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Indian Spirituality => Stories from Ancient India => Topic started by: JR on March 29, 2007, 07:03:47 AM

Title: सातों वारों की कथाएं - रविवार (इतवार) व्रत
Post by: JR on March 29, 2007, 07:03:47 AM
रविवार (इतवार) व्रत


विधि ः  सर्व मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु रविवार का व्रत श्रेष्ठ है ।  इस व्रत की विधि इस प्रकार है ।  प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त हो स्वच्छ वस्त्र धारण करें ।  शान्तचित्त होकर परमात्मा का स्मरण करें ।  भोजन एक समय से अधिक नहीं करना चाहिये ।  भोजन तथा फलाहार सूर्य के प्रकाश रहते ही कर लेना उचित है ।  यदि निराहार रहने पर सूर्य छिप जाये तो दुसरे दिन सूर्य उदय हो जाने पर अर्घ्य देने के बाद ही भोजन करें ।  व्रत के अंत में व्रत कथा सुननी चाहिये ।  व्रत के दिन नमकीन तेलयुक्त भोन कदापि ग्रहण न करें ।  इस व्रत के करने से मान-सम्मान बढ़ता है तथा शत्रुओं का क्षय होता है ।  आँख की पीड़ा के अतिरिक्त अन्य सब पीड़ायें दूर होती है ।

कथा ः  एक बुढ़िया थी ।  उसका नियम था प्रति रविवार को सबेरे ही स्नान आदि कर घर को गोबर से लीपकर फिर भोजन तैयकर कर भगवान को भोग लगाकर स्वयं भोजन करती थी ।  ऐसा व्रत करने से उसका घर अनेक प्रकार के धन धान्य से पूर्ण था ।  श्री हरि की कृपा से घर में किसी प्रकार का विघ्न या दुःख नहीं था ।  सब प्रकार से घर में आनन्द रहता था ।  इस तरह कुछ दिन बीत जाने पर उसकी एक पड़ोसन जिसकी गौ का गोबर वह बुढ़िया लाया करती थी विचार करने लगी कि यह वृद्घा सर्वदा मेरी गौ का गोबर ले जाती है ।  इसलिये अपनी गौ को घर के भीतर बांधने लग गई ।  बुढ़िया को गोबर न मिलने से रविवार के दिन अपने घर को न लीप सकी ।  इसलिये उसने न तो भोजन बनाया न भगवान को भोग लगाया तथा स्वयं भी उसने भोजन नहीं किया ।  इस प्रकार उसने निराहार व्रत किया ।  रात्रि हो गई और वह भूखी सो गई ।  रात्रि में भगवान ने उसे स्वप्न दिया और भोजन न बनाने तथा लगाने का कारण पूछा।  वृद्घा ने गोबर न मिलने का कारण सुनाया तब भगवान ने कहा कि मातात हम तुमको ऐसी गौ देते है जिससे सभी इच्छाएं पूर्ण होती है ।  क्योंकि तुम हमेशा रविवार को गौ के गोबर से लीपकर भोजन बनाकर मेरा भोग लगाकर खुद भोजन करती हो ।  इससे मैं खुश होकर तुमको वरदान देता हूँ ।  निर्धन को धन और बांझ स्त्रियों को पुत्र देकर दुःखों को दूर करता हूँ तथा अन्त समय में मोक्ष देता हूँ ।  स्वप्न में ऐसा वरदान देकर भगवान तो अन्तर्दान हो गए और वृद्घा की आँख खुली तो वह देखती है कि आँगन में एक अति सुन्दर गौ और बछड़ा बँधे हुए है ।  वह गाय और बछड़े को देखकर अति प्रसन्न हुई और उसको घर के बाहर बाँध दिया और वहीं खाने को चारा डाल दिया ।  जब उसकी पड़ोसन बुढ़िया ने घर के बाहर एक अति सुन्दर गौ और बछड़े को देखा तो द्घेष के कारण उसका हृदय जल उठा और उसने देखा कि गाय ने सोने का गोबर किया है तो वह उस गाय का गोबर ले गई और अपनी गाय का गोबर उसकी जगह रख गई ।  वह नित्यप्रति ऐसा ही करती रही और सीधी-साधी बुढ़िया को इसकी खबर नहीं होने दी ।  तब सर्वव्यापी ईश्वर ने सोचा कि चालाक पड़ोसन के कर्म से बुढ़िया ठगी जा रही है तो ईश्वय ने संध्या के समय अपनी माया से बड़े जोर की आँधी चला दी ।  बुढ़िया ने आँधि के भय से अपनी गौ को भीतर बाँध लिया ।  प्रातःकाल जब वृद्गा ने देखा कि गौ ने सोने का गोबर दिया तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही और वह प्रतिदिन गऊ को घर के भीतर ही बाँधने लगी ।  उधर पड़ोसन ने देखा कि बुढ़िया गऊ को घर के भीतर बांधने लगी है और उसका सोने का गोबर उठाने गा दैँव नहीं चलता तो वह ईर्ष्या और डाह से जल उठी और कुछ उपाय न देख पड़ोसन ने उस देश के राजा की सभा में जाकर कहा महाराज मेरे पड़ोस में एक वृद्घा के पास ऐसा गऊ है जो आप जैसे राजाओं के ही योग्य है, वह नित्य सोने का गोबर देती है ।  आप उस सोने से प्रजा का पालन करिये ।  वह वृद्घा इतने सोने का क्या करेगी ।  राजा ने यह बात सुनकर अपने दूतों को वृद्घा के घर से गऊ लाने की आज्ञा दी ।  वृद्घा प्रातः ईश्वर का भोग लगा भोजन ग्रहण करने जा ही रही थी कि राजा के कर्मचारी गऊ खोलकर ले गये ।  वृद्घा काफी रोई-चिल्लाई किन्तु कर्मचारियों के समक्ष कोई क्या कहता ।  उस दिन वृद्घा गऊ के वियोग में भोजन न खा सकी और रात भर रो-रो कर ईश्वर से गऊ को पुनः पाने के लिये प्रार्थना करती रही ।  उधर राजा गऊ को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ लिकिन सुबह जैसे ही वह उठा, सारा महल गोबर से भरा दिखाई देने लगा ।  राजा यह देख घबरा गया ।  भगवान ने रात्रि में राजा को स्वप्न में कहा कि हे राजा ।  गाय वृद्घा को लौटाने में ही तेरा भला है ।  उसके रविवार के व्रत से प्रसन्न होकर मैंने उसे गाय दी थी ।  प्रातः होते ही राजा ने वृद्घा को बुलाकर बहुत से धन के साथ सम्मान सहित गऊ बछड़ा लौटा दिया ।  उसकी पड़ोसिन को बुलाकर उचित दण्ड दिया ।  इतना करने के बाद राजा के महल से गन्दगी दूर हुई ।  उसी दिन से राजा ने नगरवासियों को आदेस दिया कि राज्य की तथा अपनी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति के लिये रविवार का व्रत रखा करो ।  व्रत करने से नगर के लोग सुखी जीवन व्यतीत करने लगे ।  कोई भी बीमारी तथा प्रकृति का प्रकोप उस नगर पर नहीं होता था ।  सारी प्रजा सुख से रहने लगी ।

   
रविवार की आरती

कहुँ लगि आरती दास करेंगे, सकल जगत जाकि जोति विराजे ।। टेक
सात समुद्र जाके चरण बसे, कहा भयो जल कुम्भ भरे हो राम ।
कोटि भानु जाके नख की शोभा, कहा भयो मन्दिर दीप धरे हो राम ।
भार उठारह रोमावलि जाके, कहा भयो शिर पुष्प धरे हो राम ।
छप्पन भोग जाके नितप्रति लागे, कहा भयो नैवेघ धरे हो राम ।
अमित कोटि जाके बाजा बाजे, कहा भयो झनकार करे हो राम ।
चार वेद जाके मुख की शोभा, कहा भयो ब्रहम वेद पढ़े हो राम ।
शिव सनकादिक आदि ब्रहमादिक, नारद मुनि जाको ध्यान धरें हो राम ।
हिम मंदार जाको पवन झकेरिं, कहा भयो शिर चँवर ढुरे हो राम ।
लख चौरासी बन्दे छुड़ाये, केवल हरियश नामदेव गाये ।। हो रामा ।
Title: Re: सातों वारों की कथाएं - सोमवार व्रत कथा
Post by: JR on March 29, 2007, 07:04:57 AM
सोमवार व्रत कथा


विधि – सोमवार का व्रत साधारणतया दिन के तीसरे पहर तक होता है ।  व्रत में फलाहार या पारण का कोई खास नियम नहीं है ।  किन्तु यह आवश्यक है कि दिन रात में केवल एक समय भोजन करें ।  सोमवार के व्रत में शिवजी पार्वती का पूजन करना चाहिये ।  सोमवार के व्रत तीन प्रकार के है – साधारण प्रति सोमवार, सौम्य प्रदोष और सोलह सोमवार विधि तीनों की एक जैसी है ।  शिव पूजन के पश्चात् कथा सुननी चाहिये ।  प्रदोष व्रत, सोलह सोमवार, प्रति सोमवार कथा तीनों की अलग अलग है जो आगे लिखी गई है ।

कथा – एक बहुत धनवान साहूकार था, जिसके घर धन आदि किसी प्रकार की कमी नहीं थी ।  परन्तु उसको एक दुःख था कि उसके कोई पुत्र नहीं था ।  वह इसी चिन्ता में रात-दि रहता था ।  वह पुत्र की कामना के लिये प्रति सोमवार को शिवजी का व्रत और पूजन किया करता था ।  तथा सांयकाल को शिव मन्दिर में जाकर शिवजी के श्री विग्रह के सामने दीपक जलाया करता था ।  उसके इस भक्तिभाव को देखकर एक समय श्री पार्वती जी ने शिवजी महाराज से कहा कि महाराज ।  यह साहूकार आप का अनन्य भक्त है और सदैव आपका व्रत और पूजन बड़ी श्रद्घा से करता है ।  इसकी मनोकामना पूर्ण करनी चाहिये ।

शिवजी ने कहा – हे पार्वती ।  यह संसार कर्मश्रेत्र है ।  जैसे किसान खेत में जैसा बीज बोता है वैसा ही फल काटता है ।  उसी तरह इस संसार में प्राणी जैसा कर्म करते है वैसा ही फल भोगते है ।  पार्वती जी ने अत्यंत आग्रह से कहा – महाराज ।  जब यह आपका अनन्य भक्त है और इसको अगर किसी प्रकार का दुःख है तो उसको अवश्य दूर करना चाहिये क्योंकि आप सदैव अपने भक्तों पर दयालु होते है और उनके दुःखों को दूर करते है ।  यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो मनुष्य आपकी सेवा तथा व्रत क्यों करेंगें ।

पार्वती जी का ऐसा आग्रह देख शिवजी महाराज कहने लगे – हे पार्वती ।  इसके कोई पुत्र नहीं है इसी चिन्ता में यह अति दुःखी रहता है ।  इसके भाग्य में पुत्र न होने पर भी मैं इसको पुत्र की प्राप्ति का वर देता हूँ ।  परन्तु यह पुत्र केवल बारह वर्ष तक जीवित रहेगा ।  इसके पश्चात् वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा ।  इससे अधिक मैं और कुछ इसके लिये नहीं कर सकता ।  यह सब बातें साहूकर सुन रहा था ।  इससे उसको न कुछ प्रसन्नता हुई और न ही कुछ दुःख हुआ ।  वह पहले जैसा ही शिवजी महाराज का व्रत और पूजन करता रहा ।  कुछ काल व्यतीत हो जाने पर साहूकार की स्त्री गर्भवती हुई और दसवें महीने उसके गर्व से एक अति सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुई ।  साहूकार के घर में बहुत खुशी मनाई गई परन्तु साहूकार ने उसकी केवल बारह वर्ष की आयु जान कोई अधिक प्रसन्नता प्रकट नहीं की और न ही किसी को भेद ही बताया ।  जब वह बालक 11 वर्ष का हो गया तो उस बालक की माता ने उसके पिता से विवाह आदि के लिये कहा तो वह साहूकार कहने लगा कि अभी मैं इसका विवाह नहीं करुँगा ।  अपने पुत्र को काशी जी पढ़ने के लिये भेजूंगा ।  फिर साहूकार ने अपने साले अर्थात् बालक के मामा को बुला उसको बहुत-सा धन देकर कहा तुम इस बालक को काशी में पढ़ने के लिये ले जाओ और रास्ते में जिस स्थान पर भी जाओ यज्ञ करते और ब्राहमणों को भोजन कराते जाओ ।

