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Author Topic: श्री साई ज्ञानेश्वरी - भाग 7  (Read 1561 times)

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Offline trmadhavan

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श्री साई ज्ञानेश्वरी – भाग 7
|| श्री सदगुरू साईनाथाय नम: ।।
।। द्वितीय: अध्याय - कर्म| |

बाबा ने चांदोरकर से कहा--
“हे नाना! अब में तुम्हें बद्धस्थिति के लक्षण बताता हूँ.
भव-भव के बंधन कैसे बंधते हैं,
इसके बारे में बताता हूँ।
मन को एकाग्र करो और ध्यानपूर्वक सुनो ।
जो धर्म-अधर्म को नहीं जानता,
ईश्वर कौन है और उसकी क्‍या शक्ति है, इसे नहीं पहचानता,
जिसके मन में शुद्ध विचार और अच्छी भावनाएँ नहीं हैं,
वह जन्म-मरण के बंधन बाँधता है।
जो कपट-कार्य करता है, कटु वचन बोलता है,
पाप-कर्म में संलग्न रहता है, वह भव-भव का बंधन बाँधता है।
जो साधु, संत एवं सज्जनों का सम्मान नहीं करता,
जो छल-प्रपंच के साथ सांसारिक कर्मों में संलग्न है,
वह सांसारिक बंधनों में बंधता जाता है।
जिसके हृदय में दया, दान, धर्म की भावना नहीं,
जो बेकार क॑ तक-वितक एवं वितंडावाद करे,
वह भव-भव के बंधन में बंधता है ।
इसे अच्छी तरह से समझ लो । 1

आगे बाबा कहते हैं-
“हे नाना!
जो दूसरे से धनराशि लेकर न लौटाए,
जो दूसरों की धनराशि डुबो दे,
जो अपनी धनराशि बढ़ाने के लिए दूसरे की धनराशि रोक ले,
जो अपनी प्रशंसा यत्र-तत्र करता रहे,
जो साधु-सज्जनों की निंदा करे,
वह भव-भव के बंधन बाँधता है।
जो परमार्थ करे, पर उसमें भी प्रपंच हो,
जो पुरूषार्थ करे, उसमें भी प्रपंच हो,
जिसका चित्त रात-दिन छल-प्रपंच में लीन हो,
वह भव-भव के बंधन बांधता है।
जो अपने मित्र को धोखा दे,
जो गुरू से बेर-विरोध रखे,
जो वेद और शात्त्र में श्रद्धा और विश्वास न रखे,
वह भव-भव के बंधन बाँधता है। 2

जो व्यक्ति धर्म-ग्रथों का पाठ करता है,
परन्तु उसका अन्तर्मन शुद्ध नहीं,
वह भव-भव के बंधन बाँधता है। 3

हे नाना!
जो भव-भव के बंधन बाँधता है,
उसे हजारों वर्षों तक सद्गति प्राप्त नहीं होती |
वह ऐसी निम्न योनियों में चला जाता है,
जहाँ उसे किसी संत की वाणी के दो शब्द भी
सुनने को नहीं मिलते |
वह ऐसे अधोलोक में चला जाता है
जहाँ उसे अनन्त काल तक
असीम यातना और कष्ट भोगने पढ़ते हैं। 4

हे नाना!
अब में तुम्हें मुमुक्षु के लक्षण बताऊंगा।
यानि जिसे ईश्वर से मिलने और मोक्ष पाने की इच्छा हो,
उसकी प्रकृति एवं स्वभाव के बारे में बताऊंगा।
ध्यानपूर्वक सुनो, विश्वास एवं सदभाव से सुनो । 5

जो व्यक्ति जीवन में आनेवाले कष्टों का स्वाद चख चुका हो,
जो बद्धस्थिति के काँटों का अनुभव कर चुका हो,
जो संसार में जन्म-मरण के चक्र की व्यथा समझ चुका हो,
जो सत्य और असत्य का अंतर जान गया हो,
ईश्वर सत्य है और जगत मिथ्या है---
इसका ज्ञान जिसे हो गया हो और
जिसके मन में परमात्मा से भेंट करने की इच्छा
यानि सत्य का साक्षात्कार करने की लालसा जग गई हो,
उसे मुमुक्षु जानो | 6

जिसके मन में साधु-संत एवं सज्जनों का
संग करने की इच्छा उत्पन्न हो गई हो,
जिसे यह चमक-दमक वाला संसार
मिथ्या एवं सारहीन लगता हो,
जिसका मन माया के प्रपंच देखकर उब गया हो,
उसे मुमुक्षु जानो | 7

