OmSaiRam!!
Thursday Message : 05th July 2012
Efficacy of the Touch of Guru's Hand
Where Real or Sad-Guru is the helmsman, he is sure to carry us safely and easily beyond the worldly ocean. The word Sadguru brings to mind Sai Baba. He appears to me, as if standing before me, and applying Udi (scared ashes) to my fore-head and placing his hand of blessing on my head. Then joy fills my heart and love overflows through my eyes. Wonderful is the power of the touch of Guru's hand. The subtle-body (consisting of thoughts and desires), which cannot be burnt by the world dissolving fire, is destroyed by the mere touch of the Guru's hand, and the sins of many past births are cleaned and washed away. Even the speech of those, whose heads feel annoyed when they hear religious and Godly talks, attains calmness. The seeing of Sai Baba�s handsome form, chokes our throat with joy, makes the eyes overflowing with tears, and overwhelms the heart with emotions. It awakens in us ,I am He (Brahman)consciousness, manifests the joy of self-realization, and dissolving the distinction of I and Thou, then and there, makes us one with the Supreme (One Reality). When I begin to read scriptures, at every step I am reminded of my Sadguru, and Sai Baba, assumes the form of Rama or Krishna and makes me listen to his Life. For instance when I sit to listen to Bhagwat, Sai becomes Krishna from top to toe, and I think he sings the Bhagwat or Uddhava Gita (song of teachings by Lord Shri Krishna to His disciple, Uddhava) for the welfare of the devotees. When I begin to chitchat, I am at once put in mind of Sai's stories for enabling me to give suitable illustrations. When I myself start to write anything, I cannot compose a few words or sentences, but when He of his own accord makes me write, I go on writing and writing and there is no end to it. When the disciple's egoism props up, He presses it down with His hand, and giving him His own power, makes him gain His object, and thus satisfies and blesses him. If any one prostrates before Sai and surrenders heart and soul to Him, then unsolicited, all the chief objects of life viz. Dharma (righteousness), Artha (wealth), Kama (Desire) and Moksha (Deliverance), are easily and unsolicitedly attained. Four paths, viz., of Karma, Jnana, Yoga and Bhakti lead us separately to God. Of these, the path of Bhakti is thorny and full of pits and ditches, and thus difficult to traverse, but if you, relying on your Sadguru, avoid the pits and thorns and walk straight, it will take you to the destination (God). So says definitely, Sai Baba.
After philosophising about the Self-Existent Brahman, His Power (Maya) to create this world and the world created, and stating that all these three are ultimately one and the same, the author quotes Sai Baba's words guaranteeing the welfare of the Bhaktas:-
"There will never be any dearth or scarcity, regarding food and clothes, in any devotee'S homes. It is my special characteristic, that I always look to, and provide, for the welfare of those devotees, who worship Me whole-heartedly with their minds ever fixed on Me. Lord Krishna has also said the same in the Gita. Therefore, strive not much for food and clothes. If you want anything, beg of the Lord, leave worldly honours, try to get Lord's grace and blessings, and be honored in His Court. Do not be deluded by worldly honor. The form of the Deity should be firmly fixed in the mind. Let all the senses and mind be ever devoted to the worship of the Lord, let there be no attraction for any other thing; fix the mind in remembering Me always, so that it will not wander elsewhere, towards body, wealth and home. Then it will be calm, peaceful and care-free. This is the sign of the mind, being well engaged in good company. If the mind is vagrant, it cannot be called well-merged."