वह दोनों मामा-भानजे यज्ञ करते और ब्राहमणों को भोजन कराते जा रहे थे ।  रास्ते में उनको एक शहर पड़ा ।  उस शहर में राजा की कन्या का विवाह था और दूसरे राजा का लड़का जो विवाह कराने के लिये बारात लेकर आया था वह एक आँख से काना था ।  उसके पिता को इस बात की बड़ी चिन्ता थी कि कहीं वर को देख कन्या के माता पिता विवाह में किसी प्रकार की अड़चन पैदा न कर दें ।  इस कारण जब उसने अति सुन्दर सेठ के लड़के को देखा तो उसने मन में विचार किया कि क्यों न दरवाजे के समय इस लड़के से वर का काम चलाया जाये ।  ऐसा विचार कर वर के पिता ने उस लड़के और मामा से बात की तो वे राजी हो गये ।  फिर उस लड़के को वर के कपड़े पहना तथा घोड़ी पर चढ़ा दरवाजे पर ले गये और सब कार्य प्रसन्नता से पूर्ण हो गया ।  फिर वर के पिता ने सोचा कि यदि विवाह कार्य भी इसी लड़के से करा लिया जाये तो क्या बुराई है ।  ऐसा विचार कर लड़के और उसके मामा से कहा – यदि आप फेरों का और कन्यादान के काम को भी करा दें तो आपकी बड़ी कृपा होगी ।  मैं इसके बदले में आपको बहुत कुछ धन दूंगा तो उन्होंने स्वीकार कर लिया ।  विवाह कार्य भी बहुत अच्छी तरह से सम्पन्न हो गाय ।  परन्तु जिस समय लड़का जाने लगा तो उसने राजुकुमारी की चुन्दड़ी के पल्ले पर लिख दिया कि तेरा विवाह तो मेरे साथ हुआ है परन्तु जिस राजकुमार के साथ तुमको भेजेंगे वह एक आँख से काना है ।  मैं काशी जी पढ़ने जा रहा हूँ ।  लड़के के जाने के पश्चात् राजकुमारी ने जब अपनी चुन्दड़ी पर ऐसा लिखा हुआ पाया तो उसने राजकुमार के साथ जाने से मना कर दिया और कहा कि यह मेरा पति नहीं है ।  मेरा विवाह इसके साथ नहीं हुआ है ।  वह तो काशी जी पढ़ने गया है ।  राजकुमारी के माता-पिता ने अपनी कन्या को विदा नहीं किया और बारात वापस चली गयी ।  उधर सेठ का लड़का और उसका मामा काशी जी पहुँच गए ।  वहाँ जाकर उन्होंने यज्ञ करना और लड़के ने पढ़ना शुरु कर दिया ।  जब लड़के की आयु बारह साल की हो गई उस दिन उन्होंने यज्ञ रचा रखा था कि लड़के ने अपने मामा से कहा – मामा जी आज मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं है ।  मामा ने कहा – अन्दर जाकर सो जाओ ।  लड़का अन्दर जाकर सो गया और थोड़ी देर में उसके प्राण निकल गए ।  जब उसके मामा ने आकर देखा तो वह मुर्दा पड़ा है तो उसको बड़ा दुःख हुआ और उसने सोचा कि अगर मैं अभी रोना-पीटना मचा दूंगा तो यज्ञ का कार्य अधूरा रह जाएगा ।  अतः उसने जल्दी से यज्ञ का कार्य समाप्त कर ब्राहमणों के जाने के बाद रोना-पीटना आरम्भ कर दिया ।  संयोगवश उसी समय शिव-पार्वती जी उधर से जा रहे थे ।  जब उन्होंने जोर जोर से रोने की आवाज सुनी तो पार्वती जी कहने लगी – महाराज ।  कोई दुखिया रो रहा है इसके कष्ट को दूर कीजिये ।  जब शिव-पार्वती ने पास जाकर देखा तो वहां एक लडका मुर्दा पड़ा था ।  पार्वती जी कहने लगी – महाराज यह तो उसी सेठ का लड़का है जो आपके वरदान से हुआ था ।  शिवजी कहने लगे – हे पार्वती ।  इसकी आयु इतनी ही थी सो यह भोग चुका ।  तब पार्वती जी ने कहा – हे महाराज ।  इस बालक को और आयु दो नहीं तो इसके माता-पिता तड़प-तड़प कर मर जाएंगें ।  पार्वती जी के बार-बार आग्रह करने पर शिवजी ने उसको जीवन वरदान दिया और शिवजी महाराज की कृपा से लड़का जीवित हो गया ।  शिवजी-पार्वती कैलाश चले गये ।

वह लड़का और मामा उसी प्रकार यज्ञ करते तथा ब्राहमणों को भोजन कराते अपने घर की ओर चल पड़े ।  रास्ते में उसी शहर में आए जहां उसका विवाह हुआ था ।  वहां पर आकर उन्होंने यज्ञ आरंभ कर दिया तो उस लड़के के ससुर ने उसको पहचान लिया और अपने महल में ले जाकर उसकी बड़ी खातिर की ।  साथ ही बहुत दास-दासियों सहित आदर पूर्वक लड़की और जमाई को विदा किया ।  जब वे अपने शहर के निकट आये तो मामा ने कहा मैं पहले घर जाकर खबर कर आता हूँ ।  जब उस लड़के का मामा घर पहुँचा तो लड़के के माता-पिता घर की छत पर बैठे थे और यह प्रण कर रखा था कि यदि हमारा पुत्र सकुशल लौट आया तो हम राजी-खुशी नीचे आ जायेंगें ।  नहीं तो छत से गिरकर अपने प्राण दे देंगे ।  इतने में उस लड़के के मामा ने आकर यह समाचार दिया कि आपका पुत्र आ गया है तो उनको विश्वास नहीं आया ।  उसके मामा ने शपथ पूर्वक कहा कि आपका पुत्र अपनी स्त्री के साथ बहुत सा धन लेकर आया है तो सेठ ने आनन्द के साथ उसका स्वागत किया और बड़ी प्रसन्नता के साथ रहने लगे ।  इसी प्रकार से जो कोई भी सोमवार के व्रत को धारण करता है अथवा इस कथा को पढ़ता है और सुनता है उसकी समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती है ।
Title: Re: सातों वारों की कथाएं - सोलह सोमवार व्रत
Post by: JR on March 29, 2007, 07:07:17 AM
सोलह सोमवार व्रत

कथा – मृत्यु लोक में विवाह करने की इच्छा करके एक समय श्री भूतनाथ महादेव जी माता पार्वती के साथ पधारे वहाँ वे ब्रमण करते-करते विदर्भ देशांतर्गत अमरावती नाम की अतीव रमणीक नगरी में पहुँचे ।  अमरावती नगरी अमरपुरी के सदृश सब प्रकार के सुखों से परिपूर्ण थी ।  उसमें वहां के महाराज का बनाया हुआ अति रमणीक शिवजी का मन्दिर बना था ।  उसमें भगवान शंकर भगवती पार्वती के साथ निवास करने लगे ।  एक समय माता पार्वती प्राणपति को प्रसन्न देख के मनोविनोद करने की इच्छा से बोली – हे माहाराज,  आज तो हम तुम दोनों चौसर खेलें ।  शिवजी ने प्राणप्रिया की बात को मान लिया और चौसर खेलने लगे ।  उसी समय इस स्थान पर मन्दिर का पुजारी ब्राहमण मन्दिर मे पूजा करने को आया ।  माताजी ने ब्राहमण से प्रश्न किया कि पुजारी जी बताओ कि इस बाजी में दोनों में किसकी जीत होगी ।   ब्राहमण बिना विचारे ही शीघ्र बोल उठा कि महादेवजी की जीत होगी ।  थोड़ी देर में बाजी समाप्त हो गई और पार्वती जी की विजय हुई ।  अब तो पार्वती जी ब्राहमण को झूठ बोलने के अपराध के कारण श्राप देने को उघत हुई ।  तब महादेव जी ने पार्वती जी को बहुत समझाया परन्तु उन्होंने ब्राहमण को कोढ़ी होने का श्राप दे दिया ।  कुछ समय बाद पार्वती जी के श्रापवश पुजारी के शरीर में कोढ़ पैदा हो गया ।  इस प्रकार पुजारी अनेक प्रकार से दुखी रहने लगा ।  इस तरह के कष्ट भोगते हुए जब बहुत दिन हो गये तो देवलोक की अप्सराएं शिवजी की पूजा करने उसी मन्दिर मे पधारी और पुजारी के कष्ट को देखकर बड़े दया भाव से उससे रोगी होने का कारण पूछने लगी – पुजारी ने निःसंकोच सब बाते उनसे कह दी ।  वे अप्सरायें बोली – हे पुजारी ।  अब तुम अधिक दुखी मत होना ।  भगवान शिवजी तुम्हारे कष्ट को दूर कर देंगे ।  तुम सब बातों में श्रेष्ठ षोडश सोमवार का व्रत भक्तिभाव से करो ।  तब पुजारी अप्सराओं से हाथ जोड़कर विनम्र भाव से षोडश सोमवार व्रत की विधि पूछने लगा ।  अप्सरायें बोली कि जिस दिन सोमवार हो उस दिन भक्ति के साथ व्रत करें ।  स्वच्छ वस्त्र पहनें आधा सेर गेहूँ का आटा ले ।  उसके तीन अंगा बनाये और घी, गुड़, दीप, नैवेघ, पुंगीफल, बेलपत्र, जनेऊ का जोड़ा, चन्दन, अक्षत, पुष्पादि के द्घारा प्रदोष काल में भगवान शंकर का विधि से पूजन करे तत्पश्चात अंगाऔं में से एक शिवजी को अर्पण करें बाकी दो को शिवजी का प्रसाद समझकर उपस्थित जनों में बांट दें ।  और आप भी प्रसाद पावें ।  इस विधि से सोलह सोमवार व्रत करें ।  तत्पश्चात् सत्रहवें सोमवार के दिन पाव सेर पवित्र गेहूं के आटे की बाटी बनायें ।  तदनुसार घी और गुड़ मिलाकर चूरमा बनावें ।  और शिवजी का भोग लगाकर उपस्थित भक्तों में बांटे पीछे आप सकुटुंबी प्रसादी लें तो भगवान शिवजी की कृपा से उसके मनोरथ पूर्ण हो जाते है ।  ऐसा कहकर अप्सरायें स्वर्ग को चली गयी ।  ब्राहमण ने यथाविधि षोड़श सोमवार व्रत किया तथा भगवान शिवजी की कृपा से रोग मुक्त होकर आनन्द से रहने लगा ।  कुछ दिन बाद जब फिर शिवजी और पार्वती उस मन्दिर में पधारे, तब ब्राहमण को निरोग देखकर पार्वती ने ब्राहमण से रोग-मुक्त होने का कारण पूछा तो ब्राहमण ने सोलह सोमवार व्रत कथा कह सुनाई ।  तब तो पार्वती जी अति प्रसन्न होकर ब्राहमण से व्रत की विधि पूछकर व्रत करने को तैयार हुई ।  व3त करने के बाद उनकी मनोकामना पूर्ण हुई तथा उनके रुठे हुये पुत्र स्वामी कार्तिकेय स्वयं माता के आज्ञाकारी हुए परन्तु कार्तिकेय जी को अपने विचार परिवर्तन का रहस्य जानने की इच्छा हुई और माता से बोले – हे माताजी आपने ऐसा कौन सा उपाय किया जिससे मेरा मन आपकी ओर आकर्षित हुआ ।  तब पार्वती जी ने वही षोड़श सोमवार व्रत कथा उनको सुनाई ।  स्वामी कार्तिकजी बोले कि इस व्रत को मैं भी करुंगा क्योंकि मेरा प्रियमित्र ब्राहमण दुखी दिल से परदेश चला गया है ।  हमें उससे मिलने की बहुत इच्छा है ।  कार्तिकेयजी ने भी इस व्रत को किया और उनका प्रिय मित्र मिल गया ।  मित्र ने इस आकस्मिक मिलन का भेद कार्तिकेयजी से पूछा तो वे बोले – हे मित्र ।  हमने तुम्हारे मिलने की इच्छा करके सोलह सोमवार का व्रत किया था ।  अब तो ब्राहमण मित्र को भी अपने विवाह की बड़ी इच्छा हुई ।  कार्तिकेयजी से व्रत की विधि पूछी और यथाविधि व्रत किया ।  व्रत के प्रभाव से जब वह किसी कार्यवश विदेश गया तो वहाँ के राजा की लड़की का स्वयंवर था ।  राजा ने प्रण किया था कि जिस राजकुमार के गले में सब प्रकार ऋंडारित हथिनी माला डालेगी मैं उसी के साथ प्यारी पुत्री का विवाह कर दूंगा ।  शिवजी की कृपा से ब्राहमण भी स्वयंवर देखने की इच्छा से राजसभा में एक ओर बैठ गया ।  नियत समय पर हथिनी आई और उसने जयमाला उस ब्राहमण के गले में डाल दी ।  राजा की प्रतिज्ञा के अनुसार बड़ी धूमधाम से कन्या का विवाह उस ब्राहमण के साथ कर दिया और ब्राहमण को बहुत-सा धन और सम्मान देकर संतुष्ट किया ।  ब्राहमण सुन्दर राजकन्या पाकर सुख से जीवन व्यतीत करने लगा ।

एक दिन राजकन्या ने अपने पति से प्रश्न किया ।  हे प्राणनाथ आपने ऐसा कौन-सा भारी पुण्य किया जिसके प्रभाव से हथिनी ने सब राजकुमारों को छोड़कर आपको वरण किया ।  ब्राहमण बोला – हे प्राणप्रिये ।  मैंने अपने मित्र कार्तिकेयजी के कथनानुसार सोलह सोमवार का व्रत किया था जिसके प्रभाव से मुझे तुम जैसी स्वरुपवान लक्ष्मी की प्राप्ति हुई ।  व्रत की महिमा को सुनकर राजकन्या को बड़ा आश्चर्य हुआ और वह भी पुत्र की कामना करके व्रत करने लगी ।  शिवजी की दया से उसके गर्भ से एक अति सुन्दर सुशील धर्मात्मा विद्घान पुत्र उत्पन्न हुआ ।  माता-पिता दोनों उस देव पुत्र को पाकर अति प्रसन्न हुए ।  और उनका लालन-पालन भली प्रकार से करने लगे ।

