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Author Topic: श्री साई ज्ञानेश्वरी - भाग 4  (Read 1267 times)

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Offline trmadhavan

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श्री साई ज्ञानेश्वरी – भाग 4

|| श्री सदगुरू साईनाथाय नम: ।।
।। ज्ञान - प्रथम: अध्याय ||

भंडारे के रूप में भी अन्नदान किया जा सकता है।
सामूहिक भंडारा कोई भी, कभी भी, अपनी इच्छा से कर सकता है।
घर, जमीन, मकान, दुकान, संपत्ति, अनेक प्रतिष्ठान होने पर, अनुकूल समय चलने पर,
मनवांछित इच्छा पूरी होने पर एक हजार व्यक्तियों को अन्नदान करें, या भंडारा करावें |
इसमें उच्च-नीच का भेद-भाव न करें |
भंडारा पाने के लिए चारों वर्णों के लोग योग्य हैं|
पागल, दुष्ट एवं अन्न की अवहेलना करनेवाला व्यक्ति
अन्नदान या भंडारा का योग्य पात्र नहीं है।
भंडारा या अन्नदान विधिवत्‌ पूर्ण करें|
कर्ज या उधार लेकर भण्डारा करना हो तो ऐसा कभी न करें|
कर्ज से भंडारा या अन्नदान करना पूर्णतः वर्जित है।
सामूहिक भंडारा के लिए योग्य कौन है, इसका निर्धारण करो |
पथिक, तपस्वी, संन्यासी, लंगड़ा-लूला, भिखारी, भूखा व्यक्ति इसके लिए योग्य पात्र हैं।
निर्धन विद्यार्थी जो भिक्षा माँगकर भोजन करते हैं,
उन्हें नित्य नियमपूर्वक भोजन कराएं या अन्नदान दें |
शादी, खुशी के प्रसंग, उत्सव, व्रतों के उद्यापन आदि अवसरों पर प्रासंगिक भंडारा करें।
इसमें इष्ट मित्रों, रिश्तेदारों एवं सुह्दूजनों को आमंत्रित करें,
उन्हें आदरपूर्वक भंडारा करावें।
अन्नदान को आचरण में लाओ, अच्छी तरह से क्रियान्वित करो,
ऐसा में तुमसे कहता हूँ।
वस्त्र-दान करने की भी यही रीति है।
जरूरतमंद वस्त्रहीन व्यक्ति को कभी नहीं ठुकराना चाहिए |
अपनी सामर्थ्य-शक्ति को देखकर यथाशक्ति वस्त्रदान करें |
वस्त्रदान करके अभावग्रस्त की पीड़ा का निवारण करें|
यदि कभी तुम्हें सत्ता मिले, यदि कभी तुम शासक-प्रशासक बनो,
तो सत्ता का बिल्कुल ही दुरूपयोग मत करो |
न्याय के आसन पर बैठकर पक्षपात, रिश्वतखोरी व अन्याय मत करो |
जिस कार्य की जिम्मेदारी तुम्हें मिले,
उसे अपने हाथों में लो, उसे लगन और इमानदारी से पूरा करो ।
कार्य को समर्पित भाव से करो, कार्य को मन लगाकर पूरा करो।

