 


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