जब पुत्र समझदार हुआ तो एक दिन अपने माता से प्रश्न किया कि मां तूने कौन-सा तप किया है जो मेरे जैसा पुत्र तेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ ।  माता ने पुत्र का प्रबल मनोरथ जान के अपने किये हुए सोलह सोमवार व्रत को विधि सहित पुत्र के सम्मुख प्रकट किया ।  पुत्र ने ऐसे सरल व्रत को सब तरह के मनोरथ पूर्ण करने वाला सुना तो वह भी इस व्रत को राज्याधिकार पाने की इच्छा से हर सोमवार को यथाविधि व्रत करने लगा ।  उसी समय एक देश के वृद्घ राजा के दूतों ने आकर उसको एक राजकन्या के लिये वरण किया ।  राजा ने अपनी पुत्री का विवाह ऐसे सर्वगुण सम्पन्न ब्राहमण युवक के साथ करके बड़ा सुख प्राप्त किया ।

वृद्घ राजा के दिवंगत हो जाने पर यही ब्राहमण बालक गद्दी पर बिठाया गया, क्योंकि दिवंगत भूप के कोई पुत्र नहीं था ।  राज्य का अधिकारी होकर भी वह ब्राहमण पुत्र अपने सोलह सोमवार के व्रत को कराता रहा ।  जब सत्रहवां सोमवार आया तो विप्र पुत्र ने अपनी प्रियतमा से सब पूजन सामग्री लेकर शिवालय में चलने के लिये कहा ।  परन्तु प्रियतमा ने उसकी आज्ञा की परवाह नहीं की ।  दास-दासियों द्घारा सब सामग्रियं शिवालय पहुँचवा दी और आप नहीं गई ।  जब राजा ने शिवजी का पूजन किया, तब एक आकाशवाणी राजा के प्रति हुई ।  राजा ने सुना कि हे राजा ।  अपनी इस रानी को महल से निकाल दे नहीं तो तेरा सर्वनाश कर देगी ।  वाणी को सुनकर राजा के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा और तत्काल ही मंत्रणागृह में आकर अपने सभासदों को बुलाकर पूछने लगा कि हे मंत्रियों ।  मुझे आज शिवजी की वाणी हुई है कि राजा तू अपनी इस रानी को निकाल दे नहीं तो तेरा सर्वनाश कर देगी ।  मंत्री आदि सब बड़े विस्मय और दुःख में डूब गये क्योंकि जिस कन्या के साथ राज्य मिला है ।  राजा उसी को निकालने का जाल रचता है, यह कैसे हो सकेगा ।  अंत में राजा ने उसे अपने यहां से निकाल दिया ।  रानी दुःखी हृदय भाग्य को कोसती हुई नगर के बाहर चली गई ।  बिना पदत्राण, फटे वस्त्र पहने, भूख से दुखी धीरे-धीरे चलकर एक नगर में पहुँची ।

वहाँ एक बुढ़िया सूत कातकर बेचने को जाती थी ।  रानी की करुण दशा देख बोली चल तू मेरा सूत बिकवा दे ।  मैं वृद्घ हूँ, भाव नहीं जानती हूँ ।  ऐसी बात बुढ़िया की सुत रानी ने बुढ़िया के सर से सूत की गठरी उतार अपने सर पर रखी ।  थोड़ी देर बाद आंधी आई और बुढ़िया का सूत पोटली के सहित उड़ गया ।  बेचारी बुढ़िया पछताती रह गई और रानी को अपने साथ से दूर रहने को कह दिया ।  अब रानी एक तेली के घर गई, तो तेली के सब मटके शिवजी के प्रकोप के कारण चटक गये ।  ऐसी दशा देख तेली ने रानी को अपने घर से निकाल दिया ।  इस प्रकार रानी अत्यंत दुख पाती हुई सरिता के तट पर गई तो सरिता का समस्त जल सूख गया ।  तत्पश्चात् रानी एक वन में गई, वहां जाकर सरोवर में सीढ़ी से उतर पानी पीने को गई ।  उसके हाथ से जल स्पर्श होते ही सरोवर का नीलकमल के सदृश्य जल असंख्य कीड़ोमय गंदा हो गया ।

रानी ने भाग्य पर दोषारोपण करते हुए उस जल को पान करके पेड़ की शीतल छाया में विश्राम करना चाहा ।  वह रानी जिस पेड़ के नीचे जाती उस पेड़ के पत्ते तत्काल ही गिरते चले गये ।  वन, सरोवर के जल की ऐसी दशा देखकर गऊ चराते ग्वालों ने अपने गुंसाई जी से जो उस जंगल में स्थित मंदिर में पुजारी थे कही ।  गुंसाई जी के आदेशानुसार ग्वाले रानी को पकड़कर गुंसाई के पास ले गये ।  रानी की मुख कांति और शरीर शोभा देख गुंसाई जान गए ।  यह अवश्य ही कोई विधि की गति की मारी कोई कुलीन अबला है ।  ऐसा सोच पुजारी जी ने रानी के प्रति कहा कि पुत्री मैं तुमको पुत्री के समान रखूंगा ।  तुम मेंरे आश्रम में ही रहो ।  मैं तुम को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने दूंगा ।  गुंसाई के ऐसे वचन सुन रानी को धीरज हुआ और आश्रम में रहने लगी ।

आश्रम में रानी जो भोजन बनाती उसमें कीड़े पड़ जाते, जल भरकर लाती उसमें कीड़े पड़ जाते ।  अब तो गुंसाई जी भी दुःखी हुए और रानी से बोले कि हे बेटी ।  तेरे पर कौन से देवता का कोप है, जिससे तेरी ऐसी दशा है ।  पुजारी की बात सुन रानी ने शवजी की पूजा करने न जाने की कथा सुनाई तो पुजारी शिवजी महाराज की अनेक प्रकार से स्तुति करते हुए रानी के प्रति बोले कि पुत्री तुम सब मनोरथों के पूर्ण करने वाले सोलह सोमवार व्रत को करो ।  उसके प्रभाव से अपने कष्ट से मुक्त हो सकोगी ।  गुंसाई की बात सुनकर रानी ने सोलह सोमवार व्रत को विधिपूर्वक सम्पन्न किया और सत्रहवें सोमवार को पूजन के प्रभाव से राजा के हृदय में विचार उत्पन्न हुआ कि रानी को गए बहुत समय व्यतीत हो गया ।  न जाने कहां-कहां भटकती होगी, ढूंढना चाहिये ।

यह सोच रानी को तलाश करने चारों दिशाओं में दूत भेजे ।  वे तलाश करते हुए पुजारी के आश्रम में रानी को पाकर पुजारी से रानी को मांगने लगे, परन्तु पुजारी ने उनसे मना कर दिया तो दूत चुपचाप लौटे और आकर महाराज के सन्मुख रानी का पता बतलाने लगे ।  रानी का पता पाकर राजा स्वयं पुजारी के आश्रम में गये और पुजारी से प्रार्थना करने लगे कि महाराज ।  जो देवी आपके आश्रम में रहती है वह मेरी पत्नी ही ।  शिवजी के कोप से मैंने इसको त्याग दिया था ।  अब इस पर से शिवजी का प्रकोप शांत हो गया है ।  इसलिये मैं इसे लिवाने आया हूँ ।  आप इसेमेरे साथ चलने की आज्ञा दे दीजिये ।

गुंसाई जी ने राजा के वचन को सत्य समझकर रानी को राजा के साथ जाने की आज्ञा दे दी ।  गुंसाई की आज्ञा पाकर रानी प्रसन्न होकर राजा के महल में आई ।  नगर में अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे ।  नगर निवासियों ने नगर के दरवाजे पर तोरण बन्दनवारों से विविध-विधि से नगर सजाया ।  घर-घर में मंगल गान होने लगे ।  पंड़ितों ने विविध वेद मंत्रों का उच्चारण करके अपनी राजरानी का आवाहन किया ।  इस प्रकार रानी ने पुनः अपनी राजधानी में प्रवेश किया ।  महाराज ने अनेक प्रकार से ब्राहमणों को दानादि देकर संतुष्ट किया ।

याचकों को धन-धान्य दिया ।  नगरी में स्थान-स्थान पर सदाव्रत खुलवाये ।  जहाँ भूखों को खाने को मिलता था ।  इस प्रकार से राजा शिवजी की कृपा का पात्र हो राजधानी में रानी के साथ अनेक तरह के सुखों का भोग भोग करते सोमवार व्रत करने लगे ।  विधिवत् शिव पूजन करते हुए, लोक के अनेकानेक सुखों को भोगने के पश्चात शिवपुरी को पधारे ऐसे ही जो मनुष्य मनसा वाचा कर्मणा द्घारा भक्ति सहित सोमवार का व्रत पूजन इत्यादि विधिवत् करता है वह इस लोक में समस्त सुखोंक को भोगकर अन्त में शिवपुरी को प्राप्त होता है ।  यह व्रत सब मनोरथों को पूर्ण करने वाला है ।         

सोमवार की आरती

जय शिव ओंकारा, भज शिव ओंकारा।
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव अद्र्धागी धारा॥ \हर हर हर महादेव॥

एकानन, चतुरानन, पंचानन राजै।
हंसासन, गरुड़ासन, वृषवाहन साजै॥ \हर हर ..
दो भुज चारु चतुर्भुज, दशभुज ते सोहे।
तीनों रूप निरखता, त्रिभुवन-जन मोहे॥ \हर हर ..
अक्षमाला, वनमाला, रुण्डमाला धारी।
त्रिपुरारी, कंसारी, करमाला धारी। \हर हर ..
श्वेताम्बर, पीताम्बर, बाघाम्बर अंगे।
सनकादिक, गरुड़ादिक, भूतादिक संगे॥ \हर हर ..
कर मध्ये सुकमण्डलु, चक्र शूलधारी।
सुखकारी, दुखहारी, जग पालनकारी॥ \हर हर ..
ब्रह्माविष्णु सदाशिव जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर में शोभित ये तीनों एका। \हर हर ..
त्रिगुणस्वामिकी आरती जो कोई नर गावै।
कहत शिवानन्द स्वामी मनवान्छित फल पावै॥ \हर हर ..

 (2) हर हर हर महादेव।
सत्य, सनातन, सुन्दर शिव! सबके स्वामी।
अविकारी, अविनाशी, अज, अन्तर्यामी॥ हर हर .
आदि, अनन्त, अनामय, अकल कलाधारी।
अमल, अरूप, अगोचर, अविचल, अघहारी॥ हर हर..
ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, तुम त्रिमूर्तिधारी।
कर्ता, भर्ता, धर्ता तुम ही संहारी॥ हरहर ..
रक्षक, भक्षक, प्रेरक, प्रिय औघरदानी।
साक्षी, परम अकर्ता, कर्ता, अभिमानी॥ हरहर ..
मणिमय भवन निवासी, अति भोगी, रागी।
सदा श्मशान विहारी, योगी वैरागी॥ हरहर ..
छाल कपाल, गरल गल, मुण्डमाल, व्याली।
चिताभस्मतन, त्रिनयन, अयनमहाकाली॥ हरहर ..
प्रेत पिशाच सुसेवित, पीत जटाधारी।
विवसन विकट रूपधर रुद्र प्रलयकारी॥ हरहर ..
शुभ्र-सौम्य, सुरसरिधर, शशिधर, सुखकारी।
अतिकमनीय, शान्तिकर, शिवमुनि मनहारी॥ हरहर ..
निर्गुण, सगुण, निर†जन, जगमय, नित्य प्रभो।
कालरूप केवल हर! कालातीत विभो॥ हरहर ..
सत्, चित्, आनन्द, रसमय, करुणामय धाता।
प्रेम सुधा निधि, प्रियतम, अखिल विश्व त्राता। हरहर ..
हम अतिदीन, दयामय! चरण शरण दीजै।
सब विधि निर्मल मति कर अपना कर लीजै। हरहर ..

(3) शीश गंग अर्धग पार्वती सदा विराजत कैलासी।
नंदी भृंगी नृत्य करत हैं, धरत ध्यान सुखरासी॥
शीतल मन्द सुगन्ध पवन बह बैठे हैं शिव अविनाशी।
करत गान-गन्धर्व सप्त स्वर राग रागिनी मधुरासी॥
यक्ष-रक्ष-भैरव जहँ डोलत, बोलत हैं वनके वासी।
कोयल शब्द सुनावत सुन्दर, भ्रमर करत हैं गुंजा-सी॥
कल्पद्रुम अरु पारिजात तरु लाग रहे हैं लक्षासी।
कामधेनु कोटिन जहँ डोलत करत दुग्ध की वर्षा-सी॥
सूर्यकान्त सम पर्वत शोभित, चन्द्रकान्त सम हिमराशी।
नित्य छहों ऋतु रहत सुशोभित सेवत सदा प्रकृति दासी॥
ऋषि मुनि देव दनुज नित सेवत, गान करत श्रुति गुणराशी।
ब्रह्मा, विष्णु निहारत निसिदिन कछु शिव हमकू फरमासी॥
ऋद्धि सिद्ध के दाता शंकर नित सत् चित् आनन्दराशी।
जिनके सुमिरत ही कट जाती कठिन काल यमकी फांसी॥
त्रिशूलधरजी का नाम निरन्तर प्रेम सहित जो नरगासी।
दूर होय विपदा उस नर की जन्म-जन्म शिवपद पासी॥
कैलाशी काशी के वासी अविनाशी मेरी सुध लीजो।
सेवक जान सदा चरनन को अपनी जान कृपा कीजो॥
तुम तो प्रभुजी सदा दयामय अवगुण मेरे सब ढकियो।
सब अपराध क्षमाकर शंकर किंकर की विनती सुनियो॥

