DwarkaMai - Sai Baba Forum

Indian Spirituality => Stories from Ancient India => Topic started by: JR on February 12, 2007, 08:44:38 AM

Title: महाभारत - युधिष्ठिर का जुये में हारना
Post by: JR on February 12, 2007, 08:44:38 AM
हस्तिनापुर लौटते समय शकुनि ने दुर्योधन से कहा, "भाँजे! इन्द्रप्रस्थ के सभा भवन में तुम्हारा जो अपमान हुआ है उससे मुझे अत्यन्त दुःख हुआ है। तुम यदि अपने इस अपमान का प्रतिशोध लेना चाहते हो तो अपने पिता धृतराष्ट्र से अनुमति ले कर युधिष्ठिर को द्यूत-क्रीड़ा (जुआ खेलने) के लिये आमन्त्रित कर लो। युधिष्ठिर द्यूत-क्रीड़ा का प्रेमी है, अतएव वह तुम्हारे निमन्त्रण पर वह अवश्य ही आयेगा और तुम तो जानते ही हो कि पासे के खेल में मुझ पर विजय पाने वाला त्रिलोक में भी कोई नहीं है। पासे के दाँव में हम पाण्डवों का सब कुछ जीत कर उन्हें पुनः दरिद्र बना देंगे।"

हस्तिनापुर पहुँच कर दुर्योधन सीधे अपने पिता धृतराष्ट्र के पास गया और उन्हें अपने अपमानों के विषय में विस्तारपूर्वक बताकर अपनी तथा मामा शकुनि की योजना के विषय में भी बताया और युधिष्ठिर को द्यूत-क्रीड़ा के लिये आमन्त्रित करने की अनुमति माँगी। थोड़ा-बहुत आनाकनी करने के पश्चात् धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को अपनी अनुमति दे दी। युधिष्ठिर को उनके भाइयों तथा द्रौपदी के साथ हस्तिनापुर बुलवा लिया गया। अवसर पाकर दुर्योधन ने युधिष्ठिर के साथ द्यूत-क्रीड़ा का प्रस्ताव रखा जिसे युधिष्ठिर ने स्वीकार कर लिया।

पासे का खेल आरम्भ हुआ। दुर्योधन की ओर से मामा शकुनि पासे फेंकने लगे। युधिष्ठिर जो कुछ भी दाँव पर लगाते थे उसे हार जाते थे। अपना समस्त राज्य तक को हार जाने के बाद युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को भी दाँव पर लगा दिया और शकुनि धूर्तता करके इस दाँव को भी जीत गया। यह देख कर भीष्म, द्रोण, विदुर आदि ने इस जुए का बन्द कराने का प्रयास किया किन्तु असफल रहे। अब युधिष्ठिर ने स्वयं अपने आप को दाँव पर लगा दिया और शकुनि की धूर्तता से फिर हार गये।

राज-पाट तथा भाइयों सहित स्वयं को भी हार जाने पर युधिष्ठिर कान्तिहीन होकर उठने लगे तो शकुनि ने कहा, "युधिष्ठिर! अभी भी तुम अपना सब कुछ वापस जीत सकते हो। अभी द्रौपदी तुम्हारे पास दाँव में लगाने के लिये शेष है। यदि तुम द्रौपदी को दाँव में लगा कर जीत गये तो मैं तुम्हारा हारा हुआ सब कुछ तुम्हें लौटा दूँगा।" सभी तरह से निराश युधिष्ठिर ने अब द्रौपदी को भी दाँव में लगा दिया और हमेशा की तरह हार गये। अपनी इस विजय को देख कर दुर्योधन उन्मत्त हो उठा और विदुर से बोला, "द्रौपदी अब हमारी दासी है, आप उसे तत्काल यहाँ ले आइये।"