Join Sai Baba Announcement List


DOWNLOAD SAMARPAN - Nov 2018





Author Topic: रामायण – किष्किन्धाकान्ड - पम्पासर में राम हनुमान भेंट  (Read 1951 times)

0 Members and 1 Guest are viewing this topic.

Offline JR

  • Member
  • Posts: 4611
  • Blessings 35
  • सांई की मीरा
    • Sai Baba
पम्पा सरोवर पर पहुँचने के पश्चात् वहाँ के रमणीय दृश्यों को देख कर राम को फिर सीता का स्मरण हो आया और वे उसके वियोग में विलाप करते हुये लक्ष्मण से कहने लगे, "हे सौमित्र! पम्पा का जल मूँगे जैसा निर्मल है। इसके बीच बीच में खिले हुये कमल पुष्प और क्रीड़ा करते हुये जल पक्षी कितने मनोहारी प्रतीत होते हैं। यदि आज सीता भी अपने साथ होती तो इस दृश्य को देख कर उसका हृदय कितना प्रफुल्लित होता। इस पर चैत्र के मधुमास ने मेरे वियोग-विदग्ध हृदय को कितना दुःखी कर दिया है, यह मैं ही जानता हूँ। हा सीता! मैं इस प्राकृतिक छटा का आनन्द ले रहा हूँ और तुम न जाने किस दशा में रो-रो कर अपना समय बिता रही होगी। मैं कितना अभागा हूँ कि तुम्हें अपने साथ वन में ले आया, परन्तु तुम्हारी रक्षा न कर सका। हा! पर्वत-शिखरों पर नृत्य करते हुये मोरों के साथ कामातुर हुई मोरनियाँ कैसा नृत्य कर रहीं हैं। यदि आज तुम मेरे पास होती तो तुम भी इसी प्रकार नृत्य और क्रीड़ा करके अपने हृदय का उल्लास प्रकट करती। हे लक्ष्मण! जिस स्थान पर सीता होगी, यदि वहाँ भी इसी प्रकार वसन्त खिला होगा तो वह उसके विरह-विदग्ध हृदय को कितनी पीड़ा पहुँचा रहा होगा। वह अवश्य ही मेरे वियोग में रो-रो कर पागल हुई जा रही होगी। मैं जानता हूँ, वह मेरे बिना पानी से बाहर निकली हुई मछली की भाँति तड़प रही होगी। उसकी वही दशा हो रही होगी जो आज मेरी हो रही है, अपितु मुझसे अधिक ही होगी क्योंकि स्त्रियाँ पुरुषों से अधिक भावुक और कोमल होती हैं। यह सम्पूर्ण दृश्य इतना मनोरम है कि यदि सीता मेरे साथ होती तो इस स्थान को छोड़ कर मैं कभी अयोध्या न जाता। सदैव उसके साथ यहीं रमण करता। किन्तु वह तो केवल स्वप्न है। आज तो यह अभागा प्यारी सीता के वियोग में वनों में मारा-मारा फिर रहा है। जिस सीता ने मेरे लिये महलों के सुखों का परित्याग किया, मैं उसकी वन में रक्षा नहीं कर सका। मैं कैसे यह जीवन धारण करूँ? मैं अयोध्या जा कर किसी को क्या बताउँगा? माता कौशल्या को क्या उत्तर दूँगा? मुझे कुछ सुझाई नहीं देता। मैं इस विपत्ति के पहाड़ के नीचे दबा जा रहा हूँ। मुझे इस विपत्ति से छुटकारे का कोई उपाय नहीं सूझ रहा है। मैं यहीं पम्पासर में डूब कर अपने प्राण दे दूँगा। भैया लक्ष्मण! तुम अभी अयोध्या लौट जाओ। वहाँ जा कर सब माताओं और भरत से कह देना कि राम आत्महत्या कर के मर गया। वह सीता के वियोग के दुःख को न सह सका।" यह कहते हुये राम बहुत व्याकुल होकर मूर्छित हो गये।