गुरु के कर-स्पर्श के गुण
जब सद्गगुरु ही नाव के खिवैया हों तो वे निश्चय ही कुशलता तथा सरलतापूर्वक इस भवसागर के पार उतार देंगे । सद्गगुरु शब्द का उच्चारण करते ही मुझे श्री साई की स्मृति आ रही है । ऐसा प्रतीत होता है, मानो वो स्वयं मेरे सामने ही खड़े है और मेरे मस्तक पर उदी लगा रहे हैं । देखो, देखो, वे अब अपनग वरद्-हस्त उठाकर मेरे मस्तक पर रख रहे है । अब मेरा हृदय आनन्द से भर गया है । मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रु बह रहे है । सद्गगुरु के कर-स्पर्श की शक्ति महान् आश्चर्यजनक है । लिंग (सूक्ष्म) शरीर, जो संसार को भष्म करने वाली अग्नि से भी नष्ट किया जा सकता है, वह केवल गुरु के कर-स्पर्श से ही पल भर में नष्ट हो जाता है । अनेक जन्मों के समस्त पाप भी मन स्थिर हो जाते है । श्री साईबाबा के मनोहर रुप के दर्शन कर कंठ प्रफुल्लता से रुँध जाता है, आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती है और जब हृदय भावनाओं से भर जाता है, तब सोडहं भाव की जागृति होकर आत्मानुभव के आननन्द का आभास होने लगता है । मैं और तू का भेद (दैृतभाव) नष्ट हो जाता है और तत्क्षण ही ब्रहृा के साथ अभिन्नता प्राप्त हो जाती है । जब मैं धार्मिक ग्रन्थों का पठन करता हूँ तो क्षण-क्षण में सद्गगुरु की स्मृति हो आती है । बाबा राम या कृष्ण का रुप धारण कर मेरे सामने खड़े हो जाते है और स्वयं अपनी जीवन-कथा मुझे सुनाने लगते है । अर्थात् जब मैं भागवत का श्रवण करता हूँ, तब बाबा श्री कृष्ण का स्वरुप धारण कर लेते हैं और तब मुझे ऐसा प्रतीत होने लगता है कि वे ही भागवत या भक्तों के कल्याणार्थ उदृवगीता सुना रहे है । जब कभी भी मै किसी से वार्त्लाप किया करता हूँ तो मैं बाबा की कथाओं को ध्यान में लाता हूँ, जिससे उनका उपयुक्त अर्थ समझाने में सफल हो सकूँ । जब मैं लिखने के लिये बैठता हूँ, तब एक शब्द या वाक्य की रचना भी नहीं कर पाता हबँ, परन्तु जब वे स्वयं कृपा कर मुझसे लिखवाने लगते है, तब फिर उसका कोई अंत नहीं होता । जब भक्तों में अहंकार की वृद्धि होने लगती है तो वे शक्ति प्रदान कर उसे अहंकारशून्य बनाकर अंतिम ध्येय की प्राप्ति करा देते है तथा उसे संतुष्ट कर अक्षय सुख का अधिकारी बना देते है । जो बाबा को नमन कर अनन्य भाव से उनकी शरण जाता है, उसे फिर कोई साधना करने की आवस्यकता नहीं है । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उसे सहज ही में प्राप्त हो जाते हैं । ईश्वर के पास पहुँचने के चार मार्ग हैं – कर्म, ज्ञान, योग और भक्ति । इन सबमें भक्तिमार्ग अधिक कंटकाकीर्ण, गडढों और खाइयों से परिपूर्ण है । परन्तु यदि सद्गगुरु पर विश्वास कर गडढों और खाइयों से बचते और पदानुक्रमण करते हुए सीधे अग्रसर होते जाओगे तो तुम अपने ध्येय अर्थात् ईश्वर के समीप आसानी से पहुँच जाओगे । श्री साईबाबा ने निश्चयात्मक स्वर में कहा है कि स्वयं ब्रहा और उनकी विश्व उत्पत्ति, रक्षण और लय करने आदि की भिन्न-भिन्न शक्तियों के पृथकत्व में भी एकत्व है । इसे ही ग्रन्थकारों ने दर्शाया है । भक्तों के कल्याणार्थ श्री साईबाबा ने स्वयं जिन वचनों से आश्वासन दिया था, उनको नीचे उदृत किया जाता है –
मेरे भक्तों के घर अन्न तथा वस्त्रों का कभी अभाव नहीं होगा । यह मेरा वैशिष्टय है कि जो भक्त मेरी शरण आ जाते है ओर अंतःकरण से मेरे उपासक है, उलके कल्याणार्थ मैं सदैव चिंतित रहता हूँ । कृष्ण भगवान ने भी गीता में यही समझाया है । इसलिये भोजन तथा वस्त्र के लिये अधिक चिंता न करो । यदि कुछ मांगने की ही अभिलाषा है तो ईश्वर को ही भिक्षा में माँगो । सासारिक मान व उपाधियाँ त्यागकर ईश-कृपा तथा अभयदान प्राप्त करो और उन्ही के दृारा सम्मानित होओ । सांसारिक विभूतियों से कुपथगामी मत बनो । अपने इष्ट को दृढ़ता से पकड़े रहो । समस्त इन्द्रियों और मन को ईश्वरचिंतन में प्रवृत रखो । किसी पदार्थ से आकर्षित न हो, सदैव मेरे स्मरण में मन को लगाये रखो, ताकि वह देह, सम्पत्ति व ऐश्वर्य की ओर प्रवृत न हो । तब चित्त स्थिर, शांत व निर्भय हो जायगा । इस प्रकार की मनःस्थिति प्राप्त होना इस बात का प्रतीक है कि वह सुसंगति में है । यदि चित्त की चंचलता नष्ट न हुई तो उसे एकाग्र नहीं किया जा सकता ।
OM SAI RAM, SRI SAI RAM, JAI JAI SAI RAM!!