लोग बार-बार नजरें गड़ाकर तुम्हें देखें,
ऐसी पोशाक न पहनो |
वस्त्रों को पहनकर तुम्हारे अन्दर अहंकार की झलक आ जाए,
ऐसे परिधानों की इच्छा न रखो, ऐसे कपड़े न पहनो |
किसी व्यक्ति का अकारण ही अपमान मत करो |
धूर्त, दुष्ट एवं अलक्षणी व्यक्ति से हमेशा दूर रहो |
ये दिल को चोट पहुँचाते हैं।
पुत्र-पुत्रियाँ, दास-दासियाँ, तुम्हें प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त हुए हैं।
इनके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार रखो |
स्त्री, पुत्र, पुत्री, रिश्ते-नाते,
इसी जन्म तक तुम्हारे साथ हैं, इसे जानो।
मन में इनका अभिमान न करो |
इनका अभिमान करने पर जन्म-मरण का बंधन बनता है,
इससे संसार में आने-जाने का क्रम लम्बा होता जाता है।
यह मानव शरीर हमें पूर्वजन्मों के संचित कर्मों के अनुसार मिला है।
संचित कर्मा को पूर्णतः: समाप्त कर लेना चाहिए ।
इसी जन्म में संचित कर्म समाप्त हो जाएं,
उनका लेश-मात्र भी शेष न रहे,
इसके लिए प्रयास करना चाहिए,
ताकि जन्म-मरण का चक्र इसी जन्म में समाप्त हो जाए।
ऐसा न हो कि कुछ कर्म शेष रह जाएं, वे अगले जन्म में खिंच जाएँ
जिसके लिए फिर से जन्म लेना पड़े ।
इस जीवन का महत्व है, अत: इसी जीवन में संचित कर्मों को समाप्त करो |
संचित कर्मा का अंत होते ही जीवन-मृत्यु के चक्र का अन्त हो जाएगा।
रिश्ते-नातों का संबंध तुम्हें संसार के साथ बाँधता है,
इस बंधन से मुक्त होने का प्रयास करो।
शास्त्र कहते हैं कि रिश्ते-नातों का मोह न करो,
इनके मोह से मुक्त रहने पर ही सच्चा सुख मिलेगा |
सच्चे सुख में ही अक्षय आनंद है।
यही तुम्हारे लिए कल्याणकारी है।

हम किसी धर्मशाला में जाते हैं,
वहाँ कुछ समय तक रूकते हैं,
अल्पकाल के लिए ठहतरते हैं,
जिस उद्देश्य के लिए स्थान-विशेष पर गये थे,
उस उद्देश्य के पूरा होते ही वहाँ से चल देते हैं,
उस धर्मशाला का मोह नहीं करते, वहीं अपना तंबू नहीं गाड़ते,
वैसी ही हमारी स्थिति इस संसार में है।
यह संसार महज एक धर्मशाला है।
अत: धर्मशाला के प्रति यात्री का मोह कैसा?
इस संसार का हम मोह करें, यह ठीक नहीं |
हमें दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए,
अपने कर्त्तव्यों का अच्छी तरह से पालन करना चाहिए,
साथ ही, ईश्वर को भी याद रखना चाहिए |
ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप है, वह कण-कण में है, सर्वत्र है,
वह सभी के हृदय में आनंद की धारा के रूप में है।
हम सब उसकी संतान हैं।
सबकी रचना करनेवाला वही है।
अपने पुत्रों को धरती पर लाने वाला वही है।
उस ईश्वर ने अपने जिस पुत्र को
हमारे पुत्र के रूप में सृजित किया है,
उसका भार उसने हमारे सिर पर सौंपा है।
हम बचपन में उनका लालन-पालन करें,
उसे अच्छी शिक्षा प्रदान करें,
बड़ा होने पर उसे कार्य-व्यापार के लिए कुछ धन दें,
ताकि उससे वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके।
पुत्रों के पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा आदि के लिए आवश्यकतानुसार धन खर्च करो,
परन्तु उसका अभिमान कभी मत करो।
तुम अपने पारिवारिक दायित्व का पालन करो,
किए गये कार्य का श्रेय ईश्वर को दो।
कार्य का जो फल है, उसे भी ईश्वर को समर्पित कर दो।
स्वयं कर्त्तव्य करो परन्तु स्वयं को निर्लिप्त रखो ।