जो प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त इस शरीर को सहर्ष स्वीकार करता है
उसमें संतुष्ट रहता है, उसे मुमुक्षु मानो |
जिसे पाप-कर्म में प्रवृत्त होने से पहले ही डर लगने लगता है,
जो असत्य वचन बोलने से पहले ही हिचकिचाने लगता है,
उसे मुमुक्षु मानो |
अतीत में किए हुए पापकर्मा के प्रति
जिसके मन में पश्चाताप हो,
जिसके मन में अकृत्य के प्रति ग्लानि के भाव हों,
अतीत में वह व्यक्ति कितना ही नीच एवं पतित क्‍यों न रहा हो,
किन्तु अब उसे मुमुक्षु जानो | 8

जो एक क्षण भी सत्संग से दूर रहना नहीं चाहता,
जिसकी जीभ निरन्तर श्री हरि के नाम-जप का रसास्वादन करती है,
जो सांसारिक विषय-वासनाओं को विष के समान मानता है,
और नित्य अध्यात्म-विद्या की साधना करता है,
उसे साधक मानो |
जो एकांत का स्थान ग्रहण कर ले
जो धूनी लगाकर ईश्वर के ध्यान में बैठ जाए,
उसे साधक के पद पर आसीन मानो।
जो श्री हरि की लीला का गुणगान करे
और अपने हृदय में असीम आनंद महसूस करे,
जिसका हृदय भक्ति-भाव से सराबोर हो जाएँ,
उसे साधक मानो |
जो लोक की कोई चिंता न करे,
जो सांसारिक कार्यों की कोई परवाह न करे,
जो हमेशा संत एवं सद्‌गुरू की सेवा मे रत हो,
जिसका चित्त ईश्वर की भक्ति में लीन हो
जो अपने हृदय को यत्र-तत्र न भटकने दे,
तो उसे साधक मानो | 9

हे नाना!
जो मान-अपमान, यश-अपयश, निन्दा-स्तुति को समभाव से,
सहज रूप में स्वीकार करता हो,
जो जन-जन के हृदय में जनार्दन को देखता हो,
जो हर आत्मा में परमात्मा के दर्शन करता हो,
उसे सिद्ध जानो । 10

जो काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मत्सर आदि छ: शत्रुओं के विकार से
तनिक भी प्रभावित न हो,
जो आचारों को संकल्प के साथ निभाता हो,
उसे सिद्ध जानो।
जिसके मन में संकल्प-विकल्प पैदा न होते हों,
जो 'मैं' और 'तुम' के भाव से ग्रस्त न हो,
जिसमें अपने और पराए की भावना बिल्कुल भी न हो,
उसे सिद्ध जानो।
जो अपने देह की चिंता नहीं करता,
जो अपने आप को शरीर नहीं, ब्रह्म समझता है,
जिसका चित्त सुख-दुख के प्रभाव से प्रभावित नहीं होता,
उसे सिद्ध जानो । 11

ईश्वर हर जगह है, उसका सर्वत्र निवास है,
ऐसा कोई स्थान नहीं, जहाँ वह न हो |
माया के प्रभाव के कारण,
हमारी दर्शन-शक्ति क्षीण हो जाती है, भ्रमित हो जाती है,
हम ईश्वर को जान नहीं पाते,
उसे देख नहीं पाते, उसे समझ नहीं पाते | 12

हे नाना! में, तुम, माधवराव, म्हालसापति,
काशीनाथ, अडकर, हरिपंत साठे, काका,
तात्या, गणेश बेरे, वेणू भागचन्द आदि
सारे भक्त वैसे ही हैं,
जैसे मारूती और पंढ़रीनाथ |
इन सभी में ईश्वर का अंश है।
अतः किसी से कभी भी द्वेष न करो |
सभी का ह्दय ईश्वर का निवास-स्थल है ।
सभी के हृदय में ईश्वर का वास है।
इस बात को कभी न भूलो।
ऐसी समझ आने के बाद
तुम्हारे अंदर निर्वेरता की भावना का उदय होगा।
फिर तुम सभी को समभाव से देखने लगोगे |
शत्रु भी तुम्हें मित्रवत दिखाई पड़ेगा |
ऐसी भावना का निरंतर विकास करो | 13

मनुष्य का चित्त चंचल एवं उच्छुंखल होता है।
इसे हमेशा स्थिर एवं शान्त रखने का प्रयास करो |
जिस प्रकार एक मक्‍्खी घूमती रहती हे,
वह कभी यहाँ तो कभी वहाँ जाकर बैठती हे,
अग्नि का ताप महसूस होते ही वह
वहाँ से वापस विपरीत दिशा में तेजी से भागती है,
इसी प्रकार व्यक्ति का मन
सांसारिक रंगीनियाँ देखकर इधर-उधर भटकता है, उसमें उलझता है,
परन्तु सत्य का आभास होते ही, ईश्वर का आभास होते ही,
वह ईश्वर से दूर भागने लगता है। 14

