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Author Topic: Sanskar Stories !!!  (Read 68731 times)

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Offline ShAivI

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  • बाबा मुझे अपने ह्र्दय से लगा लो, अपने पास बुला लो।
Re: Sanskar Stories !!!
« Reply #60 on: May 09, 2015, 11:07:32 AM »
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  • OM SAI RAM !!!

    Once Krishna and Arjuna were walking towards a village.
    Arjuna was pestering Krishna, asking him
    why Karna should be considered an unparallelled Donor
    & not him ?

    Krishna, turned two mountains into gold.

    Then said, "Arjuna, distribute these two gold mountains
    among villagers, but you must donate every bit of it ".

    Arjuna went into the village, and proclaimed he was going to donate
    gold to every villager, and asked them to gather near the mountain.
    The villagers sang his praises and Arjuna walked towards the
    mountains with a huffed up chest.

    For two days and two nights Arjuna shovelled gold from the mountain
    and donated to each villager. The mountains did not diminish in the
    slightest.

    Most villagers came back and stood in queue within minutes.
    Now Arjuna was exhausted, but not ready to let go of his Ego,
    told Krishna he couldn't go on any longer without rest.

    Then Krishna called Karna and told him to donate every bit
    of the two gold mountains.

    Karna called the villagers, and said
    "Those two Gold mountains are yours. " and walked away.

    Arjuna sat dumbfounded.
    Why hadn't this thought occurred to him?

    Krishna smiled mischievously and told him
    "Arjuna, subconsciously, you were attracted to the gold,
    you regretfully gave it away to each villager, giving them
    what you thought was a generous amount.
    Thus the size of your donation to each villager depended
    only on your imagination.

    Karna holds no such reservations.
    Look at him walking away after giving away a fortune,
    he doesn't expect people to sing his praises,
    he doesn't even care if people talk good or bad about him behind his back.
    That is the sign of a man already on the path of enlightenment".

    Giving with an Expectation of a Return in the form of a Compliment
    or Thanks is not a Gift, then it becomes a Trade.


    OM SAI RAM, SRI SAI RAM, JAI JAI SAI RAM !!!

    JAI SAI RAM !!!

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    Re: Sanskar Stories !!!
    « Reply #61 on: May 19, 2015, 06:29:27 AM »
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  • ॐ साईं राम !!!

    उपदेश

    किसी गाँव के बाहर रास्ते के किनारे एक बड़ा विषधर सर्प रहता था।
    उस मार्ग से निकलने वाले मनुष्यों को डस लेता था,
    इस कारण उसके भय से उस मार्ग से लोगों का आना जाना बन्द हो गया।
    संयोगवश एक दिन एक महात्मा उस गाँव में पधारे, लोगों ने उनकी सेवा-शुश्रूषा की ।
    जब वह महात्मा उस मार्ग से जाने लगे , तब लोगों ने उनको रोका
    और निवेदन किया कि महाराज इस रास्ते में एक बड़ा विषधर सर्प रहता है,
    जो सबको काट लेता है।

    इस पर महात्मा ने उत्तर दिया, हम निर्भय हैं, हमारा साँप कुछ नहीं कर सकता,
    महात्मा उसी मार्ग से चल दिये। सर्प महात्मा को देखकर फुंफकार देता हुआ
    उनकी ओर दौड़ा, महात्मा ने थोड़ी सी मिट्टी उठाकर मन्त्र पढ़ कर उस पर फेंकी,
    सर्प वहीं स्थगित हो गया। इसके पश्चात् महात्मा ने उसके पास जाकर उसको
    उसके पिछले जन्म का ज्ञान कराया और कहने लगे कि तू अपने पिछले
    जन्म में लोगों को अत्यन्त कष्ट देता था, इससे तुझको सर्प योनि मिली,
    अब भी तू नहीं मानता है और लोगों को कष्ट पहुँचाता है, तू सबको डसना छोड़ दे,
    जिससे तुझको भविष्य में अच्छी योनि मिले। सर्प ने कहा जो आज्ञा,
    अब मैं भविष्य में किसी को नहीं काटूँगा।

    महात्मा सर्प को उपदेश देकर चले गये, सर्प ने उस समय से मनुष्यों को डसना
    बन्द कर दिया। अब तो उस सर्प को सब लोग तथा बच्चे बहुत तंग करने लगे,
    कोई उस पर पैर रख निकल जाता, तो कोई उसे लकड़ी से उठा कर फेंक देता,
    बालक उसको पूँछ पकड़ कर घसीटने लगे, साराँश यह कि सर्प अत्यन्त
    निर्बल हो गया, उसको अपना भोजन ढूंढ़ना भी कठिन हो गया था।

    कुछ दिनों बाद उस मार्ग से फिर वही महात्मा निकले तथा देखा कि सर्प
    अत्यन्त निर्बल तथा दीन दशा में पड़ा है। सर्प से महात्मा ने प्रेम तथा
    दया से पूछा-तेरी ऐसी दशा क्यों हो गई? सर्प ने उत्तर दिया कि आपकी
    आज्ञा मानने से।

    ... जिस दिन से आपका उपदेश सुना, मैंने सबको डसना बन्द कर दिया,
    परिणाम यह हुआ कि मनुष्य तथा बालक सभी मुझको तंग करने लगे,
    यहाँ तक कि मुझको अपना भोजन ढूँढ़ना भी कठिन हो गया। इस पर महात्मा ने
    सर्प से कहा कि मैंने तुझको काटने के लिये मना किया था,
    न कि फुंफकार देने के लिये।

    हमें किसी पर आक्रमण नहीं करना चाहिये, पर अपने ऊपर होने वाले हमलों से
    बचाव के लिए शक्ति-सम्पन्न जरूर रहना चाहिये,
    जिससे हर कोई मीठा गुड़ समझ कर चट न करने लगे।”

    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!


    JAI SAI RAM !!!

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    • बाबा मुझे अपने ह्र्दय से लगा लो, अपने पास बुला लो।
    Re: Sanskar Stories !!!
    « Reply #62 on: September 19, 2015, 10:49:04 AM »
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  • ॐ साईं राम !!!