 बड़े भाई की यह दशा देख कर लक्ष्मण ने उन्हें अपनी गोद में लिटा लिया और उनकी मूर्छा को दूर करने का प्रयत्न करने लगे। जब राम कुछ चैतन्य हुये तो नेत्रों में आँसू भर कर लक्ष्मण बोले, "हे भैया! आप शोक न करें और विश्वास रखें कि रावण तीनों लोकों में कहीं भी चला जाय, हम अवश्य उसे मार कर जनकनन्दिनी का उद्धार करेंगे, आप तो अत्यन्त धैर्यवान पुरुष हैं। आपको ऐसी विपत्ति में सदैव धैर्य रखना चाहिये। हम लोग अपने धैर्य, उत्साह और पुरुषार्थ के बल पर ही रावण को परास्त कर के सीता को मुक्त करा सकेंगे। आप धैर्य रखें"

लक्ष्मण के उत्साहवर्धक वचनों ने राम को फिर उत्साहित किया। वे उठ कर खड़े हुये और आगे चले। चलते-चलते जब वे ऋष्यमूक पर्वत के निकट पहुँचे तो अपने साथियों के साथ उस पर्वत पर बैठे हुये सुग्रीव ने इन दोनों तेजस्वी युवकों को देखा। इन्हें देख कर सुग्रीव के मन में शंका हुई कि सम्भवतः बालि ने इन दोनों धनुर्धारी वीरों को उसके विरुद्ध युद्ध करने के लिये भेजा हो। सुग्रीव को इस प्रकार चिन्तित देख कर हनुमान बोले, "हे वानराधिपते! आप सहसा ऐसे चिन्तित क्यों हो गये?" हनुमान के प्रश्न को सुन कर सुग्रीव बोले, "मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि ये दोनों पुरुष बालि के भेजे हये गुप्तचर हैं और तपस्वियों का भेष धारण कर के हमारी खोज में आये हैं। हमें शीघ्र इन दोनों का उचित प्रबन्ध करना चाहिये अन्यथा हम सब बालि के हाथों मारे जायेंगे।"

सुग्रीव के मुख से ये आशंका भरे शब्द सुन कर हनुमान बोले, "हे राजन्! मुझे आपकी आशंका के पीछे कोई बल नहीं दिखाई देता। फिर भी आपको धैर्यपूर्वक इस विषय में विचार करना चाहिये। कोई भी राजा अधीर हो कर संकट से बचने का न तो कोई उपाय ही सोच पाता है और न उससे मुक्ति पा सकता है।" फिर भी अपने विचार पर दृढ़ रहते हुये सुग्रीव ने कहा, "हनुमान! चाहे तुम कुछ भी कहो, मेरा अनुमान यही है कि ये दोनों बालि के भेजे हुये गुप्तचर ही हैं। इसलिये हमें इनकी ओर से निश्चिन्त नहीं होना चाहिये। तुम वेष बदल कर इनके पास जाओ और इनका सम्पूर्ण भेद ज्ञात करो। यदि मेरा सन्देह ठीक हो तो शीघ्र इस विषय में कुछ करना।"

 
सुग्रीव का निर्देश पा कर हनुमान तपस्वी का भेष धारण कर राम-लक्ष्मण के पास पहुँचे। उन दोनों को प्रणाम करके वे अत्यन्त विनीत एवं मृदु वाणी में बोले, "हे वीरों! आप दोनों पराक्रमी एवं देवताओं के समान प्रभावशाली दिखाई देते हैं। आप लोग इस वन्य प्रदेश में किसलिये भ्रमण कर रहे हैं? आपकी आजानुभुजाओं और वीर वेश को देखते हुये ऐसा प्रतीत होता है कि आप इन्द्र को भी परास्त करने की क्षमता रखते हैं, परन्तु फिर भी आपका मुखमण्डल कुम्हलाया हुआ है और आप ठण्डी साँसे भर रहे हैं। इसका क्या कारण है? कृपया आप अपना परिचय दीजिये। आप इस प्रकार मौन क्यों हैं? यहाँ पर्वत पर वानरश्रेष्ठ सुग्रीव रहते हैं जिनके बड़े भाई बालि ने उन्हें घर से निकाल दिया है। उन्हीं की आज्ञा से मैं आपका परिचय प्राप्त करने के लिये यहाँ आया हूँ। मेरा नाम हनुमान है। मैं भी वानर जाति का हूँ। अब आप कृपया अपना परिचय दीजिये। मैं सुग्रीव का मन्त्री हूँ और इच्छानुकूल वेष बदलने की क्षमता रखता हूँ। मैंने आपको सब कुछ बता दिया है। आशा है आप भी अपना परिचय दे कर मुझे कृतार्थ करेंगे और वन में पधारने का कारण बतायेंगे।"

