दूसरे दिन अपने नित्यकर्मों और सन्ध्यावन्दनादि से निवृत होकर जब राम और लक्ष्मण प्रणाम करने के उद्देश्य से गुरु विश्वामित्र के पास पहुँचे। वहाँ उपस्थित आश्रमवासी तपस्वियों ने राम और लक्ष्मण को बताया कि मिथिला में राजा जनक ने धनुष यज्ञ का आयोजन किया है जिसमें देश-देशान्तर के राजा लोग भाग लेने के लिये आ रहे हैं। रामचन्द्र ने गुरु विश्वामित्र से पूछा, "गुरुदेव! इस धनुष की क्या विशेषता है और इस यज्ञ का आयोजन किस उद्देश्य से किया जा रहा है?" उनके इस प्रश्न के उत्तर में ऋषि विश्वामित्र ने कहा, "राम! जनक मिथिलापुरी के राजाओं की उपाधि है जो चिरकाल से चली आ रही है। एक समय देवरात नामक पूर्वपुरुष ने बड़ी निष्ठा और श्रद्धा के साथ यज्ञ किया था जिसमें उसने देवताओं को भी आमन्त्रित किया था। देवरात के इस यज्ञ से प्रसन्न होकर देवताओं ने उसे पिनाक नाम का धनुष प्रदान किया था। यह धनुष अत्यन्त सुन्दर, भव्य और गरिमामय है। साथ ही वह बहुत भारी और शक्तिशाली भी है। बड़े बड़े बलवान, पराक्रमी और रणकुशल योद्धा तथा शूरवीर इस पर प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर, इसे उठा भी नहीं सकते। अपनी एकमात्र रूपवती एवं लावण्यमयी कन्या सीता के स्वयंवर करने के लिये मिथिला नरेश ने प्रतिज्ञा की है कि जो भी पराक्रमी वीर राजकुमार या राजा इस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा उसके साथ वे अपनी कन्या का विवाह कर देंगे। इस यज्ञ में भाग लेने के लिये अनेक देशों के राजा एवं राजकुमार भारी संख्या में मिथिलापुरी पहुँच रहे हैं। हम लोग भी इस यज्ञ को देखना चाहते हैं। अतः तुम भी हमारे साथ मिथिला पुरी चलो। उसे देख कर तुम लोगों को भी प्रसन्नता होगी।"
महर्षि का आदेश पाकर राम और लक्ष्मण भी विश्वामित्र तथा अन्य ऋषि-मुनियों के साथ मिथिलापुरी की ओर चल पड़े। मार्ग में अनेक प्रकार के दृश्यों का अवलोकन करते हुये वे बीच बीच में आध्यात्मिक चर्चा भी करते जाते थे। इस प्रकार वे शोण नदी के तट पर पहुँचे। विश्वामित्र सहित सभी ऋषि मुनियों एवं राजकुमारों ने सरिता के शीतल जल में स्नान किया। इसके पश्चात् सन्ध्या-उपासना आदि से निवृत होकर धार्मिक कथाओं की चर्चा में व्यस्त हो गये। रात्रि अधिक हो जाने पर गुरु की आज्ञा से सभी ने वहीं विश्राम किया।
प्रातः नित्यकर्मों तथा सन्ध्यावन्दनादि से निवृत होने के पश्चात् यह मण्डली आगे की ओर बढ़ी। चलते चलते वे परम पावन गंगा नदी के तट पर पहुँचे। उस समय मध्यानह्न होने के कारण भगवान भस्कर आकाश के मध्य में पहुँच चुके थे और गंगा का दृष्य अत्यंत मनोरम दिखाई दे रहा था। अठखेलियाँ करती हुई लहरों में सूर्य के अनेकों प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहे थे। जल में कौतुकमयी मछलियाँ क्रीड़ा कर रही थीं और नभ में सारस, हंस जैसे पक्षी अपनी मीठी बोली में बोल रहे थे। दूर दूर तक सुनहरे बालू के कण बिखरे पड़े थे और तटवर्ती वृक्षों की निराली शोभा दृष्टिगत हो रही थी।
राम इस दृष्य को अपलक दृष्टि से देख रहे थे। उन्हें देख कर विश्वामित्र ने पूछा, "वत्स! इतना भावविभोर होकर तुम क्या देख रहे हो?" राम ने कहा, "गुरुदेव! मैं सुरसरि की इस अद्भुत छटा को देख रहा हूँ। इस परम पावन सलिला के दर्शन मात्र से मेरे हृदय को अपूर्व शान्ति मिल रही है। भगवन्! मैं आपके श्रीमुख से यह सुनना चाहता हूँ कि इस कलुषहारिणी पवित्र गंगा की उत्पत्ति कैसे हुई? राम का प्रश्न सुन कर ऋषि विश्वामित्र बोले, "हे राम! अनेक प्रकार के कष्टों और तापों का निवारण करने वाली गंगा की कथा अत्यंत मनोरंजक तथा रोचक है। मैं तुम सभी को यह कथा सुनाता हूँ।