    ऎसा भी प्रेम

    एक फकीर बहुत दिनों तक बादशाह के साथ रहा
    बादशाह का बहुत प्रेम उस फकीर पर हो गया।
    प्रेम भी इतना कि बादशाह रात को भी उसे अपने कमरे में सुलाता।
    कोई भी काम होता, दोनों साथ-साथ ही करते।
    एक दिन दोनों शिकार खेलने गए और रास्ता भटक गए।
    भूखे-प्यासे एक पेड़ के नीचे पहुंचे। पेड़ पर एक ही फल लगा था।
    बादशाह ने घोड़े पर चढ़कर फल को अपने हाथ से तोड़ा।
    बादशाह ने फल के छह टुकड़े किए और
    अपनी आदत के मुताबिक पहला टुकड़ा फकीर को दिया।
    फकीर ने टुकड़ा खाया और बोला,
    'बहुत स्वादिष्ट! ऎसा फल कभी नहीं खाया।
    एक टुकड़ा और दे दें।
    दूसरा टुकड़ा भी फकीर को मिल गया। फकीर ने एक टुकड़ा
    और बादशाह से मांग लिया।
    इसी तरह फकीर ने पांच टुकड़े मांग कर खा लिए।
    जब फकीर ने आखिरी टुकड़ा मांगा,
    तो बादशाह ने कहा, 'यह सीमा से बाहर है।
    आखिर मैं भी तो भूखा हूं।
    मेरा तुम पर प्रेम है, पर तुम मुझसे प्रेम नहीं करते।'.
    और सम्राट ने फल का टुकड़ा मुंह में रख लिया।
    मुंह में रखते ही राजा ने उसे थूक दिया,
    क्योंकि वह कड़वा था।
    राजा बोला, 'तुम पागल तो नहीं, इतना कड़वा फल कैसे खा गए?'
    उस फकीर का उत्तर था, 'जिन हाथों से बहुत मीठे फल खाने को मिले,
    एक कड़वे फल की शिकायत कैसे करूं?
    सब टुकड़े इसलिए लेता गया ताकि आपको पता न चले।

    दोस्तों जँहा प्रेम हो वँहा संदेह न हो।



    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!
    « Last Edit: September 20, 2015, 01:34:40 AM by ShAivI »

    JAI SAI RAM !!!

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    Re: Sanskar Stories !!!
    « Reply #63 on: September 21, 2015, 03:02:43 AM »
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  • ॐ साईं राम !!!

    कहीं पहुँचना है, तो चलना होगा:-

    एक व्यक्ति प्रतिदिन आकर महात्मा बुद्ध का प्रवचन सुना करता था।
    उसका यह क्रम एक माह तक बराबर चला पर
    इस सबका उसके जीवन पर कोई प्रभाव नही पडा।
    महात्मा बुद्ध उसको बारबार समझाते थे कि लोभ,
    द्वेष और मोह पाप के मूल हैं, इन्हें त्यागो।
    परंतु इन बुराइयों से बचना तो दूर वह इनमे और अधिक फँसता गया।

    महात्मा बुद्ध कहते थे कि क्रोध करने वाले पर जो क्रोध करता है,
    उसका अधिक अहित होता है।
    लेकिन जो क्रोध का उत्तर क्रोध से नही देता, वह एक भारी युद्ध जीत लेता है।

    बुद्ध के ऐसे प्रवचन सुनने के बाद भी
    उस व्यक्ति का स्वभाव उग्र से उग्रतर होता जा रहा था।

    एक दिन वह परेशान होकर बुद्ध के पास गया,
    और उन्हें प्रणाम निवेदन करके अपनी समस्या सुनाई।
    बुद्ध ने कहा- “कहाँ के रहने वाले हो..?”
    वो बोला- “श्रावस्ती का..।“
    बुद्ध ने फिर पूछा- “ राजगृह से श्रावस्ती कितनी दूर है...?“
    उसने बता दिया।
    बुद्ध ने पूछा- “कैसे जाते हो वहाँ...?”
    वो बोला- “सवारी से...।“
    बुद्ध ने फिर पूछा- “कितना वक्त लगता है..?“
    उसने हिसाब लगाकर ये भी बताया।

    बुद्ध बोले- “अब ये बताओ, यहाँ बैठे-बैठे श्रावस्ती पहुँच सकते हो..।“
    वो बोला- “ये कैसे हो सकता है..? वहाँ पहुँचने के लिये तो चलना होगा...।“
    बुद्ध बडे प्यार से बोले- “तुमने सही कहा।
    चलने पर ही मँजिल तक पहुँचा जा सकता है।

    इसी तरह अच्छी बातों का असर तभी पडता है जब उन पर अमल किया जाए।
    ज्ञान के अनुसार कर्म ना होने पर वह व्यर्थ जाता है।“

    इसी तरह हर जानी गई अच्छी बात असर तभी लाती है
    जब उसको कर्म में ढाला जाए या उसका व्यवहार किया जाए।

    बिना अमल किया ज्ञान सिर्फ व्यर्थ ही नहीं चला जाता
    बल्कि वह समय के साथ भूल भी जाता है।

    फिर कुछ लोग यह कहते पाए जाते हैं कि वह यह अच्छी बात
    इसलिए नही अपना पाते हैं कि परिस्थिति अनुकूल नहीं है,
    तो जरा विचार कीजिए अनुकूल परिस्थिति इसीलिए तो नहीं है कि
    कोई भी अच्छाई पर अमल ही नही कर रहा है।

    बिना अच्छाई पर अमल किए अच्छी परिस्थिति कैसे आएगी।
    आखिर कहीं से तो शुरुआत करनी होगी॥

    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!

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    Re: Sanskar Stories !!!
    « Reply #64 on: November 14, 2015, 07:25:51 AM »
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  • ॐ साईं राम !!!

    पाप कहां कहां तक

    एक बार एक ऋषि ने सोचा कि लोग गंगा में पाप धोने जाते है,
    तो इसका मतलब हुआ कि सारे पाप गंगा में समा गए और गंगा भी पापी हो गयी .
    अब यह जानने के लिए तपस्या की, कि पाप कहाँ जाता है ?

    तपस्या करने के फलस्वरूप देवता प्रकट हुए , ऋषि ने पूछा कि
    भगवन जो पाप गंगा में धोया जाता है वह पाप कहाँ जाता है ?

    भगवन ने कहा कि चलो गंगा से ही पूछते है ,
    दोनों लोग गंगा के पास गए और
    कहा कि , हे गंगे ! जो लोग तुम्हारे यहाँ पाप धोते है
    तो इसका मतलब आप भी पापी हुई .