(4) अभयदान दीजै दयालु प्रभु, सकल सृष्टि के हितकारी।
भोलेनाथ भक्त-दु:खगंजन, भवभंजन शुभ सुखकारी॥
दीनदयालु कृपालु कालरिपु, अलखनिरंजन शिव योगी।
मंगल रूप अनूप छबीले, अखिल भुवन के तुम भोगी॥
वाम अंग अति रंगरस-भीने, उमा वदन की छवि न्यारी। भोलेनाथ
असुर निकंदन, सब दु:खभंजन, वेद बखाने जग जाने।
रुण्डमाल, गल व्याल, भाल-शशि, नीलकण्ठ शोभा साने॥
गंगाधर, त्रिसूलधर, विषधर, बाघम्बर, गिरिचारी। भोलेनाथ ..
यह भवसागर अति अगाध है पार उतर कैसे बूझे।
ग्राह मगर बहु कच्छप छाये, मार्ग कहो कैसे सूझे॥
नाम तुम्हारा नौका निर्मल, तुम केवट शिव अधिकारी। भोलेनाथ ..
मैं जानूँ तुम सद्गुणसागर, अवगुण मेरे सब हरियो।
किंकर की विनती सुन स्वामी, सब अपराध क्षमा करियो॥
तुम तो सकल विश्व के स्वामी, मैं हूं प्राणी संसारी। भोलेनाथ ..
काम, क्रोध, लोभ अति दारुण इनसे मेरो वश नाहीं।
द्रोह, मोह, मद संग न छोड़ै आन देत नहिं तुम तांई॥
क्षुधा-तृषा नित लगी रहत है, बढ़ी विषय तृष्णा भारी। भोलेनाथ ..
तुम ही शिवजी कर्ता-हर्ता, तुम ही जग के रखवारे।
तुम ही गगन मगन पुनि पृथ्वी पर्वतपुत्री प्यारे॥
तुम ही पवन हुताशन शिवजी, तुम ही रवि-शशि तमहारी। भोलेनाथ
पशुपति अजर, अमर, अमरेश्वर योगेश्वर शिव गोस्वामी।
वृषभारूढ़, गूढ़ गुरु गिरिपति, गिरिजावल्लभ निष्कामी।
सुषमासागर रूप उजागर, गावत हैं सब नरनारी। भोलेनाथ ..
महादेव देवों के अधिपति, फणिपति-भूषण अति साजै।
दीप्त ललाट लाल दोउ लोचन, आनत ही दु:ख भाजै।
परम प्रसिद्ध, पुनीत, पुरातन, महिमा त्रिभुवन-विस्तारी। भोलेनाथ ..
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, शेष मुनि नारद आदि करत सेवा।
सबकी इच्छा पूरन करते, नाथ सनातन हर देवा॥
भक्ति, मुक्ति के दाता शंकर, नित्य-निरंतर सुखकारी। भोलेनाथ ..
महिमा इष्ट महेश्वर को जो सीखे, सुने, नित्य गावै।
अष्टसिद्धि-नवनिधि-सुख-सम्पत्ति स्वामीभक्ति मुक्ति पावै॥
श्रीअहिभूषण प्रसन्न होकर कृपा कीजिये त्रिपुरारी। भोलेनाथ ..
Title: Re: सातों वारों की कथाएं - मंगलवार व्रत कथा
Post by: JR on March 29, 2007, 07:08:55 AM
मंगलवार व्रत कथा

विधि – सर्व सुख, रक्त विकार, राज्य सम्मान तथा पुत्र की प्राप्ति के लिये मंगलवार का व्रत उत्तम है ।  इस व्रत में गेहूँ और गुड़ का ही भोजन करना चाहिये ।  भोजन दिन रात में एक बार ही ग्रहण करना ठीक है ।  व्रत 21 सप्ताह तक करें ।  मंगलवार के व्रत से मनुष्य के समस्त दोष नष्ट हो जाते है ।  व्रत के पूजन के समय लाल पुष्पों को चढ़ावें और लाल वस्त्र धारण करें ।  अन्त में हनुमान जी की पूजा करनी चाहिये ।  तथा मंगलवार की कथा सुननी चाहिये ।

कथा – एक ब्राहमण दम्पत्ति के कोई सन्तान न हुई थी, जिसके कारण पति-पत्नी दुःखी थे ।  वह ब्राहमण हनुमान जी की पूजा हेतु वन में चला गया ।  वह पूजा के साथ महावीर जी से एक पुत्र की कामना प्रकट किया करता था ।  घर पर उसकी पत्नी मंगलवार व्रत पुत्र की प्राप्ति के लिये किया करती थी ।  मंगल के दिन व्रत के अंत में भोजन बनाकर हनुमान जी को भोग लगाने के बाद स्वयं भोजन ग्रहण करती थी ।  एक बार कोई व्रत आ गया ।  जिसके कारण ब्रहमाणी भोजन न बना सकी ।  तब हनुमान जी का भोग भी नहीं लगाया ।  वह अपने मन में ऐसा प्रण करके सो गई कि अब अगले मंगलवार को हनुमान जी को भोग लगाकर अन्न ग्रहण करुंगी ।

वह भूखी प्यासी छः दिन पड़ी रही ।  मंगलवार के दिन तो उसे मूर्छा आ गई तब हनुमान जी उसकी लगन और निष्ठा को देखकर अति प्रसन्न हो गये ।  उन्होंने उसे दर्शन दिए और कहा – मैं तुमसे अति प्रसन्न हूँ ।  मैं तुझको एक सुन्दर बालक देता हूँ जो तेरी बहुत सेवा किया करेगा ।  हनुमान जी मंगलवार को बाल रुप में उसको दर्शन देकर अन्तर्धान हो गए ।  सुन्दर बालक पाकर ब्रहमाणी अति प्रसन्न हुई ।  ब्रहमाणी ने बालक का नाम मंगल रखा ।

कुछ समय पश्चात् ब्राहमण वन से लौटकर आया ।  प्रसन्नचित्त सुन्दर बालक घर में क्रीड़ा करते देखकर वह ब्राहमण पत्नी से बोला – यह बालक कौन है ।  पत्नी ने कहा – मंगलवार के व्रत से प्रसन्न हो हनुमान जी ने दर्शन दे मुझे बालक दिया है ।  पत्नी की बात छल से भरी जान उसने सोचा यह कुल्टा व्याभिचारिणी अपनी कलुषता छुपाने के लिये बात बना रही है ।  एक दिन उसका पति कुएँ पर पानी भरने चला तो पत्नी ने कहा कि मंगल को भी साथ ले जाओ ।  वह मंगल को साथ ले चला और उसको कुएँ में डालकर वापिस पानी भरकर घर आया तो पत्नी ने पूछा कि मंगल कहाँ है ।

तभी मंगल मुस्कुराता हुआ घर आ गया ।  उसको देख ब्राहमण आश्र्चर्य चकित हुआ, रात्रि में उसके पति से हनुमान जी ने स्वप्न में कहे – यह बालक मैंने दिया है ।  तुम पत्नी को कुल्टा क्यों कहते हो ।  पति यह जानकर हर्षि हुआ ।  फिर पति-पत्नी मंगल का व्रत रख अपनी जीवन आनन्दपूर्वक व्यतीत करने लगे ।  जो मनुष्य मंगलवार व्रत कथा को पढ़ता या सुनता है और नियम से व्रत रखता है ।  उसके हनुमान जी की कृपा से सब कष्ट दूर होकर सर्व सुख प्राप्त होता है ।

मंगलवार तथा मंगलिया की कथा

एक बुढ़िया थी, वह मंगल देवता को अपना इष्ट देवता मानकर सदैव मंगल का व्रत रखती और मंगलदेव का पूजन किया करती थी ।  उसका एक पुत्र था जो मंगलवार को उत्पन्न हुआ था ।  इस कारण उसको मंगलिया के नाम से बोला करती थी । मंगलदेव के दिन न तो घर को लीपती और न ही पृथ्वी खोदा करती थी ।

एक दिन मंगल देवता उसकी श्रद्घा की परीक्षा लेने के लिये उसके घर में साधु रुप बनाकर आये और द्घार पर आवाज दी ।  बुढ़िया ने कहा महाराज क्या आज्ञा है ।  साधु कहने लगा कि बहुत भूख लगी है, भोजन बनाना है ।  इसके लिये तू थोड़ी सी पृथ्वी लीप दे तो तेरा पुण्य होगा ।  यह सुनकर बुढ़िया ने कहा महाराज आज मंगलवार की व्रती हूँ इसीलिये मैं चौका नहीं लगा सकती कहो तो जल का छिड़काव कर दूँ ।  उस पर भोजन बना लें ।

साधु कहने लगा कि मैं गोबर से लिपे चौके पर खाना बनाता हूँ ।  बुढ़िया ने कहा पृथ्वी लीपने के सिवाय और कोई सेवा हो तो मैं सब कुछ करने के वास्ते उघत हूँ तब साधु ने कहा कि सोच समझ कर उत्तर दो जो कुछ भी मैं कहूँ सब तुमको करना पड़ेगा ।  बुढ़िया कहने लगी कि महाराज पृथ्वी लीपने के अलावा जो भी आज्ञा करेंगे उसका पालन अवश्य करुंगी बुढ़िया ने ऐसे तीन बार वचन दे दिया ।

तब साधु कहने लगा कि तू अपने लड़के को बुलाकर औंधा लिटा दे मैं उसकी पीठ पर भोजन बनाऊंगा ।  साधु की बात सुनकर बुढ़िया चुप हो गई ।  तब साधु ने कहा – बुला ले लड़के को, अब सोच-विचार क्या करती है ।  बुढ़िया मंगलिया, मंगलिया कहकर पुकारने लगी ।  थोड़ी देर बाद लड़का आ गया ।  बुढ़िया ने कहा – जा बेटे तुझको बाबाजी बुलाते है ।  लड़के ने बाबाजी से जाकर पूछा – क्या आज्ञा है महाराज ।  बाबा जी ने कहा कि जाओ अपनी माताजी को बुला लाओ ।  माता आ गई तो साधु ने कहा कि तू ही इसको लिटा दे ।  बुढ़िया ने मंगल देवता का स्मरण करते हुए लड़के को औंधा लिटा दिया और उसकी पीठ पर अंगीठी रख दी ।

कहने लगी कि महाराज अब जो कुछ आपको करना है कीजिए, मैं जाकर अपना काम करती हूँ ।  साधु ने लड़के की पीठ पर रखी हुई अँगीठी में आग जलाई और उस पर भोजन बनाया ।  जब भोजन बन चुका तो साधु ने बुढ़िया से कहा कि अब अपने लड़को को बुलाओ वह भी आकर भोग ले जाये ।  बुढ़िया कहने लगी कि यह कैसे आश्चर्य की बात है कि उसकी पीठ पर आपने आग लगायी और उसी को प्रसाद के लिये बुलाते है ।  क्या यह सम्भव है कि अब भी आप उसको जीवित समझते है । आप कृपा करके उसका स्मरण भी मुझको न कराइये और भोग लगाकर जहाँ जाना हो जाइये ।

साधु के अत्यंत आग्रह करने पर बुढ़िया ने ज्यों ही मंगलिया कहकर आवाज लगाई त्यों ही एक ओर से दौड़ता हुआ वह आ गया ।  साधु ने लड़के को प्रसाद दिया और कहा कि माई तेरा व्रत सफल हो गया ।  तेरे हृदय में दया है और अपने इष्ट देव में अटल श्रद्घा है ।  इसके कारण तुमको कभी कोई कष्ट नहीं पहुँचेगा ।   

मंगलवार के व्रत की आरती


आरती कीजै हनुमान लला की ।  दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ।।
जाके बल से गिरिवर कांपै ।  रोग-दोष जाके निकट न झांपै ।।
अंजनि पुत्र महा बलदाई ।  संतन के प्रभु सदा सहाई ।।
दे बीरा रघुनाथ पठाए ।  लंका जारि सिया सुधि लाये ।।
लंका सो कोट समुद्र सी खाई ।  जात पवनसुत बार न लाई ।।
लंका जारि असुर सब मारे ।  सियाराम जी के काज संवारे ।।
लक्ष्मण मूर्च्छित पड़े सकारे ।  लाय संजीवन प्राण उबारे ।।
पैठि पताल तोरि जमकारे ।  अहिरावण की भुजा उखारे ।।
बाईं भुजा असुर संहारे ।  दाईं भुजा संत जन तारे ।।
सुर नर मुनि आरती उतारें ।  जय जय जय हनुमान उचारें ।।
कंचन थार कपूर लौ छाई ।  आरति करत अंजना माई ।।
जो हनुमान जी की आरती गावे ।  बसि बैकुण्ठ परमपद पावे ।।
लंक विध्वंस किए रघुराई ।  तुलसिदास प्रभु कीरति गाई ।।


Title: Re: सातों वारों की कथाएं - रविवार (इतवार) व्रत
Post by: JR on March 29, 2007, 07:09:59 AM
बुधवार व्रत कथा

विधि – ग्रह शान्त तथा सर्व-सुखों की इच्छा रखने वालों को बुधवार का व्रत करना चाहिये ।  इस व्रत में रात दिन में एक ही बार भोजन करना चाहए ।  इस व्रत के समय हरी वस्तुओं का उपयोग करना श्रेष्ठ है ।  इस व्रत के अंत में शंकर जी की पूजा, धूप, बेल-पत्र आदि से करनी चाहिये ।  साथ ही बुधवार की कथा सुनकर आरती के बाद प्रसाद लेकर जाना चाहिये ।  बीच में ही नहीं जाना चाहिये ।

कथा – एक समय एक व्यक्ति अपनी पत्नी को विदा करवाने के लिये अपनी ससुराल गया ।  वहाँ पर कुछ दिन रहने के पश्चात् सास-ससुर से विदा करने के लिये कहा ।  किन्तु सबने कहा कि आज बुधवार का दिन है आज के दिन गमन नहीं करते है ।  वह व्यक्ति किसी प्रकार न माना और हठधर्मी करके बुधवार के दिन ही पत्नी को विदा कराकर अपने नगर को चल पड़ा ।  राह में उसकी पत्नी को प्यास लगी तो उसने अपने पति से कहा कि मुझे बहुत जोर से प्यास लगी है ।  तब वह व्यक्ति लोटा लेकर रथ से उतरकर जल लेने चला गया ।  जैसे ही वह व्यक्ति पानी लेकर अपनी पत्नी के निकट आया तो वह यह देखकर आश्चर्य से चकित रह गया कि ठीक अपनी ही जैसी सूरत तथा वैसी ही वेश-भूषा में वह व्यक्ति उसकी पत्नी के साथ रथ में बैठा हुआ है ।

