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Author Topic: श्री साई ज्ञानेश्वरी - भाग 3  (Read 516 times)

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Offline trmadhavan

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श्री साई ज्ञानेश्वरी – भाग 3

|| श्री सदगुरू साईनाथाय नम: ।।

।। ज्ञान - प्रथम: अध्याय ||

इस संसार में किसी के पास तेज गति से चलने के लिए गाड़ी है,
तो किसी के पास रहने के लिए आलीशान मकान है ।
किसी के पास जाड़े की रात बिताने के लिए पर्याप्त वस्त्र नहीं
तो किसी को कपड़ों के अभाव में निर्वस्त्र ही घूमना पड़ता है।
कुछ लोगों को संतानें हैं और संतानों से उन्हें सुख भी प्राप्त है,
कुछ लोगों के संतानें होती हैं,
पर उन्हें संतानों से संताप झेलना पड़ता है,
कुछ लोगों के संतानें होती हैं पर होकर मर जाती हैं,
तो कुछ लोगों को संतानें होती ही नहीं ।'
श्री साई के ऐसे समर्थ वचन सुनकर, नाना साहब बोले-

“हे साईनाथ महाराज! मैं आपकी बात से सहमत हूँ।

आप मुझे यह बताएँ कि ये सुख-दुख क्‍यों लगे रहते हैं?
कोई प्रिय व्यक्ति सामने होता है, तो खुशी मिलती है,
दीन-हीन को देखकर मन दुख से भर जाता है,

कभी सुख मिलता है तो कभी दुख

कुछ समय के लिए सुख आता है और उसके बाद दुख
आखिर ऐसा क्‍यों है?

शास्त्रों में कहा गया है कि सुख-दुख माया का व्यापार है,
यह व्यापार हर क्षण संसार में चलता रहता है।

क्या संसार को छोड़ देने पर दुख मिट जाएगा?

क्या संसार का त्याग कर देने पर

सारा संताप समाप्त हो जाएगा?

नाना साहब की बात सुनकर सद्‌गुरू श्री साईनाथ महाराज ने कहा-
“हे नाना! सुख और दुख तो माया का खेल है।

यह खेल हर व्यक्ति के जीवन-पटल पर खेला जाता है।
माया मोहक बनकर सुख देती है,

माया के अनेक नए-नए रूप हैं,

ऐसा तुम देख ही रहे हो,

यह माया प्रपंच है, धोखा है, केवल एक भ्रम है,

माया में अत्यन्त प्रबल शक्ति होती है,

फिर भी माया से प्राप्त होने वाले सुख को हम सत्य मान बेठते हैं।

तय प्रारब्ध के अनुसार हर किसी को यह शरीर प्राप्त है।
कोई शरीरधारी पंचामृत खाता है, किसी शरीरधारी को बासी रोटी एवं जूठन खानी पड़ती है।
जो बासी रोटी और जूठन खाता है, वह अपने आप को दुखी समझता है।
जिसे पंचामृत एवं पकवान खाने को मिलते हैं,
वे कहते हैं कि हमें किसी वस्तु की कमी नहीं ।
हे नाना! मधुर पकवान खाओ, चाहे सूखी रोटी खाओ
दोनों का उद्देश्य एक ही है,
दोनों पेट की भूख को शांत और तृप्त करते हैं।
कोई जरीदार, सुन्दर-सुन्दर कपड़े पहनता है,
अनेक प्रकार के रंग-विरंगे वस्त्रों से अपने तन को सुसज्जित करता है,
तो कोई पेड़ की छाल से अपने शरीर को ढूँकता है।
शाल-दुशाला हो या वृक्ष की छाल हो, दोनों का उद्देश्य एक ही है।
दोनों शरीर को ढूँकते हैं, दोनों सर्दी और गर्मी में शरीर की रक्षा करते हें।
किसी का कोई विशेष प्रयोजन हो, ऐसी बात नहीं |
आनंद या सुख केवल हमारे मानने का तरीका है।
सच पूछो तो, यही मानना अज्ञान है।
यही मनुष्यों के लिए घातक है।
हे नाना! सुख और दुख एक तरंग के रूप में उठती है।
यह किसी के भी चित्त को आंदोलित कर देती है।
यही हमें भ्रमित करती है, यही हमारे अन्दर अज्ञान उत्पन्न करती है।
अत: सुख-दुख का मोह न करो,
सुख-दुख से ग्रस्त और त्रस्त न होओ |
लहर जल नहीं परन्तु जल में लहर है,
प्रकाश दीप नहीं परन्तु दीप में प्रकाश है,
इसी प्रकार से तरंग सुख-दुख नहीं परन्तु सुख-दुख में तरंग है ।
इस तरंग से कोई भी व्यक्ति अछूता नहीं |
हे नाना! लोभ, मोह आदि छ: शत्रुओं को देख!
ये इसी तरंग से उत्पन्न हुए हैं।
इनकी उत्तपत्ति माया के द्वारा ही हुई है।
इस तरंग का स्वरूप अत्यन्त मोहक है,
यही कारण है कि इससे असत्य में भी सत्य का भ्रम हो जाता है।