    गंगा ने कहा मैं क्यों पापी हुई ,
    मैं तो सारे पापों को ले जाकर समुद्र को अर्पित कर देती हूँ ,

    अब वे लोग समुद्र के पास गए ,
    हे सागर ! गंगा जो पाप आपको अर्पित कर देती है तो
    इसका मतलब आप भी पापी हुए . समुद्र ने कहा मैं क्यों पापी हुआ ,
    मैं तो सारे पापों को लेकर भाप बना कर बादल बना देता हूँ ,

    अब वे लोग बादल के पास गए,
    हे बादलो ! समुद्र जो पापों को भाप बनाकर बादल बना देते है ,
    तो इसका मतलब आप पापी हुए . बादलों ने कहा मैं क्यों पापी हुआ ,
    मैं तो सारे पापों को वापस पानी बरसा कर धरती पर भेज देता हूँ ,
    जिससे अन्न उपजता है , जिसको मानव खाता है .
    उस अन्न में जो अन्न जिस मानसिक स्थिति से उगाया जाता है
    और जिस वृत्ति से प्राप्त किया जाता है ,
    जिस मानसिक अवस्था में खाया जाता है ,
    उसी अनुसार मानव की मानसिकता बनती है

    शायद इसीलिये कहते हैं ..” जैसा खाए अन्न, वैसा बनता मन ”
    अन्न को जिस वृत्ति ( कमाई ) से प्राप्त किया जाता है
    और जिस मानसिक अवस्था में खाया जाता है
    वैसे ही विचार मानव के बन जाते है।

    इसीलिये सदैव भोजन शांत अवस्था में पूर्ण रूचि के साथ
    करना चाहिए , और कम से कम अन्न जिस धन से
    खरीदा जाए वह धन भी श्रम का होना चाहिए।.

    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!


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    Re: Sanskar Stories !!!
    « Reply #65 on: November 15, 2015, 12:56:44 AM »
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  • ॐ साईं राम !!!

    सच्चा सन्यास

    एक व्यक्ति प्यास से बेचैन भटक रहा था. उसे गंगाजी दिखाई पड़ी.
    पानी पीने के लिए नदी की ओर तेजी से भागा लेकिन नदी तट पर पहुंचने से
    पहले ही बेहोश होकर गिर गया.

    थोड़ी देर बाद वहां एक संन्यासी पहुंचे. उन्होंने उसके मुंह पर पानी का छींटा मारा
    तो वह होश में आया. व्यक्ति ने उनके चरण छू लिए और अपने प्राण बचाने के लिए
     धन्यवाद करने लगा.

    संन्यासी ने कहा- बचाने वाला तो भगवान है. मुझमें इतना सामर्थ्य कहां है ?
    शक्ति होती तो मेरे सामने बहुत से लोग मरे मैं उन्हें बचा न लेता. मैं तो सिर्फ
    बचाने का माध्यम बन गया.

    इसके बाद संन्यासी चलने को हुए तो व्यक्ति ने कहा कि मैं भी आपके साथ चलूंगा.
    संन्यासी ने पूछा- तुम कहां तक चलोगे. व्यक्ति बोला- जहां तक आप जाएंगे.

    संन्यासी ने कहा मुझे तो खुद पता ही नहीं कि कहां जा रहा हूं और
    अगला ठिकाना कहां होगा. संन्यासी ने समझाया कि उसकी कोई मंजिल नहीं है
    लेकिन वह अड़ा रहा. दोनों चल पड़े.

    कुछ समय बाद व्यक्ति ने कहा- मन तो कहता है कि आपके साथ ही चलता रहूं
    लेकिन कुछ टंटा गले में अटका है. वह जान नहीं छोड़ता. आपकी ही तरह
    भक्तिभाव और तप की इच्छा है पर विवश हूं.

    संन्यासी के पूछने पर उसने अपने गले का टंटा बताना शुरू किया.
    घर में कोई स्त्री और बच्चा नहीं है. एक पैतृक मकान है उसमें पानी का कूप लगा है.

    छोटा बागीचा भी है. घर से जाता हूं तो वह सूखने लगता है. पौधों का जीवन कैसे नष्ट करूं.
    नहीं रहने पर लोग कूप को गंदा करते हैं. नौकर रखवाली नहीं करते, बैल भूखे रहते हैं.
    बेजुबान जानवर है उसे कष्ट दूं.

    बहुत से संगी-साथी हैं जो मेरे नहीं होने से उदास होते हैं, उनके चेहरे की
    उदासी देखकर उनका मोह भी नहीं छोड़ पाता.

    दादा-परदादा ने कुछ लेन-देन कर रखा था. उसकी वसूली भी देखनी है.
    नहीं तो लोग गबन कर जाएंगे. अपने नगर से भी प्रेम है.

    बाहर जाता हूं तो मन उधर खिंचा रहता है. अपने नगर में समय आनंदमय
    बीत जाता है. लेकिन मैं आपकी तरह संन्यासी बनना चाहता हूं. राह दिखाएं.

    संन्यासी ने उसकी बात सुनी फिर मुस्कराने. लगे. उन्होंने कहा- जो तुम कर रहे हो
    वह जरूरी है. तुम संन्यास की बात मत सोचो. अपना काम करते रहो.

    व्यक्ति उनकी बात समझ तो रहा था लेकिन उस पर संन्यासी बनने की धुन भी सवार थी.

    चलते-चलते उसका नगर आ गया. उसे घर को देखने की इच्छा हुई.
    उसने संन्यासी से बड़ी विनती की- महाराज मेरे घर चलें. कम से कम 15 दिन
    हम घर पर रूकते हैं. सब निपटाकर फिर मैं आपके साथ निकल जाउंगा.

    संन्यासी मुस्कुराने लगे और खुशी-खुशी तैयार हो गए. उसकी जिद पर संन्यासी रूक गए
    और उसे बारीकी से देखने लगे.

    सोलहवें दिन अपना सामान समेटा और निकलने के लिए तैयार हो गए. व्यक्ति ने
    कहा-महाराज अभी थोड़ा काम रहता है. पेड़-पौधों का इंतजाम कर दूं.
    बस कुछ दिन और रूक जाएं निपटाकर चलता हूं.