उसने क्रोध से कहा कि तू कौन है जो मेरी पत्नी के निकट बैठा हुआ है ।  दूसरा व्यक्ति बोला कि यह मेरी पत्नी है ।  मैं अभी-अभी ससुराल से विदा कराकर ला रहा हूँ ।  वे दोनों व्यक्ति परस्पर झगड़ने लगे ।  तभी राज्य के सिपाही आकर लोटे वाले व्यक्ति को पकड़ने लगे ।  स्त्री से पूछा, तुम्हारा असली पति कौन सा है ।  तब पत्नी शांत ही रही क्योंकि दोनों एक जैसे थे ।

वह किसे अपना असली पति कहे ।  वह व्यक्ति ईश्वर से प्रार्थना करता हुआ बोले – हे परमेश्वर यह क्या लीला है कि सच्चा झूठा बन रहा है ।  तभी आकाशवाणी हुई कि मूर्ख आज बुधवार के दिन तुझे गमन नहीं करना था ।  तूने किसी की बात नहीं मानी ।  यह सब लीला बुधदेव भगवान की है ।  उस व्यक्ति ने तब बुधदेवी जी से प्रार्थना की और अपनी गलती के लिये क्षमा माँगी ।  तब बुधदेव जी अन्तर्ध्यान हो गए ।  वह अपनी स्त्री को लेकर घर आया तथा बुधवार का व्रत वे दोनों पति-पत्नी नियमपूर्वक करने लगे ।  जो व्यक्ति इस कथा को श्रवण करता तथा सुनाता है उसको बुधवार के दिन यात्रा करने का कोई दोष नहीं लगता है, उसको सर्व प्रकार से सुखों की प्राप्ति होती है ।   

बुधवार की आरती

आरती युगलकिशोर की कीजै । तन मन धन न्यौछावर कीजै ।।
गौरश्याम मुख निरखत रीजै ।  हरि का स्वरुप नयन भरि पीजै ।।
रवि शशि कोट बदन की शोभा ।  ताहि निरखि मेरो मन लोभा ।।
ओढ़े नील पीत पट सारी ।  कुंजबिहारी गिरवरधारी ।।
फूलन की सेज फूलन की माला ।  रत्न सिंहासन बैठे नन्दलाला ।।
कंचनथार कपूर की बाती ।  हरि आए निर्मल भई छाती ।।
श्री पुरुषोत्तम गिरिवरधारी ।  आरती करें सकल ब्रज नारी ।।
नन्दनन्दन बृजभान, किशोरी ।  परमानन्द स्वामी अविचल जोरी ।।


Title: Re: सातों वारों की कथाएं - वृहस्पतिहवार व्रत कथा
Post by: JR on March 29, 2007, 07:13:37 AM
वृहस्पतिहवार व्रत कथा

व्रत माहात्म्य एवं विधि


इस व्रत को करने से समस्त इच्छएं पूर्ण होती है और वृहस्पति महाराज प्रसन्न होते है । धन, विघा, पुत्र तथा मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है ।  परिवार में सुख तथा शांति रहती है ।  इसलिये यह व्रत सर्वश्रेष्ठ और अतिफलदायक है ।

इस व्रत में केले का पूजन ही करें ।  कथा और पूजन के समय मन, कर्म और वचन से शुद्घ होकर मनोकामना पूर्ति के लिये वृहस्पतिदेव से प्रार्थना करनी चाहिये ।  दिन में एक समय ही भोजन करें ।  भोजन चने की दाल आदि का करें, नमक न खाएं, पीले वस्त्र पहनें, पीले फलों का प्रयोग करें, पीले चंदन से पूजन करें ।  पूजन के बाद भगवान वृहस्पति की कथा सुननी चाहिये ।

वृहस्पतिहवार व्रत कथा

प्राचीन समय की बात है – एक बड़ा प्रतापी तथा दानी राजा था ।  वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता एवं पून करता था ।  यह उसकी रानी को अच्छा न लगता ।  न वह व्रत करती और न ही किसी को एक पैसा दान में देती ।  राजा को भी ऐसा करने से मना किया करती ।  एक समय की बात है कि राजा शिकार खेलने वन को चले गए ।  घर पर रानी और दासी थी ।  उस समय गुरु वृहस्पति साधु का रुप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा मांगने आए ।  साधु ने रानी से भिक्षा मांगी तो वह कहने लगी, हे साधु महाराज ।  मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूँ ।  आप कोई ऐसा उपाय बताएं, जिससे यह सारा धन नष्ट हो जाये और मैं आराम से रह सकूं ।

साधु रुपी वृहस्पति देव ने कहा, हे देवी ।  तुम बड़ी विचित्र हो ।  संतान और धन से भी कोई दुखी होता है, अगर तुम्हारे पास धन अधिक है तो इसे शुभ कार्यों में लगाओ, जिससे तुम्हारे दोनों लोक सुधरें ।

परन्तु साधु की इन बातों से रानी खुश नहीं हुई ।  उसने कहा, मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं, जिसे मैं दान दूं तथा जिसको संभालने में ही मेरा सारा समय नष्ट हो जाये ।

साधु ने कहा, यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो जैसा मैं तुम्हें बताता हूं तुम वैसा ही करना ।  वृहस्पतिवार के दिन तुम घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिट्टी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से हजामत बनाने को कहना, भोजन में मांस मदिरा खाना, कपड़ा धोबी के यहाँ धुलने डालना ।  इस प्रकार सात वृहस्पतिवार करने से तुम्हारा समस्त धन नष्ट हो जायेगा ।  इतना कहकर साधु बने वृहस्पतिदेव अंतर्धान हो गये ।

साधु के कहे अनुसार करते हुए रानी को केवल तीन वृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो गई ।  भोजन के लिये परिवार तरसने लगा ।  एक दिन राजा रानी से बोला, हे रानी ।  तुम यहीं रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूँ, क्योंकि यहां पर मुझे सभी जानते है ।  इसलिये मैं कोई छोटा कार्य नही कर सकता ।  ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया ।  वहां वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता ।  इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा ।

इधर, राजा के बिना रानी और दासी दुखी रहने लगीं ।  एक समय जब रानी और दासियों को सात दिन बिना भोजन के रहना पड़ा, तो रानी ने अपनी दासी से कहा, हे दासी ।  पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है ।  वह बड़ी धनवान है ।  तू उसके पास जा और कुछ ले आ ताकि थोड़ा-बहुत गुजर-बसर हो जाए । 

दासी रानी की बहन के पास गई ।  उस दिन वृहस्पतिवार था ।  रानी का बहन उस समय वृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी ।  दासी ने रानी की बहन को अपनी रानी का संदेश दिया, लेकिन रानी की बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया ।  जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुखी हुई ।  उसे क्रोध भी आया ।  दासी ने वापस आकर रानी को सारी बात बता दी ।  सुनकर, रानी ने अपने भाग्य को कोसा ।

उधर, रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी, परन्तु मैं उससे नहीं बोली, इससे वह बहुत दुखी हुई होगी ।  कथा सुनकर और पूजन समाप्त कर वह अपनी बहन के घर गई और कहने लगी, हे बहन ।  मैं वृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी ।  तुम्हारी दासी गई परन्तु जब तक कथा होती है, तब तक न उठते है और न बोलते है, इसीलिये मैं नहीं बोली ।  कहो, दासी क्यों गई थी ।

रानी बोली, बहन ।  हमारे घर अनाज नहीं था ।  ऐसा कहते-कहते रानी की आंखें भर आई ।  उसने दासियों समेत भूखा रहने की बात भी अपनी बहन को बता दी ।  रानी की बहन बोली, बहन देखो ।  वृहस्पतिदेव भगवान सबकी मनोकामना पूर्ण करते है ।  देखो, शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो ।  यह सुनकर दासी घर के अन्दर गई तो वहाँ उसे एक घड़ा अनाज का भरा मिल गया ।  उसे बड़ी हैरानी हुई क्योंकि उसे एक एक बर्तन देख लिया था ।  उसने बाहर आकर रानी को बताया ।  दासी रानी से कहने लगी, हे रानी ।  जब हमको भोजन नहीं मिलता तो हम व्रत ही तो करते है, इसलिये क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाये, हम भी व्रत किया करेंगे ।  दासी के कहने पर रानी ने अपनी बहन से वृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा ।  उसकी बहन ने बताया, वृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें तथा दीपक जलायें ।  पीला भोजन करें तथा कथा सुनें ।  इससे गुरु भगवान प्रसन्न होते है, मनोकामना पूर्ण करते है ।  व्रत और पूजन की विधि बताकर रानी की बहन अपने घर लौट आई ।

रानी और दासी दोनों ने निश्चय किया कि वृहस्पतिदेव भगवान का पूजन जरुर करेंगें ।  सात रोज बाद जब वृहस्पतिवार आया तो उन्होंने व्रत रखा ।  घुड़साल में जाकर चना और गुड़ बीन लाईं तथा उसकी दाल से केले की जड़ तथा विष्णु भगवान का पूजन किया ।  अब पीला भोजन कहाँ से आए ।  दोनों बड़ी दुखी हुई ।  परन्तु उन्होंने व्रत किया था इसलिये वृहस्पतिदेव भगवान प्रसन्न थे ।  एक साधारण व्यक्ति के रुप में वे दो थालों में सुन्दर पीला भोजन लेकर आए और दासी को देकर बोले, हे दासी ।  यह भोजन तुम्हारे लिये और तुम्हारी रानी के लिये है, इसे तुम दोनों ग्रहण करना ।  दासी भोजन पाकर बहुत प्रसन्न हुई ।  उसने रानी को सारी बात बतायी ।

उसके बाद से वे प्रत्येक वृहस्पतिवार को गुरु भगवान का व्रत और पूजन करने लगी ।  वृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास धन हो गया ।  परन्तु रानी फिर पहले की तरह आलस्य करने लगी ।  तब दासी बोली, देखो रानी ।  तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थी, तुम्हें धन के रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गाय ।  अब गुरु भगवान की कृपा से धन मिला है तो फिर तुम्हें आलस्य होता है ।  बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है, इसलिये हमें दान-पुण्य करना चाहिये ।  अब तुम भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगवाओ, ब्राहमणों को दान दो, कुआं-तालाब-बावड़ी आदि का निर्माण कराओ, मन्दिर-पाठशाला बनवाकर ज्ञान दान दो, कुंवारी कन्याओं का विवाह करवाओ अर्थात् धन को शुभ कार्यों में खर्च करो, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़े तथा स्वर्ग प्राप्त हो और पित्तर प्रसन्न हों ।  दासी की बात मानकर रानी शुभ कर्म करने लगी ।  उसका यश फैलने लाग ।

एक दिन रानी और दासी आपस में विचार करने लगीं कि न जाने राजा किस दशा में होंगें, उनकी कोई खोज खबर भी नहीं है ।  उन्होंने श्रद्घापूर्वक गुरु (वृहस्पति) भगवान से प्रार्थना की कि राजा जहाँ कहीं भी हो, शीघ्र वापस आ जाएं ।

उधर, राजा परदेश में बहुत दुखी रहने लगा ।  वह प्रतिदिन जंगल से लकड़ी बीनकर लाता और उसे शहर में बेचकर अपने दुखी जीवन को बड़ी कठिनता से व्यतीत करता ।  एक दिन दुखी हो, अपनी पुरानी बातों को याद करके वह रोने लगा और उदास हो गया ।

उसी समय राजा के पास वृहस्पतिदेव साधु के वेष में आकर बोले, हे लकड़हारे ।  तुम इस सुनसान जंगल में किस चिंता में बैठे हो, मुझे बतलाओ ।  यह सुन राजा के नेत्रों में जल भर आया ।  साधु की वंदना कर राजा ने अपनी संपूर्ण कहानी सुना दी ।  महात्मा दयालु होते है ।  वे राजा से बोले, हे राजा तुम्हारी पत्नी ने वृहस्पतिदेव के प्रति अपराध किया था, जिसके कारण तुम्हारी यह दशा हुई ।  अब तुम चिन्ता मत करो भगवान तुम्हें पहले से अधिक धन देंगें ।  देखो, तुम्हारी पत्नी ने वृहस्पतिवार का व्रत प्रारम्भ कर दिया है ।  अब तुम भी वृहस्पतिवार का व्रत करके चने की दाल व गुड़ जल के लोटे में डालकर केले का पूजन करो ।  फिर कथा कहो या सुनो ।  भगवान तुम्हारी सब कामनाओं को पूर्ण करेंगें ।  साधु की बात सुनकर राजा बोला, हे प्रभो ।  लकड़ी बेचकर तो इतना पैसा भई नहीं बचता, जिससे भोजन के उपरांत कुछ बचा सकूं ।  मैंने रात्रि में अपनी रानी को व्याकुल देखा है ।  मेरे पास कोई साधन नही, जिससे उसका समाचार जान सकूं ।  फिर मैं कौन सी कहानी कहूं, यह भी मुझको मालूम नहीं है ।  साधु ने कहा, हे राजा ।  मन में वृहस्पति भगवान के पूजन-व्रत का निश्चय करो ।  वे स्वयं तुम्हारे लिये कोई राह बना देंगे ।  वृहस्पतिवार के दिन तुम रोजाना की तरह लकड़ियां लेकर शहर में जाना ।  तुम्हें रोज से दुगुना धन मिलेगा जिससे तुम भलीभांति भोजन कर लोगे तथा वृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जायेगा ।  जो तुमने वृहस्पतिवार की कहानी के बारे में पूछा है, वह इस प्रकार है -


