दूसरे दिन ऋषि विश्वामित्र अपनी मण्डली के साथ प्रातःकाल ही मिथिलापुरी की ओर चल पड़े। चलते चलते वे विशाला नगरी में पहुँचे जहाँ पर सुन्दर मन्दिर और विशाल अट्टालिकायें शोभायमान हो रही थीं। बड़ी बड़ी दुकानें, मूल्यवान आभूषणों को धारण किये हुये स्त्री-पुरुष आदि नगर की सम्पन्नता का परिचय दे रहे थे। चौड़ी-चौड़ी और साफ सुथरी सड़कों को देख कर ज्ञात होता था कि नगर के रख-रखाव और व्यवस्था अत्यन्त सुनदर और प्रशंसनीय थी।
विशाला नगरी को पार कर के विश्वामित्र जी की यह मण्डली जनकपुरी पहुँची। जनकपुरी में नगर के बाहर सुरम्य प्रदेश में एक मनोहर यज्ञशाला का निर्माण किया गया था जिसमें विभिन्न प्रान्तों से आये हुये वेदपाठी ब्राह्मण मधुर ध्वनि में वेद मन्त्रों का सस्वर पाठ कर रहे थे। आकर्षक शोभायुक्त यज्ञ मण्डप को देख कर राम ने कहा, "हे गुरुदेव! इस यज्ञशाला की छटा मेरे मन को मोह रही है और विद्वान ब्राह्मणों के आनन्द दायक मन्त्रोच्चार को सुन कर मेरा मन पुलकित हो रहा है। कृपा करके इस यज्ञ मण्डप के समीप ही हम लोगों के ठहरने की व्यवस्था करें ताकि वेद मन्त्रों की ध्वनि हमारे मन मानस को निरन्तर पवित्र करती रहे।"
जब राजा जनक को सूचना मिली कि ऋषि विश्वामित्र अपनी शिष्य मण्डली तथा अन्य ऋषि-मुनियों के साथ जनकपुरी में पधारे हैं तो उनके दर्शनों के लिये वे राजपुरोहित शतानन्द को लेकर यज्ञशाला पहुँचे। विश्वामित्र जी का पाद्य, अर्ध्य आदि से पूजन करके राजा जनक बोले, "हे महर्षि! आपने यहाँ पधार कर और अपने दर्शन देकर हम लोगों को कृतार्थ कर दिया है। आपके चरणधूलि से यह मिथिला नगरी पवित्र हो गई है।" फिर राम और लक्ष्मण की ओर देखकर बोले, "हे मुनिवर! आपके साथ ये परम तेजस्वी सिंह-शावक जैसे अनुपम सौन्दर्यशाली दोनों कुमार कौन हैं? इनकी वीरतापूर्ण आकृति देख कर प्रतीत होता है मानो ये किसी राजकुल के दीपक हैं। ऐसे सुन्दर, सुदर्शन कुमारों की उपस्थिति से यह यज्ञशाला ऐसी शोभायुक्त लग रही है जैसे प्रातःकाल भगवान भुवन-भास्कर के उदय होने पर प्राची दिशा सौन्दर्य से परिपूर्ण हो जाती है। कृपा करके बताइये कि ये कौन हैं? कहाँ से आये हैं? इनके पिता और कुल का नाम क्या है?"
राजा जनक के प्रश्नों को के उत्तर में ऋषि विश्वामित्र ने कहा, "हे राजन्! ये दोनों बालक वास्तव में राजकुमार हैं। ये अयोध्या नरेश सूर्यवंशी राजा दशरथ के पुत्र रामचन्द्र और लक्ष्मण हैं। ये दोनों बड़े वीर और पराक्रमी हैं। इन्होंने सुबाहु, ताड़का आदि के साथ बहुत भयंकर युद्ध करके उनका नाश किया है। मारीच जैसे महाबली राक्षस को तो राम ने एक ही बाण से सौ योजन दूर समुद्र में फेंक दिया। अपने यज्ञ की रक्षा के लिये मैं इन्हें अयोध्यापति राजा दशरथ से माँगकर लाया था। मैंने इन्हें नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्रों की शिक्षा प्रदान की है। इनके प्रयत्नों से मेरा यज्ञ निर्विघ्न सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया। अपने सद्व्यवहार, विनम्रता एवं सौहार्द से इन्होंने आश्रम में रहने वाले समस्त ऋषि मुनियों का मन मोह लिया है। आपके इस महान धनुषयज्ञ का उत्सव दिखाने के लिये मैं इन्हें यहाँ लाया हूँ।"
इस वृतान्त को सुन कर राजा जनक बहुत प्रसन्न हुये और उन सबके ठहरने के लिये यथोचित व्वयस्था कर दिया।