अमीर की कलाई पर सोने का कंगन देखकर
निर्धन के कलेजे पर कटार का सा वार होता है।
उसके कलेजे में इर्ष्ष की तरंग उठती है।
वह सोचता है-- काश! यह कंगन मेरे पास होता!
मन में ऐसा भाव उठते ही
उसके मन में दूसरी तरंग उठती है।
यह दूसरी तरंग उसके लोभ का कारण बनती है।
दूसरी तरंग के उठते ही
मन में चारों ओर हलचल मच जाती है।
शास्त्रों में छ: शत्रुओं का वर्णन किया गया है,
यह छ: शत्रु माया के आज्ञाकारी शिष्य हैं|
माया रूपी तरंग उठते ही ये प्रबल हो जाते हैं,
और मन मे उथल-पुथल मचा देते हैं।
इन छ: शक्तिशाली शत्रुओं पर नियंत्रण करना जरूरी है।
अगर नियंत्रण न किया जाए तो तरंगें उठती ही रहेंगी |
इन छः: शत्रुओं की शक्ति को, संभवतः तुम समूल नष्ट न कर सको,
परन्तु इन्हें अपना गुलाम बनाकर अवश्य रखो |
इन शत्रुओं की अवज्ञा करो,
इनके प्रतिकार करने की युक्‍क्ति सोचो |
जीवन की राह में काम, क्रोध आदि छः: शत्रु तुम्हें मिलेंगे ।
इन शत्रुओं को गुलाम बनाने के लिए तुम ज्ञान का पहरेदार नियुक्त करो |
वही पहरेदार इन पर नियंत्रण कर सकता है।
केवल ज्ञान ही इनपर आधिपत्य कायम कर सकता है।
ज्ञान में सद्विचार की शक्ति होती है,
ज्ञान तुम्हारे हित-अहित का निर्धारण कर सकता है।
जीवन की राह में मिलने वाले सुख-दुख झूठे हैं, सिर्फ भ्रम हैं,
यदि तुम्हारे पास ज्ञान है तो सुख-दुख तुम्हें प्रभावित नहीं कर सकते |
हे नाना! अब तुम सुख-दुख के बारे में सुनो।
मुक्ति ही सच्चा सुख है।
जन्म-मरण के चक्र में फँसना ही वास्तव में दुख है।
इसके अतिरिक्त जो अन्य है, वह भ्रम है, माया है।
वही सुख-दुख के रूप में व्याप्त है,
वही जीवन में बारी-बारी से आता, जाता और चलता रहता है।