    संन्यासी ने कहा- तुम हृदय से अच्छे हो लेकिन किसी भी वस्तु से मोह त्यागने को
    तैयार ही न हो. मेरे साथ चलने से तुम्हारा कल्याण नहीं हो सकता.
    किसी भी संन्यासी के साथ तुम्हारा भला नहीं हो सकता.

    उसने कहा- कोई है ही नहीं तो फिर किसके लिए लोभ-मोह करूं.

    संन्यासी बोले- यही तो और चिंता की बात है. समाज को परिवार समझ लो,
    उसकी सेवा को भक्ति. ईश्वर को प्रतिदिन सब कुछ अर्पित कर देना.
    तुम्हारा कल्याण हो इसी में हो जाएगा. कुछ और करने की जरूरत नहीं.

    वह व्यक्ति उनको कुछ दूर तक छोड़ने आया. विदा होते-होते उसने कहा कि
    कोई एक उपदेश तो दे दीजिए जो मेरा जीवन बदल दे.

    संन्यासी हंसे और बोले- सत्य का साथ देना, धन का मोह न करना. उन्होंने विदा ली.

    कुछ साल बाद वह संन्यासी फिर वहां आए. उस व्यक्ति की काफी प्रसिद्धि हो चुकी थी.
    सभी उसे पक्का और सच्चा मानते थे. लोग उससे परामर्श लेते. छोटे-मोटे विवाद में
    वह फैसला देता तो सब मानते.उसका चेहरा बताता था कि संतुष्ट और प्रसन्न है.

    संन्यासी कई दिन तक वहां ठहरे. फिर एक दिन अचानक तैयार हो गए चलने को.

    उस व्यक्ति ने कहा- आप इतनी जल्दी क्यों जाने लगे. आपने तो पूछा भी नहीं कि
    मैं आपके उपदेश के अनुसार आचरण कर रहा हूं कि नहीं.

    संन्यासी ने कहा- मैंने तुम्हें कोई उपदेश दिया ही कहां था ? पिछली बार मैंने देखा कि
     तुम्हारे अंदर निर्जीवों तक के लिए दया है लेकिन धन का मोह बाधा कर रहा था.
    वह मोह तुम्हें असत्य की ओर ले जाता था हालांकि तुम्हें ग्लानि भी होती थी.

    तुम्हारा हृदय तो सन्यास के लिए ऊर्वर था. बीज पहले से ही पड़े थे,
    मैंने तो बस बीजों में लग रही घुन के बारे में बता दिया.
    तुमने घुन हटा दी और फिर चमत्कार हो गया. संन्यास संसार को
    छोड़कर ही नहीं प्राप्त होता. अवगुणों का त्याग भी संन्यास है.

    हम सब में उस व्यक्ति की तरह सदगुण हैं. जरूरत है उन्हें निखारने की.
    निखारने वाले की. अपने काम करने के तरीके में थोड़ा बदलाव करके
    आप चमत्कार कर सकते हैं.

    एक बदलाव आजमाइए- हर किसी से प्रेम से बोलें. उनसे ज्यादा मीठा बोलेंगे
    जिन पर आपका शासन है. आपमें जो मधुरता आ जाएगी वह जीवन बदल देगी.
    कम से कम इसे आजमाकर देखिए.

    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!

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    Re: Sanskar Stories !!!
    « Reply #66 on: November 20, 2015, 01:27:06 AM »
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    त्याग और प्रेम

    एक दिन नारद जी भगवान के लोक को जा रहे थे।
    रास्ते में एक संतानहीन दुखी मनुष्य मिला।

    उसने कहा- नाराज मुझे आशीर्वाद दे दो तो मेरे सन्तान हो जाय।
    नारद जी ने कहा- भगवान के पास जा रहा हूँ।
    उनकी जैसी इच्छा होगी लौटते हुए बताऊँगा।

    नारद ने भगवान से उस संतानहीन व्यक्ति की बात पूछी तो
    उनने उत्तर दिया कि उसके पूर्व कर्म ऐसे हैं कि
    अभी सात जन्म उसके सन्तान और भी नहीं होगी।
    नारद जी चुप हो गये।

    इतने में एक दूसरे महात्मा उधर से निकले,
    उस व्यक्ति ने उनसे भी प्रार्थना की।
    उनने आशीर्वाद दिया और दसवें महीने उसके पुत्र उत्पन्न हो गया।

    एक दो साल बाद जब नारद जी उधर से लौटे तो उनने कहा-
    भगवान ने कहा है- तुम्हारे अभी सात जन्म संतान होने का योग नहीं है।

    इस पर वह व्यक्ति हँस पड़ा।
    उसने अपने पुत्र को बुलाकर नारद जी के चरणों में डाला
    और कहा- एक महात्मा के आशीर्वाद से यह पुत्र उत्पन्न हुआ है।

    नारद को भगवान पर बड़ा क्रोध आया कि व्यर्थ ही वे झूठ बोले।
    मुझे आशीर्वाद देने की आज्ञा कर देते तो मेरी प्रशंसा हो जाती सो तो किया नहीं,
    उलटे मुझे झूठा और उस दूसरे महात्मा से भी तुच्छ सिद्ध कराया।
    नारद कुपित होते हुए विष्णु लोक में पहुँचे और कटु शब्दों में भगवान की भर्त्सना की।

    भगवान ने नारद को सान्त्वना दी और इसका उत्तर कुछ दिन में देने का वायदा किया।
    नारद वहीं ठहर गये।

    एक दिन भगवान ने कहा- नारद लक्ष्मी बीमार हैं-
    उसकी दवा के लिए किसी भक्त का कलेजा चाहिए।
    तुम जाकर माँग लाओ।
    नारद कटोरा लिये जगह- जगह घूमते फिरे पर किसी ने न दिया।

    अन्त में उस महात्मा के पास पहुँचे जिसके आशीर्वाद से पुत्र उत्पन्न हुआ था।
    उसने भगवान की आवश्यकता सुनते ही तुरन्त अपना कलेजा निकालकर दे किया।
    नारद ने उसे ले जाकर भगवान के सामने रख दिया।

    भगवान ने उत्तर दिया- नारद ! यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है।
    जो भक्त मेरे लिए कलेजा दे सकता है उसके लिए मैं भी अपना विधान बदल सकता हूँ।

    तुम्हारी अपेक्षा उसे श्रेय देने का भी क्या कारण है सो तुम समझो।

    जब कलेजे की जरूरत पड़ी तब तुमसे यह न बन पड़ा कि
    अपना ही कलेजा निकाल कर दे देते।
    तुम भी तो भक्त थे।
    तुम दूसरों से माँगते फिरे और उसने बिना आगा पीछे सोचे तुरन्त अपना कलेजा दे दिया।
    त्याग और प्रेम के आधार पर ही मैं अपने भक्तों पर कृपा करता हूँ
    और उसी अनुपात से उन्हें श्रेय देता हूँ।
    नारद चुपचाप सुनते रहे।
    उनका क्रोध शान्त हो गया और लज्जा से सिर झुका लिया।

    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!