मन को जबतक ईश्वर की ओर न खींचा जाए,
तबतक जन्म-मरण की यात्रा चलती रहेगी |
भव-भव का बंधन समाप्त नहीं होगा |
इसे समाप्त करने के लिए हमें इसी जन्म में प्रयास करना चाहिए |
इसके लिए मानव योनि ही सबसे अधिक उपयुक्त हे,
आगे ऐसा सुअवसर दुबारा मिले या न मिले, कहना कठिन हे | 15

हे नाना! मन को स्थिर करो |
मूर्ति की पूजा करते समय चित्त को स्थिर करते हैं,
चंचल मन को पहले स्थिर करो |
तुम्हारे हृदय में परमेश्वर विराजमान है,
वह कहीं अन्यत्र नहीं हे, मन को स्थिर कर उसकी आराधना करो |
मन की स्थिरता एवं एकाग्रता के बिना ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं |
मानसिक स्थिरता एवं शान्ति के बिना भव-बंधन से मुक्‍त होना संभव नहीं | 16

व्यक्ति को आध्यात्मिक ग्रंथों का
पठन-पाठन, मनन एवं अनुशीलन करना चाहिए |
उसकी शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए,
उसे अपने जीवन में उतारना चाहिए |
सभी विद्याओं में आत्मविद्या सर्वाधिक महत्वपूर्ण हे |
आत्मविद्या देवताओं में ब्रह्मा के समान हे
और पर्वतों में सुमेरू पहाड़ की तरह है।
इस विद्या को जो हृदय पर अंकित कर लेता है,
उसके पास मुक्ति स्वयं चलकर आती है।
ऐसे व्यक्ति के सामने ईश्वर को भी झुकना पडता हे | 17

अध्यात्म विद्या की पायदानों पर आगे बढ़ना अत्यन्त कठिन हे |
हे नाना! मैं तुम्हें मोक्ष-मार्ग पर चलने का
एक अन्य सरल तरीका बताता हूँ।
तुम, मारूति, हरिपन्त, बेरे, काका, तात्या आदि
भक्‍तों को इस आसान तरीके का अनुसरण करना चाहिए
ताकि मोक्ष की दिशा में आसानी से प्रयाण हो | 18

प्रतिदिन सिद्ध-पुरूष के दर्शन करो |
उनके मार्गदर्शन के अनुसार चलो,
वे तुम्हें जागरूक करते हुए आगे बढ़ाएँगे |
इससे तुम पुण्य प्राप्त करोगे |
जीवन की सांझ ढ़लने के समय तुम्हारा अन्त:करण शुद्ध रहेगा।
जीवन के अंतिम समय में
किसी प्रकार की कोई इच्छा न रखो,
मन को एकाग्र कर ईश्वर का ध्यान करो
और मन को प्रभु-चरणों में लीन कर दो। 19

अपने आराध्य देव का सच्चे मन से ध्यान करो |
ध्यान की अवस्था में जीवन का अंत होगा
तो मुक्ति अवश्य मिलेगी |
अभी कुछ समय पहले
बोधेगाँव के बन्नू ने मोक्ष की प्राप्ति की हे |
इसी प्रकार से,
अड़कर और वेणू भी मोक्ष प्राप्त करेंगे | 20

बाबा के नीतिपूर्ण वचन सुनकर नाना ने दोनों हाथ जोडे,
बाबा के श्रीचरणों में सर झुकाया और सद्भावपूर्वक बोले-
“ हे परब्रह्म-मूर्ति! हे गुणगम्भीरा! हे महासिद्ध योगीराज! हे करूणाकर!
आप ही हमारे माँ-बाप हैं, आप परम उदार हैं,
आप ही हमें भव-सागर से पार उतारनेवाले हें | 21

हे नाथ!
हम सब अज्ञानी हें,
आप हमें संसार-सागर के तट से हाथ पकड़कर
सन्मार्ग की ओर ले चलें | 22

आपने आज हमें कर्म का जो दिव्य ज्ञान दिया है,
ज्ञान का ऐसा ही प्रकाश आप हमें आगे भी देते रहें,
आप हमपर ऐसी ही कृपा सदा बनाए रखें। 23

मन पंछी उडता फिरे, नभ का ओर न छोर |
काम, क्रोध, मद, मोह की, क्षण-क्षण खींचो डोर | |
जनम-मरण की श्रृंखला, जनम-जनम का फेर |
सद्गुरू बंधन तोड़ता, लगे न पल भर देर।।

// श्री सदगुरुसाईनाथार्षणमर्तु / शुभम्‌ भवतु
इति श्री साई ज्ञानेश्वरी द्वितीयो अध्याय: //

ऊँ सद्गुरू श्री साईनाथाय नम: 
© राकेश जुनेजा के अनुमति से पोस्ट किया गया
(अगला भाग 04/06/2020)

 


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