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Indian Spirituality => Stories from Ancient India => Topic started by: JR on February 12, 2007, 09:14:04 AM

Title: रामायण - बालकान्ड - विश्वामित्र का आश्रम
Post by: JR on February 12, 2007, 09:14:04 AM
राम के वचनों को सुन कर विश्वामित्र जी ने कहा, "हे वत्स! यह वास्तव में आश्रम ही है और इसका नाम सिद्धाश्रम है।" यह सुन कर लक्ष्मण ने पूछा, "गुरुदेव! इसका नाम सिद्धाश्रम क्यों पड़ा?" लक्ष्मण के इस प्रश्न के उत्तर में विश्वामित्र जी ने बताया, "इसके सम्बंध में एक कथा प्रचलित है। प्राचीन काल में यहाँ एक बार बलि नाम के एक राक्षस ने समस्त देवताओं को पराजित कर के एक महान यज्ञ का अनुष्ठान किया था। बलि बहुत पराक्रमी और बलशाली था और समस्त देवताओं को पराजित कर चुका था। इस यज्ञानुष्ठान से उसकी शक्ति में और भी वृद्धि हो जाने वाली थी। इस बात को विचार कर के देवराज इन्द्र अत्यंत भयभीत हो गया। इन्द्र सभी देवताओं को साथ लेकर भगवान विष्णु के पास पहुँचा और उनकी स्तुति करने के पश्चात् दीन स्वर में उनसे प्रार्थना की, "हे त्रिलोकपति! राजा बलि ने सभी देवताओं को परास्त कर दिया है और अब वह एक विराट यज्ञ कर रहा है। वह महादानी और उदार है। उसके द्वार से कोई भी याचक खाली हाथ नहीं लौटता। उसकी दानशीलता, तपस्या, तेजस्विता और उसके द्वारा किये गये यज्ञादि शुभ कर्मों से देवलोक सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड काँप उठा है। इस यज्ञ के पूर्ण हो जाने पर वह इन्द्रासन को प्राप्त कर लेगा। इन्द्रासन पर किसी राक्षस का अधिकार होना सुरों की परम्परा के विरुद्ध है। अतः हे शेषशायी! आप से प्रार्थना है कि आप दुछ ऐसा उपाय करें कि उसका यज्ञ पूर्ण न हो सके।" उनकी इस प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने कहा, "तुम सभी देवता निर्भय और निश्चिंत होकर अपने अपने धाम में वापस चले जाओ। तुम्हारी इच्छा पूर्ण करने के लिये मैं शीघ्र ही यहाँ से प्रस्थान करूँगा।"

देवताओं के चले जाने के बाद भगवान विष्णु वामन (बौने) का रूप धारण करके उस स्थान पर पहुँचे जहाँ पर बलि यज्ञ कर रहा था। राजा बलि इस बौने किन्तु परम तेजस्वी ब्राह्मण से बहुत प्रभावित हुये और बोले, "विप्रवर! मैं आपका स्वागत करता हूँ। आज्ञा कीजिये, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?" बलि के इस तरह कहने पर वामन रूपधारी भगवान विष्णु ने कहा, "राजन्! मुझे केवल ढाई चरण भूमि की आवश्यकता है जहाँ पर मैं बैठ कर भगवान का भजन कर सकूँ।" राजा बलि ने प्रसन्नता पूर्वक वामन को ढाई चरण भूमि नापने की अनुमति दे दी। अनुमति मिलते ही भगवान विष्णु ने विराट रूप धारण किया और एक चरण में सम्पूर्ण आकाश को और दूसरे चरण में पृथ्वी सहित पूरे पाताल को नाप लिया और पूछा, "राजन! आपका समस्त राज्य तो मेरे दो चरण में ही आ गये। अब शेष आधा चरण से मैं क्या नापूँ?"

बलि के द्वार से कभी भी कोई याचक खाली हाथ नहीं गया था। बलि इस याचक को भी निराश नहीं लौटने देना चाहता था। अतः उसने कहा, "हे ब्राह्मण! अभी मेरा शरीर बाकी है। आप मेरे इस शरीर पर अपना आधा चरण रख दीजिये।" इस तरह भगवान विष्णु ने बलि को भी अपने आधे चरण में नाप लिया। भगवान विष्णु ने बलि की दानशीलता से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि यह स्थान सदा पवित्र माना जायेगा, सिद्धाश्रम कहलायेगा और यहाँ तपस्या करने वाले को शीघ्र ही समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होंगी।

तभी से यह स्थान सिद्धाश्रम के नाम से विख्यात है और अनेक ऋषि मुनि-यहाँ तपस्या करके मुक्ति लाभ करते हैं। मेरा आश्रम भी इसी स्थान पर है। मैं यहीं बैठ कर अपना यज्ञ सम्पन्न करना चाहता हूँ। जब-जब मैने यज्ञ प्रारम्भ किया तब-तब राक्षसों ने उसमें बाधा डाली है और उसे कभी पूर्ण नहीं होने दिया। अब तुम आ गये हो और मैं निश्चिन्त होकर यज्ञ पूरा कर सकूँगा। इस प्रकार की बातें करते हुये विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मण के साथ अपने आश्रम में पदार्पण किया। वहाँ रहने वाले समस्त ऋषि मुनियों और उनके शिष्यों ने उनका स्वागत सत्कार किया। राम ने विनीत स्वर में गुरु विश्वामित्र से कहा, "मुनिराज! आप आज ही यज्ञ का शुभारम्भ कीजिये। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं आपके यज्ञ की रक्षा करते हुये इस पवित्र प्रदेश को राक्षसों से रहित कर दूँगा।" राम के इन वचनों को सुन कर विशवामित्र यज्ञ सामग्री जुटाने में लग गये।