इस संसार में जिसने जन्म लिया है,
उसे कैसा आचरण करना चाहिए,
अब मैं तुम्हें यह बताने जा रहा हूँ।
प्रारब्ध के अनुसार हमें यह शरीर मिला है,
उसी के अनुसार हमारी स्थिति-परिस्थिति है,
इसका हमें संतोष होना चाहिए,
हमें जो कुछ प्राप्त है, उसमें हमें खुश रहना चाहिए |
वृथा चिंतन और बेकार की छटपटाहट कभी नहीं करनी चाहिए |
प्रारब्ध के अनुसार यदि तुम्हें घर-बार, धन-संपत्ति प्राप्त हुई है,
तो तुम्हें अत्यन्त विनम्र रहना चाहिए ।
फलों के लद॒ जाने पर वृक्ष की शाखाएँ झुक जाती हैं ।
नम्र होना अच्छा है,
परन्तु सभी के सामने नम्र बने रहना ठीक नहीं |
दुष्ट एवं दुर्जन के सामने धनी व्यक्ति को नम्न नहीं होना चाहिए।
अन्यथा वह तुमसे अनावश्यक फायदा उठायेगा |
वह चापलूस बनकर तुम्हें ठगता रहेगा |
दुष्ट एवं दुर्जन को पहचानो,
इंसान को परखने का ज्ञान तुममें होना चाहिए ।
शास्त्र कहता है कि दुष्ट एवं दुर्जन के सामने कठोर बनकर रहो |
इसे तुम अपने मन में गाँठ बाँधकर रख लो।
साधु-संत एवं सज्जन पुरूषों का हमेशा मान रखो, उनका हमेशा सम्मान करो |
उनके सामने घास की तरह विनम्र बनकर रहो |
हे नाना! धन-संपत्ति दोपहर की छाया की तरह होती है।
यह कब सिमट जाए, यह हमें बिसराकर कब चली जाए,
इसका कोई भरोसा नहीं ।
इसके स्थायित्व की कोई गारण्टी नहीं ।
अत: धन-संपत्ति का अहंकार अपने शरीर पर हावी मत होने दो।
धन-संपत्ति के अहंकार में किसी को बेकार परेशान मत करो ।
अपनी आमदनी को देखते हुए
उसकी सीमा में कुछ खर्च दान-धर्म के लिए करो।
उधार में पैसा लेकर दान-धर्म के लिए खर्च मत करो ।

तुम्हारे सांसारिक क्रिया-कलाप कुछ समय के लिए हैं।
जबतक यह देह टिकी हुई है, तबतक के लिए तुम्हारे क्रिया-कलाप हैं|
इन कार्य-कलापों के संचालन के लिए धन की आवश्यकता होती है।
जिस प्रकार भोजन को पचाने के लिए पित्त की जरूरत होती है,
वैसे ही क्रिया-कलापों को चलाने के लिए वित्त की जरूरत होती है।
सांसारिक जीवन के क्रिया-कलाप धन से चलते हैं।
हर कार्य के लिए धन एक जरूरी माध्यम है,
लेकिन हर समय धन में मन को उलझाए रखना ठीक नहीं ।|
धन होने पर कंजूस बनना ठीक नहीं।
धनी व्यक्ति को उदार वृत्ति रखनी चाहिए |
आवश्यकता से अधिक उदारता न बरतो, यह किसी काम की नहीं।
एक बार यदि तुम्हारा धन पूर्णतः तुम्हारे हाथ से निकल जाता है,
तो फिर तुम्हें कोई नहीं पूछेगा,
किसी से माँगोगे, तो कोई एक पैसा भी नहीं देगा।
उदारता और जरूरत से ज्यादा खर्च,
यदि दोनों एक साथ हो, तो इसे खतरनाक मानो |
इनमें से एक की अधिकता ही घातक होती है,
दोनों के एक साथ होने पर तो अनर्थ भी हो सकता है।
अर्थदान देने से पहले अर्थदान लेने वाले की योग्यता देखो।
वास्तव में उसे धन की आवश्यकता है या नहीं,
इसपर अच्छी तरह से विचार करो |
यदि उसे जरूरत है तो उसकी सहायता करो, उसे कुछ-न-कुछ अवश्य दो ।
अपंग, अनाथ, रोग से ग्रस्त व्यक्ति दान के योग्य पात्र हैं।
अभावग्रस्त मेधावी विद्यार्थी, प्रसव-पूर्व पीड़ा ग्रस्त स्त्री, अनाथ बालक,
अनाथ स्त्री, विधवा आदि दान के योग्य पात्र हैं।
लोक-कल्याण एवं सार्वजनिक कार्य के लिए
अर्थदान करना बिल्कुल उचित है।
दान में अन्नदान का भी महत्व है|
अन्नदान तीन प्रकार के होते हैं-- सामूहिक, नियमानुसार और प्रासंगिक |
बड़ी संख्या में लोगों को अन्नदान करना सामूहिक अन्नदान है ।
विधि-विधान के अनुसार निश्चित समय पर अन्न का दान करना नियमानुसार अन्नदान है।
किसी विशेष अवसर पर या उत्सव आयोजन पर अन्नदान करना प्रासंगिक अन्नदान हे।

ऊँ सद्गुरू श्री साईनाथाय नम: 
© राकेश जुनेजा के अनुमति पोस्ट किया गया
(अगला भाग 07/05/2020)

 


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