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    Re: Sanskar Stories !!!
    « Reply #67 on: November 22, 2015, 12:58:13 AM »
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    लक्ष्मीजी कहाँ रहती हैं ?

    एक बूढे सेठ थे । वे खानदानी रईस थे, धन-ऐश्वर्य प्रचुर मात्रा में था
    परंतु लक्ष्मीजी का तो है चंचल स्वभाव ।
    आज यहाँँ तो कल वहाँ!!

    सेठ ने एक रात को स्वप्न में देखा कि
    एक स्त्री उनके घर के दरवाजे से निकलकर बाहर जा रही है।

    उन्होंने पूछा : ‘‘हे देवी आप कौन हैं ?
    मेरे घर में आप कब आयीं और
    मेरा घर छोडकर आप क्यों और कहाँ जा रही हैं?

    वह स्त्री बोली : ‘‘मैं तुम्हारे घर की वैभव लक्ष्मी हूँ ।
    कई पीढयों से मैं यहाँ निवास कर रही हूँ
    कितुं अब मेरा समय यहाँ पर समाप्त हो गया है
    इसलिए मैं यह घर छोड कर जा रही हूँ।
    मैं तुम पर अत्यंत प्रसन्न हूँ
    क्यों कि जितना समय मैं तुम्हारे पास रही,
    तुमने मेरा सदुपयोग किया।
    संतों को घर पर आमंत्रित करके उनकी सेवा की,
    गरीबों को भोजन कराया, धर्मार्थ कुएँ-तालाब बनवाये,
    गौशाला व प्याऊ बनवायी । तुमने लोक-कल्याण के कई कार्य किये ।
    अब जाते समय मैं तुम्हें वरदान देना चाहती हूँ ।
    जो चाहे मुझसे माँग लो ।

    सेठ ने कहा : ‘‘मेरी चार बहुएँ है,
    मैं उनसे सलाह-मशवरा करके आपको बताऊँगा ।
    आप कृपया कल रात को पधारें ।

    सेठ ने चारों बहुओं की सलाह ली।
    उनमें से एक ने अन्न के गोदाम तो
    दूसरी ने सोने-चाँदी से तिजोरियाँ भरवाने के लिए कहा।

    कितुं सबसे छोटी बहू धार्मिक कुटुंब से आयी थी।
    बचपन से ही सत्संग में जाया करती थी ।

    उसने कहा : ‘‘पिताजी ! लक्ष्मीजी को जाना है तो जायेंगी ही
    और जो भी वस्तुएँ हम उनसे माँगेंगे वे भी सदा नहीं टिकेंगी।
    यदि सोने-चाँदी, रुपये-पैसों के ढेर माँगेगें तो
    हमारी आनेवाली पढी के बच्चे अहंकार और
    आलस में अपना जीवन बिगाड देंगंे।

    इसलिए आप लक्ष्मीजी से कहना कि वे जाना चाहती हैं तो
    अवश्य जायें कितुं हमें यह वरदान दें
    कि हमारे घर में सज्जनों की सेवा-पूजा,
    हरि-कथा सदा होती रहे तथा
    हमारे परिवार के सदस्यों में आपसी प्रेम बना रहे
    क्योंकि परिवार में प्रेम होगा तो विपत्ति के दिन भी आसानी से कट जायेंगे।

    दूसरे दिन रात को लक्ष्मीजी ने स्वप्न में आकर सेठ से पूछा :
    ‘‘तुमने अपनी बहुओं से सलाह-मशवरा कर लिया? क्या चाहिए तुम्हें?

    सेठ ने कहा : ‘‘ हे माँ लक्ष्मी ! आपको जाना है तो प्रसन्नता से जाइये
    परंतु मुझे यह वरदान दीजिये कि मेरे घर में हरि-कथा
    तथा संतो की सेवा होती रहे तथा परिवार के सदस्यों में परस्पर प्रेम बना रहे।

    यह सुनकर लक्ष्मीजी चौंक गयीं और बोलीं : ‘‘यह तुमने क्या माँग लिया।
    जिस घर में हरि-कथा और संतो की सेवा होती हो
    तथा परिवार के सदस्यों में परस्पर प्रीति रहे
    वहाँ तो साक्षात् नारायण का निवास होता है
    और जहाँ नारायण रहते हैं वहाँ मैं तो उनके चरण पलोटती (दबाती) हूँ
    और मैं चाहकर भी उस घर को छोडकर नहीं जा सकती।
    यह वरदान माँगकर तुमने मुझे यहाँ रहने के लिए विवश कर दिया है।

    माता वारहु लक्ष्मी की जय l



    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!

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    Re: Sanskar Stories !!!
    « Reply #68 on: January 16, 2016, 03:42:23 AM »
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  • ॐ साईं राम !!!

