महाराज दशरथ ने सपत्नीक राजकुमारों, गुरु वशिष्ठ, मन्त्रियों तथा परिजनों के साथ अयोध्या की ओर प्रस्थान किया। प्रस्थान करते ही मन्त्रियों ने शीघ्र ही दो दूतों को सभी के वापस आने की सूचना देने के लिये अयोध्या भेज दिये। उन दूतों के द्वारा सूचना मिलने पर नगर के सभी चौराहों, अट्टालिकाओं, मन्दिरों एवं महत्वपूर्ण मार्गों को नाना प्रकार की रंग-बिरंगी ध्वजा-पताकओं से सजाया गया। राजमार्ग पर बड़े सुरम्य द्वार बनाये गये। उन पर तोरण लगाये गये। सड़कों पर केवड़े और गुलाब आदि का जल छिड़का गया। हाट बाजारों को सुन्दर चित्रों, मांगलिक प्रतीकों वन्दनवारों आदि से बड़ी सुरुचि के साथ सजाया गया। सारी अयोध्या में अभूतपूर्व उल्लास छा गया। नाना प्रकार के वाद्य बजने लगे। घर-घर में मंगलगान होने लगे।
जब नगरवासियों को ज्ञात हुआ कि बारात लौटकर अयोध्या के निकट पहुँच गई है और नगर के मुख्य द्वार में प्रवेश करने ही वाली है तो सुन्दर, सुकुमार, रूपवती, लावण्मयी कुमारियाँ अनेक रत्नजटित वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर आगन्तुकों का स्वागत करने के लिये आरतियाँ लेकर पहुँच गईं। ज्योंही महाराज दशरथ और राजकुमार स्वर्णिम फूलों से सुसज्जित सोने के हौदे वाले हाथियों पर बैठकर नगर के द्वार में प्रविष्ट हुये, चारों ओर उनकी जयजयकार होने लगी। ऊँची ऊँची अट्टालिकाओं पर बैठी हुई सुन्दर सौभाग्वती रमणियाँ उन पर पुष्पवर्षा करने लगीं। जनक पुरी की राजकुमारियों और अब अयोध्या की नववधुओं - सीता, उर्मिला, माण्डवी और श्रुतकीर्ति - को देखने के लिये अट्टालिकाओं की खिड़कियाँ और छज्जे दर्शनोत्सुक युवतियों, कुमारियों से ही नहीं प्रौढ़ाओं एवं वृद्धओं से खचाखच भर गये। झाँकी देखने के लिये सभी परस्पर स्पर्द्धा होने लगी।
सवारी के राजप्रसाद में पहुँचने पर समस्त रानियों ने द्वार पर आकर अपनी वधुओं की अगवानी की। महारानी कौशल्या, कैकेयी एवं सुमित्रा ने आगे बढ़कर बारी-बारी से चारों वधुओं को अपने हृदय से लगा लिया और असंख्य हीरे मोती उन पर न्यौछावर करके उपस्थित याचकों में बाँट दिये। फिर मंगलाचार के गीत गाती हुईं चारों राजकुमाररों और उनकी सहधर्मिणियों को राजप्रासाद के अन्दर ले आईं। महाराज दशरथ ने भी इस अपूर्व आनन्द के अवसर पर दान देने के लिये राजकीय कोष के द्वार खोल दिये और मुक्त हस्त होकर नगरवासी ब्राह्मणों को भूमि, स्वर्ण, रजत, हीरे, मोती, रत्न, गौएँ, वस्त्रादि दान में दिये।
जब राजकुमारों को राजप्रासाद में रहते कुछ दिन आनन्दपूर्वक व्यतीत हो गये तो महाराज दशरथ ने भरत को बुलाकर कहा, "वत्स! तुम्हारे मामा युधाजित को आये हुये पर्याप्त समय हो गया है। तुम्हारे नानी-नाना तुम्हें देखने के लिये आकुल हो रहे हैं। अतः तुम कुछ दिनों के लिये अपने नाना के यहाँ चले जाओ।" पिता से आदेश पाकर भरत ने शत्रुघ्न सहित अपनी माताओं तथा राम और लक्ष्मण से विदा लेकर अपने मामा युधाजित के साथ कैकेय देश के लिये प्रस्थान किया। उनके जाने के पश्चात् राम और लक्ष्मण हृदय से अपनी तीनों माताओं और पिता की सेवा करने लगे। सभी उनसे प्रसन्न थे।
राम ने अपने सौम्य स्वभाव, दयालुता और सदाचरण से अपने प्रासाद के निवासियों का ही नहीं, समस्त पुर के स्त्री-पुरुषों का हृदय जीत लिया था। वे सबकी आँखों के तारे बन गये थे तथा अत्यंत लोकप्रिय हो गये थे। परिवार के सदस्य उनकी विनयशीलता, मन्त्रीगण उनकी नीतिनिपुणता, नगरनिवासी उनके शील-सौजन्य और सेवकगण उनकी उदारता का बखान करते नहीं थकते थे। सीता के मधुभाषी स्वभाव, सास-ससुर की सेवा, पातिव्रत्य धर्म आदि सद्गुणों ने सभी लोगों के हृदय को मोह लिया। नगर निवासी राम और सीता की युगल जोड़ी को देखकर फूले नहीं समाते थे। घर-घर में उनके प्रेम और सद्व्यवहार की उदाहरण के रूप में चर्चा की जाती थी।