अपने ज्ञान का उपयोग करो |
अपने ज्ञान और विवेक के सहारे अच्छे और बुरे लोगों को पहचानो |
जो अच्छे लोग हैं, उनके संपक में रहो।
जो बुरे लोग हैं, उनसे अपने को दूर रखो |
अच्छे कार्यो को अपने हाथ में लो |
उन्हें अपने प्रयास एवं प्रयत्न से सफल अंजाम दो।
संभव हो तो कीर्ति के रूप में कुछ नई रेखाएँ खींचो।
पीछे मत देखो, मंजिल के लिए हमेशा आगे बढ़ो।
दायित्वों के प्रति सदा सजग रहो,
दायित्वों के निर्वाह में कभी उदासीन मत बनो |
पुरूषार्थ से ही पुरूष की पहचान होती है।
चाहे कितने ही कार्य-दायित्व आएँ, तुम उन्हें पूरा करो।
अपने कार्यो को स्वाभिमानपूर्वक करो,
अपने कार्यों के प्रति मन में अभिमान प्रकट न होने दो |
कार्यों की निष्पत्ति आने पर भी अपने-आप में लीन रहो,
मन में कभी गर्व पैदा हो, तो उसे प्रश्य मत दो।
हे नाना! जबतक तुम्हारा अस्तित्व है,
जबतक तुम्हारी यह जिंदगी है,
तबतक अपने शरीर का भली-भांति ध्यान रखो |
मृत्यु कभी-न-कभी अवश्य दस्तक देगी,
वह एक-न-एक दिन जरूर आएगी,
इसके लिए बेकार की चिन्ता न करो,
उसका पहले से ही शोक क्या करना?
इस संसार में वह किसी को नहीं छोड़ती,
जिसने जन्म लिया है,
उसके पास वह अवश्य आएगी |
ज्ञानी लोग उसकी चिन्ता नहीं करते |
जो मूर्ख हैं, वे फिजूल का मातम मनाते हैं,
वे पहले से ही छाती पीटना शुरू कर देते हैं।
पाँच पंचतत्वों से निर्मित यह शरीर पंचतत्वों से लिया हुआ कर्ज है।
यह शरीर एक दिन पंचतत्व में ही समा जाता है।
प्राणशक्ति को कर्ज का भुगतान करना पड़ता है।

हवा हवा में मिल जाती है,
अग्नि का तेज अग्नि में मिल जाता है,
जल जल में मिल जाता है।
सभी तत्व शरीर छोड़कर पंचभूत में समा जाते हैं।
हमारा शरीर पंचतत्व का अंश है,
वह उसमें एक-न-एक दिन मिलकर समरूप होगा,
यही इस शरीर का सत्य है।
अतः इसके लिए शोक करना ठीक नहीं।
समझदार व्यक्ति के लिए
यह शोक का विषय नहीं।
बच्चों के जन्म पर हर्ष नहीं करना चाहिए,
मन को बाँसों पर नहीं उछालना चाहिए ।
जो आता है, वह जाता है,
यह श्रष्टि का नियम है,
इसे समझना चाहिए |
तभी तुम्हारा मन हर स्थिति में प्रसन्‍न रह सकेगा ।

हे नाना! पृथ्वी बीज को धारण करती है,
बादल उसे वर्षा का जल देते हैं,
सूर्य उसे अपनी किरणें देता है,
कुछ समय के बाद बीज अंकुरित होता है।
बीज का जब जन्म होता है
तो पृथ्वी, सूर्य और बादल खुशियाँ नहीं मनाते,
दसों दिशाओं में नहीं नाचते |
बीज से चाहे विशाल वृक्ष बने,
या बीज अंकुरित होने के बाद मुरझा जाए,
इसके लिए न तो वे हर्ष प्रकट करते हैं,
न कभी शोक मनाते हैं।
जीवन या मृत्यु कुछ भी सामने आए,
वे हर स्थिति में अप्रभावित रहते हैं, समभाव रहते हैं |
पृथ्वी, सूर्य और बादल की तरह हमें भी समभाव रहना चाहिए |
समभाव की स्थिति में रहने पर
फिर शोक या दुख कहाँ?

हे चांदोरकर!
समभाव में रहकर ही तुम मुक्त स्थिति की दिशा में आगे बढ़ सकते हो।
मुक्त स्थिति में रहना ही मोक्ष का साधन है।
जो आया वह जाएगा, यह जीवन का सार |
आखिर कबतक ढोएगा, इन कर्मों का भार ।।
सुख-दुख पल की लहर है, मन को रखना दूर।
साईं सहज दिखाएँगे, मुक्ति मार्ग जरूर ||

// श्री सदयुरुसाईनाथार्षणमस्तु / शुभम्‌ भवतु
इति श्री साई ज्ञानेश्वरी प्रथमों अध्याय” //

ऊँ सद्गुरू श्री साईनाथाय नम: 
© राकेश जुनेजा के अनुमति पोस्ट किया गया
(अगला भाग 14/05/2020)

 


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