    एक चुटकी ज़हर रोजाना

    आरती नामक एक युवती का विवाह हुआ और
     अपने पति और सास के साथ अपने ससुराल में रहने लगी।
    कुछ ही दिनों बाद आरती को आभास होने लगा कि
    उसकी सास के साथ पटरी नहीं बैठ रही है।
    सास पुराने ख़यालों की थी और बहू नए विचारों वाली।
    आरती और उसकी सास का आये दिन झगडा होने लगा।

    दिन बीते, महीने बीते. साल भी बीत गया.
    न तो सास टीका-टिप्पणी करना छोड़ती और न आरती जवाब देना।
    हालात बद से बदतर होने लगे।
    आरती को अब अपनी सास से पूरी तरह नफरत हो चुकी थी.
    आरती के लिए उस समय स्थिति और बुरी हो जाती
    जब उसे भारतीय परम्पराओं के अनुसार दूसरों के सामने
    अपनी सास को सम्मान देना पड़ता।

    अब वह किसी भी तरह सास से छुटकारा पाने की सोचने लगी.
    एक दिन जब आरती का अपनी सास से झगडा हुआ
    और पति भी अपनी माँ का पक्ष लेने लगा तो वह नाराज़ होकर मायके चली आई।

    आरती के पिता आयुर्वेद के डॉक्टर थे.
    उसने रो-रो कर अपनी व्यथा पिता को सुनाई और बोली –
    “आप मुझे कोई जहरीली दवा दे दीजिये जो मैं जाकर
    उस बुढ़िया को पिला दूँ नहीं तो मैं अब ससुराल नहीं जाऊँगी…”

    बेटी का दुःख समझते हुए पिता ने आरती के सिर पर प्यार से हाथ फेरते
    हुए कहा – “बेटी, अगर तुम अपनी सास को ज़हर खिला कर मार दोगी
    तो तुम्हें पुलिस पकड़ ले जाएगी और साथ ही मुझे भी क्योंकि
    वो ज़हर मैं तुम्हें दूंगा. इसलिए ऐसा करना ठीक नहीं होगा.”

    लेकिन आरती जिद पर अड़ गई – “आपको मुझे ज़हर देना ही होगा ….
    अब मैं किसी भी कीमत पर उसका मुँह देखना नहीं चाहती !”
    कुछ सोचकर पिता बोले – “ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी।
    लेकिन मैं तुम्हें जेल जाते हुए भी नहीं देख सकता इसलिए
    जैसे मैं कहूँ वैसे तुम्हें करना होगा ! मंजूर हो तो बोलो ?”

    “क्या करना होगा ?”, आरती ने पूछा.
    पिता ने एक पुडिया में ज़हर का पाउडर बाँधकर आरती के
    हाथ में देते हुए कहा – “तुम्हें इस पुडिया में से सिर्फ एक चुटकी ज़हर
    रोज़ अपनी सास के भोजन में मिलाना है।

    कम मात्रा होने से वह एकदम से नहीं मरेगी बल्कि धीरे-धीरे आंतरिक रूप से
    कमजोर होकर 5 से 6 महीनों में मर जाएगी. लोग समझेंगे
    कि वह स्वाभाविक मौत मर गई.”

    पिता ने आगे कहा -“लेकिन तुम्हें बेहद सावधान रहना होगा
    ताकि तुम्हारे पति को बिलकुल भी शक न होने पाए वरना
    हम दोनों को जेल जाना पड़ेगा ! इसके लिए तुम आज के बाद
    अपनी सास से बिलकुल भी झगडा नहीं करोगी बल्कि उसकी सेवा करोगी।

    यदि वह तुम पर कोई टीका टिप्पणी करती है तो तुम चुपचाप सुन लोगी,
    बिलकुल भी प्रत्युत्तर नहीं दोगी ! बोलो कर पाओगी ये सब ?”
    आरती ने सोचा, छ: महीनों की ही तो बात है, फिर तो छुटकारा मिल ही जाएगा.
    उसने पिता की बात मान ली और ज़हर की पुडिया लेकर ससुराल चली आई.

    ससुराल आते ही अगले ही दिन से आरती ने सास के भोजन में
    एक चुटकी ज़हर रोजाना मिलाना शुरू कर दिया।

    साथ ही उसके प्रति अपना बर्ताव भी बदल लिया.
    अब वह सास के किसी भी ताने का जवाब नहीं देती
    बल्कि क्रोध को पीकर मुस्कुराते हुए सुन लेती।

    रोज़ उसके पैर दबाती और उसकी हर बात का ख़याल रखती।
    सास से पूछ-पूछ कर उसकी पसंद का खाना बनाती,
    उसकी हर आज्ञा का पालन करती।

    कुछ हफ्ते बीतते बीतते सास के स्वभाव में भी परिवर्तन
    आना शुरू हो गया. बहू की ओर से अपने तानों का प्रत्युत्तर
    न पाकर उसके ताने अब कम हो चले थे बल्कि वह कभी कभी
    बहू की सेवा के बदले आशीष भी देने लगी थी।

    धीरे-धीरे चार महीने बीत गए. आरती नियमित रूप से सास को
    रोज़ एक चुटकी ज़हर देती आ रही थी।

    किन्तु उस घर का माहौल अब एकदम से बदल चुका था.
    सास बहू का झगडा पुरानी बात हो चुकी थी. पहले जो सास आरती को गालियाँ
    देते नहीं थकती थी, अब वही आस-पड़ोस वालों के आगे आरती की
    तारीफों के पुल बाँधने लगी थी।

    बहू को साथ बिठाकर खाना खिलाती और सोने से पहले भी
    जब तक बहू से चार प्यार भरी बातें न कर ले, उसे नींद नही आती थी।

    छठा महीना आते आते आरती को लगने लगा कि उसकी सास
    उसे बिलकुल अपनी बेटी की तरह मानने लगी हैं। उसे भी
    अपनी सास में माँ की छवि नज़र आने लगी थी।

    जब वह सोचती कि उसके दिए ज़हर से उसकी सास कुछ ही
     दिनों में मर जाएगी तो वह परेशान हो जाती थी।

    इसी ऊहापोह में एक दिन वह अपने पिता के घर दोबारा जा पहुंची
    और बोली – “पिताजी, मुझे उस ज़हर के असर को ख़त्म करने की
    दवा दीजिये क्योंकि अब मैं अपनी सास को मारना नहीं चाहती … !

    वो बहुत अच्छी हैं और अब मैं उन्हें अपनी माँ की तरह चाहने लगी हूँ!”
    पिता ठठाकर हँस पड़े और बोले –
    “ज़हर ? कैसा ज़हर ?
    मैंने तो तुम्हें ज़हर के नाम पर हाजमे का चूर्ण दिया था … हा हा हा !!!”



    "बेटी को सही रास्ता दिखाये,
    माँ बाप का पूर्ण फर्ज अदा करे"


    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!

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    • बाबा मुझे अपने ह्र्दय से लगा लो, अपने पास बुला लो।
    ESCAPE THE NET OF ‘MAYA’ is Possible only through surrender.
    « Reply #69 on: January 20, 2016, 12:51:52 AM »
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  • OM SAI RAM !!!