वृहस्पतिदेव की कहानी

प्राचीनकाल में एक बहुत ही निर्धन ब्राहमण था ।  उसके कोई संन्तान न थी ।  वह नित्य पूजा-पाठ करता, उसकी स्त्री न स्नान करती और न किसी देवता का पूजन करती ।  इस कारण ब्राहमण देवता बहुत दुखी रहते थे ।

भगवान की कृपा से ब्राहमण के यहां एक कन्या उत्पन्न हुई ।  कन्या बड़ी होने लगी ।   प्रातः स्नान करके वह भगवान विष्णु का जप करती ।  वृहस्पतिवार का व्रत भी करने लगी ।  पूजा पाठ समाप्त कर पाठशाला जाती तो अपनी मुट्ठी में जौ भरके ले जाती और पाठशाला के मार्ग में डालती जाती ।  लौटते समय वही जौ स्वर्ण के हो जाते तो उनको बीनकर घर ले आती ।  एक दिन वह बालिका सूप में उन सोने के जौ को फटककर साफ कर रही थी कि तभी उसकी मां ने देख लिया और कहा, कि हे बेटी ।  सोने के जौ को फटकने के लिये सोने का सूप भी तो होना चाहिये ।

दूसरे दिन गुरुवार था ।  कन्या ने व्रत रखा और वृहस्पतिदेव से सोने का सूप देने की प्रार्थना की ।  वृहस्पतिदेव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली ।  रोजाना की तरह वह कन्या जौ फैलाती हुई पाठशाला चली गई ।  पाठशाला से लौटकर जब वह जौ बीन रही थी तो वृहस्पतिदेव की कृपा से उसे सोने का सूप मिला ।  उसे वह घर ले आई और उससे जौ साफ करने लगी ।  परन्तु उसकी मां का वही ढंग रहा ।

एक दिन की बात है ।  कन्य सोने के सूप में जब जौ साफ कर रही थी, उस समय उस नगर का राजकुमार वहां से निकला ।  कन्या के रुप और कार्य को देखकर वह उस पर मोहित हो गया ।  राजमहल आकर वह भोजन तथा जल त्यागकर उदास होकर लेट गया ।

राजा को जब राजकुमार द्घारा अन्न-जल त्यागने का समाचार ज्ञात हुआ तो अपने मंत्रियों के साथ वह अपने पुत्र के पास गया और कारण पूछा ।  राजकुमार ने राजा को उस लड़की के घर का पता भी बता दिया ।  मंत्री उस लड़की के घर गया ।  मंत्री ने ब्राहमण के समक्ष राजा की ओर से निवेदन किया ।  कुछ ही दिन बाद ब्राहमण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ सम्पन्न हो गाया ।

कन्या के घर से जाते ही ब्राहमण के घर में पहले की भांति गरीबी का निवास हो गया ।  एक दिन दुखी होकर ब्राहमण अपनी पुत्री से मिलने गये ।  बेटी ने पिता की अवस्था को देखा और अपनी माँ का हाल पूछा ब्राहमण ने सभी हाल कह सुनाया ।  कन्या ने बहुत-सा धन देकर अपने पिता को विदा कर दिया ।  लेकिन कुछ दिन बाद फिर वही हाल हो गया ।  ब्राहमण फिर अपनी कन्या के यहां गया और सभी हाल कहातो पुत्री बोली, हे पिताजी ।  आप माताजी को यहाँ लिवा लाओ ।  मैं उन्हें वह विधि बता दूंगी, जिससे गरीबी दूर हो जाए ।  ब्राहमण देवता अपनी स्त्री को साथ लेकर अपनी पुत्री के पास राजमहल पहुंचे तो पुत्री अपनी मां को समझाने लगी, हे मां, तुम प्रातःकाल स्नानादि करके विष्णु भगवन का पूजन करो तो सब दरिद्रता दूर हो जाएगी ।  परन्तु उसकी मां ने उसकी एक भी बात नहीं मानी ।  वह प्रातःकाल उठकर अपनी पुत्री की बची झूठन को खा लेती थी ।

एक दिन उसकी पुत्री को बहुत गुस्सा आया, उसने अपनी माँ को एक कोठरी में बंद कर दिया ।  प्रातः उसे स्नानादि कराके पूजा-पाठ करवाया तो उसकी माँ की बुद्घि ठीक हो गई।

इसके बाद वह नियम से पूजा पाठ करने लगी और प्रत्येक वृहस्पतिवार को व्रत करने लगी ।  इस व्रत के प्रभाव से मृत्यु के बाद वह स्वर्ग को गई ।  वह ब्राहमण भी सुखपूर्वक इस लोक का सुख भोगकर स्वर्ग को प्राप्त हुआ ।  इस तरह कहानी कहकर साधु बने देवता वहाँ से लोप हो गये ।

धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर वृहस्पतिवार का दिन आया ।  राजा जंगल से लकड़ी काटकर शहर में बेचने गया ।  उसे उस दिन और दिनों से अधिक धन मिला ।  राजा ने चना, गुड़ आदि लाकर वृहस्पतिवार का व्रत किया ।  उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हुए ।  परन्तु जब अगले गुरुवार का दिन आया तो वह वृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया ।  इस कारण वृहस्पति भगवान नाराज हो गए ।

उस दिन उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया था तथा अपने समस्त राज्य में घोषणा करवा दी कि सभी मेरे यहां भोजन करने आवें ।  किसी के घर चूल्हा न जले ।  इस आज्ञा को जो न मानेगा उसको फांसी दे दी जाएगी ।

राजा की आज्ञानुसार राज्य के सभी वासी राजा के भोज में सम्मिलित हुए लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुंचा, इसलिये राजा उसको अपने साथ महल में ले गए ।  जब राजा लकड़हारे को भोजन करा रहे थे तो रानी की दृष्टि उस खूंटी पर पड़ी, जिस पर उसका हारलटका हुआ था ।  उसे हार खूंटी पर लटका दिखाई नहीं दिया ।  रानी को निश्चय हो गया कि मेरा हार इस लकड़हारे ने चुरा लिया है ।  उसी समय सैनिक बुलवाकर उसको जेल में डलवा दिया ।

लकड़हारा जेल में विचार करने लगा कि न जाने कौन से पूर्वजन्म के कर्म से मुझे यह दुख प्राप्त हुआ है और जंगल में मिले साधु को याद करने लगा ।  तत्काल वृहस्पतिदेव साधु के रुप में प्रकट हो गए और कहने लगे, अरे मूर्ख ।  तूने वृहस्पति देवता की कथा नहीं की, उसी कारण तुझे यह दुख प्राप्त हुआ हैं ।  अब चिन्ता मत कर ।  वृहस्पतिवार के दिन जेलखाने के दरवाजे पर तुझे चार पैसे पड़े मिलेंगे, उनसे तू वृहस्पतिवार की पूजा करना तो तेर सभी कष्ट दूर हो जायेंगे ।

अगले वृहस्पतिवार उसे जेल के द्घार पर चार पैसे मिले ।  राजा ने पूजा का सामान मंगवाकर कथा कही और प्रसाद बाँटा ।  उसी रात्रि में वृहस्पतिदेव ने उस नगर के राजा को स्वप्न में कहा, हे राजा ।  तूने जिसे जेल में बंद किया है, उसे कल छोड़ देना ।  वह निर्दोष है ।  राजा प्रातःकाल उठा और खूंटी पर हार टंगा देखकर लकड़हारे को बुलाकर क्षमा मांगी तथा राजा के योग्य सुन्दर वस्त्र-आभूषण भेंट कर उसे विदा किया ।

गुरुदेव की आज्ञानुसार राजा अपने नगर को चल दिया ।  राजा जब नगर के निकट पहुँचा तो उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ ।  नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब और कुएं तथा बहुत-सी धर्मशालाएं, मंदिर आदि बने हुए थे ।  राजा ने पूछा कि यह किसका बाग और धर्मशाला है ।  तब नगर के सब लोग कहने लगे कि यह सब रानी और दासी द्घारा बनवाये गए है ।  राजा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया कि उसकी अनुपस्थिति में रानी के पास धन कहां से आया होगा ।

जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा आ रहे है तो उसने अपनी दासी से कहा, हे दासी ।  देख, राजा हमको कितनी बुरी हालत में छोड़ गये थे ।  वह हमारी ऐसी हालत देखकर लौट न जाएं, इसलिये तू दरवाजे पर खड़ी हो जा ।  रानी की आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई और जब राजा आए तो उन्हें अपने साथ महल में लिवा लाई ।  तब राजा ने क्रोध करके अपनी तलवार निकाली और पूछने लगा, बताओ, यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ है ।  तब रानी ने सारी कथा कह सुनाई ।

राजा ने निश्चय किया कि मैं रोजाना दिन में तीन बार कहानी कहा करुंगा और रोज व्रत किया करुंगा ।  अब हर समय राजा के दुपट्टे में चने की दाल बंधी रहती तथा दिन में तीन बार कथा कहता ।

एक रोज राजा ने विचार किया कि चलो अपनी बहन के यहां हो आऊं ।  इस तरह का निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार हो अपनी बहन के यहां चल दिया ।  मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिये जा रहे है ।  उन्हें रोककर राजा कहने लगा, अरे भाइयो ।  मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन लो ।  वे बोले, लो, हमारा तो आदमी मर गया है, इसको अपनी कथा की पड़ी है ।  परन्तु कुछ आदमी बोले, अच्छा कहो, हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगें ।  राजा ने दाल निकाली और कथा कहनी शुरु कर दी ।  जब कथा आधी हुई तो मुर्दा हिलने लगा और जब कथा समाप्त हुई तो राम-राम करके वह मुर्दा खड़ा हो गया।

राजा आगे बढ़ा ।  उसे चलते-चलते शाम हो गई ।  आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला ।  राजा ने उससे कथा सुनने का आग्रह किया, लेकिन वह नहीं माना ।

राजा आगे चल पड़ा ।  राजा के हटते ही बैल पछाड़ खाकर गिर गए तथा किसान के पेट में बहुत जो रसे द्रर्द होने लगा ।

उसी समय किसान की मां रोटी लेकर आई ।  उसने जब देखा तो अपने पुत्र से सब हाल पूछा ।  बेटे ने सभी हाल बता दिया ।  बुढ़िया दौड़-दौड़ी उस घुड़सवार के पास पहुँची और उससे बोली, मैं तेरी कथा सुनूंगी, तू अपनी कथा मेरे खेत पर ही चलकर कहना ।  राजा ने लौटकर बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही, जिसके सुनते ही बैल खड़े हो गये तथा किसान के पेट का दर्द भी बन्द हो गया ।

राजा अपनी बहन के घर पहुंच गया ।  बहन ने भाई की खूब मेहमानी की ।  दूसरे रोज प्रातःकाल राजा जागा तो वह देखने लगा कि सब लोग भोजन कर रहे है । राजा ने अपनी बहन से जब पूछा, ऐसा कोई मनुष्य है, जिसने भोजन नहीं किया हो ।  जो मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन ले ।  बहन बोली, हे भैया यह देश ऐसा ही है यहाँ लोग पहले भोजन करते है, बाद में कोईअन्य काम करते है ।  फिर वह एक कुम्हार के घर गई, जिसका लड़का बीमार था ।  उसे मालूम हुआ कि उसके यहां तीन दिन से किसीने भोजन नहीं किया है ।  रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिये कुम्हार से कहा ।  वह तैयार हो गया ।  राजा ने जाकर वृहस्पतिवार की कथा कही ।  जिसको सुनकर उसका लड़का ठीक हो गया ।  अब तो राजा को प्रशंसा होने लगी ।  एक दिन राजा ने अपनी बहन से कहा, हे बहन ।  मैं अब अपने घर जाउंगा, तुम भी तैयार हो जाओ ।  राजा की बहन ने अपनी सास से अपने भाई के साथ जाने की आज्ञा मांगी ।  सास बोली हां चली जा मगर अपने लड़कों को मत ले जाना, क्योंकि तेरे भाई के कोई संतान नहीं होती है ।  बहन ने अपने भाई से कहा, हे भइया ।  मैं तो चलूंगी मगर कोई बालक नहीं जायेगा ।  अपनी बहन को भी छोड़कर दुखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया ।  राजा ने अपनी रानी से सारी कथा बताई और बिना भोजन किये वह शय्या पर लेट गया ।  रानी बोली, हे प्रभो ।  वृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है, वे हमें संतान अवश्य देंगें ।  उसी रात वृहस्पतिदेव ने राजा को स्वप्न में कहा, हे राजा ।  उठ, सभी सोच त्याग दे ।  तेरी रानी गर्भवती है ।  राजा को यह जानकर बड़ी खुशी हुई ।  नवें महीन रानी के गर्भ से एक सुंदर पुत्र पैदा हुआ ।  तब राजा बोला, हे रानी ।  स्त्री बिना भोजन के रह सकती है, परन्तु बिना कहे नहीं रह सकती ।  जब मेरी बहन आये तो तुम उससे कुछ मत कहना ।  रानी ने हां कर दी ।  जब राजा की बहन ने यह शुभ समाचार सुना तो वह बहुत खुश हुई तथा बधाई लेकर अपने भाई के यहां आई ।  रानी ने तब उसे आने का उलाहना दिया, जब भाई अपने साथ ला रहे थे, तब टाल गई ।  उनके साथ न आई और आज अपने आप ही भागी-भागी बिना बुलाए आ गई ।  तो राजा की बहन बोली, भाई ।  मैं इस प्रकार न कहती तो तुम्हारे घर औलाद कैसे होती ।

