राम अपनी माता कौशल्या से विदा ले कर जनकनन्दिनी सीता के कक्ष में पहुँचे। राजसी चिह्नों के बिना राम को अपने कक्ष में आते देख सीता ने पूछा, "प्राणनाथ! आज राज्याभिषेक के दिन मैं आपको राजसी चिह्नों से विहीन देख रही हूँ। इसका क्या कारण है?" राम ने गंभीर किन्तु शान्त वाणी में समस्त घटनाओं के विषय में सीता को बताते हुये कहा, "प्रिये! मुझे आज ही वक्कल धारण करके वन के लिये प्रस्थान करना है। मैं तुमसे विदा लेने आया हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरे जाने के बाद सेवा सुश्रूषा और अपने मृदु स्वभाव से माता-पिता तथा समस्त भरत सहित समस्त परिजनों को प्रसन्न और सन्तुष्ट रखना। जिस प्रकार तुम अब तक मेरी प्रत्येक बात श्रद्धापूर्वक मानती आई हो उसी प्रकार अब भी मेरी इच्छानुसार तुम यहाँ रहकर अपने कर्तव्य का पाल करो।"
सीता बोलीं, "हे आर्यपुत्र! शास्त्रों ने पत्नी को अर्द्धांग माना है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि महाराज ने केवल आपको ही नहीं मुझे भी वनवास दिया है। ऐसा कोई विधान नहीं है कि पुरुष का आधा अंग वन में रहे और आधा घर में। हे नाथ! स्त्री की गति तो उसका पति ही होता है। इसलिये मैं भी आपके साथ वन चलूँगी। मैं वन में आपके साथ रहकर आपके चरणों के सेवा करूँगी। स्त्री को पति की सेवा करके जो अनुपम सुख प्राप्त होता है है वह सुख इस लोक में तो क्या परलोक में भी प्राप्त नहीं होता। पत्नी के लिये पति ही परमेश्वर होता है। जिस प्रकार आप कन्द-मूल-फलादि से अपनी उदर पूर्ति करेंगे उसी प्रकार मैं भी अपना पेट भर लूँगी। आपके बिना स्वर्ग का सुख-वैभव भी मुझे स्वीकार्य नहीं है। मेरी इस विनय और प्रार्थना की उपेक्षा करके भी यदि आप मुझे अयोध्या में छोड़ जायेंगे तो जिस क्षण आप वन के लिये पग बढ़ायेंगे उसी क्षण मैं अपने प्राणों को विसर्जित कर दूँगी। इसे आप मेरे प्रतिज्ञा समझें।"
वन के कष्टों का स्मरण करके राम सीता को अपने साथ वन में नहीं ले जाना चाहते थे। जितना ही वे उन्हें समझाने का प्रयत्न करते उतना ही वे अधिक हठ पकड़ती जातीं। राम ने सीता को हर तरह से समझाने बुझाने का प्रयास किया किन्तु वे अनेक प्रकार के शास्त्र सम्मत तर्क करके उनके प्रयास को विफल करती जातीं। अन्त में उनकी दृढ़ता को देख कर राम को उन्हें अपने साथ वन जाने की आज्ञा देनी ही पड़ी। जब लक्ष्मण को राम के साथ वन जाने का समाचार मिला तो वे भी राम के पास आकर उनके साथ जाने के लिये अनुग्रह करने लगे। राम के बहुत तरह समझाया बुझाया कि वे अयोध्या में रह कर माता पिता की सेवा करें किन्तु लक्ष्मण उनके साथ जाने के विचार पर दृढ़ रहे और अन्त में राम को लक्ष्मण को भी साथ जाने की अनुमति देनी ही पड़ी।
कौशल्या और सुमित्रा दोनों माताओं से आज्ञा लेने बाद सीता और लक्ष्मण ने अनुनय विनय कर के महाराज दशरथ से भी वन जाने की अनुमति प्राप्त कर ली। फिर वे शीघ्र आचार्य के पास पहुँचे और उनसे समस्त अस्त्र-शस्त्रादि लेकर राम के पास उपस्थित हो गये। लक्ष्मण के पहुँचने पर राम ने कहा, "वीर! तुम गुरु वशिष्ठ के ज्येष्ठ पुत्र को बुला लाओ क्योंकि वन के लिये प्रस्थान करने के पूर्व मैं अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति ब्राह्मणों, दास दासियों तथा याचकों में वितरित करना चाहता हूँ।"