    Once upon a time, there lived many fishes in a pond.
    Every day, they would wake up in the morning with a
    dread - the fisherman’s net!

    The fisherman would be there every morning, without fail to cast his net.
    And without fail every morning, many fishes would get caught in it.

    Some would be taken by surprise, some caught napping,
    some would not find any place to hide while some others,
    even though aware of the lurking danger, would simply find
    no means to escape the deadly net.

    Among the fishes was one young fish that was always cheerful.
    It had no fear of the fisherman’s net and it seemed to have
    mastered the art of being alive and staying lively.

    All the senior fishes wondered as to what might be the secret
    of this little fish. How could it manage so well when their
    cumulative experience and wisdom were not enough to save
    them from the net.

    Unable to bear their curiosity and desperate to find a way to escape the net,
    all the fishes went to this little fish one evening.

    “Hey little one! We have all come here to talk to you.”

    “Me!?” said the little fish, “What do you want to speak to me about?”

    “We actually want to ask you something. Tomorrow morning,
    the fisherman will be back again. Are you not scared of getting
    caught in his net?”

    “The little fish smiled, “No! I will not be caught in his net ever!”

    “Share with us little one, the secret behind your confidence and success”,
    the elders pleaded.

    “Very simple”, said the little fish. “When the fisherman comes to
    cast his net, I rush and stay at his feet. That is one place that
    the net can never reach, even if the fisherman wants to cast!
    So, I never get caught.”

    All the fishes simply marvelled at the simplicity of the little fish’s wisdom.

    Similarly when we cling to Lord’s lotus feet, we can escape the net of ‘MAYA’

    Lord Krishna says in Bhagavad-gita 7.14
    “This divine energy of Mine, MAYA, consisting of the three modes of
    material nature, is difficult to overcome. But those who have
    surrendered unto Me can easily cross beyond it.”


    OM SAI RAM, SRI SAI RAM, JAI JAI SAI RAM !!!

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    • बाबा मुझे अपने ह्र्दय से लगा लो, अपने पास बुला लो।
    Re: Sanskar Stories !!!
    « Reply #70 on: April 12, 2016, 02:40:11 AM »
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  • ॐ साईं राम !!!

    सच्ची उपासना

    संत एकनाथ महाराष्ट्र के विख्यात संत थे।
    स्वभाव से अत्यंत सरल और परोपकारी संत एकनाथ के मन में
    एक दिन विचार आया कि प्रयाग पहुंचकर त्रिवेणी में स्नान करें
    और फिर त्रिवेणी से पवित्र जल भरकर रामेश्वरम में चढ़ाएं।
    उन्होंने अन्य संतों के समक्ष अपनी यह इच्छा व्यक्त की।
    सभी ने हर्ष जताते हुए सामूहिक यात्रा का निर्णय लिया।

    एकनाथ सभी संतों के साथ प्रयाग पहुंचे। वहां त्रिवेणी में
    सभी ने स्नान किया। तत्पश्चात अपनी-अपनी कावड़ में
    त्रिवेणी का पवित्र जल भर लिया। पूजा-पाठ से निवृत्त हो
    सबने भोजन किया, फिर रामेश्वरम की यात्रा पर निकल गए।
    जब संतों का यह समूह यात्रा के मध्य में ही था, तभी मार्ग में
    सभी को एक प्यासा गधा दिखाई दिया। वह प्यास से तड़प रहा था
    और चल भी नहीं पा रहा था।

    सभी के मन में दया उपजी, किंतु कावड़ का जल तो रामेश्वरम के निमित्त था,
    इसलिए सभी संतों ने मन कड़ा कर लिया। किंतु एकनाथ ने तत्काल
    अपनी कावड़ से पानी निकालकर गधे को पिला दिया।

    प्यास बुझने के बाद गधे को मानो नवजीवन प्राप्त हो गया और
    वह उठकर सामने घास चरने लगा।

    संतों ने एकनाथ से कहा- "आप तो रामेश्वरम जाकर तीर्थ
    जल चढ़ाने से वंचित हो गए।"

    एकनाथ बोले- "ईश्वर तो सभी जीवों में व्याप्त है। मैंने अपनी कावड़ से
    एक प्यासे जीव को पानी पिलाकर उसकी प्राण रक्षा की। इसी से
    मुझे रामेश्वरम जाने का पुण्य मिल गया।"

    वस्तुत: धार्मिक विधि-विधानों के पालन से बढ़कर मानवीयता का पालन है।
    जिसके निर्वाह पर ही सच्चा पुण्य प्राप्त होता है। सभी धर्मग्रंथों में परोपकार
    को श्रेष्ठ धर्म माना गया है। अत: वही पुण्यदायी भी है।

    सच्ची उपासना भी यही है कि... ईश्वर को कण-कण का वासी मान प्राणी
    मात्र की सेवा में तत्पर रहा जाय।

    "जेती देखौ आत्मा, तेता सालीग्राम।
    साधू प्रतषी देव है, नहि पाथर सूं काम॥"

    अर्थात संसार में जितनी आत्माएँ है वे सब शालिग्राम के समान हैं।
    और सभी सज्जन आत्माएँ साक्षात देव प्रतिमाएँ हैं ऐसे में पत्थर की
    मूर्तियों का कितनी आवश्यकता है॥




    ॐ साईं राम, श्री साईं राम, जय जय साईं राम !!!

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    शिक्षा का निचोड
    « Reply #71 on: April 13, 2016, 05:46:57 AM »
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  • ॐ साईं राम !!!

    शिक्षा का निचोड

    काशी में गंगा के तट पर एक संत का आश्रम था।
    एक दिन उनके एक शिष्य ने पूछा... "गुरुवर! शिक्षा का निचोड़ क्या है?"

    संत ने मुस्करा कर कहा...
    "एक दिन तुम खुद-ब-खुद जान जाओगे।"

    बात आई गई हो गई।

    कुछ समय बाद एक रात संत ने उस शिष्य से कहा...
    "वत्स! इस पुस्तक को मेरे कमरे में तख्त पर रख दो।"

    शिष्य पुस्तक लेकर कमरे में गया
    लेकिन तत्काल लौट आया।
    वह डर से कांप रहा था।

    संत ने पूछा...
    "क्या हुआ? इतना डरे हुए क्यों हो?"