वृहस्पतिदेव सभी कामनाएं पूर्ण करते है ।  जो सदभावनापूर्वक वृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढ़ता है अथवा सुनता है और दूसरों को सुनाता है, वृहस्पतिदेव उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते है, उनकी सदैव रक्षा करते है । 

जो संसार में सदभावना से गुरुदेव का पूजन एवं व्रत सच्चे हृदय से करते है, उनकी सभी मनकामनाएं वैसे ही पूर्ण होती है, जैसी सच्ची भावना से रानी और राजा ने वृहस्पतिदेव की कथा का गुणगान किया, तो उनकी सभी इच्छाएं वृहस्पतिदेव जी ने पूर्ण की ।  अनजाने में भी वृहस्पतिदेव की उपेक्षा न करें ।  ऐसा करने से सुख-शांति नष्ट हो जाती है ।  इसलिये सबको कथा सुनने के बाद प्रसाद लेकर जाना चाहिये ।  हृदय से उनका मनन करते हुये जयकारा बोलना चाहिये ।

।। इति श्री वृहस्पतिवार व्रत कथा ।।

आरती वृहस्पति देवता की


जय वृहस्पति देवा, ऊँ जय वृहस्पति देवा ।  छिन छिन भोग लगाऊँ, कदली फल मेवा ।।
तुम पूरण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी ।  जगतपिता जगदीश्वर, तुम सबके स्वामी ।।
चरणामृत निज निर्मल, सब पातक हर्ता ।  सकल मनोरथ दायक, कृपा करो भर्ता ।।
तन, मन, धन अर्पण कर, जो जन शरण पड़े ।  प्रभु प्रकट तब होकर, आकर द्घार खड़े ।।
दीनदयाल दयानिधि, भक्तन हितकारी ।  पाप दोष सब हर्ता, भव बंधन हारी ।।
सकल मनोरथ दायक, सब संशय हारो ।  विषय विकार मिटाओ, संतन सुखकारी ।।
जो कोई आरती तेरी, प्रेम सहित गावे ।  जेठानन्द आनन्दकर, सो निश्चय पावे ।।


   सब बोलो विष्णु भगवान की जय ।
   बोलो वृहस्पतिदेव भगवान की जय ।।
Title: Re: सातों वारों की कथाएं - शुक्रवार (सन्तोषी माता) व्रत कथा
Post by: JR on March 29, 2007, 07:15:19 AM
शुक्रवार (सन्तोषी माता) व्रत कथा


विधि – इस व्रत को करने वाला कथा कहते वे सुनते समय हाथ में गुड़ व भुने हुए चने रखें ।  सुनने वाला सन्तोषी माता की जय ।  सन्तोषी मात की जय ।  मुख से बोलते जायें ।  कथा समाप्त होने पर हाथ का गुड़ चना गौ माता को खिलावें ।  कलश में रखा हुआ गुड़ चना सबको प्रसाद के रुप में बांट दें ।  कथा से पहले कलश को जल से भरें ।  उसके ऊपर गुड़ चने से भरा कटोरा रखें ।  कथा समाप्त होने और आरती होने के बाद कलश के जल को घर में सब जगह छिड़कें और बचा हुआ जल तुलसी की क्यारी में डाल देवें ।  व्रत के उघापन में अढाई सेर खाजी, मोमनदार पूड़ी, खीर, चने का शाक, नैवेघ रखें, घी का दीपक जला संतोषी माता की जय जयकारा बोल नारियल फोड़ें ।  इस दिन घर में कोई खटाई न खावे और न आप खावे न किसी दूसरे को खाने दें ।  इस दिन 8 लड़कों को भोजन करावे, देवर, जेठ, घर कुटुम्ब के लड़के मिलते हो तो दूसरों को बुलाना नहीं ।  कुटुम्ब में न मिले तो ब्राहमणों के, रिश्तेदारों या पड़ोसियों के लड़के बुलावें ।  उन्हें खटाई की कोई वस्तु न दें तथा भोजन कराकर यथाशक्ति दक्षिणा देवें ।

कथा – एक बुढ़िया थी और उसके सात पुत्र थे ।  छः कमाने वाले थे, एक निकम्मा था ।  बुढ़िया मां छहों पुत्रों की रसोई बनाती, भोजन कराती और पीछे से जो कुछ बचता सो सातवें को दे देती थी ।  परन्तु वह बड़ा भोला-भाला था, मन में कुछ विचार न करता था ।  एक दिन अपनी बहू से बोला – देखो ।  मेरी माता का मुझ पर कितना प्या र है ।  वह बोली – क्यों नही, सबका जूठा बचा हुआ तुमको खिलाती है ।  वह बोला – भला ऐसा भई कहीं हो सकता है ।  मैं जब तक आँखों से न देखूं, मान नहीं सकता ।  बहू ने हँसकर कहा – तुम देख लोगे तब तो मानोगे ।  कुछ दिन बाद बड़ा त्यौहार आया ।  घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमा के लड़डू बने ।  वह जांचने को सिर-दर्द का बहाना कर पतला कपड़ा सिर पर ओढ़कर रसोई घर में सो गया और कपड़े में से सब देखता रहा ।  छहो भाई भोजन करने आये ।  उसने देखा माँ ने उनके लिये सुन्दर-सुन्दर आसन बिछाये है ।  सात प्रकार की रसोई परोसी है ।  वह आग्रह करके जिमाती है, वह देखता रहा ।  छहो भाई भोजन कर उठे तब माता ने उनकी जूठी थालियों में से लड़डुओं के टुकड़ों को उठाया और एक लड्डू बनाया ।  जूठन साफकर बुढ़िया माँ ने पुकारा – उठो बेटा ।  छहों भाई भोजन कर गये अब तू ही बाकी है, उठ न, कब खायेगा ।  वह कहने लगा – माँ, मुझे भोजन नहीं करना ।  मैं परदेश जा रहा हूँ ।  माता ने कहा – कल जाता हो तो आज ही जा ।  वह बोला – हां-हां, आज ही जा रहा हूँ ।  यह कहककर वह घर से निकल गया ।  चलते समय बहू की याद आई ।  वह गोशाला में उपलें थाप रही थी, वहीं जाकर उससे बोला –

हम जावें परदेश को आवेंगे कुछ काल ।
तुम रहियो संतोष से धरम आपनो पाल ।।
वह बोली जाओ पिया आनन्द से हमरुं सोच हटाय ।
राम भरोसे हम रहें ईश्वर तुम्हें सहाय ।।
देख निशानी आपकी देख धरुँ मैं धीर ।
सुधि हमारी मति बिसारियो रखियो मन गंभीर ।।

वह बोला – मेरे पास तो कुछ नहीं, यह अंगूठी है सो ले और अपनी कुछ निशानी मुझे दे ।  वह बोली – मेरे पास क्या है यह गोबर से भरा हाथ है ।  यह कहकर उसकी पीठ में गोबर के हाथ की थाप मार दी ।  वह चल दिया ।  चलते-चलते दूर देश में पहुँचा ।

वहाँ पर एक साहूकार की दुकान थी, वहां जाकर कहने लगा – भाई मुझे नौकरी पर रख लो ।  साहूकार को जरुरत थी, बोला – रह जा ।  लड़के ने पूछा – तनखा क्या दोगे ।  साहूकार ने कहा – काम देखकर दाम मिलेंगे ।  साहूकार की नौकरी मिली ।  वह सवेरे सात बजे से रात तक नौकरी बजाने लगा ।  कुछ दिनों में दुकान का सारा लेने-देन, हिसाब-किताब, ग्राहकों को माल बेचना, सारा काम करने लगा ।  साहूकार ने 7-8 नौकर थे ।  वे सब चक्कर खाने लगे कि यह तो बहुत होशियार बन गया है ।  सेठ ने भी काम देखा और 3 महीने में उसे आधे मुनाफे का साझीदार बना लिया ।  वह 12 वर्ष में ही नामी सेठ बन गया और मालिक सारा कारोबार उस पर छो़ड़कर बाहर चला गया ।  अब बहू पर क्या बीती सो सुनो ।  सास-ससुर उसे दुःख देने लगे ।  सारी गृहस्थी का काम करके उसे लकड़ी लेने जंगल में भेजते ।  इस बीच घर की रोटियों के आटे से जो भूसी निकलती उसकी रोटी बनाकर रख दी जाती और फूटे नारियल के खोपरे में पानी ।  इस तरह दिन बीतते रहे ।  एक दिन वह लकड़ी लेने जा रही थी कि रास्ते में बहुत-सी स्त्रियाँ संतोषी माता का व्रत करती दिखाई दीं ।  वह वहाँ खड़ी हो कथा सुनकर बोली – बहिनों ।  यह तुम किस देवता का व्रत करती हो और इसके करने सेक्या फल ममिलता है ।  इस व्रत के करने की क्या विधि है ।  यदि तुम अपने व्रत का विधान मुझे समझाकर कहोगी तो मैं तुम्हारा अहसान मानूंगी ।

तब उनमें से एक स्त्री बोली – सुनो यह संतोषी माता का व्रत है, इसके करने से निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता है और लक्ष्मी आती है ।  मन की चिंतायें दूर होती है ।  घर में सुख होने से मन को प्रसन्नता और शांति मिलती है ।  निःपुत्र को पुत्र मिलता है, प्रीतम बाहर गया हो तो जल्दी आवे ।  क्वांरी कन्या को मनपसन्द वर मिले ।  राजद्घार में बहुत दिनों से मुकदमा चलता हो तो खत्म हो जावे, सब तरह सुख-शान्ति हो, घर में धन जमा हो, पैसा-जायदाद का लाभ हो, वे सब इस संतोषी माता की कृपा से पूरी हो जावे ।  इसमें संदेह नहीं ।  वह पूछने लगी- यह व्रत कैसे किया जावे यह भी बताओ तो बड़ी कृपा होगी ।  स्त्री कहने लगी – सब रुपये का गुड़ चना लेना, इच्छा हो तो सवा पाँच रुपये का लेना या सवा ग्यारह रुपये का भी सहूलियत अनुसार लेना ।  बिना परेशानी, श्रद्घा, और प्रेम से जितना बन सके सवाया लेना ।  सवा रुपये से सवा पांच रुपये तथा इससे भी ज्यादा शक्ति और भक्ति के अनुसार लें ।  हर शुक्रवार को निराहार रह, कथा कहना – सुनना, इसके बीच क्रम टूटे नहीं, लगातार नियम पालन करना ।  सुनने वाला कोई न मिले तो घी का दीपक जला, उसके आगे जल के पात्र को रख कथा कहना परन्तु नियम न टूटे ।  जब तक कार्य सिद्घ न हो, नियम पालन करना और कार्य सिद्घ हो जाने पर ही व्रत का उघापन करना ।  तीन मास में माता फल पूरा करती है ।  यदि किसी के खोटे ग्रह हो तो भी माता एक वर्ष में अवश्य कार्य को सिद्घ करती है ।  उघापन में अढ़ाई सेर आटे का खाजा तथा इसी परिमाण से खीर तथा चने का साग करना ।  इस दिन 8 लड़कों को भोजन करावे, देवर, जेठ, घर कुटुम्ब के लड़के मिलते हो तो दूसरों को बुलाना नहीं ।  कुटुम्ब में न मिले तो ब्राहमणों के, रिश्तेदारों या पड़ोसियों के लड़के बुलावें ।  उन्हें खटाई की कोई वस्तु न दें तथा भोजन कराकर यथाशक्ति दक्षिणा देवें ।

यह सुनकर बुढ़िया के लड़के की बहू चल दी ।  रास्ते में लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उन पैसों से गुड़-चना ले माता के व्रत की तैयारी कर आगे चली और सामने मंदिर देख पूछने लगी – यह मंदिर किसका है ।  सब कहने लगे – संतोषी माता का मंदिर है ।  यह सुन माता के मंदिर में जा माता के चरणों में लोटने लगी ।  दीन होकर विनती करने लगी – माँ मैं निपट मूर्ख हूँ ।  व्रत के नियम कुछ नहीं जानती ।  मैं बहुत दुःखी हूँ ।  हे माता जगजननी ।  मेरा दुःख दूर कर, मैं तेरी शरण में हूँ ।  माता को दया आई ।  एक शुक्रवार बीता कि दूसरे शुक्रवार को ही इसके पति का पत्र आया और तीसरे को उसका भेजा हुआ पैसा भी आ पहुँचा ।  यह देख जेठानी मुँह सिकोड़ने लगी – इतने दिनों में पैसा आया, इसमें क्या बड़ाई है ।  लड़के ताने देने लगे – काकी के पास अब पत्र आने लगे, रुपया आने लगा, अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी, अब तो काकी बुलाने से भी नहीं बोलेगी ।

बेचारी सरलता से कहती – भैया ।  पत्र आवे, रुपया आवे तो हम सबके लिये अच्छा है ।  ऐसा कहकर आंखों में आँसू भरकर संतोषी माता के मन्दिर में आ मातेश्वरी के चरणों में गिरकर रोने लगी – माँ ।  मैनें तुमसे पैसा नहीं माँगा ।  मुझे पैसे से क्या काम है ।  मुझे तो आपने सुहाग से काम है ।  मैं तो अपने स्वामी के दर्शन और सेवा मांगती हूँ ।