हनुमान की चतुराई भरी स्पष्ट बातों को सुन कर रामचन्द्र लक्ष्मण से बोले, "हे सौमित्र! इनकी बातों से मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है कि ये महामनस्वी वानरराज सुग्रीव के सचिव हैं और उन्हीं के हित के लिये यहाँ आये हैं। इसलिये तुम निर्भय हो कर इन्हें सब कुछ बता दो।" इस प्रकार राम की आज्ञा पा कर लक्ष्मण हनुमान से बोले, "हे वानरश्रेष्ठ! सुग्रीव के गुणों से हम परिचित हो चुके हैं। हम उन्हीं से मिलने के लिये उन्हें खोजते हुये यहाँ तक आये हैं। आप सुग्रीव के कथनानुसार जो मैत्री की बात चला रहे हैं वह हमें स्वीकार है। जहाँ तक हमारे परिचय का प्रश्न है, हम अयोध्यापति महाराज दशरथ के पुत्र हैं। ये श्री रामचन्द्र जी उनके ज्येष्ठ पुत्र और मैं इनका छोटा भाई लक्ष्मण हूँ। चौदह वर्ष का वनवास पाकर ये वन में रहने के लिये अपनी धर्मपत्नी सीता और मेरे साथ आये थे। रावण ने सीता जी का हरण कर लिया है। इसी विचार से हम लोग महाराज सुग्रीव के पास आये हैं। सम्भव है, वे हमारी कुछ सहायता कर सकें। हे वानरराज! जिस चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के चरणों में सम्पूर्ण भूमण्डल के राजा-महाराजा सिर झुकाते थे और उनके शरणागत होते थे, उन्हीं महाराज के ज्येष्ठ पुत्र आज समय के फेर से सुग्रीव की शरण में आये हैं। ताकि महाराज सुग्रीव अपने दलबल सहित इनकी सहायता करें।" इतना कहते हुये लक्ष्मण का कण्ठ अवरुद्ध हो गया और वे अधिक न बोल सके।

लक्ष्मण के वचन सुन कर हनुमान बोले, "हे लक्ष्मण! आप लोगो के आगमन से आज हमारा देश पवित्र हुआ। हम लोग आपके दर्शनों से कृतार्थ हुये। जिस प्रकार आप लोग विपत्ति में हैं, उसी प्रकार सुग्रीव पर भी विपत्ति की घटाएँ छाई हुईं हैं। बालि ने उनकी पत्नी का हरण कर लिया है तथा उन्हें राज्य से निकाल दिया है। इसीलिये वे इस पर्वत पर निर्जन स्थान में निवास करते हैं। फिर भी मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि वे सब प्रकार से आपकी सहायता करेंगे।" इतना कह कर हनुमान बड़े आदर से रामचन्द्र और लक्ष्मण को सुग्रीव के पास ले गये।

सबका मालिक एक - Sabka Malik Ek

Sai Baba | प्यारे से सांई बाबा कि सुन्दर सी वेबसाईट : http://www.shirdi-sai-baba.com
Spiritual India | आध्य़ात्मिक भारत : http://www.spiritualindia.org
Send Sai Baba eCard and Photos: http://gallery.spiritualindia.org
Listen Sai Baba Bhajan: http://gallery.spiritualindia.org/audio/
Spirituality: http://www.spiritualindia.org/wiki

 


Facebook Comments