    शिष्य ने कहा...
    "गुरुवर! कमरे में सांप है।"

    संत ने कहा... "यह तुम्हारा भ्रम होगा।
    कमरे में सांप कहां से आएगा।
    तुम फिर जाओ और किसी मंत्र का जाप करना।
    सांप होगा तो भाग जाएगा।"

    शिष्य दोबारा कमरे में गया।
    उसने मंत्र का जाप भी किया
    लेकिन सांप उसी स्थान पर था।
    वह डर कर फिर बाहर आ गया
    और संत से बोला...
    "सांप वहां से जा नहीं रहा है।"

    संत ने कहा... "इस बार दीपक लेकर जाओ।
    सांप होगा तो दीपक के प्रकाश से भाग जाएगा।"

    शिष्य इस बार दीपक लेकर गया
    तो देखा कि वहां सांप नहीं है।
    सांप की जगह एक रस्सी लटकी हुई थी।
    अंधकार के कारण उसे रस्सी का
    वह टुकड़ा सांप नजर आ रहा था।

    बाहर आकर शिष्य ने कहा...
    "गुरुवर! वहां सांप नहीं रस्सी का टुकड़ा है।
    अंधेरे में मैंने उसे सांप समझ लिया था।"

    संत ने कहा... "वत्स, इसी को भ्रम कहते हैं।
    संसार गहन भ्रम जाल में जकड़ा हुआ है।
    ज्ञान के प्रकाश से ही इस भ्रम जाल को
    मिटाया जा सकता है।
    यही शिक्षा का निचोड है।"

    वास्तव में अज्ञानता के कारण हम बहुत सारे
    भ्रमजाल पाल लेते हैं और आंतरिक दीपक के
    अभाव में उसे दूर नहीं कर पाते।
    यह आंतरिक दीपक का प्रकाश निरंतर स्वाध्याय
    और ज्ञानार्जन से मिलता है। जब तक आंतरिक दीपक का
    प्रकाश प्रज्वलित नहीं होगा, लोग भ्रमजाल से मुक्ति नहीं पा सकते।





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    गुरु का स्थान
    « Reply #72 on: April 19, 2016, 01:58:07 AM »
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    गुरु का स्थान

    एक राजा था. उसे पढने लिखने का बहुत शौक था.
    एक बार उसने मंत्री-परिषद् के माध्यम से अपने लिए एक शिक्षक की व्यवस्था की.
    शिक्षक राजा को पढ़ाने के लिए आने लगा.
    राजा को शिक्षा ग्रहण करते हुए कई महीने बीत गए,
    मगर राजा को कोई लाभ नहीं हुआ.
    गुरु तो रोज खूब मेहनत करता थे
    परन्तु राजा को उस शिक्षा का कोई फ़ायदा नहीं हो रहा था.
    राजा बड़ा परेशान, गुरु की प्रतिभा और योग्यता पर सवाल उठाना भी गलत था
    क्योंकि वो एक बहुत ही प्रसिद्द और योग्य गुरु थे.
    आखिर में एक दिन रानी ने राजा को सलाह दी कि
    राजन आप इस सवाल का जवाब गुरु जी से ही पूछ कर देखिये.

    राजा ने एक दिन हिम्मत करके गुरूजी के सामने अपनी जिज्ञासा रखी,
    हे गुरुवर क्षमा कीजियेगा, मैं कई महीनो से आपसे शिक्षा ग्रहण कर रहा हूँ
    पर मुझे इसका कोई लाभ नहीं हो रहा है. ऐसा क्यों है ?

    गुरु जी ने बड़े ही शांत स्वर में जवाब दिया, 
    राजन इसका कारण बहुत ही सीधा सा है…

    गुरुवर कृपा कर के आप शीघ्र इस प्रश्न का उत्तर दीजिये,
    राजा ने विनती की.

    गुरूजी ने कहा, राजन बात बहुत छोटी है परन्तु आप अपने बड़े होने के
    अहंकार के कारण इसे समझ नहीं पा रहे हैं और परेशान और दुखी हैं.
    माना कि आप एक बहुत बड़े राजा हैं. आप हर दृष्टि से मुझ से पद
    और प्रतिष्ठा में बड़े हैं परन्तु यहाँ पर आप का और मेरा रिश्ता एक गुरु और शिष्य का है.
    गुरु होने के नाते मेरा स्थान आपसे उच्च होना चाहिए,
    परन्तु आप स्वंय ऊँचे सिंहासन पर बैठते हैं और
    मुझे अपने से नीचे के आसन पर बैठाते हैं. बस यही एक कारण है जिससे
    आपको न तो कोई शिक्षा प्राप्त हो रही है और न ही कोई ज्ञान मिल रहा है.
    आपके राजा होने के कारण मैं आप से यह बात नहीं कह पा रहा था.

    कल से अगर आप मुझे ऊँचे आसन पर बैठाएं और स्वंय नीचे बैठें तो
    कोई कारण नहीं कि आप शिक्षा प्राप्त न कर पायें.

    राजा की समझ में सारी बात आ गई और उसने तुरंत अपनी गलती को
    स्वीकारा और गुरुवर से उच्च शिक्षा प्राप्त की .

    मित्रों, इस छोटी सी कहानी का सार यह है कि हम रिश्ते-नाते,
    पद या धन वैभव किसी में भी कितने ही बड़े क्यों न हों हम अगर अपने गुरु को
    उसका उचित स्थान नहीं देते तो हमारा भला होना मुश्किल है. और यहाँ स्थान का
    अर्थ सिर्फ ऊँचा या नीचे बैठने से नहीं है, इसका सही अर्थ है कि हम अपने मन में
    गुरु को क्या स्थान दे रहे हैं। क्या हम सही मायने में उनको सम्मान दे रहे हैं या
    स्वयं के ही श्रेस्ठ होने का घमंड कर रहे हैं?
    अगर हम अपने गुरु या शिक्षक के
    प्रति हेय भावना रखेंगे तो हमें उनकी योग्यताओं एवं अच्छाइयों का कोई लाभ नहीं
    मिलने वाला और अगर हम उनका आदर करेंगे, उन्हें महत्व देंगे तो उनका
    आशीर्वाद हमें सहज ही प्राप्त होगा।





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