तब माता ने प्रसन्न होकर कहा – जा बेटी, तेरा स्वामी आयेगा ।  यह सुन खुशी से बावली हो घर में जा काम करने लगी ।  अब संतोषी माँ विचार करने लगी, इस भोली पुत्री से मैंने कह तो दिया कि तेरा पति आयेगी, पर आयेगा कहाँ से ।  वह तो स्वप्न में भी इसे याद नहीं करता ।  उसे याद दिलाने मुझे जाना पड़ेगा ।  इस तरह माता बुढ़िया के बेटे के पास जा स्वप्न मे प्रकट हो कहने लगी – साहूकार के बेटे  ।  सोता है या जागता है वह बोला - माता ।  सोता भी नहीं हूँ जागता भी नहीं हूँ, बीच में ही हूँ, कहो क्या आज्ञा है ।  माँ कहने लगी – तेरा घर-बार कुछ है या नहीं ।  वह बोला – मेरा सब कुछ है माता ।  माँ, बाप, भाई-बहिन, बहू, क्या कमी है ।

माँ बोली – भोले पुत्र ।  तेरी स्त्री घोर कष्ट उठा रही है ।  माँ-बाप उसे दुःख दे रहे है, वह तेरे लिये तरस रही है, तू उसकी सुधि ले ।  वह बोला – हाँ माता, यह तो मुजे मालूम है परन्तु मैं जाऊँ तो जाऊँ कैसे ।  परदेश की बात है ।  लेन-देन का कोई हिसाब नहीं, कोई जाने का रास्ता नजर नहीं आता, कैसे चला जाऊँ ।  माँ कहने लगी – मेरी बात मान, सवेरे नहा-धोकर संतोषी माता का नाम ले, घी का दीपक जला, दण्डवत् कर दुकान पर जाना ।  देखते-देखते तेरा लेन-देन सब चुक जायेगा ।  जमा माल बिक जायेगा, सांझ होते-होते धन का ढेर लग जायेगा ।

सवेरे बहुत जल्दी उठ उसने लोगों से अपने सपने की बात कही तो वे सब उसकी बात अनसुनी कर दिल्लगी उड़ाने लगे, कहीं सपने भी सच होते है क्या ।  एक बूढ़ा बोला – देख भाई मेरी बात मान, इस प्रकार सांच झूठ करनेके बदले देवता ने जैसा कहा है वैसा  ही करने में तेरा क्या जाता है ।  वह बूढ़े की बात मान, स्नान कर संतोषी मां को दण्डवत कर घी का दीक जला, दुकान पर जा बैठा ।  थोड़ी देर में वह क्या देखता है कि सामानों के खरीददार नकद दाम में सौदा करने लगे ।  शाम तक धन का ढेर लग गया ।  माता का चमत्कार देख प्रसन्न हो मन में माता का नाम ले, घर ले जताने के वास्ते गहना, कपड़ा खरीदने लगा और वहाँ के काम से निपट कर घर को रवाना हुआ ।

वहाँ बहू बेचारी जंगल में लकड़ी लेने जाती है, लौटते वक्त मां के मन्दिर पर विश्राम करती है ।  वह तो उसका रोजाना रुकने का स्थान था ।  दूर से धूल उड़ती देख वह माता से पूछती है – हे माता ।  यह धूल कैसी उड़ रही है ।  माँ कहती है – हे पुत्री ।  तेरा पति आ रहा है ।  अब तू ऐसा कर, लकड़ियों के तीन बोझ बना ले, एक नदी के किनारे रख, दूसरा मेरे मंदिर पर और तीसरा अपने सिर पर रख ।  तेरे पति को लकड़ी का गट्ठा देखकर मोह पैदा होगा ।  वह वहाँ रुकेगा, नाश्ता-पानी बना-खाकर मां से मिलने जायेगा ।  तब तू लकड़ियों का बोझ उठाकर घर जाना और बीच चौक में गट्ठर डालकर तीन आवाजें जोर से लगाना – लो सासूजी - लकड़ियों का गट्ठा लो, भसी की रोटी दो और नारियल के खोपरे में पानी दो, आज कौन मेहमान आया है ।

माँ की बात सुन, बहू बहुत अच्छा माता ।  कहकर प्रसन्न हो लकड़ियों के तीन गट्ठे ले आई ।  एक नदी तट पर, एक माता के मंदिर में रखा, इतने मे मुसाफिर आ पहुँचा ।  सूखी लकड़ी देख उसकी इच्छा हुई कि अब यहीं विश्राम करे और भोजन बना-खाकर गांव जाये ।  इस प्रकार भोजन बना विश्राम कर, वह गाँव को गया ।  सबसे प्रेम से मिला, उसी समय बहू सिर पर लकड़ी का गट्ठा लिये आती है ।  लकड़ी का भारी बोझ आंगन में डाल, जोर से तीन आवाज देती है लो सासूजी - लकड़ियों का गट्ठा लो, भसी की रोटी दो और नारियल के खोपरे में पानी दो, आज कौन मेहमान आया है ।

यह सुनकर सास बाहर आ, अपने दिये हुये कष्टों को भुलाते हुए कहती है – बहू ऐसा क्यों कहती है, तेरा मालिक ही तो आया है ।  आ बैठ, मीठा भात खा, भोजन कर, कपड़े –गहने पहिन ।  इतने में आवाज सुन उसका स्वामी बाहर आता है और अँगूठी देख व्याकुल हो, मां से पूछता है – माँ यह कौन है ।  मां कहती है – बेटा ।  यह तेरी बहू है, आज बारह वर्ष हो गए तू जब से गया है तब से सारे गाँव में जानवर की तरह भटकती फिरती है ।  काम-काज घर का कुछ करती नहीं, चार समय आकर खा जाती है ।  अब तुझे देखकर भूसी की रोटी और नारियल के खोपरे में पानी माँगती है ।

वह लज्जित हो बोला – ठीक है माँ ।  मैंनें इसे भी देखा है ।  और तुम्हें भी देखा है ।  अब मुझे दूसरे घर की ताली दो तो उसमें रहूं ।  तब माँ बोली – ठीक है बेटा ।  तेरी जैसी मर्जी, कहकर ताली का गुच्छा पटक दिया ।  उसने ताली ले दूसरे कमरे में जो तीसरी मंजिल के ऊपर था, खोलकर सारा सामान जमाया ।  एक दिन में ही वहाँ राजा के महल जैसा ठाट-बाट बन गया ।  अब क्या था, वे दोनों सुखपूर्वक रहने लगे ।  इतने में अगला शुक्रवार आया ।  बहू ने अपने पति से कहा कि मुझे माता का उघापन करना है ।

पति बोला – बहुत अच्छा, खुशी से करो ।  वह तुरन्त ही उघापन की तैयारी करने लगी ।  जेठ के लड़कों को भोजन के लिये कहने गई ।  उसने मंजूर किया परन्तु पीछे जेठनी अपने बच्चों को सिखलाती – देखो रे ।  भोजन के समय सब लोग खटाई मांगना, जिससे उसका उघापन पूरा न हो ।  लड़के जीमने गये, खीर पेट भरकर खाई ।  परन्तु याद आते ही कहने लगे – हमें कुछ खटाई दो, खीर खाना हमें भाता नहीं, देखकर अरुचि होती है ।

बहू कहने लगी – खटाई किसी को नहीं दी जायेगी , यह तो संतोषी माता का प्रसाद है ।  लड़के तुरन्त उठ खड़े हुये, बोले पैसा लाओ ।  भोली बहू कुछ जानती नहीं थी सो उन्हें पैसे दे दिये ।  लड़के उसी समय जा करके इमली ला खाने लगे ।  यह देखकर बहू पर संतोषी माता जी ने कोप किया ।  राजा के दूत उसके पति को पकड़कर ले गये ।  जेठ-जिठानी मनमाने खोटे वचन कहने लगे – लूट-लूटकर धन इकट्ठा कर लाया था सो राजा के दूत पकड़कर ले गये ।  अब सब मालूम पड़ जायेगा जब जेल की हवा खायेगा ।

बहू से यह वचन सहन नहीं हुए ।  रोती-रोती माता के मंदिर में गई ।  हे माता ।  तुमने यह क्या किया ।  हँसाकर अब क्यों रुलाने लगी ।  माता बोली – पुत्री ।  तूने उघापन करके मेरा व्रत भंग किया है, इतनी जल्दी सब बातें भुला दीं ।  वह कहने लगी- माता भूली तो नहीं हूँ, न कुछ अपराध किया है ।   मुझे तो लड़कों ने भूल में डाल दिया ।  मैंने भूल से उन्हें पैसे दे दिये, मुझे क्षमा र दो मां।  माँ बोली ऐसी भी कहीं भूल होती है ।  वह बोली मां मुझे माफ कर दो, मैं फिर तुम्हारा उघापन करुंगी ।  मां बोली – अब भूल मत करना ।  वह बोली – अब न होगी, माँ अब बतलाओ वह कैसे आयेंगे ।  माँ बोली – जा पुत्री ।  तेरा पति तुझे रास्ते में ही आता मिलेगा ।  वह घर को चली ।  राह मं पति आता मिला ।  उसने पूछा – तुम कहां गये थे ।  तब वह कहने लगा – इतना धन कमाया है, उसका टैक्स राजा ने मांगा था, वह भरने गया था ।  वह प्रसन्न हो बोली – भला हुआ, अब घर चलो ।  कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार आया ।

वह बोली मुझे माता का उघापन करना है ।  पति ने कहा करो ।  वह फिर जेठ के लड़कों से भोजन को कहने गई ।  जेठानी ने तो एक-दो बातेंसुनाई और लड़कों को सिखा दिया कि तुम पहले ही खटाई मांगना ।  लड़के कहने लगे-हमें खीर खाना नहीं भाता, जी बिगड़ता है, कुछ खटाई खाने को देना ।  वह बोली – खटाई खाने को नहीं मिलेगी, आना हो तो आओ ।  वह ब्राहमणों के लड़के ला भोजन कराने लगी ।  यथाशक्ति दक्षिणा की जगह एक-एक फल उन्हें दिया ।  इससे संतोषी माता प्रसन्न हुई ।  माता की कृपा होते ही नवें मास उसको चन्द्रमा के समान सुन्दर पुत्र प्राप्त हुआ ।

पुत्र को लेकर प्रतिदिन माता जी के मन्दिर में जाने लगी ।  मां ने सोचा कि यह रोज आती है, आज क्यों न मैं ही इसके घर चलूं ।  इसका आसरा देखूं तो सही ।  यह विचार कर माता ने भयानक रुप बनाया ।  गुड़ और चने से सना मुख, ऊपर सूंड के समान होंठ, उस पर मक्खियां भिन-भिना रहीं थी ।  देहलीज में पाँव रखते ही उसकी सास चिल्लाई – देखो रे ।  कोई चुड़ेल डाकिन चली आ रही है ।  लड़कों इसे भगाओ, नहीं तो किसी को खा जायेगी ।  लड़के डरने लगे और चिल्लाकर खिड़की बंद करने लगे ।  छोटी बहु रोशनदान में से देख रही थी, प्रसन्नता से पगली होकर चिल्लाने लगी – आज मेरी मात जी मेरे घर आई है ।  यह कहकर बच्चे को दूध पिलाने से हटाती है ।  इतने में सास का क्रोध फूट पड़ा ।  बोली रांड ।  इसे देखकर कैसी उतावली हुई है जो बच्चे को पकट दिया ।  इतने में माँ के प्रताप से जहाँ देखो वहीं लड़के ही लड़के नजर आने लगे ।  वह बोली – माँ जी, मैं जिनका व्रत करती हूँ यह वही संतोषी माता है ।  सबने माता के चरण पकड़ लिये और विनती कर कहने लगे – हे माता ।  हम मूर्ख है, हम अज्ञानी है पापी है ।  तुम्हारे व्रत की विधि हम नहीं जानते, तुम्हारा व्रत भंग कर हमने बहुत बड़ा अपराध किया है ।  हे माता ।  आप हमारा अपराध क्षमा करो ।  इस प्रकार माता प्रसन्न हुई ।  माता ने बहू को जैसा फल दिया वैसा सबको दे ।  जो पढ़े उसका मनोरथ पूर्ण हो ।  बोलो संतोषी माता की जय ।

आरती संतोषी माता की

जय सन्तोषी माता, जय सन्तोषी माता।
अपने सेवक जन को, सुख सम्पति दाता॥ जय ..
सुन्दर चीर सुनहरी माँ धारण कीन्हों।
हीरा पन्ना दमके तन सिंगार लीन्हों॥ जय ..
गेरु लाल जटा छवि बदन कमल सोहे।
मन्द हसत करुणामयी त्रिभुवन मन मोहै॥ जय ..
स्वर्ण सिंहासन बैठी चँवर ढुरे प्यारे।
धूप दीप मधु मेवा, भोग धरे न्यारे॥ जय ..
गुड़ और चना परम प्रिय तामे संतोष कियो।
सन्तोषी कहलाई भक्तन विभव दियो॥ जय ..
शुक्रवार प्रिय मानत आज दिवस सोही।
भक्त मण्डली छाई कथा सुनत मोही॥ जय ..
मन्दिर जगमग ज्योति मंगल ध्वनि छाई।
विनय करे हम बालक चरनन सिर नाई॥ जय ..
भक्ति भाव मय पूजा अंगी कृत कीजै।
जो मन बनै हमारे इच्छा फल दीजै॥ जय ..
दु:खी दरिद्री रोगी संकट मुक्त किये।
बहु धन धान्य भरे घर, सुख सौभाग्य दिए॥ जय ..
ध्यान धरो जाने तेरौ मनवांछित फल पायौ।
पूजा कथा श्रवण कर उर आनन्द आयौ॥ जय ..
शरण गहे की लज्जा राख्यो जगदम्बे।
संकट तूही निवारे, दयामयी अम्बे॥ जय ..
संतोषी माँ की आरती जो कोई जन गावै।
ऋषि सिद्धि सुख संपत्ति जी भर के पावै॥ जय ..